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उग्रवादी या आतंकवादी: कश्मीरी प्रेस की शब्दावली बदलने पर सरकारी दबाव

श्रीनगर के एक बड़े दैनिक अंग्रेजी अखबार के न्यूज़रूम में 10 जुलाई आम दिनों की तरह ही एक और दिन था. कई कॉपी एडिटर, प्रशासकीय सूचनाओं को अगले दिन के अंक के लिए संपादित करने में लगे हुए थे, जो वे 5 अगस्त 2019 में नई दिल्ली के द्वारा जम्मू कश्मीर की स्वायत्तता खत्म कर देने के बाद से कर रहे हैं.

शाम के समय अखबार को जम्मू-कश्मीर प्रशासन से सूचना मिली जिसमें घोषणा थी कि प्रशासन ने, 11 सरकारी कर्मचारियों को प्रशासन के कहे अनुसार "आतंकी संबंधों" के चलते निकाल दिया था. ऐसा एक नई नीति के अंतर्गत हुआ, जिसमें सरकारी कर्मचारियों की जांच के लिए बनाई गई एक स्पेशल टास्क फोर्स के द्वारा उग्रवादियों का समर्थन करने का आरोप लगने पर उन्हें बर्खास्त कर दिया जाएगा. निकाले गए कर्मचारियों में सैयद सलाहुद्दीन के भी दो बेटे थे, सलाहुद्दीन मुजफ्फराबाद में रहने वाले सबसे बड़े कश्मीरी उग्रवादी नेता हैं.

न्यूजरूम ने इस सूचना को भी बाकियों की तरह ही भाषा को थोड़ा साफ बनाकर और आडंबर को थोड़ा कम करके अखबार में लगा दिया होता. ऐसा होता, अगर प्रधान संपादक ने कॉपी एडिटरों‌ को यह न बोला होता कि उन्हें शीर्षक में भी "आतंक" शब्द इस्तेमाल करने का निर्देश दिया गया है.

स्टाफ ने ऐसे विवादित और पूर्वाग्रहों से भरे शब्द को इस्तेमाल करने से साफ मना कर दिया जो कश्मीर जैसे संघर्ष से घिरे इलाके में खतरे से खाली नहीं है. यह सुनकर संपादक फोन पर बात करने के लिए तेज़ी से कमरे से बाहर निकल गए.

वह कुछ मिनट बाद वापस आए, और उन्होंने स्टाफ को जानकारी दी कि उनके पास उनके ऊपर थोपी जा रही शब्दावली को मानने के अलावा और कोई चारा नहीं है. अखबार के एक अनुभवी पत्रकार याद करते हुए‌ बताते हैं, "उन्होंने कहा कि वे नहीं मान रहे". संपादक ने कभी नहीं बताया कि "वे' हैं कौन?.

स्टाफ विरोध में हड़ताल पर आ गया लेकिन रात के 10 बजते-बजते उन्हें यह अहसास हुआ कि बाकी सभी बड़े अखबारों ने अमूमन बात मान ली थी, कम से कम अंग्रेजी प्रेस ने.

अंततः ग्रेटर कश्मीर, जो सबसे ज्यादा वितरित होने वाला अंग्रेजी अखबार है, कश्मीर इमेजेस, कश्मीर मॉनिटर और कश्मीर ऑब्जर्वर, सभी ने प्रशासन के द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार अपने ऑनलाइन और छपने वाले अंको में, "आतंक" शब्द को जगह दे दी थीं. राइजिंग कश्मीर ने रिपोर्ट ऑनलाइन तो नहीं लेकिन अखबार में प्रकाशित की.

अखबार के एक दूसरे पत्रकार बताते हैं, "ऐसा पहली बार हुआ कि अखबार के अंदर किसी शीर्षक में 'आतंक' शब्द आया हो और वह भी पहले पन्ने पर. वे कहते हैं कि कश्मीर जैसी जगह पर इस तरह की तरफदारी दिखाने के परिणाम बुरे हो सकते हैं. वे बताते हैं, "इसलिए हम 'तथाकथित' शब्द का खुलकर इस्तेमाल थोड़ा संतुलन बनाने के लिए करते हैं."

