Opinion

कॉप-26: यह वक्त बर्बाद करने का नहीं बल्कि साहस, कल्पना और सहयोग का है

यह साल का फिर वही वक्त है. दो साल की गैरमौजूदगी के बाद विश्व के नेता और अधिकारी यूनाइटेट किंगडम (यूके) के ग्लास्गो में मुलाकात कर बातचीत करेंगे कि जलवायु परिवर्तन को लेकर क्या किया जाना चाहिए.

यह बैठक संयुक्त राष्ट्र की शीर्ष संस्था इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) की उस कठोर चेतावनी के बाद होने जा रही है, जिसमें कहा गया है कि मौसमी आपदाएं बद से बदतरीन होती जाएंगी. ये पृथ्वी के लिए बड़े खतरे का संकेत है.

यह ऐसे समय में भी हो रहा है, जब साल 2021 का नोबेल शांति पुरस्कार युवा कार्यकर्ता ग्रेटा थनबर्ग को नहीं दिया गया है, जबकि माना जा रहा था कि उन्हें इस बार शांति पुरस्कार मिल सकता है. हालांकि इसके बावजूद युवाओं की आवाज मजबूत है.

बहरहाल, जलवायु परिवर्तन पर यूएन फ्रेमवर्क कनवेंशन के 26वें कांफ्रेंस ऑफ पार्टीज (कॉप-26) का एजेंडा क्या होना चाहिए?

पहला, जलवायु अन्याय की हकीकत को मिटाने के लिए काम नहीं किया जाए, बल्कि भविष्य के लिए इसे स्वीकार किया जाए. साल 1992 में रिओ सम्मेलन में जब जलवायु परिवर्तन पर यूएन फ्रेमवर्क कनवेंशन को लेकर सहमति बनी थी, तो वो साझा, मगर पृथक जिम्मेदारी के सिद्धांत पर आधारित थी.

इसका सीधा मतलब था कि पहले से अमीर देश कार्बन उत्सर्जन घटाएंगे, विकासशील देशों के विकास के लिए जगह बनाएंगे तथा विकासशील देश समर्थकारी फंड व तकनीकों के जरिए अलग तरीके से खुद को विकसित करेंगे. लेकिन, अगले 30 सालों में सबसे बड़ी कोशिश इसकी अनदेखी व अंतत: जलवायु वार्ता में तय किये गये साझेदारी के सिद्धांतों को मिटाने के लिए की गई है.

साल 2015 के पेरिस समझौते की प्रशंसा सभी ने की थी, इसमें इस ऐतिहासिक जिम्मेदारी की आखिरी निशानी को भी मिटा दिया गया. जलवायु न्याय को एकदम नीचे की तरफ धकेल दिया गया. कार्बन उत्सर्जन के आंकड़ों को किसी भी तरीके से अलग कर देखें, तो हम इस असुविधाजनक सच्चाई से रूबरू होते हैं कि कुछ देश जिनमें चीन के साथ अन्य सात अमीर मुल्क शामिल हैं, ने कार्बन बजट के बराबर कार्बन उत्सर्जन कर दिया है.

इन देशों का साझा कार्बन उत्सर्जन ही वजह है कि दुनिया प्रलय की ओर बढ़ रही है. दूसरी असुविधाजनक सच्चाई ये है कि बाकी दुनिया के 70 प्रतिशत देशों को आगे बढ़ने का अधिकार चाहिए. दुनिया के इस हिस्से को रोका नहीं जा सकता है; इन्हें डराया और न्यूनतम कार्बन उत्सर्जन के लिए धमकाया नहीं जा सकता है.

कार्बन उत्सर्जन किये बिना इनके विकास, जो दुनिया को और भी खतरे में डालेगा, के लिए और अधिक फंडिंग और तकनीकी सहयोग की जरूरत है. ये दान नहीं, बल्कि सभी के भले के लिए टूटे हुए को दोबारा जोड़ने की बात है. साझेदारी और ईमानदारी के बिना प्रभावी और महात्वाकांक्षी जलवायु समझौता नहीं हो सकता है. ये शर्त है.

दूसरा एजेंडा है, नेट जीरो उत्सर्जन में बदलाव को रोकना. क्योंकि ये केवल अन्याय को बढ़ावा देता है और कार्रवाई को सुस्त करता है. आईपीसीसी कहता है कि साल 2050 तक दुनिया को नेट जीरो लक्ष्य और तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस से कम करने के लिए साल 2030 तक कार्बन उत्सर्जन को साल 2010 के स्तर पर लाना है.

