Opinion

आम आदमी पार्टी की हिंदुत्व की रणनीति को लेकर उनका एक काल्पनिक इंटरव्यू

कौन सोच सकता था कि मुख्यधारा का मीडिया, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा एनडीए सरकार का नहीं बल्कि विपक्षी दलों का इम्तिहान लेगा?

जनता के सामने बेइज्जती और अपमान निरंतर हो रहा है, जबकि खास तौर पर टीवी के प्राइम टाइम एंकरों और पत्रकारों के द्वारा विपक्षी नेताओं और दलों का देश का सत्यानाश करने के लिए अपमान व मखौल उड़ाया जा रहा है. संविधान से लेकर अर्थव्यवस्था तक, लिंग भेद से लेकर अल्पसंख्यकों तक उनकी गलतियों की फेहरिस्त की कोई सीमा नहीं है.

इस सब के बावजूद, विपक्षी दलों- खासतौर पर राज्यों के विपक्षी दलों ने कई बार मोदी सरकार को मात दी है. इसकी शुरुआत, मई 2014 में मोदी के सत्ता में आने के सात महीने बाद ही आम आदमी पार्टी के द्वारा फरवरी 2015 में दिल्ली की अभूतपूर्व जीत से हुई. कुछ ही महीने पहले, मोदी को “आप” के प्रमुख अरविंद केजरीवाल की पसंदीदा परामर्शदाता ममता बनर्जी 'दीदी' और उनके दल तृणमूल कांग्रेस ने पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनावों में मात दी. इसी साल अप्रैल में हुए चुनावों में ममता ने न केवल ताकतवर मोदी-शाह की जोड़ी को हराया, बल्कि उनके धन, राजसत्ता और ताकत के होते हुए भी उन्हें चुनावों में सफलतापूर्वक घेरा.

इसीलिए समय आ गया है कि विपक्षी नेताओं और दलों को उनके असली स्वरूप में देखा जाए. इसके लिए एक सच से सराबोर प्रश्नावली से बेहतर और क्या हो सकता है? इन दलों और नेताओं से तीखे सवाल करना, और उनके उत्तर भी इमानदारी से इन दलों के विचारों, प्रेरकों, नीतियों और लेन-देन के आधार पर देना.

आप इसे एक अलग प्रकार की पत्रकारिता कह सकते हैं जहां पत्रकारिता की पारंपरिक सीमाओं को लांघ कर दूसरे पक्ष की खोज, समीक्षा उसे उजागर करने के लिए की जाती है. और शुरुआत करने के लिए मोदी को सबसे पहले पटखनी देने वाली आम आदमी पार्टी से बेहतर कौन हो सकता है.

क्या आरएसएस-भाजपा आप के ‘देश के मेंटर’ कार्यक्रम से इतनी डर गई हैं, कि उन्होंने उसके पहले सदस्य, अभिनेता और समाजसेवी सोनू सूद पर छापा डलवा दिया?

नहीं, जरा भी नहीं. लेकिन आयकर विभाग, ईडी और सीबीआई मोदी सरकार के विपक्षी नेताओं और दूसरे पक्ष का समर्थन करने की हिमाकत करने वाले प्रसिद्ध लोगों को प्रताड़ित करने की टूल किट का हिस्सा हैं. इतना ही नहीं ये छापे इतने खुले और अपरोक्ष है कि जब कोई भाजपा के खिलाफ कुछ करता है तो इनकी भविष्यवाणी की जा सकती है. मोदी-शाह का मंत्र, "तुम हमारे खिलाफ हो, तुम पर छापा पड़ेगा" लगता है.

लेकिन “आप”, अपने सोच समझकर किए जा रहे संपर्क, कथनों व प्रतीकों में सांप्रदायिक हिंदू पहचान को लेकर आरएसएस-भाजपा की पिछलग्गू ही दिखाई पड़ती है?

हां, “आप” पर उसके राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों ने आरएएस भाजपा की बी टीम होने का इल्जाम उनके खुले हिंदू कथनों की वजह से लगाया है. मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल कभी भी इस बात की घोषणा करने से नहीं झिझके कि वे एक हनुमान और राम भक्त हैं.

जब उनको अपने हिंदू होने को साबित करने की चुनौती दी गई तो वह हनुमान चालीसा का जप करने लगे, “आप” सरकार ने अपने दिल्ली राज्य के बजट को देशभक्ति बजट बताया, राम मंदिर का निर्माण हो जाने पर केजरीवाल ने सभी वरिष्ठ नागरिकों के लिए अयोध्या की मुफ्त यात्रा को प्रायोजित करने का वादा किया और उत्तर प्रदेश में पार्टी के राज्य सर्वे सर्वा ने अपने चुनाव अभियान को पिछले हफ्ते अयोध्या से हरी झंडी दिखाई.