लाइन पर आना

इसके एक हफ्ते बाद 17 जुलाई को श्रीनगर के अंग्रेज़ी और उर्दू, दोनों ही तरह के अखबारों को एक "ऑफ द रिकाॅर्ड" के रूप में चिन्हित संक्षिप्त विज्ञप्ति मिली, जो हटाए गए सरकारी कर्मचारियों में से चार शिक्षकों को अलग से निशाना बना रही थी.

विज्ञप्ति नोट के शीर्षक में लिखा था, "निलंबित शिक्षक आतंकवाद पढ़ा रहे थे" और इस गंभीर आरोप को "केंद्रीय कानून प्रवर्तन एजेंसियों" के बेनामी सूत्रों के हवाले से लगाया गया था. न्यूजलॉन्ड्री से वह नोट शेयर करते हुए एक दूसरे बड़े अखबार के सब एडिटर ने कहा, "उसमें जबरदस्त आरोप लगाए गए थे. अखबारों से कहा गया था कि उसे ऐसे ही चला दें. मेरे संपादक ने मुझे उसे संपादित करने के लिए बोला और जब मैंने उसे पढ़ा तो मैंने उनसे विनती की कि मुझे यह बाईलाइन न दें."

अपने संपादक से लंबी बातचीत के बाद इस सब एडिटर ने उस आरोप लगाने वाली "रिपोर्ट" को थोड़ा "नर्म किया" और फिर उसे बिना बाईलाइन के केवल अखबार में प्रकाशित किया, ऑनलाइन नहीं. उन्होंने कहा, "हमने आरोपी तक को उसका पक्ष जानने के लिए फोन नहीं किया."

कश्मीर रीडर ने यह कॉपी चलाई, लेकिन उसने अधिकतर जगह पर आतंकवादी की जगह उग्रवादी शब्द का प्रयोग किया. वहीं कश्मीर इमेजेस ने अपनी रिपोर्ट को यह जोड़कर "संतुलित" करने की कोशिश की, "हालांकि रज़िया सुल्तान इन आरोपों का खंडन करती हैं और कहती हैं की उन्हें अवैध रूप से फंसाया गया है. सोशल मीडिया पर डाले गए एक संदेश में रज़िया सुल्तान ने जोर देकर कहा कि उनका किसी भी आतंकवादी संगठन या गतिविधि से कोई संबंध नहीं है."

दो दिन बाद कश्मीर ऑब्जर्वर ने उस विज्ञप्ति में स्थानीय सरकारों के खिलाफ लगे आरोप पर आधारित एक रिपोर्ट चलाई. अखबार की रिपोर्ट का शीर्षक था, "चुनी हुई सरकारें अंदर ही अलगाववादी तत्वों पर लगाम लगाने में असफल", और अखबार ने यह सुनिश्चित किया कि "आतंकवाद" और "आतंक" को उद्धरण चिह्नों के अंदर ही रखा जाए.

अंग्रेजी प्रेस के मुकाबले श्रीनगर से प्रकाशित होने वाले उर्दू और कश्मीरी अखबारों ने कहीं ज्यादा विवेक दिखाया. तमील-इ-इरशाद ने 10 जुलाई की सूचना को शीर्षक में बिना "आतंकवाद" शब्द के प्रकाशित किया और उसकी जगह "देश विरोधी गतिविधियों" का प्रयोग किया गया, इसी तरह 17 जुलाई की विज्ञप्ति के शीर्षक में "आतंकवाद" शब्द की जगह उन्होंने "उग्रवाद" शब्द का प्रयोग किया.

आफताब ने अपने 11 जुलाई की हेड लाइन में "आतंकी सूत्रों" का जिक्र किया और विज्ञप्ति के लिए तामील-इ-इरशाद की तरह के शब्दों का ही उपयोग किया. इसके अतिरिक्त किसी भी अखबार ने उस विज्ञप्ति को पहले पन्ने पर नहीं चलाया.

चट्टन ने "देश विरोधी गतिविधियों" शब्दों का इस्तेमाल किया, और ऐसा ही राइजिंग के उर्दू और कश्मीरी संस्करणों बुलंद कश्मीर और संगरमल ने भी किया जिन्होंने 11 और 17 जुलाई दोनों ही दिन की खबरें चलाईं.

