Opinion

अफ़ीम और अफ़ग़ानिस्तान: तालिबान की दाढ़ी मे फंसा तिनका

बीते महीने काबुल पर क़ब्ज़े के बाद तालिबान के पहले संवाददाता सम्मेलन में प्रवक्ता ज़बीहउल्लाह मुजाहिद ने कहा था कि नये शासन में अफ़ीम की खेती पर अंकुश लगाया जायेगा और उन्होंने वैकल्पिक फसलों के लिए अंतरराष्ट्रीय समुदाय से सहयोग मांगा था. एक ओर जहां इस बयान का स्वागत किया गया, वहीं यह आशंका भी जतायी गयी कि ऐसा केवल तालीबान को स्वीकार्य बनाने के लिए कहा जा रहा है क्योंकि अफ़ग़ानिस्तान में अफ़ीम की खेती और तस्करी से उसे बड़ी कमाई होती रही है.

ऐसा तब भी कहा गया था, जब 2000 में तालिबान ने अफ़ीम की खेती के ख़िलाफ़ फ़तवा जारी किया था. साल 2001 में अमेरिकी आक्रमण के चलते तालिबान का शासन ख़त्म हो गया. हमारे पास यह जानने का कोई आधार नहीं है कि इस मसले पर वे कितने गंभीर थे, पर यह सच है कि 2001 में अफ़ीम का उत्पादन ऐतिहासिक रूप से बहुत घट गया था. उस साल अफ़ीम की उपज 180 मीट्रिक टन रही थी, जबकि 2017 में यह आंकड़ा 9,900 मीट्रिक टन पहुंच गया था. अब जब फिर तालिबान शासन में है, तो हमें उसकी असली नीयत जानने के लिए कुछ इंतज़ार करना होगा.

विभिन्न आकलनों के अनुसार, अफ़ीम की वैश्विक आपूर्ति का 70-90 फ़ीसदी हिस्सा अफ़ग़ानिस्तान से आता है और उसकी अर्थव्यवस्था में इसका योगदान 8-11 फ़ीसदी है. कुछ आकलनों में तो यह भी कहा जाता है कि देश के सकल घरेलू उत्पादन का आधा अफ़ीम की खेती और कारोबार से आता है. दस फ़ीसदी अफ़ग़ान इससे जुड़े हुए हैं.

साल 2001 की बड़ी गिरावट को छोड़ दें, तो अस्सी के दशक से ही वहां अफ़ीम की खेती कमोबेश बढ़ती गयी है और उसी अनुपात में दुनिया भर में आपूर्ति भी बढ़ी है. ग्रेटचेन पीटर्स ने लिखा है कि अफ़ग़ानिस्तान अफ़ीम के बिना नहीं चल सकता है. इससे वहां बहुत से लोग मारे जा रहे हैं, लेकिन इसकी वजह से बहुत सारे लोग ज़िंदा भी हैं. इसे समझने के लिए हमें अफ़ग़ानिस्तान में पसरी भयावह ग़रीबी को देखना होगा.

पिछले साल राष्ट्रपति अशरफ़ ग़नी ने कहा था कि 90 फ़ीसदी अफ़ग़ान दो डॉलर रोज़ाना की आमदनी से कम में गुजारा करते हैं, जो सरकार द्वारा निर्धारित गरीबी रेखा है. साल 2018 में आयी संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार, अर्थव्यवस्था का 6-11 फ़ीसदी हिस्सा अफ़ीम से आता है, जो 1,90,700 पूर्णकालिक रोज़गार के बराबर है. इसीलिए कहा जाता है कि अफ़ीम अफ़ग़ानिस्तान का दूसरा सबसे बड़ा उद्योग है. पहला उद्योग युद्ध है.

हालिया आकलनों के अनुसार, पिछले साल 2.24 लाख हेक्टेयर में अफ़ीम की फ़सल लगायी गयी थी, जो 2019 की तुलना में 37 फ़ीसदी अधिक थी. देश के 34 प्रांतों में से 22 में अफ़ीम की खेती की जाती है. इतने बड़े स्तर पर अगर खेती होगी, तो इसकी लत बढ़ना भी स्वाभाविक है. माना जाता है कि 25 लाख अफ़ग़ानी नियमित रूप से नशीले पदार्थों का सेवन करते हैं और उनके उपचार की सुविधा भी नाममात्र की है. कभी अफ़ग़ान राष्ट्रपति हामिद करज़ई ने कहा था कि या तो अफ़ग़ानिस्तान को अफ़ीम को ख़त्म करना होगा या अफ़ीम अफ़ग़ानिस्तान को ख़त्म कर देगा.

