Opinion

अफीम की खेती और मुंद्रा पोर्ट पर अफगानिस्तान की ड्रग्स

गुजरात के कच्छ में मुंद्रा पोर्ट पर भारी मात्रा में पकड़ी गई अफगानी हेरोइन चर्चा का विषय बनी हुई है. बताया जा रहा है कि यह अब तक की सबसे बड़ी तस्करी है. जानकारों का कहना है कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में इसकी कीमत 21 हजार करोड़ रुपए तक हो सकती है. वहीं खबरों के मुताबिक इसे अफगानिस्तान से लाया गया था. बता दें कि दुनियाभर में अफगानिस्तान ड्रग्स की खेती का गढ़ रहा है.

19वीं सदी में ईस्ट इंडिया कंपनी के जरिये भारत पर धीरे-धीरे काबिज हो रहे ब्रिटेन को दो समस्याओं का सामना करना पड़ रहा था. ब्रिटेन को तब तक चीन की चाय का चस्का लग चुका था और इस वजह से उसे वहां से भारी मात्रा में इसका आयात करना पड़ रहा था. दिक्कत यह थी कि चीन को चाय के निर्यात के बदले में ब्रिटेन में बनी वस्तुओं के बजाय चांदी चाहिए थी. इस तरह चाय के चक्कर में ब्रिटेन की चांदी चीन पहुंच रही थी और उसका खजाना खाली हुआ जा रहा था. दूसरी तरफ, भारत में बढ़ते भौगोलिक दायरे के कारण ईस्ट इंडिया कंपनी का खर्च भी तेजी से बढ़ रहा था. ब्रिटेन ने अफीम से एक तीर से दो शिकार किए.

ईस्ट इंडिया कंपनी और 1857 के बाद ब्रिटिश सरकार ने बिहार और बंगाल में किसानों को अफीम पैदा करने के लिए बाध्य किया और उसके प्रसंस्करण के लिए गाजीपुर और पटना में फैक्ट्रियां स्थापित कीं. यहां तैयार होने वाला अफीम कलकत्ता (अब कोलकाता) पहुंचाया जाने लगी और वहां से उसे जहाजों में भरकर चीन निर्यात किया जाने लगा. इस तरह ब्रिटेन को कमाई का एक स्रोत मिल गया और चाय के आयात के बदले चांदी निर्यात करने की जरूरत भी नहीं पड़ी.

ब्रिटेन का यह गंदा धंधा एक सदी तक चलता रहा. उसे यह बखूबी अहसास था कि अफीम सेहत के लिए बहुत खतरनाक है, लेकिन अपने साम्राज्य को बचाए रखने के लिए अफीम की बुराइयों से उसने आंखें मूंद लीं. बहरहाल, अफीम के इस कारोबार ने सिर्फ ब्रिटिश साम्राज्यवाद की जड़ें ही मजबूत नहीं कीं, बल्कि देश के अंदर आर्थिक असमानता के बीज भी बोये.

भारतीय पत्रकार थामस मैनुएल की अफीम के व्यापार एवं उसके वैश्विक प्रभाव पर केन्द्रित ‘ओपियम इंक’ नामक शानदार पुस्तक आयी है. इस पुस्तक को पढ़ने के बाद पाठकों को यह भी आसानी से समझ में आ जाएगा कि बिहार में क्यों गरीबी का नाला बह रहा है और मुंबई में क्यों समृद्धि का समुद्र लहरा रहा है.

