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बिना खिड़की वाले 10 बाई 10 के कमरे में क्यों एकांत कारावास में कैद है हिमायत बेग
तारिक बेग को जब भी नासिक सेंट्रल जेल से कोई भी चिट्ठी या फोन आता है, तो वह असहाय होने की भावना से घिर जाते हैं. ऐसा इसलिए क्योंकि ये उन्हें याद दिला देता है कि उन का छोटा भाई अभी भी एकांत कैद या अंडा सेल में पड़ा है, जबकि जिन आतंकवाद के आरोपों के अंतर्गत उन्हें जेल में डाला गया था उन आरोपों से वो बरी हो चुके हैं.
35 वर्षीय हिमायत बेग को सितंबर 2010 में गिरफ्तार किया गया था. उन पर फरवरी 2010 में हुए जर्मन बेकरी ब्लास्ट में शामिल होने का आरोप था. भारतीय दंड संहिता की धारा 73 और 74 के उल्लंघन में तभी से वह अंडा सेल में पड़े हैं. धारा 73 कहती है कि किसी भी व्यक्ति को एकांत कैद में 30 दिन से अधिक तक नहीं डाला जा सकता अगर उसकी सजा 6 महीने से कम है, अगर सज़ा एक साल से कम है तो यह समय 60 दिन का है और अगर सज़ा एक साल से ज्यादा है तो व्यक्ति को तीन महीने से अधिक समय के लिए एकांत कैद में नहीं रखा जा सकता. यह नियम कैदी के अपराध पर निर्भर नहीं करते बल्कि सब पर समान रूप से लागू होते हैं. वहीं धारा 74 कहती है कि एकांत कैद का समय एक बार में 14 दिन से अधिक का नहीं हो सकता.
हिमायत जिस अंडा सेल में हैं वह 10 बाई 10 फीट का कमरा है, जिसमें कोई खिड़की नहीं है. क्योंकि अंडा सेल में डाले जाने वाले कैदी मानवीय संपर्क से वंचित रहते हैं इसलिए उनमें मानसिक परेशानियां, समाज से दूरी बनाने की प्रवृत्ति, आत्महत्या करने की प्रवृत्ति और असंयमित गुस्से जैसी परेशानियां पैदा हो जाती हैं.
हिमायत कभी पैरोल पर आजाद नहीं हुए हैं और अपने बाकी साथी कैदियों की तरह उसे जेल के अंदर आजीविका कमाने की भी मंजूरी नहीं है.
बता दें कि सुप्रीम कोर्ट ने एकांत कारावास को "कैदियों को बाकी कैदियों से पूरी तरह से अलग और अकेले रखना, तथा जेल के अंदर की बाहरी दुनिया से अलग रखना" कहकर परिभाषित किया है. इस बात को भी इंगित किया है कि यह सज़ा चाहें जिसे मिले लेकिन वह शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए विनाशकारी होती है.
संयुक्त राष्ट्र के नेल्सन मंडेला नियमों के अनुसार 15 दिन से ज्यादा का एकांत कारावास एक प्रकार की यातना ही है.
हिमायत को पुणे की एक अदालत ने 2013 में आतंकवाद का दोषी पाया था और मौत की सजा दी थी, लेकिन इस निर्णय को अपील करने के बाद मार्च 2016 में हाईकोर्ट ने इसे खारिज कर दिया था. हाईकोर्ट ने हिमायत को विस्फोटक पदार्थ रखने के आरोप में दोषी पाया और उम्र कैद की सज़ा निम्नलिखित टिप्पणी करने के बाद सुनाई, "ऐसा मानने का कोई कारण नहीं है कि आरोपी से मिले हुए विस्फोटक, यूएपीए कानून के अनुच्छेद 15 के अनुसार परिभाषित आतंकवाद की घटना को अंजाम देने के लिए इस्तेमाल हुए होंगे."
इस निर्णय के खिलाफ उनकी याचिका सुप्रीम कोर्ट में लंबित है.
हिमायत को आतंकवाद के आरोपों से बरी कराने वाले वकील दिल्ली के महमूद प्राचा हैं. प्राचा को हिमायत का पक्ष अदालत में रखने के लिए एक मुस्लिम संस्था जमात उलेमा-ए-हिंद लेकर आई, जो कि युवा पुरुषों पर लगे झूठे आतंकवाद के आरोपों के लिए मुफ्त कानूनी सहायता प्रदान करती है. हिमायत पर लगे आतंकवाद के आरोपों का जिक्र करते हुए प्राचा दावा करते हैं, "वे पुलिस के द्वारा रचे गए झूठे मामले थे. उसे केवल विस्फोटक सामग्री रखने की सज़ा हुई जो आतंकवाद के अंदर नहीं आता और इसके अंतर्गत आईपीसी के नियमों के अनुसार उसे अंडा सेल में नहीं रखा जा सकता."