अगर दुनिया को साल 2050 तक नेट जीरो होना है, तो भिन्नता को लागू करना होगा और अमीर देशों (7+1) को जल्द से जल्द साल 2030 तक नेट जीरो लक्ष्य हासिल करना होगा. हमें सभी देशों खासकर पहले से और अभी उत्सर्जन कर रहे मुल्कों को लेकर स्पष्ट योजना चाहिए.

तीसरा एजेंडा, चीन पर फोकस करना होना चाहिए. लंबे समय से चीन, 77 के समूह यानी विकासशील देशों की आड़ में छिपता रहा है और उसने अपने इरादे का खुलासा नहीं किया है. आने वाले दशक में चीन कार्बन बजट के 30 प्रतिशत पर कब्जा कर लेगा; इसके पास कार्बन उत्सर्जन पूरी तरह कम करने का लक्ष्य नहीं है. इस लंबे खेल में चीन की इच्छा है कि साल 2030 तक वह बाकी बड़े प्रदूषक देशों के बराबर फायदा हासिल कर ले. इसका अर्थ है कि दुनिया के बाकी हिस्सों के लिए आगे बढ़ने की कोई जगह नहीं बची है.

यह अस्वीकार्य है. चीन आज पूर्व का अमरीका है और ये देखना मुश्किल है कि दुनिया कैसे इसकी आलोचना करेगी.

चौथा एजेंडा है, एक असल, स्पष्ट और जिस स्तर पर बदलाव की जरूरत है उसके लिए वित्त की व्यवस्था. लंबे समय से ये वादा छवियों में गुम हो गया है. इसने देशों के बीच भरोसा तोड़ने का काम किया है. यह एजेंडा बाजार आधारित तंत्र पर विमर्श से जुड़ा हुआ है, जो कॉप-26 के विमर्श में शामिल है. फिलहाल विकासशील दुनिया से उत्सर्जन कम करने के लिए ‘सस्ती’ खरीद के रचनात्मक तरीकों की तलाश करने की कोशिश हो रही है. ये विध्वंसकारी क्लीन डेवलपमेंट मकेनिज्म को दोबारा शुरू करना है, लेकिन इरादा वैसा ही है. इससे जलवायु परिवर्तन के संकट में इजाफा ही होगा.

आज की सच्चाई यही है कि भारत व अफ्रीकी मुल्क समेत दुनिया को उत्सर्जन कम करने पर काम करना चाहिए.

इन देशों में सस्ता कार्बन उत्सर्जन मुआवजे के विकल्पों की जगह बाजार तंत्र को परिवर्तनकारी और महंगे विकल्पों को फंड करने का रास्ता तैयार करना चाहिए. इसका मतलब है कि जो तंत्र फंड करेगा, उसे नुकसान की भरपाई के खर्च को बाजार निर्धारित मूल्य के आधार पर डिजाइन किया जाना चाहिए. यानी कि सिर्फ बातें ही नहीं, बल्कि उस पर तेजी से अमल भी.

कॉप-26 के लिए पांचवा एजेंडा, लगभग ठप पड़ चुका ‘नुकसान और क्षति’ पर विमर्श है. हम अजीबोगरीब मौसमी गतिविधियों के चलते बड़ा नुकसान देख रहे हैं. हर आपदा के दोहराव के बाद लोग इससे मुकाबला करते हुए उसी आपदाग्रस्त और बारंबार आपदा झेल रहे क्षेत्रों में रहने की क्षमता खो देते हैं; दरिद्र और निराश हो जाते हैं. ये उनकी असुरक्षा बढ़ाती है और साथ ही दुनिया की भी. जलवायु परिवर्तन न्याय के लिए संघर्ष करने वाला है.

अतएव, ये नुकसान और क्षति की जिम्मेदारी लेने के लिए एक प्रभावी समझौता करने और प्रदूषकों को जिम्मेदार ठहराने का वक्त है. ये प्रदूषकों के भुगतान करने का वक्त है.

कॉप-26 को अहसास होना चाहिए कि यह साहस, कल्पना, सहयोग का वक्त है. सुविधा सम्पन्न ही नहीं, बे आवाज और शेष दुनिया के लोग और खासकर युवा देख रहे हैं. ये समय बर्बाद करने का नहीं, कार्रवाई करने का वक्त है.

(साभार- डाउन टू अर्थ)

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