Report
शास्त्री भवन के सामने क्यों प्रदर्शन कर रहे हैं शिक्षक?
"इस प्रोजेक्ट के अंतर्गत मुझे पुलवामा में पढ़ाने के लिए भेजा गया. सुरक्षा के लिहाज से मेरा परिवार नहीं चाहता था कि मैं इतनी दूर पढ़ाने जाऊं. हमें कहा गया था कि तीन साल बाद हमें स्थाई रूप से शिक्षा व्यवस्था में शामिल कर लिया जाएगा लेकिन हमें अब तक नौकरी नहीं मिली है." 34 वर्षीय कमलजीत कौर कहती हैं.
कमलजीत एनआईटी कुरुक्षेत्र से पीएचडी की पढ़ाई कर रही हैं. टेकिप-3 परियोजना के अंतर्गत वो आईयूएसटी पुलवामा में पढ़ाती हैं.
बता दें कि साल 2009 में तकनीकी शिक्षा गुणवत्ता सुधार कार्यक्रम (टेकिप) की शुरुआत हुई थी. इस परियोजना के लिए वर्ल्ड बैंक सहयोग देता है. टेकिप का उद्देश्य आर्थिक रूप से पिछड़े राज्यों और विशेष श्रेणी के राज्यों में तकनीकी शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार करना है. साल 2017 में टेकिप के तीसरे चरण की शुरुआत हुई. इस दौरान 12 राज्यों में ग्रामीण और कुछ क्षेत्रों को फोकस किया गया जिसमें 71 इंजीनियरिंग संस्थानों के लिए अस्थायी आधार पर 1,500 सहायक प्रोफेसरों की भर्ती की गई थी. सभी सहायक प्रोफेसर आईआईटी और एनआईटी से पढ़े हैं व सबकी नियुक्ति एक प्रोसेस और साक्षातकार के बाद हुई. इस परियोजना के तहत इन सहायक प्रोफेसरों को पीएचडी पूरी करने के लिए छात्रवृत्ति भी दी जाती है.
तीन साल की यह परियोजना साल 2017 में शुरू हुई. शिक्षकों की भर्ती पहली बार टेकिप-3 के अंतर्गत की गई. ये शिक्षक अपने प्लान, शिक्षण और अनुभवों से तंग शिक्षा व्यवस्था को मजबूत और बेहतर बनाने का प्रयास करते हैं. सितम्बर, साल 2020 में इसे समाप्त होना था. राज्य और एमएचआरडी के बीच हस्ताक्षरित समझौता ज्ञापन (एमओयू) में यह कहा गया था कि परियोजना के समाप्त होने के बाद इन सहायक प्रोफेसेरों को बनाए रखा जाएगा. परियोजना के खत्म होने के बाद केंद्र से मिलने वाले वेतन की जगह इन सहायक प्रोफेसरों को राज्य के कोष से वेतन दिया जाएगा.
साथ ही इस नोटिस में साफ कहा गया कि बिहार सरकार 30 सितम्बर 2020 के बाद सहायक प्रोफेसरों के लिए खाली पदों पर टेकिप-3 से चयनित सहायक प्रोफेसरों की नियुक्ति के लिए एक प्लान तैयार करें. लेकिन अब तक किसी राज्य सरकार ने टेकिप-3 से नियुक्त किये गए किसी भी सहायक प्रोफेसर को राजीकीय शिक्षा व्यवस्था में शामिल नहीं किया है. साल 2020 के बाद से यह शिक्षक विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं. कोविड के मद्देनजर, केंद्र सरकार ने दो बार- सितम्बर 2020 और मार्च 2021 में छह- छह महीने के लिए टेकिप-3 की अवधि को बढ़ा दिया. लेकिन किसी भी राज्य सरकार ने इस बीच कोई नियुक्ति नहीं की. 30 सितम्बर 2021 को छह महीने की यह अवधि भी खत्म होने को है लेकिन इनमें से किसी भी शिक्षक की भर्ती नहीं की गई है.