पुस्तक में नशीले पदार्थ को लेकर अमेरिका के दोगलेपन को उजागर किया गया है. तथ्यों, तर्कों और घटनाओं के जरिये लेखक ने बताया है कि कैसे अफीम एवं दूसरी नशीली दवाओं के खिलाफ अभियान के नाम पर अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए ने इनके काले कारोबार को बढ़ावा देने का काम किया. अमेरिका एक तरफ संयुक्त राष्ट्र के झंडे तले सभी देशों को नशीले पदार्थों के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय संधि करने के लिए मनाता रहा और दूसरी तरफ सीआईए को इन पदार्थों की तस्करी के जरिये विभिन्न देशों में विद्रोहियों को माली मदद पहुंचाता रहा. अमेरिका यह सब कभी लोकतंत्र पर खतरे के नाम पर करता था और अब इस्लामी आतंक से लडऩे के नाम पर कर रहा है. सोवियत संघ द्वारा यह आरोप लगाया गया था कि सीआईए के एजेंट अफगानिस्तान से अफीम की तस्करी में मदद कर रहे थे. यह पश्चिम में अफगान प्रतिरोध के लिए धन जुटाने के लिए हो रहा था या सोवियत संघ को कमजोर करने के लिए मादक पदार्थों की लत लगाने की सोच थी.

अल्फ्रेड मैककॉय के अनुसार सीआइए ने विभिन्न अफगान ड्रग लॉर्ड्स का समर्थन किया- उदाहरण के लिए, गुलबुद्दीन हिकमतयार और अन्य, जैसे हाजी अयूब अफरीदी. कई प्रतिरोधी नेताओं ने अपने क्षेत्रों में अफीम के उत्पादन को बढ़ाने पर ध्यान केंद्रित किया, नशे की ‘हराम’ इस्लामी स्थिति की परवाह किये बिना. विशेष रूप से गुलबुद्दीन हिकमतयार, मुल्ला नसीम अखुंदज़ादा और इस्मत मुस्लिम इसके प्रमुख पैरोकार थे.

1982 और 1983 के बीच उत्पादन दोगुना होकर 575 मीट्रिक टन हो गया. इस समय संयुक्त राज्य अमेरिका मुजाहिदीन की “हथियारों की लंबाई” का समर्थन करने वाली रणनीति का अनुसरण कर रहा था जिसका मुख्य उद्देश्य था सोवियत संघ को अफगानिस्तान से वापस धकेलना. ध्यातव्य है कि अफगानिस्तान की धरती दुनिया में सबसे ज्यादा अफीम पैदा करने के लिए भी जानी जाती है. 1994 में वहां 3500 टन अफीम का उत्पादन होता था, जो 2007 में बढ़कर 8200 टन हो गया. अब यह उत्पादन घटा है. संयुक्त राष्ट्र के अनुमान के मुताबिक 2020 में अफगान किसानों ने 2,300 टन अफीम की खेती की. एक अनुमान के मुताबिक वैश्विक अफीम उत्पादन का 90 फीसद अफगानिस्तान में होता है.

एक दूसरा पहलू भी है. अफगान-अमेरिकी मूल की पत्रकार फरीबा नावा ने 2011 में लिखी अपनी किताब ‘ओपियम नेशन: चाइल्ड ब्राइड्स, ड्रग लॉड्र्स, ऐंड वन वूमन्स जर्नी थ्रू अफगानिस्तान’ में इस देश में मादक पदार्थों के धंधे से संबंधित पहलुओं का उल्लेख किया था. नावा ने कहा था कि अफगानिस्तान के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 60 प्रतिशत हिस्सा वहां फल-फूल रहे 400 करोड़ डॉलर के अफीम के धंधे से आता है. लेखिका ने यह भी कहा कि अफगानिस्तान की सीमा से बाहर यह धंधा करीब 6,500 करोड़ डॉलर का है. इस पुस्तक के अनुसार अफीम का धंधा अफगानिस्तान के लोगों के दैनिक जीवन पर सीधा प्रभाव डालता है. कई परिवार पूरी तरह अफीम उद्योग पर निर्भर हैं और इससे वे बतौर उत्पादक, तस्कर या अन्य किसी न किसी रूप में जुड़े हैं. इसके साथ ही ‘ओपियम ब्राइडस’ की संस्कृति भी विकसित हो गयी है. जिस वर्ष फसल दगा दे जाती है, किसान अफीम का कर्ज उतारने के लिए अपनी बेटियां तस्करों को बेच देते हैं. नावा ने इस संदर्भ में 12 वर्ष की लड़की दारया का जिक्र किया.

