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'पक्ष'कारिता: अफगानिस्तान में तालिबान, हिंदी अखबारों में गंगा नहान
बिल्ली के भाग से छींका फूटा! अफगानिस्तान में तालिबान आया! आज जब एक अंक के नागा के बाद आप पक्षकारिता का यह अंक पढ़ रहे होंगे तो पिछला अंक पढ़े हुए आपको महीना भर हो गया होगा. बीते 1 अगस्त को इस स्तम्भ में हिंदी अखबारों के संपादकीय पन्नों पर छपने वाली सामग्री का एक विश्लेषण आपने पढ़ा था. उस समय तक न तो तालिबान खबरों में था न ही अफगानिस्तान, लेकिन याद करिए उसमें क्या लिखा था:
''...दानिश के बहाने तालिबान केंद्रित लेखों की अचानक अखबारों में बाढ़ आ गयी और राष्ट्रीय सुरक्षा पर धड़ाधड़ संपादकीय छपने लगे. अफगानिस्तान, चीन, पाकिस्तान और तालिबान इस समय हिंदी के विचार संपादकों की पहली पसंद हैं. लगातार इन विषयों पर लेख छप रहे हैं. इतने हैं कि गिनवाना मुश्किल है यहां...।''
या तो हिंदी के अखबार नजूमी हो गए हैं जो आने वाले वक्त की नब्ज़ पकड़ लेते हैं या फिर कोई पुराना गुप्तरोग है जो रहे-रहे बाहर आ जाता है- आन, बान, शान, पाकिस्तान, तालिबान के नाम पर. जिस दिन अफगानिस्तान की राजधानी काबुल पर तालिबान का कब्ज़ा मुकम्मल हुआ उस दिन अपने यहां ज्यादातर अखबार आज़ादी मना रहे थे और अगले दिन अधिकतर प्रेस में छुट्टी थी, इसके बावजूद 16 अगस्त को जो अखबार छपे उनके लिए यह जाहिर तौर से बड़ी खबर थी. जनसत्ता जैसे शाकाहारी अखबार ने भी संपादकीय पेज पर छाप दिया तालिबान के बारे में; नवभारत टाइम्स, हिंदुस्तान और जागरण ने तो छापा ही छापा. अब अफसोस हो रहा है कि पिछले अंक में तालिबान केंद्रित सामग्री की गिनती क्यों नहीं की. समझ में आ जाता कि टेम्पो पहले से कितना हाई था.
बहरहाल, पिछली कड़ी को ही आगे बढ़ाते हुए इस अंक में हिंदी के अखबारों के संपादकीय पन्नों पर तालिबान की कवरेज पर बात- इस कवरेज का अर्थ है तालिबान और अफगानिस्तान पर केंद्रित संपादकीय, संपादकीय और विचार के पन्नों पर छपे लेख, फीचर और व्यंग्य भी. आगे बढ़ने से पहले आप समझ ही गए होंगे कि जिसके भाग्य से तालिबान का छींका अफगानिस्तान में फूटा है, वो बिल्ली कोई और नहीं अपने हिंदी अखबार ही हैं. फिर भी, इंतजार कीजिए, शिकारी और भी हैं.
अखबारों का 'तालिबानीकरण'
सुन कर अजीब लगेगा कि हमारे हिंदी के अखबारों का 'तालिबानीकरण' हो गया है, लेकिन इसकी तस्दीक संपादकीय और विचार के पन्नों पर छपी सामग्री की संख्या करती है. 16 अगस्त से 31 अगस्त के बीच नौ अखबारों के संपादकीय और विचार वाले पन्नों का एक कंटेंट अनालिसिस बताता है कि इन सभी ने बीते एक पखवाड़े में कम से कम 152 लेख तालिबान पर छापे हैं.
काबुल पर तालिबान का कब्जा 15 अगस्त को हुआ. यह सबसे बड़ी घटना थी. इसके बाद की दूसरी बड़ी घटना थी काबुल एयरपोर्ट पर बम धमाके, जो 12 दिन बाद 27 अगस्त को हुए. खबरों की दुनिया चूंकि घटनाओं से संचालित होती है तो माना जा सकता है कि इन दो तारीखों के एक-दो दिन तक अखबारों में मुद्दा छाया रहा होगा. भारत में गूगल पर खोजे जाने वाले कीवर्ड के ट्रेंड बताते हैं कि बिल्कुल ऐसा ही था.