निदा-ए-मशरिक ने भी उस विज्ञप्ति को प्रकाशित नहीं किया और उसके बजाय 12 जुलाई को पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती के द्वारा निलंबनों की भर्तसना को प्रकाशित किया.

वह सब एडिटर बताते हैं, "अखबारों को स्पष्ट निर्देश हैं कि वह उग्रवादी शब्द का प्रयोग नहीं कर सकते. हमारे संपादक ने साफ कहा कि निर्देश "ऊपर" से आए हैं."

इसी तरह सभी तरह के अखबारों के कई संपादकों, सब एडिटरों और पत्रकारों ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया कि उन्हें या तो फोन पर या मैसेज के जरिए, यह निर्देश प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से दिया गया. लेकिन कोई भी प्रतिशोधात्मक कार्रवाई के डर से, दबाव कहां से आ रहा है यह नहीं बता रहा था.

एक संपादक ने साधारण तरीके से लेकिन ढके-छुपे अंदाज़ में कहा, "यह बिल्कुल ऊपर से आता है."

इसके बावजूद भी एक दूसरे संपादक, यह सब एडिटर और एक अग्रिम अखबार के मालिक केवल प्रशासन पर आरोप लगाने से हिचक रहे थे. उनका आरोप था कि बहुत से संपादक और मालिक या तो दबाव में बहुत जल्दी झुक जा रहे थे, या वे इस बहाने अपने स्टाफ की पत्रकारिता की धार कुंद करने और अधिकारियों को नाराज करने से बचने के लिए इस्तेमाल कर रहे थे.

यह सही भी है कि जैसे-जैसे भारत सरकार ने कश्मीर के और विशेष तौर पर मीडिया के चारों तरफ जो शिकंजा कसा है, उससे कई अखबारों ने प्रशासन से सवाल करने से बचने के लिए अपना राजनीति और टकराव का कवरेज सीमित कर दिया है.

वह सब एडिटर शिकायत करते हैं, "विकास' और 'इस व्यक्ति से मिलें’ नए वायरस बन गए हैं. मालिकों के लिए यह सामान्य व्यापार है. अगर अखबार के पहले पन्ने पर उपराज्यपाल हैं, तो उसे आधे या एक चौथाई पेज का विज्ञापन मिलना निश्चित है. कुछ तो अच्छा पैसा कमा रहे हैं. यह सामान्यतः समर्पण और समर्थन के जरिए है, धमकियों के नहीं. धारा 370 के हटने के बाद दबाव के चलते यह समर्पण हुआ था, अब हम बस सरकार का समर्थन कर रहे हैं."

मिसाल के तौर पर राइजिंग कश्मीर ने 5 अगस्त को मनोज सिन्हा प्रशासन की फिल्म नीति पर एक पूरे पन्ने का विज्ञापन छापा. 1 अगस्त को अखबार के पहले पन्ने पर राष्ट्रगान गायन प्रतियोगिता का तीन चौथाई पन्ने का विज्ञापन छपा. उससे पहले के 3 दिनों में अखबार ने तीन पहले पन्ने के विज्ञापन छापे, जो क्रमश: पयर्टन, सामाजिक वन-विज्ञान और खाद्य आपूर्ति विभाग के थे.

सरकारी मुलाजिमों को बर्खास्त किए जाने के दो दिन बाद अधिकतर अखबार 13 जुलाई 1931 की सालगिरह को याद करने से चूक गए. यह दिन कश्मीर के मुसलमानों के लिए एक ऐतिहासिक महत्व रखता है, जो इसे डोगरा राजा के सैनिकों द्वारा समान अधिकार और गरिमा की मांग करने वाले 22 कश्मीरियों के मारे जाने के शहीद दिवस के रूप में याद करते हैं.

नरेंद्र मोदी सरकार के द्वारा कश्मीर को अपने सीधे नियंत्रण में लाने से पहले 13 जुलाई राज्य का अवकाश हुआ करता था, जो अब अनाधिकारिक तौर पर बंद हो गया है.

