Opinion

लखनऊ में जुटी भारी भीड़ इस बात की ताकीद करती है कि बहुजन आंदोलन का अभी अंत नहीं हुआ

कांशीराम 1977 में मायावती के परिवार से मिले थे. तब उन्होंने मायावती से कहा था, ‘मैं एक दिन तुम्हें इतना बड़ा नेता बनाऊंगा कि आईएएस अफसरों की पूरी लाइन तुम्हारे ऑर्डर के लिए खड़ी हो जाएगी.’ इसके बाद बहुजन समाज पार्टी ने उत्तर प्रदेश में 1997, 2002 और फिर चौथी बार 2007 में सरकार बनायी. बीते 14 साल से मायावती और कांशीराम की बनायी उनकी पार्टी बसपा सत्‍ता से बाहर है, लेकिन शनिवार को लखनऊ में कांशीराम की पुण्‍यतिथि पर मायावती की रैली में जैसी भीड़ जुटी, वह अपने आप में कांशीराम के राजनीतिक सफर को याद करने का आज एक बड़ा कारण है.

डॉ. भीमराव अंबेडकर के बाद कांशीराम को दलित आंदोलन का दूसरा सबसे बड़ा नाम माना जाता है. बहुजन नायक या साहेब के नाम से मशहूर कांशीराम ने 1984 में एक नये आंदोलन की शुरुआत की और उसे नाम दिया ‘बहुजन समाज पार्टी’. ये वो पार्टी बनी जिसने आगे चलकर चार बार भारत के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में सरकार बनायी. साथ ही कई बार केंद्र की सरकारों में अहम भूमिका निभायी.

15 मार्च, 1934 को जन्मे कांशीराम पंजाब के रोपड़ जिले के खवासपुर गांव के रामदसिया समुदाय के दलित थे. कांशीराम का गांव छुआछूत के कलंक से मुक्त था. उन्होंने अपनी बीएससी पूरी करने के बाद 1957 में महाराष्ट्र के पुणे में डीआरडीओ में बतौर असिस्टेंट साइंटिस्ट ज्वाइन किया. जातिगत भेदभाव से उनका सामना पहली बार यहीं की एक्सप्लोसिव रिसर्च एंड डेवलपमेंट लैबोरेटरी (ERDL) में काम करते समय हुआ, जहां मैनेजमेंट ने बाबासाहेब अंबेडकर जयंती और बुद्ध जयंती की छुट्टियों को रद्द कर दिया था. ये इन दो छुट्टियों को बहाल करने का संघर्ष ही था जिसने कांशीराम को दलित समुदाय के हितों के लिए लड़ने के लिए प्रेरित किया.

अंबेडकर के लेखन, खासकर ‘The Annihilation of Caste’ ने कांशीराम के अंदर अपनी पहचान को लेकर गर्व और दलितों को एक साथ लाने की इच्छा पैदा की. उन्होंने रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया के लिए आठ साल तक काम किया, लेकिन पार्टी के काम करने के तरीके से उनका मोहभंग हो गया.

मैं कभी शादी नहीं करूंगा, मैं अपने पास कोई संपत्ति नहीं रखूंगा, मैं फुले-अंबेडकर आंदोलन के लक्ष्यों को हासिल करने के लिए अपनी पूरी जिंदगी समर्पित करूंगा. कांशीराम

दलितों की दुर्दशा को समझने के लिए कांशीराम साइकिल से देशभर में घूमे और उन्होंने 1978 में ऑल इंडिया एससी, एसटी, ओबीसी और माइनॉरिटी एम्प्लॉयी एसोसिएशन (BAMCEF) का गठन किया. ये एक गैर-राजनीतिक, गैर-धार्मिक संगठन था. इसके बाद 1981 में कांशीराम ने दलित शोषित समाज संघर्ष समिति (DS4) की शुरुआत की.

1962 में उन्होंने ‘The Chamcha Age (an Era of the Stooges)’ नाम की किताब लिखी, जिसमें उन दलित नेताओं की निंदा की गयी थी जिन्होंने अपने फायदे के लिए कांग्रेस जैसी पार्टियों के लिए काम किया.

जब कांशीराम को समझ आया कि दलित आंदोलन बिना राजनीतिक जमीन के नहीं पनप सकता, तो उन्होंने 14 अप्रैल 1984 को बहुजन समाज पार्टी की स्थापना की. कांशीराम ने पाली भाषा के शब्द ‘बहुजन’ का इस्तेमाल कर सभी अल्पसंख्यकों को अपने साथ एक बैनर तले लाने की कोशिश की.

1988 के इलाहाबाद लोकसभा उपचुनाव में कांशीराम ने वीपी सिंह के खिलाफ चुनाव लड़ा और उन्हें 70,000 वोटों से हार मिली. उनकी हार का सिलसिला चलता रहा और 1989 में पूर्वी दिल्ली संसदीय क्षेत्र के चुनाव में वो चौथे नंबर पर रहे.

किस्मत तब बदली जब उन्होंने 1991 में इटावा लोकसभा सीट पर चुनाव जीता. 1996 में कांशीराम ने होशियारपुर लोकसभा सीट पर जीत हासिल की. 1993 में उन्होंने समाजवादी पार्टी से हाथ मिलाकर उत्तर प्रदेश में सरकार बनायी.

नब्‍बे के दशक की शुरुआत में कांशीराम ने ‘मनुवादियों’ और सवर्णों के खिलाफ आक्रामक मुहिम छेड़ी, लेकिन जल्दी ही उन्हें सभी जातियों की अहमियत समझ आ गयी और उन्हें ब्राह्मण, बनिया और मुसलमानों का भी समर्थन मिला जिससे उस दशक में कांग्रेस का लगभग पूरा वोट बैंक उनके पाले में आ गया.

कांशीराम को डायबिटीज समेत कई बीमारियों ने घेरा हुआ था. 1994 में उनको दिल का दौरा पड़ा, 1995 में दिमाग की एक नस में खून का थक्का जम गया और 2003 में एक और दौरा पड़ा. इस दौरे के बाद कांशीराम अपने निधन तक बिस्तर पर ही रहे.

2002 में कांशीराम ने 14 अक्टूबर 2006 को बौद्ध धर्म अपनाने की इच्छा जतायी थी. इसी तारीख को अंबेडकर के बौद्ध धर्म अपनाने के 50 साल पूरे होने वाले थे लेकिन 9 अक्‍टूबर 2006 को दिल का दौरा पड़ने से उनका देहांत हो गया. उनका अंतिम संस्कार बौद्ध धर्म के मुताबिक किया गया और मायावती ने ही उनको मुखाग्नि दी. कांशीराम के अवशेष आज भी नोएडा के दलित प्रेरणा स्थल में रखे हैं.

लखनऊ में बनाये कांशीराम स्‍मारक स्‍थल पर उनकी इस पुण्‍यतिथि पर जुटी भारी भीड़ इस बात की ताकीद करती है कि बहुजन आंदोलन का अभी अंत नहीं हुआ है.

(साभार- जनपथ)

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