आप हिंदू राजनीति क्यों खेल रहे हैं, जबकि पिछले साल फरवरी में दिल्ली राज्य के चुनावों में केवल शासन पर ही शानदार वोट मिले थे?

देखिए, आम आदमी पार्टी अच्छे शासन और सस्ती बिजली, पानी, अच्छी शिक्षा और स्वास्थ्य व्यवस्था देने के चलते जिसे केजरीवाल काम की राजनीति कहते हैं, की वजह से जीत तो हासिल कर ही लेती. और पार्टी ने 70 में से 62 सीटें लाकर अपनी तीसरी शानदार जीत दर्ज की भी, लेकिन वह 2015 के चुनावों में मिली अभूतपूर्व 67 सीटों से कम थीं.

यह नुकसान तो ज्यादा नहीं था, लेकिन जब पार्टी चुनावों के बाद समीक्षा के सत्र में बैठी तो उसके लिए खतरे की घंटी बजी जब उसने यह पाया कि “आप” को तो मामूली सी एक प्रतिशत की गिरावट के बाद 54.3 प्रतिशत वोट मिले, लेकिन भाजपा को मिले वोटों का प्रतिशत 2015 में 32.5 से इन चुनावों में छह प्रतिशत की बढ़त के साथ 38.4 प्रतिशत हो गया था.

इसका कारण स्पष्ट था, भाजपा का खुला व बेहूदा मुस्लिम विरोधी और सांप्रदायिक भावना से भरा चुनाव अभियान. जिसकी शुरुआत चुनाव से दो महीने पहले दिसंबर 2019 में जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय पर प्रदर्शन कर रहे छात्रों पर पुलिस के हमले, और सीएए कानून के खिलाफ शाहीन बाग में महिलाओं के द्वारा प्रदर्शन का हव्वा बना कर, जेएनयू के छात्रों पर अज्ञात हमलावरों के द्वारा कैंपस में हमले से हुई. इन सभी बातों ने हिंदू मतदाताओं के एक धड़े में भाजपा की इस रक्त पिपासु स्वीकार्यता को बढ़ते हुए देखा.

“आप” ने इससे यह निष्कर्ष निकाला है कि एक भावनात्मक और सांप्रदायिक चुनाव अभियान से वोटों का एक धड़ा भाजपा की तरफ झुक जाता है.

लेकिन आम आदमी पार्टी ने मोदी और शाह से लेकर बड़े-बड़े नेताओं के इस हिंदुत्व के उत्तेजक प्रचार में भी अपने वोटों का प्रतिशत बनाए रखा, तो फिर हिंदू कार्ड क्यों खेलना?

यह बात ठीक है लेकिन फरवरी 2020 के चुनावों से पहले आम आदमी पार्टी के दिसंबर से हुए दैनिक इलेक्शन सर्वे और चुनाव क्षेत्र की समीक्षा ने दिखाया कि भाजपा, बहुत कम वोट प्रतिशत से शुरुआत करने के बावजूद भी अपने सांप्रदायिक और मुस्लिम विरोधी कथनों से हर दिन अपने वोट में इजाफा कर रही थी.

अतः पार्टी के रणनीतिकारों ने यह निर्णय लिया कि आप भाजपा के सांप्रदायिक विरोध के कथानक में नहीं फंसेगी. पार्टी चुनाव प्रचार के दौरान होशियारी से इन सांप्रदायिक हॉटस्पॉट्स से, जामिया के विद्यार्थियों से सहानुभूति दिखाने या समर्थन करने और भाजपा के शांतिप्रिय शाहीन बाग समर्थकों पर हमले, से दूर रही.

अगली बार क्या हो यह कौन जानता है? हो सकता है कि अगर सांप्रदायिक चुनाव अभियान दो महीने से अधिक समय पहले शुरू हो, तो मतदाता भावनाओं में बह जाएं.

तो क्या आम आदमी पार्टी के हिंदू कथन केवल चुनावी रणनीति भर हैं?

