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मुस्लिम-विरोध और हिंसा: वीएचपी की 10 पत्रिकाओं का लेखाजोखा
किताबें, अखबार और पत्रिकाएं जहरीली विचारधारा प्रसारित करने का सबसे महत्वपूर्ण हथियार है. सोवियत नेता जोसेफ स्टालिन ने एक बार कहा था, "किताबें अन्य सभी प्रचार माध्यमों से मुख्य रूप से भिन्न होती हैं क्योंकि एक पुस्तक किसी भी अन्य माध्यम से ज्यादा, पाठक के दृष्टिकोण को महत्वपूर्ण रूप से बदल सकती है."
लगभग 1870 से 1918 तक भारतीय राष्ट्रवादी आंदोलन के प्रारंभिक चरण में राजनीतिक प्रचार और शिक्षा, राष्ट्रवादी विचारधारा के गठन और प्रसार, प्रशिक्षण, लामबंदी और जनता की राय बदलने में पत्रिकाओं और अखबारों ने मुख्य भूमिका निभाई थी.
आज भी खास विचारधारा के प्रचार के लिए प्रिंट मीडिया की सहायता ली जा रही है. इन पत्रिकाओं में हिंसक और उग्रवादी सामग्री होती है जिसके जरिए पाठक के मन में जाने- अनजाने नफरती बीज बोया जाता है.
विश्व हिंदू परिषद (वीएचपी) ऐसा ही काम करता है. यह हिंदूवादी संगठन हमेशा से मुसलमान विरोधी रहा है. 1992 में अयोध्या विवाद पर बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद से यह संगठन और अधिक मुखर हो गया. यही नहीं साल 2018 में अमेरिका की केंद्रीय खुफिया एजेंसी (सीआईए) ने 'वर्ल्ड फैक्टबुक' के अपने संस्करण में वीएचपी और बजरंग दल को "धार्मिक उग्रवादी संगठन" के रूप में नामित किया था.
अपनी मुस्लिम-विरोधी और कट्टर हिंदू विचारधारा को ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाने के लिए वीएचपी प्रकाशनों की मदद लेता है. यह संगठन अलग-अलग भाषाओं में 10 पत्रिकाएं प्रकाशित करता है. इन सभी पत्रिकाओं का कंटेंट अलग रहता है. हिंदी में पत्रिकाएं- हिंदू विश्व, हिंदू चेतना, समरसता सेतु, गोसंपदा और अभिव्यक्ति सौरभम् प्रकाशित करता है. वहीं मराठी में हिंदू बोध, बंगाली में विश्व हिंदू वार्ता, मलयालम में हिंदू विश्व मलयालम व अन्य भाषाओं में हिंदूवाणी और विश्व हिंदू वार्ता भी प्रकाशित करता है. यह पत्रिकाएं चेन्नई, दिल्ली, बेंगलुरु, कोलकाता जैसे बड़े शहरों के अलावा उत्तर प्रदेश से भी प्रसारित होती हैं. सबके संपादक और कीमत अलग-अलग हैं.
कैसे चुने जाते हैं लेख?
इन सभी पत्रिकाओं में छपे लेख संपादक द्वारा चुने जाते हैं. यह लेख वीएचपी की विचारधारा से संबंधित होने चाहिए. अधिकतर सभी लेख जिहाद, जनसंख्या और समान नागरिक संहिता पर आधारित होते हैं. लगभग सबके निशाने पर मुसलमान समुदाय होता है.
न्यूज़लॉन्ड्री ने हिंदू विश्व पत्रिका के संपादक विजय शंकर तिवारी से बात की. उन्होंने बताया, "हमारे पास लेखकों की लिस्ट होती है. ज़रूरी नहीं है कि ये लेखक वीएचपी के ही लोग हों. ज्यादातर लेखक समाज के अलग-अलग वर्गों और पेशे से संबंध रखते हैं. हम लोग हफ्ते के सबसे चर्चित विषय पर लिखने की कोशिश करते हैं और उसी को पत्रिका की थीम बनाया जाता है. फिर इन लेखकों को सूचित कर, लेख मंगाए जाते हैं. ये लेख उन विषयों पर होते हैं जिसके लिए वीएचपी जागरूकता फैलाने का काम करता है."