ऊपर दिख रहे ट्रेंड के ग्राफ में 17 अगस्त से थोड़ा पहले और कुछ बाद तक अफगानिस्तान और तालिबान के खोजे जाने का पीक दिखता है. 26 अगस्त तक आते-आते मामला गोता मार रहा है. नीचे कुछ और ट्रेंड देखें. पहली तस्वीर में भारत में तालिबान के सर्च का ट्रेंड 27 अगस्त को थोड़ा सा उछला है, उसके बाद से औसतन नीचे ही चल रहा है. दूसरे ग्राफ में भी यही हाल है- 27 अगस्त को दो पीक दिख रहे हैं, फिर मामला ठंडा पड़ गया है.
जाहिर है, जनता भी घटनाओं से ही संचालित होती है. दो घटनाओं के बीच उसका उत्साह ठंडा रहता है. अपने हिंदी के अखबार इस मामले में अपवाद हैं. वे 16 अगस्त से लगातार गरमाये हुए हैं. अपने भी और माहौल को भी. आइए, आंकड़े देखते हैं. आगे बढ़ने से पहले बता दें कि ये आंकड़े 'कंजरवेटिव' हैं यानी कम से कम हैं- इसलिए क्योंकि ये केवल नौ अखबारों के हैं और इसलिए भी कि केवल उपलब्ध संस्करणों से ये लिए गए हैं.
बीते 16 अगस्त से 31 अगस्त 2021 के बीच हिंदी के अखबारों द्वारा तालिबान पर छापी गयी वैचरिक सामग्री का लेखाजोखा देखिए. कितने दिनों का आंकड़ा है, यह इन अखबारों के सामने कोष्ठक में लिखा है. नौवां अखबार हरिभूमि है जिसका आंकड़ा दो अंकों से कम है, इसलिए यहां दर्ज नहीं है.
दैनिक जागरण (13 दिन) : 37
दैनिक भास्कर (13 दिन) : 19
हिंदुस्तान (12 दिन) : 18
राजस्थान पत्रिका (13 दिन) : 18
अमर उजाला (12 दिन) : 16
नवभारत टाइम्स (11 दिन) : 14
पायनियर हिंदी (7 दिन) : 12
जनसत्ता (10 दिन) : 11
पिछली बार की तरह इस बार भी दैनिक जागरण पहले नंबर पर है. वैसे ही भास्कर दूसरे नंबर पर और पत्रिका व हिंदुस्तान तीसरे पर हैं. अब इसके हिसाब से एक अंदाजा लगाते हैं. अखबार पंजीयक की सरकारी वेबसाइट के अनुसार भारत में करीब 48000 हिंदी के अखबार पंजीकृत हैं. इनमें से करीब 15000 ने अपने सालाना बहीखाते सरकार को जमा करवाए हैं. इसका मतलब कि ये 15000 अखबार बाकायदा छप रहे हैं, ऐसा माना जा सकता है. कुल हिंदी अखबारों का प्रसार करीब 20 करोड़ आबादी तक होता है, ऐसा सरकार का आंकड़ा है (2017-18 में साढ़े उन्नीस करोड़ था तो इसके बाद के चार साल का मिलाकर 20 करोड़ मान लेते हैं).
अगर दस बड़े अखबारों ने दो हफ्ते में 150 लेख तालिबान पर छापे तो इसका मतलब ये हुआ कि रोजाना औसतन 10 लेख तालिबान पर छप रहे हैं. प्रसार की सबसे बड़ी संख्या वाले दैनिक जागरण और दैनिक भास्कर को छोड़ दें, तो अकेले पंजाब केसरी अपने अध्ययन में शामिल नहीं है. 15 हजार हिंदी के प्रकाशनों पर जाने की जरूरत ही नहीं है. बस इतना अंदाजा लगा लीजिए कि रोजाना 20 करोड़ हिंदभाषी आबादी के पास विचार और संपादकीय के पन्नों पर पढ़ने को तालिबान का विकल्प तालिबान ही है. और वो लगातार 15 दिन से नहीं, पत्रकार दानिश सिद्दीकी के मारे जाने के बाद से मने महीने भर से तालिबान पर ही लेख पढ़ रहे हैं.