ऐसा लगता तो है, क्योंकि आम आदमी पार्टी ने मोदी सरकार के मुस्लिम महिलाओं को संरक्षण देने के लिए तीन तलाक को अपराध बनाने वाले बिल और धारा 370 को हटाकर जम्मू और कश्मीर का विभाजन कर उसे केंद्र शासित प्रदेश बनाने वाले बिलों का संसद में समर्थन कर सबको, खास तौर पर अपने चाहने वालों में लिबरल और सेक्यूलर लोगों को हतप्रभ कर दिया.

लेकिन यह तो जरूर कहा जाएगा कि मोदी सरकार के द्वारा जम्मू कश्मीर को विशिष्ट राज्य के दर्जे को वापस लेने को मिले आम आदमी पार्टी के समर्थन की विडंबना हैरान करने वाली है. जबकि केजरीवाल दिल्ली में शासन और कानून व्यवस्था में स्वायत्तता के लिए लंबे समय से शोर मचाते रहे हैं.

क्या आम आदमी पार्टी हिंदू वोट को रिझाने में कामयाब होगी?

आम आदमी पार्टी इस बात को लेकर स्पष्ट है कि दिल्ली के बाहर चुनाव जीतने के लिए, लिबरल और सेक्यूलर धड़े के आगे जाना व भाजपा के साथ जुड़े हिंदू वोटर को रिझाना बहुत ज़रूरी है. केवल घटते हुए कांग्रेस के वोट को पा लेना काफी नहीं होगा.

दिल्ली में आम आदमी पार्टी के विकास के अलावा, प्रदेश में भाजपा और कांग्रेस संगठन की खस्ता हालत और नेताओं की कमी ने भी उसका साथ दिया. ऐसे में पार्टी का चुनावी चेहरा केजरीवाल एक सुनिश्चित विजेता हैं.

लेकिन हर जगह ऐसी परिस्थिति नहीं है, जैसे कि उत्तर प्रदेश जहां मुख्यमंत्री आदित्यनाथ राज्य में एक बड़ा और दमदार चेहरा हैं. दिल्ली से भिन्न यह एक बड़ी चुनौती है.

तो क्या, आम आदमी पार्टी का अपनी हिंदू पहचान का समर्थन करने वाला, अयोध्या से शुरू हुआ, उत्तर प्रदेश का चुनाव अभियान, अगले वर्ष आने वाले फरवरी-मार्च में आदित्यनाथ के हिंदुत्व को चुनौती देगा?

हां. तीर्थ नगरी अयोध्या से शुरू हुई आम आदमी पार्टी के चुनाव अभियान की शुरुआत करने वाली तिरंगा यात्रा में पार्टी के बड़े नेता मनीष सिसोदिया और राज्य प्रभारी संजय सिंह थे, उन्होंने समर्थकों की रैली से पहले राम जन्मभूमि और हनुमान गढ़ी मंदिर में पूजन किया और कई संतों से मुलाकात की.

क्या आम आदमी पार्टी आरएसएस-भाजपा को उत्तर प्रदेश जैसे जहां सांप्रदायिक भावनाएं उग्र हैं, उनके ही हिंदुत्व के खेल में हरा सकती है?

मनीष सिसोदिया और संजय सिंह ने आप के हिंदू भाव की नीति पर, और इसके साथ-साथ उसमें आरएसएस-भाजपा के हिंदुत्व से महत्वपूर्ण अंतर पर जोर दिया है. जैसा कि वह हर जगह जोर देकर कहते हैं, अंतर साफ है, वह एक मत से कहते हैं कि राम राज्य ही शासन का सबसे अच्छा तरीका है, आम आदमी पार्टी भगवान राम की सच्चे आदर्शों, सांप्रदायिक सद्भाव और भाईचारे से शासन चलाएगी. इसमें जातिगत, मत और सांप्रदायिक भेद नहीं होंगे और वे इस बात के साथ यह बताना नहीं भूलते कि आरएसएस-भाजपा का रामराज्य बंटवारे, आपसी बैर पर आधारित और पृथकतावादी है.

आम आदमी पार्टी के नेताओं ने आरएसएस-भाजपा को झूठा राष्ट्रवादी बताते हुए रामराज्य को ही सच्चा राष्ट्रवाद बताया. उन्होंने इस बात की तरफ ध्यान खींचा कि जहां एक तरफ युवा 'वंदे मातरम' का नारा लगाते हैं, वहीं वे 'इंकलाब जिंदाबाद' का नारा भी लगाते हैं, और सच्चे राष्ट्रवाद का एक मतलब आम आदमी पार्टी के विचार में अच्छी शिक्षा, अच्छी स्वास्थ्य व्यवस्था, रोजगार के अवसर और एक सुरक्षित समाज भी है जहां अपराधी खुलेआम ना घूम सकें. उन्होंने अयोध्या के पास फैजाबाद में 18वीं सदी के नवाब शुजाउद्दौला के मकबरे से गांधी पार्क तक रैली भी निकाली.