पत्रकार रवि पराशर नियमित रूप से वीएचपी की अलग-अलग पत्रिका में लेख लिखते हैं. उनके परिचय में लिखा है रवि पराशर 30 साल से प्रिंट, टीवी और डिजिटल पत्रकारिता करते आ रहे हैं. उन्होंने अमर उजाला, ज़ी, आज तक जैसे संस्थानों में काम किया. वह 2015 में दूरदर्शन की प्राइम टाइम और मिड प्राइम टाइम कंटेंट सिलेक्शन टीम के चेयरमैन भी थे.
विजय शंकर तिवारी आगे बताते हैं कि इन लेखों का कोई फैक्ट- चेक नहीं होता व यह सभी लेखक के अपने विचार होते हैं.
वीएचपी की एक अन्य पत्रिका गोसंपदा का मूल्य 15 रुपए है. इसके संपादक देवेंद्र नायक हैं. यह पत्रिका खासतौर से 'गोभक्तों' को समर्पित है. यानी इसमें मौजूद अधिकतर लेख गोरक्षा के बारे में होते हैं. इसमें आखिर के दो लेख अंग्रेजी में होते हैं. गोसंपदा के प्रचार-प्रसार प्रमुख जय प्रकाश गर्ग ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया, “पत्रिका से जमा होने वाली राशि का इस्तेमाल वीएचपी की गोशालाओं को चलाने के लिए किया जाता है. इस पत्रिका के ज़रिए हम गोरक्षा, गोबर और गौमूत्र का ना केवल धार्मिक बल्कि वैज्ञानिक महत्व भी बताते हैं.”
इन 10 पत्रिकाओं में से एक हिंदू चेतना पाक्षिक पत्रिका है. इस पत्रिका में कई लेख छपे रहते हैं. खास बात यह है कि पत्रिका में ज्यादातर लेख किसी न किसी अन्य पत्रिका या अखबार में प्रकाशित लेख होते हैं. जिन्हें साभार के साथ छापा जाता है. इसका मूल्य 10 रुपए हैं, जबकि वार्षिक सब्सक्रिप्शन 200 रुपए है. ये लेख अमर उजाला, दैनिक जागरण, पंजाब केसरी, ऑपइंडिया और स्वदेश से लिए जाते हैं. साथ ही कुछ लेख संगठन के लोगों द्वारा भी लिखे जाते हैं. इस पत्रिका में आपको उत्तर प्रदेश, कृषि कानूनों, अनुछेद 370 से लेकर राम जन्मभूमि पर नियमित लेख मिल जाएंगे.
एक अन्य पत्रिका हिंदू विश्व के व्यवस्थापक दूधनाथ शुक्ल ने हमें बताया, "हिंदू विश्व और हिंदू चेतना का शुल्क मात्र 15 रूपए और 11 रूपए है. हिंदू विश्व की प्रिंटिंग में ही 11 रूपए लग जाते हैं. ऐसे में पत्रिका को चलाए रखने के लिए संगठन (वीएचपी) के लोग हमें चंदा देते हैं."
इन पत्रिकाओं में वीएचपी के अधिकृत आने वाले बजरंग दल की खबरें भी शामिल रहती हैं. इन खबरों में बजरंग दल के कार्यक्रमों के बारे में बताया जाता है. पिछले साल फेसबुक की सुरक्षा टीम ने कहा था कि एक उग्र हिंदू राष्ट्रवादी समूह, बजरंग दल, अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिंसा का समर्थन करता है और इसे "खतरनाक संगठन" नामित किया जाना चाहिए. इन पत्रिकाओं के जरिए बजरंग दल की छवि को साफ दिखाने का प्रयास किया जाता है. बता दे कि इन्हीं में से एक और पत्रिका समरसता सेतु का संरक्षण राज्य सभा के पूर्व बीजेपी सांसद महंत शम्भुप्रसाद तुंडिया करते हैं.
क्या है इन पत्रिकाओं का विज्ञापन मॉडल?
हर पत्रिका को विज्ञापन की जरूरत होती है ताकि वे चल सकें. हालांकि वीएचपी कम विज्ञापन लेता है लेकिन इन पत्रिकाओं का विज्ञापन रेट काफी हाई है.
हिंदू विश्व की एक लंबी विज्ञापन लिस्ट है जो 10 हजार से 50 हजार रुपए है.