इस साल तमील-इ-इरशाद ने शहीद दिवस पर नेशनल कांफ्रेंस का विज्ञापन छापा और सूचना के अनुसार प्रशासन से मिलने वाले विज्ञापनों से हाथ धो दिया. अखबार के संपादक न इसकी पुष्टि करते हैं और न ही खंडन, बस इतना कहते हैं, "एक मुद्दा था लेकिन अब वह सुलझ गया है."

अखबार ने 11 जुलाई के शीर्षक में आतंक की जगह "राष्ट्र विरोधी गतिविधियां" इस्तेमाल की थीं, लेकिन 17 जुलाई की विज्ञप्ति को उन्होंने बर्खास्त हुए "अध्यापक कट्टरवादी शिक्षाएं दे रहे थे" उपशीर्षक के साथ चलाया.

दबाव से पैंतरेबाज़ी

जैसे-जैसे जम्मू कश्मीर प्रशासन जाहिर तौर पर सर्वमान्य चीजों को बदलने की कोशिश कर रहा है, कई अखबारों ने अपने सांस लेने की जगह पाने के लिए कई तरकीबें निकाल ली हैं.

पहली तरकीब है सरकारी सूचनाओं को खास तौर से जो पुलिस से आती हैं, को विस्तार से उद्धरित करना. वह सब एडिटर समझाते हैं, "हम जितना हो सके उतना पुलिस के वक्तव्यों को इस्तेमाल करते हैं, जब जरूरत न हो तब भी जिससे "आतंक" और "आतंकवादी" जैसे शब्द उद्धरण चिह्नों में आ जाएं. इतना ही नहीं, हेड लाइन भी "जहां सबको पता है कि डबल कोट इस्तेमाल नहीं होते", ने "आतंकवादी" और "आतंकवाद" लगाना शुरू कर दिया है.

राइजिंग अखबार में, राज्य के समर्थन वाली शब्दावली इस्तेमाल करने से एक संकट की स्थिति पैदा हो गई थी जिसमें स्टाफ प्रतिरोध के लिए इस्तीफा देने की धमकी दे रहा था. अधिकतर बाकी बड़े अखबार शब्दावली में बड़ा बदलाव करने से बच निकले हैं और इससे अपने कर्मचारियों के रोष से भी बचे हैं.

20 जुलाई को एक मुठभेड़ की 400 शब्दों की रिपोर्ट में "आतंक" और "आतंकवादी” शब्द 13 बार इस्तेमाल हुए. पुलिस के द्वारा कथित तौर पर नव युवकों को हथियार उठाने से रोकने की एक रिपोर्ट में, पहले दो अनुच्छेदों में "आतंक" और "आतंकवादी" छः बार आया जबकि शीर्षक में यह दावे पुलिस के हवाले से थे. अगले दिन हेडलाइन ने सीधे घोषणा कर दी, "पुलिस ने 14 युवाओं को आतंकी समूह में शामिल होने से बचाया". तीन दिन बाद एक 700 शब्द के लेख में "आतंक" और "आतंकवादी" का इस्तेमाल 21 बार हुआ, लेकिन शीर्षक में नहीं.

अयाज़ ग़नी जिन्होंने राइजिंग कश्मीर के संस्थापक शुजात बुखारी की 2018 में हुई हत्या के बाद संपादक का कार्यभार संभाला, न्यूजलॉन्ड्री के द्वारा अखबार की संपादकीय दृष्टि को समझने के लिए फोन किए जाने पर आहत थे. उनके स्टाफ के जिन लोगों ने हम से बात की है उन्होंने यह जानने की मांग की.

स्टाफ के द्वारा छोड़कर जाने की धमकी के विषय पर वे दावा करते हैं, "यह पूरी तरह से गलत जानकारी है. ऐसा कुछ भी नहीं हुआ है. आप हमारे मामलों में सीधे-सीधे दखल दे रहे हैं. आपको यह हक किसने दिया? यह हमारा अंदरूनी मामला है. ऐसी कोई घटना नहीं हुई है. यह एक झूठ बात है."