तो क्या इसका मतलब आम आदमी पार्टी की हिंदुओं तक पहुंचने की पहल, आरएसएस-भाजपा के हिंदुत्व के ब्रांड से अलग है?

पार्टी अंतर को दिखा रही है लेकिन एक फार्मूला हर जगह नहीं चलता. उदाहरण के लिए पंजाब में, जहां चुनाव उत्तर प्रदेश के साथ ही होंगे, पोल सर्वे के नतीजों के हिसाब से आम आदमी पार्टी को दौड़ में सबसे आगे देखा जा रहा है लेकिन उसे बहुमत मिलता नहीं दिख रहा. इसके बावजूद पार्टी वहां पर अपनी हिंदू पहचान का इस्तेमाल उतना नहीं करेगी. लेकिन राज्य में उसे अपनी चरमपंथी सिख छवि को सुधारने की जरूरत है, क्योंकि पिछले विधानसभा चुनावों में विरोधियों द्वारा उसे खालिस्तान समर्थक पार्टी कहने की वजह से, कई सीटों का नुकसान हुआ था.

गुजरात में जहां दिसंबर 2022 में विधानसभा चुनाव होने हैं, आम आदमी पार्टी अपने अभियान की शुरुआत सूरत से करना चाहती है जहां उसने नगरपालिका चुनावों में 120 में से 27 सीटें जीतीं. यहां पर आम आदमी पार्टी अपने दिल्ली में सफल विकास के विजयी फार्मूले मुफ्त बिजली, पानी, स्वास्थ्य और शिक्षा के साथ राज्य की सभी 182 सीटों पर चुनाव लड़ेगी. लेकिन यह एक बहुत बड़ी चुनौती है क्योंकि पिछले चुनावों में आपने 27 सीटों से चुनाव लड़ा था जहां से वह न केवल हारी बल्कि सभी सीटों पर उसकी जमानत तक ज़ब्त हो गई थी.

इसी तरह गोवा में भी जहां अगले साल चुनाव हैं, पिछले चुनावों में आप के 39 उम्मीदवारों में से 38 की जमानत ज़ब्त हो गई थी. दोनों ही राज्यों में जहां पारंपरिक रूप से दो पार्टियों कांग्रेस और भाजपा के बीच मुकाबला होता है, आम आदमी पार्टी को सफलता पाने के लिए बहुत करीने से काम करना होगा. उत्तराखंड एक और ऐसा राज्य है जहां आम आदमी पार्टी को अपना खाता खुलने की उम्मीद है.

क्या चुनावी सफलता का पीछा करते हुए “आप” इस हिंदू हित के खेल में कहीं गहरा तो नहीं उतर जाएगी?

शायद पार्टी के नेता राजीव गांधी के द्वारा दोनों ही तरफ के चरमपंथियों को खुश करने के अनुभवों से सीख लेंगे. जहां एक तरफ उन्होंने शाहबानो मामले में एक तलाकशुदा मुस्लिम महिला को मुआवजा दिए जाने के उच्चतम न्यायालय को पलटा, वहीं दूसरी तरफ उन्होंने ध्वस्त हुई बाबरी मस्जिद के ताले एक नए राम मंदिर के निर्माण हेतु शिलान्यास पूजन के लिए खुलवाए. एक भ्रमित और अपनी पहचान भूली सेक्यूलर हिंदुत्व पार्टी के रूप में कांग्रेस का हश्र सबके सामने है.

आम आदमी पार्टी का मंत्र समावेशी विकास और सांप्रदायिक सद्भाव वाला मेरा राम राज्य और मेरा राष्ट्रवाद सच्चा है. भाजपा-आरएसएस का नफरत और अलगाव से भरा, झूठा है.

अगर आम आदमी पार्टी जनता को अपनी नीति परायणता का विश्वास दिला पाती है, तो शायद उसे कभी भी एक बहुलतावादी हिंदुत्ववादी समाज में आतंकवाद और सांप्रदायिक अल्पसंख्यकों के विषयों को उठाने से नहीं झिझकना पड़ेगा, और वह गर्व और साहस से संविधान को भी सर्वोपरी रख पाएगी.

इसका उत्तर तो समय ही दे पाएगा.

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