2019 में हिमायत ने अपने दोस्त अब्दुल रहमान अहमद को अंडा सेल में अपने हालात के बारे में पत्र लिखा. उन्होंने लिखा कि उन्हें आतंकवाद के आरोपों से बरी होने के बावजूद एकांत कारावास में रखा जा रहा था, जबकि 1993 के मुंबई बम धमाकों के अभियुक्त भी "आम जेल में रह रहे थे और काम भी कर रहे थे. मैं सो नहीं पाता, मेरी आंखें कमजोर हो गई हैं, मुझे ब्लड प्रेशर भी हो गया है." उन्होंने यह भी लिखा कि वह सालों से जेल के अधिकारियों से अंडा सेल से बाहर निकालने की विनती कर रहे हैं, लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला.
हिमायत को पिछले साल जनवरी में अपने पिता के अंतिम संस्कार के लिए भी बाहर नहीं जाने दिया गया, वे मृत्यु से पहले पूरी तरह से हतोत्साहित और उम्मीद खो चुके थे. 41 वर्षीय तारिक बेग जो अपने परिवार के साथ महाराष्ट्र के बीड में रहते हैं, कहते हैं, "हमारे पिता ने हिमायत का केस एक दशक से ज्यादा समय तक इस उम्मीद से लड़ा कि एक दिन हम उसे बाहर निकाल पाएंगे. वे यह देखे बिना ही गुज़र गए. हिमायत को उनका अंतिम संस्कार के लिए भी नहीं निकलने दिया गया. जब भी वह मुझसे बात करता है या लिखता है, वो मुझे अंडा सेल में अपनी हालत के बारे में बताता है और उसे वहां से बाहर निकालने की मिन्नतें करता है. वह निर्दोष है वरना उसे आतंकवाद के आरोपों से बरी नहीं किया गया होता. वह हमारे परिवार में इकलौता पढ़ा-लिखा लड़का था और हमारे मां-बाप को उससे बड़ी उम्मीदें थीं. अब हमारे पिता नहीं रहे और हमारी मां 6 साल से बिस्तर पकड़े हुए हैं. मुझे नहीं पता उसे बाहर कैसे निकालूं."
2016 में, जमीयत ने हिमायत के लिए नए वकील रखे जिनसे तारिक बिल्कुल भी प्रभावित नहीं थे. उनकी आर्थिक हालत ऐसी नहीं कि वह खुद एक वकील रख सकें, परिवार बहुत गरीब है. इसके चलते उन्होंने पुणे के एक एक्टिविस्ट अंजुम इनामदार की मदद लेने की कोशिश की.
अंजुम कहते हैं कि उन्होंने हिमायत के परिवार की तरफ से एडीजी जेल के कार्यालय में प्रार्थना पत्र जमा किए हैं. "मैंने हिमायत को अंडा सेल से निकालने के लिए करीब आधा दर्जन पत्र जमा किए, कभी भी सकारात्मक जवाब नहीं आया."
हमने नासिक सेंट्रल जेल के अधीक्षक प्रमोद वाघ से पूछा की हिमायत को कानून के विरुद्ध एकांत कारावास में क्यों रखा जा रहा है? उन्होंने जवाब दिया, "आप किस कानून के बारे में बात कर रहे हैं? मैं आपके प्रश्नों का जवाब नहीं दे सकता. आप मेरे दफ्तर में लिखित एप्लीकेशन भेजिए, तब मैं आपको जवाब देने के बारे में सोचूंगा."
हमने वाघ को अपने प्रश्न ईमेल किए लेकिन उन्होंने जवाब नहीं दिया, उनकी तरफ से जवाब आने पर रिपोर्ट में जोड़ दिया जाएगा.
हमने एडीजी जेल सुनील रामानंद से भी इस बारे में बातचीत के लिए संपर्क किया, लेकिन उन्होंने कोई भी टिप्पणी करने से मना कर दिया.
डीआईजी जेल योगेश देसाई कहते हैं, "किसी को भी अंडा सेल या कहीं और रखने का निर्णय पूरी तरह से जेल अधीक्षकों के हाथों में होता है. उनके कैदियों को लेकर अपनी एक समीक्षा होती है जिसके आधार पर वे उन्हें अंडा सेल में रखते हैं. हम उनके मामलों में दखल नहीं देते."
क्या ऐसा संभव नहीं है वे इस प्रक्रिया में कानून का उल्लंघन कर रहे हैं? इसके जवाब में वे कहते हैं, "आपको जेल अधीक्षक से बात करनी चाहिए."
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