समरसता सेतु के हर अंक को चलाने के लिए श्री संतराम मंदिर, नडियाद (गुरात) से नियमित पूरे-पन्ने का विज्ञापन मिलता है.
वीएचपी की मराठी पत्रिका हिंदुबोध की भी अपनी विज्ञापन लिस्ट है. इसका एक पूरे पन्ने का रंगीन विज्ञापन डेढ़ लाख में बिकता है.
तोड़-मरोड़कर पेश किये जाते हैं तथ्य
इन पत्रिकाओं में लिखे लेखों का कोई फैक्ट-चेक नहीं किया जाता. हमने पाया कि इतिहास को तोड़-मरोड़कर, उसे मुसलमान-विरोधी दिशा देने की कोशिश की जाती है. ऐसा ही एक लेख, 'तालिबानियों को आदर्श बनाता जिहादी सोच' मोपला विद्रोह पर आधारित है जिसे खुद संपादक विजय शंकर तिवारी ने लिखा है. इस लेख में कहा गया है कि इतिहासकार स्टीफेन फ्रेडरिक डेल ने मोपला को 'जिहाद' बताया है. जबकि हमने पाया स्टीफेन फ्रेडरिक डेल ने एक इंटरव्यू में कहा था कि 1921 मालाबार विद्रोह कतई जिहाद या धर्म के लिए लड़ी लड़ाई नहीं था. वहीं इससे संबंधित 1921 में द हिंदू में एक पत्र छपा था. इसे 1921 के मालाबार विद्रोह के मुख्य किरदार वरिअमकुनाथ कुन्हमेद हाजी ने लिखा था.
उन्होंने पत्र में कहा था, "इस तरह के धर्मांतरण सरकारी पार्टी और रिजर्व पुलिस के लोगों द्वारा खुद को विद्रोहियों के साथ मिलाते हुए किए गए थे. इसके अलावा, कुछ हिंदू भाइयों ने सेना की सहायता करते हुए, निर्दोष लोगों (मोपला) को सेना को सौंप दिया था. इसके बाद ऐसे कुछ हिंदुओं को सेना ने परेशान किया."
इसके अगले लेख में सीएए आंदोलन को तालिबानी सोच बताया गया.
एक लेख, 'भारत में अल्पसंख्यकवाद एक विवेचन' में मुस्लिम महिलाओं की तस्वीर का इस्तेमाल किया गया है. इसमें बार- बार कहा गया कि मुसलमान समुदाय अल्पसंख्यक नहीं हो सकता क्योंकि संविधान में 'अल्पसंख्यक' शब्द परिभाषित नहीं है.
बता दें कि राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम (1992) के ज़रिए भारत में मई 1993 में राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग (एसीएम) की स्थापना की गई. लेकिन इस कानून में 'धार्मिक अल्पसंख्यक' शब्द की परिभाषा नहीं बताई गई थी बल्कि इस अधिनियम के उद्देश्य के लिए कुछ समुदायों को "अल्पसंख्यक" के रूप में अधिसूचित करने का अधिकार कांग्रेस की केंद्र सरकार को दिया गया. अक्टूबर 1993 में पांच धार्मिक समुदायों- मुस्लिम, ईसाई, सिख, बौद्ध और पारसी को राष्ट्रीय धार्मिक अल्पसंख्यकों के रूप में अधिसूचित किया. 2014 में किये संशोधन में जैनियों की भी राष्ट्रीय अल्पसंख्यकों के रूप में पहचान मिली.
हिंदू विश्व पत्रिका के सितंबर अंक का शीर्षक था, 'तालिबान बर्बरता से भागे सिख सांसद, इसीलिए सीएए जरूरी है.' इस अंक में मुस्लिम- विरोधी कई लेख छापे गए. मुसलामानों के लिए 'गुंडा' शब्द तक का प्रयोग किया गया.
ये 10 पत्रिकाएं केवल पन्नों पर लिखे लेख नहीं हैं. ये पत्रिकाएं वीएचपी जैसे उग्र हिंदूवादी संगठनों द्वारा इस्तेमाल किये जाने वाला वो हथियार है जिसके जरिए मुस्लिम- विरोधी सोच का प्रचार- प्रसार खुलेआम किया जाता है.
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