अफगानिस्तान में तालिबान के सत्ता में आने के बाद अब एक बड़ी चिंता यह है कि क्या अफगानिस्तान फिर से ड्रग्स (नशीली दवाओं) की तस्करी का केंद्र बनेगा. यूरोपीय जानकारों का कहना है कि तालिबान के लिए ड्रग्स के कारोबार पर काबू पाना आसान नहीं होगा. इसकी वजह यह है कि अफगानिस्तान के कई प्रांतों में अफीम की खेती ही बहुत से लोगों की आमदनी का एकमात्र जरिया है. इसके अलावा अपने पिछले शासनकाल के शुरुआती वर्षों में तालिबान ने ड्रग्स को अपनी आय का स्रोत भी बना रखा था, हालांकि अपने शासन के आखिरी दो वर्षों में उसने अफीम की खेती को रोकने की कोशिश की थी. यही अफीम तालिबान आतंकियों के लिए धन का सबसे प्रमुख स्रोत है.

जानकारों का कहना है कि अगर तालिबान अफीम की खेती पर काबू पाना चाहे, तब भी उसके लिए ये मुश्किल चुनौती होगी. उस हाल में जिन किसानों की आमदनी का यह मुख्य स्रोत है, उनकी बगावत का उसे सामना करना पड़ेगा. लंदन यूनिवर्सिटी में स्कूल ऑफ ओरिएंटल एंड अफ्रीकन स्टडीज में प्रोफेसर जोनाथन गुडहैंड ने वेबसाइट पॉलिटिको.ईयू से कहा कि तालिबान के पिछले शासनकाल के दौरान अफीम की खेती पर कार्रवाई करने की तालिबान की कोशिश से किसानों के लिए मुश्किल खड़ी हुई थी.

इस बार सत्ता पर कब्जे के बाद तालिबान ने कहा है कि वह अफगानिस्तान को अफीम की खेती का केंद्र नहीं रहने देगा. काबुल पर तालिबान के कब्जे के बाद अपनी पहली प्रेस कांफ्रेंस मे तालिबान के प्रवक्ता जुबिहुल्लाह मुजाहिद ने अंतरराष्ट्रीय समुदाय से अपील की थी कि वह अफीम की खेती रोकने में तालिबान की मदद करे. जानकारों का कहना है कि अभी तालिबान अफीम से होने वाली आय पर निर्भर नहीं है, हालांकि उससे होने वाली आय का वह इस्तेमाल जरूर करता रहा है. अब चूंकि पश्चिमी देशों ने अफगानिस्तान के लिए अपनी सहायता रोक दी है, इसलिए ये आशंका बढ़ी है कि तालिबान की अफीम के कारोबार पर निर्भरता बढ़ सकती है.

नवंबर 2017 में अमेरिकी सेना ने तालिबान के मादक पदार्थों के संयंत्रों पर हवाई हमले किए और इनके खिलाफ विशेष अभियान भी चलाए. ‘आयरन टेम्पेस्ट’ नाम से चलाए गए इस अभियान के पीछे यह तर्क दिया गया कि इस हमले का मकसद तालिबान की कमजोर नस यानी उनके वित्तीय स्रोत पर वार करना है. तालिबान को उसके अभियान के लिए करीब 60 प्रतिशत रकम अफीम के धंधे से मिलती है. सैकड़ों हवाई हमले करने के बाद तालिबान के सालाना 20 करोड़ डॉलर के अफीम के धंधे पर नियंत्रण करने में असफल अमेरिकी सेना ने उस समय अपना अभियान समाप्त कर दिया जब ट्रंप प्रशासन के अधिकारी तालिबान के साथ प्रत्यक्ष शांति वार्ता करने लगे.

आतंक के साथ ही अफीम के कारोबार में अमेरिका कितना और किस स्तर पर संलिप्त था यह एक रहस्य है.

(साभार- जनपथ)

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