Opinion
अमेठी संग्राम: स्मृति ईरानी का संघर्ष और गांधी परिवार की हार
इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि स्मृति ईरानी ने अमेठी में कांग्रेस नेता और तत्कालीन अध्यक्ष राहुल गांधी को 2019 लोकसभा चुनाव में हराकर ऐतिहासिक जीत हासिल की. बड़े-बड़े चुनावी पंडित भी इस बात का अंदाजा नहीं लगा पाए थे कि अमेठी से राहुल गांधी को हराया जा सकता है. अमेठी नेहरु-गांधी परिवार का गढ़ रहा है. लेकिन इस किले को भाजपा नेत्री स्मृति ईरानी ने 2019 के लोकसभा चुनाव में भेद दिया. इससे पहले ईरानी 2014 का लोकसभा चुनाव इसी सीट से हार गई थीं.
वरिष्ठ पत्रकार अनंत विजय ने स्मृति की अमेठी जीत पर 228 पन्नों की एक किताब लिखी है. स्मृति की जीत नि:संदेह डेविड और गोलियथ की कहानी की याद दिलाती है. इस किताब में अनंत विजय स्मृति ईरानी के उस पक्ष पर रोशनी डालते हैं जो आमतौर पर आम लोगों के सामने नहीं आती. परदे के पीछे क्या चल रहा था, स्मृति किस तरह से इस असंभव सी दिख रही जीत के लिए हिम्मत बांध कर डटी रहीं. अनंत वह सब सामने लाने में सफल रहे. हालांकि अनंत के मुताबिक वो राजनीति पर किताब लिखना ही नहीं चाहते थे फिर भी उन्होंने अपने उस फैसले को दरकिनार कर अमेठी के चुनावी इतिहास को खंगाला और यह किताब लिखी. वजह शायद वही रही कि अमेठी का चुनावी नतीजा असाधारण था. स्मृति ने आजाद भारत के उस परिवार को मात दी थी जिसके खानदान ने देश को तीन-तीन प्रधानमंत्री दिए.
हर किताब की तरह ही इस किताब के भी दो पहलू हैं, कुछ अच्छाइयां, कुछ कमियां. कुछ अच्छी जानकारियां और कुछ मिजाजपुर्सी. 228 पन्नों की किताब पढ़ते वक्त कई मौकों पर आपको लगेगा कि यह किताब किसी स्वतंत्र पत्रकार ने नहीं बल्कि भाजपा के किसी पूर्णकालिक कार्यकर्ता ने लिखी है.
लेखक अनंत विजय का दावा है कि उन्होंने इस किताब को लिखने से पहले अमेठी लोकसभा क्षेत्र का दौरा किया. इस दौरान वह स्मृति ईरानी के किराए वाले घर भी गए जिसे चुनाव के दौरान महलनुमा बताया गया था. अनंत का कहना है कि वह एक सामान्य घर था. यही नहीं वह स्मृति के उस किराए के घर (आलोक ढाबा) में भी गए जिसमें रहकर उन्होंने 2014 का लोकसभा चुनाव लड़ा था. वह किताब में जिक्र करते हैं कि तब एक पत्रिका ने बताया था कि उस घर में दर्जनों एसी लगे थे. जबकि वह किताब में लिखते हैं कि वहां तो उतने कमरे भी नहीं थे.
लेखक ने अपने इस दौरे में कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और लोकसभा क्षेत्र के अलग-अलग इलाकों के लोगों से विस्तृत बातचीत कर उनकी राय जानी. बड़े पैमाने पर लोगों से बात करने के बाद उन्होंने एक चौंकाने वाला निष्कर्ष निकाला कि अमेठी कभी कांग्रेस का गढ़ रहा ही नहीं. ऐसा क्यों? इसकी चर्चा उन्होंने इस किताब में विस्तार से की है.
वह लिखते हैं कि 2014 का चुनाव हारने के बाद भी स्मृति ईरानी अमेठी में सक्रिय बनी रहीं, और लगातार अमेठी के लोगों के संपर्क में रहीं, उनकी मदद करती रहीं.
दिलचस्प बात यह है कि स्मृति ईरानी की अमेठी से चुनाव लड़ने की कोई योजना नहीं थी. तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने 22 मार्च, 2014 को रात में करीब 11:30 बजे फोन कर स्मृति को इसकी सूचना दी. इस पर ईरानी ने अपने पति जुबिन ईरानी और परिवार से राय लेने के बाद फैसला लिया. यह सब आधे घंटे में ही क्लियर हो गया और ईरानी ने रात 12 बजे तक अमेठी से चुनाव लड़ने का फैसला कर लिया.