जैसा टीवी में होता है, कि आजतक को देखकर एबीपी अपना कंटेंट तय करता है और इन बड़े चैनलों को देख कर सब छोटे वाले खबर चलाते हैं, वही हाल अखबारों में भी होना चाहिए. खासकर इसलिए कि छोटे अखबारों के पास लिखवाने के बदले देने को संपर्क और पैसे नहीं होते. इस तरह से देखें तो कम से कम 15 हजार अखबार एक लेख के हिसाब से भी बीते पखवाड़े रोजाना कुल 15 हजार लेख तालिबान पर छाप रहे होंगे! उनमें भी एक ही लेख कई बार आगे-पीछे छप रहा होगा, जैसा शेखर गुप्ता के साथ होता है.
तालिबान एक्सपर्ट मतलब कौन?
अकेले शेखर गुप्ता तालिबान एक्सपर्ट नहीं हैं, मोतियों की लंबी अनाम सी माला है. आइए, बड़े अखबारों के लेखकों का चेहरा देख लें एक बार, बात और साफ होगी. अव्वल तो भारतीय जनता पार्टी के नेता, प्रवक्ता और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े लोग तालिबान के एक्सपर्ट हैं. उसके बाद बारी आती है विदेश सेवा से जुडे अधिकारियों और फौजियों की. फिर आते हैं कुछ छुटभैया लेखक जिन्हें तालिबान के बहाने विषवमन का थोड़ा मौका मिला है. ये लेखक सरोगेट विज्ञापन करते हैं. तालिबान का नाम लेकर मुसलमान और इस्लाम पर लेख लिखते हैं. मसलन, अवधेश कुमार आजकल अफगान एक्सपर्ट बन गए हैं. मौसम ही ऐसा है!
अगस्त के आखिरी दिन का नवभारत टाइम्स देखिए- कोई नहीं मिला तो सीधे भाजपा के राष्ट्रीय मीडिया प्रभारी को ही छाप दिया गया. नवभारत टाइम्स को मोटे तौर पर न्यूट्रल माना जाता है. जब न्यूट्रल दाएं भाग गया, तो बाकी का क्या कहना.
दैनिक जागरण रोज तीन-चार लेख तालिबान पर छाप रहा है. इसको मुखौटे की जरूरत नहीं, ये सीधे संघ के नेताओं को छापता है. संघ के नेता कैरमबोर्ड खेलने में माहिर हैं. अफगानिस्तान के स्ट्राइकर से केरल में वामपंथ का शिकार करते हैं. तस्वीर देखिए, 20 अगस्त को जागरण के संपादकीय पन्ने की है.
क्या आपको जिज्ञासा है कि संघ और भाजपा के अलावा बाकी लोग क्या लिख रहे हैं? एक व्यंग्यकार हैं आलोक पुराणिक, जो दिल्ली विश्वविद्यालय में कुछ पढ़ाते भी हैं. लंबे समय से लोग उन्हें व्यंग्यकार के रूप में जान रहे हैं. उन्होंने 24 अगस्त को दैनिक ट्रिब्यून में 'उलटबांसी' के नाम से जो लिखा है, उसे व्यंग्य किस पैमाने पर कहा जाएगा ये आप खुद तय करें.
आलोक पुराणिक इतना उम्दा व्यंग्य लिखते हैं कि इन्हें हिंदुस्तान भी छापता है. चुपके से इन्होंने मुनव्वर राणा पर चुटकी ली है और अंत में लिखा है कि शायर और तालिबान नेता ने मिलकर पत्रकार को पीट दिया.
लेखों से लेकर व्यंग्य तक, विदेश सेवा के पूर्व अधिकारियों से लेकर नेताओं और लेखकों तक, तालिबान पर सबकी भाषा एक है. जरूरी नहीं कि सीधे भाजपा और संघ के नेता ही छपें, जो छप रहा है उन्हीं के श्रीमुख से निकला हुआ लग रहा है. 20 करोड़ लोग रोज अलग-अलग अखबारों में भाजपा और संघ की वैचारिक लाइन पढ़कर ये समझ रहे हैं कि सरकार और अखबार सब के सब तालिबान के घोर खिलाफ हैं. इससे एक धारणा बन रही है जिसमें तालिबान, इस्लाम, मुसलमान सबका घोर-मट्ठा बन गया है.