अफ़ीम और उससे तैयार होने वाले विभिन्न नशीले पदार्थों के साथ कुछ वर्षों से इफ़ेड्रा नामक पौधे से तैयार क्रिस्टल मेथ का चलन भी ज़ोर पकड़ रहा है, जो हेरोइन से सस्ता होता है. यह जंगली पौधा है, पर अब इसे भी उगाया जाने लगा है. इस तरह अफ़ग़ानिस्तान अफ़ीम के साथ क्रिस्टल मेथ का भी बड़ा उत्पादक बनता जा रहा है. अध्ययनों के अनुसार, इस पौधे से ग़रीब परिवार भी आसानी से इफ़ेड्रिन निकालते हैं और बेचते हैं. अनेक देशों में अफ़ग़ानिस्तान में बने क्रिस्टल मेथ का उपभोग हो रहा है, जिनमें पश्चिमी देश भी शामिल हैं.

साल 2002 में शीर्ष अमेरिकी सैन्य अधिकारी जेनरल टॉमी फ़्रैंक्स ने कहा था कि हम नशीले पदार्थों पर रोक लगाने वाली सेना नहीं हैं और यह हमारा मिशन नहीं है. माना जाता है कि यह बयान अफ़ीम के अवैध कारोबार से अकूत कमाई करने वाले वारलॉर्ड, भ्रष्ट अधिकारियों और पुलिसकर्मियों तथा अफ़ग़ान राजनेताओं को यह संकेत था कि अमेरिका उनकी कमाई के आड़े नहीं आयेगा. इस मसले पर अमेरिका ने कभी कोई गंभीरता नहीं दिखायी, लेकिन उसके अफ़ग़ान ख़र्च के ब्यौरे में कारोबार को रोकने के मद में साढ़े आठ अरब डॉलर से कुछ अधिक का ख़र्च ज़रूर दर्ज है.

रिपोर्टों की मानें, तो अमेरिका और उसके सहयोगी देशों ने अफ़ीम की खेती रोकने के लिए जो कोशिशें कीं, उनमें नीतिगत अस्थिरता रही और जो लोग इस काम में लगे हुए थे, उन्हें अफ़ग़ानिस्तान की वास्तविकता का पता नहीं था. पूर्व अफ़ग़ान मंत्री मोहम्मद अहसान ज़िया ने एक दफ़ा कहा था कि विदेशी जहाज़ में ‘काइट रनर’ उपन्यास पढ़ते हैं और समझते हैं कि वे अफ़ग़ानिस्तान पर विशेषज्ञ हो गये, फिर वे किसी की नहीं सुनते. उन्होंने यह भी कहा था कि अफ़ीम की खेती में कमी लाना यूएसएड (विकास कार्यक्रमों में लगी अमेरिकी संस्था) की प्राथमिकता नहीं है, बल्कि उसकी प्राथमिकता पैसा ख़र्च करना है.

जॉर्ज बुश प्रशासन में रक्षा सचिव और अफ़ग़ानिस्तान व इराक़ पर हमले के मुख्य कर्ता-धर्ता डोनल्ड रम्ज़फ़ेल्ड ने 2004 में पेंटागन के नीति प्रमुख को भेजे एक गोपनीय नोट में लिखा था कि नशीले पदार्थ से संबंधित रणनीति में विसंगतियां हैं और पता नहीं है कि कौन इसे संभाल रहा है.

आम तौर पर अफ़ग़ानिस्तान और अफ़ीम की चर्चा तालिबान की कमाई के इर्द-गिर्द होती रही है. इस वजह से व्यापक भ्रष्टाचार और अमेरिका समर्थित वारलॉर्ड की भूमिका पर समुचित ध्यान नहीं दिया गया. द वाशिंगटन पोस्ट ने बड़ी संख्या में दस्तावेज़ों के आधार पर ‘द अफ़ग़ानिस्तान पेपर्स’ शीर्षक से शोधपरक रिपोर्टिंग की है. इसमें बड़े अमेरिकी अधिकारियों के हवाले से रेखांकित किया गया है कि अफ़ग़ानिस्तान की सबसे बड़ी समस्या भ्रष्टाचार है और नशीले पदार्थ इसका अहम हिस्सा हैं. आप एक का निपटारा किये बिना दूसरे को नहीं मिटा सकते.

साल 2004 में राष्ट्रपति हामिद करज़ई ने अफ़ीम की खेती और हेरोइन के उत्पादन को सोवियत हमले, आतंकवाद और गृहयुद्ध से भी ज़्यादा खतरनाक बताते हुए इसके ख़िलाफ़ जेहाद का ऐलान किया था. दिलचस्प है कि करज़ई के भाई अहमद वली करज़ई के ऊपर पिछले दशक में गंभीर आरोप लगे थे कि वे अफ़ीम व हेरोइन का व्यापक अवैध कारोबार करते हैं.