29 वर्षीय एवीएस दीपक टेकिप-3 के सहारे एनआईटी कुरुक्षेत्र से अपनी पीएचडी की पढाई पूरी कर रहे हैं. साथ ही वो एफईटी- एमजेपी रुहेलखंड विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं. वह कहते हैं, "पीएचडी करने के लिए हमें केंद्र सरकार से पैसा मिलता है. टेकिप-3 के लिए जहां भी हमारी नियुक्ति हुई है, हम वही रिसर्च करते हैं. सभी मशीने, मॉडल और अन्य सामान वहीं रखा है. अगर हमें हटा दिया गया या राज्य सरकारों ने व्यवस्था में जल्द शामिल नहीं किया या इंकार कर दिया तो हमारी पीएचडी के तीन साल बर्बाद हो जाएंगे."
29 वर्षीय अनुराग त्रिपाठी ने आईआईटी- दिल्ली से एमटेक की पढ़ाई पूरी की है. उसके बाद से वो टेकिप-3 के अंदर बीआईटी झांसी में बतौर सहायक प्रोफेसर पढ़ा रहे हैं. वह कहते हैं, "केंद्र बार- बार राज्य सरकारों को नोटिस भेज रहा है. लेकिन राज्य सरकारें कान बंद करके बैठी हैं. पूरा कॉलेज हमारे सहारे चलता है. अगर हम ही चले गए तो केवल डायरेक्टर बचेंगे. फिर वे लोग घंटे के हिसाब से पढ़ाने वाले शिक्षक लेकर आएंगे जो सस्ते में पढ़ाते हैं. टेकिप-3 में बने रहने के लिए हर साल हमारा परफॉरमेंस अप्प्रैसल होता है. यहां बैठे अधिकतर शिक्षकों को तीन बार यह अप्प्रैसल मिल चुका है. लेकिन नौकरी नहीं मिली."
अनुराग आगे बताते हैं, "इस परियोजना के खत्म होने के समय केंद्र ने नेशनल स्टीयरिंग समिति का गठन किया. सभी ने एक सुर में कहा कि इन सभी सहायक प्रोफेसरों को शिक्षा व्यवस्था में कायम रखना जरूरी है. ऐसा इसलिए क्योंकि इस परियोजना के तहत हमने ग्रामीण भारत में तकनीकी शिक्षा प्रणाली को सुधारने में अहम कदम उठाए हैं. हमारे चले जाने से यह सभी बदलाव बंद हो जाएंगे."
झारखंड के 32 वर्षीय रुबेल गुहराय यूसीईटी-वीबीयू हजारीबाद में पढ़ते हैं. उन्हें तीन साल (2%, 3% और 3%) अप्प्रैसल मिला है. वह कहते हैं. "पूरे भारत के अलग- अलग केंद्रीय कॉलेजों में छह हजार पद खाली हैं. हम लोग केवल 1200-1500 लोग हैं. फिर भी सरकार हमें शिक्षा प्रणाली में अब तक शामिल नहीं कर पा रही है. टेकिप-3 परियोजना में नियुक्त सभी शिक्षक आईआईटी और एनआईटी जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों से पढ़ाई पूरी करके आए हैं. केंद्र सरकार ने हम पर इतना पैसा लगाया. हमारी ट्रेनिंग कराई. आत्मनिर्भर भारत की बात की जाती है. लेकिन इन सबका क्या फायदा? अंत में हमें दरकिनार कर दिया. सारा पैसा भी बेकार चला गया और हमारे साथ-साथ हमारे विद्यार्थियों का भविष्य भी अंधेरे में डाल दिया."
ऐसे में सवाल उठता है कि अगर देश के प्रतिष्ठित संस्थानों से पढ़ने वाले भी सड़क पर प्रदर्शन करने को मजबूर हैं तो देश की शिक्षा प्रणाली का भविष्य कैसा होगा.
न्यूज़लॉन्ड्री ने एमएचआरडी से संपर्क करने की कोशिश की हालांकि उनसे संपर्क नहीं हो पाया.
Also Read
-
TV Newsance 320: Bihar elections turn into a meme fest
-
We already have ‘Make in India’. Do we need ‘Design in India’?
-
Not just freebies. It was Zohran Mamdani’s moral pull that made the young campaign for him
-
“कोई मर्यादा न लांघे” R K Singh के बाग़ी तेवर
-
South Central 50: Kerala ends extreme poverty, Zohran Mamdani’s win