असली उलटबांसी
ऐसे में हमारी सरकार क्या कर रही है? ये समझने के लिए खोज कर डॉ. वेदप्रताप वैदिक के लेख पढ़ लीजिए- खोजकर इसलिए क्योंकि बीते पांच दशक से अफगानिस्तान पर निजी रिश्ते और प्रामाणिक जानकारी रखने वाला यह दक्षिणपंथी विद्वान आजकल अखबारों के लिए अछूत हो गया है. केवल दैनिक भास्कर में डॉ. वैदिक का लेख दिखा, और किसी बड़े अखबार में नहीं. वजह? वैदिक लगातार पहले दिन से भारत सरकार की सुस्ती और अमेरिकापरस्ती की आलोचना कर रहे हैं. यह बात जनता तक नहीं पहुंचने देनी है, इसलिए वैदिक को अब अखबार नहीं छाप रहे.
दिल्ली के प्रेस क्लब ऑफ इंडिया में पूर्व राजनयिकों के साथ डॉ. वैदिक की एक पैनल परिचर्चा थी बीते दिनों, जिसमें उन्होंने बहुत तफ़सील से पूरा मामला समझाते हुए बताया था कि तालिबान से भारत सरकार को क्यों बात करनी चाहिए. इस वीडियो को आप चाहें तो नीचे देखकर खुद मामला समझ सकते हैं.
असली उलटबांसी यह है कि काबुल हवाई अड्डे पर हुए हमले पर तालिबान को अमेरिका ने बिल्कुल निर्दोष बताया तो अब भारत ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के अध्यक्ष के नाते जो बयान जारी किया है, उसमें आतंकवाद का विरोध तो किया गया है लेकिन उस विरोध में तालिबान शब्द कहीं भी नहीं आने दिया है जबकि 15 अगस्त के बाद जो पहला बयान था, उसमें तालिबान शब्द का उल्लेख था.
सवाल है कि 20 करोड़ लोगों को तालिबान पर रोज टनों अक्षर पढ़वाने वाले अखबारों ने क्या यह सूचना उन्हें दी? बीबीसी हिंदी और एकाध वेबसाइटों को छोड़ दें, तो अखबारों में अकेले हिंदुस्तान ने हेडिंग में लिखा है कि भारत ने बतौर अध्यक्ष 'तालिबान' का नाम बयान में से हटा दिया है, बाकी सबने 'सकारात्मक' हेडिंग दी है कि अफगानिस्तान पर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद से जारी प्रस्ताव में भारत की चिंताओं को शामिल किया गया है.
20 करोड़ का सवाल
आखिर ऐसा क्यों है कि तालिबान पर सरकार कर कुछ और रही है और जनता को अखबार बता कुछ और रहे हैं? याद कीजिए 2019 के लोकसभा चुनावों के अंतिम परिणामों का आंकड़ा- भारतीय जनता पार्टी को कुल मिले वोटों की संख्या थी 229,076,879 जो कुल पड़े वैध वोटों का 37.36 प्रतिशत है जिससे लोकसभा में उसे 303 सीटें आयी थीं. दूसरे स्थान पर रही कांग्रेस पार्टी को 11 करोड़ के आसपास वोट मिले थे जो साढ़े 19 प्रतिशत के आसपास थे. यानी भाजपा को पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने के लिए सवा अरब लोगों के इस देश में केवल बीसेक करोड़ वोटों की ही जरूरत है!
अब इतने वोटर तो अकेले हिंदी पट्टी में ही हैं जो हिंदी के अखबार पढ़ते हैं! संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में हमारी 'अध्यक्ष' सरकार कुछ भी करती रहे, अखबार 20 करोड़ पाठकों को वही बताएंगे जो सरकार चलाने वालों के लिए फायदेमंद होगा. ये है अखबारों के तालिबान प्रेम का असली सूत्र! ऐसे में भारत सरकार उर्फ भाजपा उर्फ आरएसएस के लिए अंतरराष्ट्रीय मंचों पर कोई शर्मिंदगी या हार भी हाथ लगी, तो उसे अपने घर में कोई फर्क नहीं पड़ता है. फिसल गए तो हर हर गंगे जैसा मामला है! अब 20 करोड़ की गिनती गिनिए और चैन से सोचिए कि असली 'किस्मतवाला' कौन है?
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