साल 2008 और 2009 में द न्यूयॉर्क टाइम्स में छपी रिपोर्टों के अनुसार, इस कारोबार और सीआइए से राष्ट्रपति के भाई के संबंधों के कारण अमेरिकी अधिकारियों और ओबामा प्रशासन बहुत चिंतित रहता था. उनका मानना था कि राष्ट्रपति अपने भाई को संरक्षण दे रहे हैं. वली करज़ई ने कंधार में वह जगह भी सीआइए को किराये पर दी थी, जहां पहले तालिबान के संस्थापक मुल्ला उमर का निवास था.

बुश प्रशासन के दौर में ही यह मसला सामने आ गया था. एक अमेरिकी जनप्रतिनिधि मार्क स्टीवेन किर्क ने टाइम्स को बताया था कि जब उन्होंने बुश प्रशासन के अधिकारियों से इस बारे में पूछा था, तो उनका कहना था कि वली के हाथ गंदे हैं. कंधार में ही 2011 में वली करज़ई की हत्या उनके एक अंगरक्षक ने कर दी थी.

अफ़ग़ान सरकार के अधिकारियों, पुलिस अफ़सरों, जजों और अन्य कर्मियों के ख़िलाफ़ नशीले पदार्थों के अवैध कारोबारियों से घूस लेने के आरोप भी अक्सर लगते रहे हैं. अफ़ग़ान संसद में भी ये मामला उठता रहा है. सितंबर, 2005 में तत्कालीन अमेरिकी राजदूत रोनाल्ड न्यूमैन ने बुश प्रशासन को भेजे नोट में चेताया था कि नशीले पदार्थ भ्रष्टाचार का मुख्य कारण हो सकते हैं और इससे अफ़ग़ानिस्तान में उभरता हुआ लोकतंत्र तबाह हो जायेगा.

बहरहाल, अफ़ीम के ख़िलाफ़ करज़ई के कथित जेहाद का जो हुआ, वह तो दुनिया के सामने है, लेकिन जब 2000 में मुल्ला उमर ने अफ़ीम की खेती के लिए मना किया था, तब उसका बड़ा असर हुआ था. कौन किसान तालिबानियों से पंगा लेता! साल 2000 और 2001 के बीच अफ़ीम की खेती में 90 फ़ीसदी की गिरावट आयी थी. लेकिन इसका ख़ामियाज़ा भी तालिबान को भुगतना पड़ा. जब अमेरिका ने अफ़ग़ानिस्तान पर हमला किया, तब तालिबान के साथ कोई खड़ा नहीं हुआ. अनेक विश्लेषकों का मानना है कि इसका एक बड़ा कारण अफ़ीम पर पाबंदी लगाना था.

द वाल स्ट्रीट जर्नल के एक लेख में रेखांकित किया गया है कि अमेरिका ने अफ़ीम की खेती बंद कराने के अपने प्रयास 2010 आते-आते रोक दिया. इसकी एक वजह यह भी थी कि इस प्रयास के चलते ग्रामीण आबादी का बड़ा हिस्सा तालिबान से जुड़ने लगा था. अमेरिकियों ने ऐसी भी कोशिशें की कि केसर, पिस्ता, अनार आदि की खेती को बढ़ावा मिले, पर इन उत्पादों के निर्यात के रास्ते बहुत सीमित थे.

ख़बरों के अनुसार, भविष्य की अनिश्चताओं के कारण अफ़ग़ानिस्तान में अफ़ीम के भाव दो-तीन गुना बढ़ गये हैं. तालिबान ने भी किसानों को यह भरोसा दिलाया है कि वैकल्पिक फ़सलों की व्यवस्था होने के बाद ही अफ़ीम पर रोक लगायी जायेगी. यह तो आगामी दिनों में ही पता चलेगा कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय इस दिशा में क्या और कितना सहयोग देगा. तालिबान सरकार के सामने नशे के आदी हो चुके लाखों अफ़ग़ानों के उपचार की समस्या भी है.

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नशीले पदार्थों के कारोबार का जो नेटवर्क पसरा हुआ है, उससे भी दुनिया, ख़ासकर बड़े देशों, को निपटना है. पिछले साल अफ़ीम और इससे बनी चीज़ों की लत ने अमेरिका में लगभग 70 हज़ार लोगों की जान ली है. जिन देशों में सबसे अधिक अवैध अफ़ीम और उससे निर्मित चीज़ें पकड़ी जाती हैं, उनमें भारत भी शामिल है. भारत की मुश्किल इसलिए भी बढ़ जाती है कि अफ़ग़ानिस्तान और बर्मा के पड़ोस में होने के साथ देश में भी ग़ैरक़ानूनी तरीक़े से अफ़ीम की खेती होती है. फिर एक उलझा हुआ जटिल मामला दवाइयों और दवा उद्योग का भी है.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)

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