अनंत लिखते हैं कि चुनाव के दौरान स्मृति को उनकी हत्या कर देने की धमकी मिली थी. लेकिन वह न तो घबराईं और न ही भयभीत हुईं. उन्होंने यह बात अपने पति से जरूर बताई थी. इसके बाद उनके पति जुबिन ईरानी घबरा गए और उन्होंने मुंबई के डॉक्टरों से संपर्क किया. यही नहीं उन्होंने जानना चाहा कि गोली लगने की परिस्थितियों में क्या किया जाना चाहिए? उन्होंने जानना चाहा कि इसके क्या उपाय हैं, कौन सा अस्पताल अच्छा है? आपातकालीन व्यवस्थाएं और सतर्कता क्या-क्या हो सकती है? और ऐसे हालात में वो क्या करेंगे?
उनके मित्रों ने उन्हें गुरुग्राम के मेदांता अस्पताल का नाम सुझाया. खास बात है कि जुबिन ने यह सब तैयारी बिना स्मृति को सूचना दिए ही कर डाली. इसके बाद पूरे चुनाव में जुबिन की गाड़ी और ड्राइवर अमेठी में ही स्मृति के साथ डटे रहे. उन्होंने यह तक तय कर लिया था कि गोली लगने की दशा में स्मृति ईरानी को अमेठी से लखनऊ, फिर दिल्ली और फिर वहां से मेदांता के गुरुग्राम कैसे पहुंचना है. हालांकि न ऐसा हुआ और न ही कभी इसकी जरूरत पड़ी.
किताब में यह भी बताता है कि स्मृति के आने से पहले अमेठी में सामान्य सुविधाएं तक नहीं थी, जबकि यह देश के एक बड़े राजनीतिक परिवार का चुनावी क्षेत्र था. अमेठी में न बिजली थी, न सड़क, न पानी, न ही शिक्षा और रोजगार. लेखक एक वाकए के बारे में बताते हैं, कि जब स्मृति पहली बार अमेठी की एक दलितों की बस्ती में गईं और पानी मांगा तो वहां की महिलाओं ने ये कहते हुए मना कर दिया कि मजाक मत करो. लेकिन बाद में जब स्मृति ने पानी पिया तो उन महिलाओं ने कहा कि यह पहली बार है जब किसी बाहरी ने हमारे यहां आकर पानी पीया है.
यहां कांग्रेस कैसे चुनाव जीतती आई, किताब उसकी भी पड़ताल करती है. अनंत के मुताबिक यहां बड़ा खेल लिफाफों के जरिए होता था. बड़े नेता आते थे और ठेकेदारों से मिलते थे, उन्हें कुछ देकर चले जाते थे. इसी तर्ज पर कांग्रेस यहां से चुनाव जीतती रही.
अनंत बताते हैं कि राहुल ने जितनी बार चौकीदार चोर है का नारा लगाया. कांग्रेस के उतने ही वोट कम हो जाते थे. राहुल गांधी 2014 का चुनाव जीतने के बाद भी अमेठी नहीं गए लेकिन स्मृति हारने के बाद भी वहां की हो गईं. इससे 2019 का नतीजा बदल गया.
किताब में कुछ बातों का बार-बार दोहराव भी है. राहुल गांधी के जरिए घुमा-घुमा कर गांधी परिवार को कोसा गया है. यह साफ दिखता है. लेखक का दावा है कि गांधी परिवार ने चुनाव लड़ने के लिए हमेशा पिछड़े क्षेत्रों को चुना. जैसे पंडित जवाहरलाल नेहरू इलाहाबाद को छोड़कर फूलपुर और इंदिरा गांधी ने प्रयागराज को छोड़कर रायबरेली से चुनाव लड़ा, जबकि इंदिरा प्रयागराज में ही पैदा हुईं और उन्होंने अपना वैवाहिक जीवन भी वहीं बिताया. इसलिए इस परिवार को पिछड़े संसदीय क्षेत्र चुनने का लाभ मिला.
इतना ही नहीं किताब राजनीतिक मिलीभगत के दावे भी करती है. मसलन किताब कहती है कि कांग्रेस का साथ देने के लिए सपा और बसपा भी जिम्मेदार हैं. अमेठी में सपा-बसपा अपना उम्मीदवार सोनिया से तय करके उतारती थीं. ऐसा इसलिए होता था क्योंकि केंद्र में कांग्रेस की सरकार उनकी तमाम गड़बड़ियों पर आंखें मूंदे रहे.
लेखक ने स्मृति ईरानी की वर्ष 2014 से 2019 तक की राजनीतिक यात्रा को बारीक ढंग से दर्ज किया है. किताब के आखिरी चैप्टर में अमेठी की सियासत को आंकड़ों में समेटा गया है. स्मृति की जीत में भाजपा नेताओं और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की भी बड़ी भूमिका रही है. आरएसएस कार्यकर्ताओं ने बूथ-बूथ और ब्लॉक लेवल पर पहुंचकर स्मृति के लिए काम किया है. इस दौरान उन्होंने कांग्रेस की हर चाल की काट खोजी और वो कामयाब भी हुए. अंत में स्मृति ईरानी अमेठी से 55 हजार से अधिक मतों से जीतकर इतिहास में दर्ज हो गईं.
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