ग़नी ने जोर देकर कहा कि वह अभी भी "उग्रवादी" शब्द का इस्तेमाल करते हैं. आप हमारा अखबार और वेबसाइट देख सकते हैं.

लेकिन अखबार "आतंक" और "आतंकवादी" जैसे शब्द बिना उद्धरण चिह्नों के इस्तेमाल कर रहा है. वे जवाब में कहते हैं, "जो शब्दावली आती है उसे हम इस्तेमाल करते हैं. इसमें क्या बात है?"

एक और तरकीब इन सूचनाओं को केवल अखबार में छापा जाना और ऑनलाइन न छापा जाना है. वह सब एडिटर बताते हैं, "कुछ कहानियां छपती हैं, कुछ केवल ऑनलाइन होती हैं. मायने रखती है सुबह 8:00 बजे से पहले डीआईपीआर को भेजी गई अखबार की पीडीएफ कॉपी, खासतौर से तब जब विज्ञापन दिए गए हों या कोई महत्वपूर्ण दिन हो जैसे कि उप राज्यपाल या राष्ट्रपति का दौरा."

कश्मीर में सभी अखबारों को अपने हर संस्करण की एक कॉपी सूचना और जनसंपर्क निदेशालय को भेजना अनिवार्य है.

"आतंक" शब्द

कश्मीर के पत्रकार केवल इलाके में होने वाले टकराव पर रिपोर्ट ही नहीं करते, वे अलग-अलग गुटों के बीच की चाकू की धार पर चलने के समान नाजुक परिस्थिति में जीते भी हैं. प्रशासन के द्वारा उनकी शब्दावली को पुनः परिभाषित करना उनके लिए एक नई चुनौती है जिसको लेकर उन्हें डर है कि उनकी सुरक्षा खतरे में पड़ सकती है.

भारत से लड़ने वाले कश्मीरियों को क्या कहकर बुलाया जाए यह पत्रकारों के लिए लंबे समय से संवेदनशील विषय रहा है. हालांकि अब इन गोरिल्ला पति के लड़ाकों को भारत सरकार "आतंकवादी" कह रही है, उन्हें कुछ वर्षों पहले तक "उग्रवादी" कहा जाता था. कश्मीरी बहुतायत में "स्वतंत्रता सेनानी" या "मुजाहिद" कहलाना पसंद करते हैं, जिसमें "मुजाहिद" उपमा उन्हें एक पंथी जामा भी पहना देती है. पिछले तीन दशकों में प्रेस ने एक तटस्थ शब्द के रूप में "उग्रवादी" को लेकर सम्मति बना ली थी जबकि कई कश्मीरियों को यह भी अस्वीकार्य है.

नेतृत्व विहीन कश्मीर एडिटर्स गिल्ड के एक सदस्य इंगित करते हैं कि "उग्रवादी शब्द, किसी व्यक्ति की नजर में मुजाहिद को नीचा दिखाना या किसी के लिए आतंकवादी का महिमामंडन, दोनों ही नहीं करता."

इसलिए अधिकारियों के द्वारा "आतंकवादी" या समान अर्थ रखने वाले शब्दों के उपयोग का निर्देश देना, उनके द्वारा केवल प्रेस को पक्षपाती बनने के लिए मजबूर करना है. सिर्फ इसलिए नहीं कि इस बात पर सर्वसम्मति नहीं है कि यह किस पर लागू होता है, बल्कि इसलिए भी क्योंकि यह उनसे उनकी काम करने की स्वतंत्रता छीनना भी है.

एक वरिष्ठ पत्रकार शोक जताते हैं, "हमें हमारी काम करने की उस जगह से हटाया जा रहा है जो हमने बहुत संघर्ष और कई मौतों के बाद कमाई थी. ये हमारी सुरक्षा खतरे में डाल रहे हैं."

एक संपादक जो मीडिया क्षेत्र में पिछले 30 वर्षों से काम कर रहे हैं, संभावित खतरों को स्पष्ट रूप से समझाते हैं, "कल अगर उग्रवादियों का पलड़ा भारी होता है या वह अखबारों पर "स्वतंत्रता सेनानी" लिखने का दबाव बनाकर अपनी ताकत का प्रदर्शन करने का निश्चय करें, तब हम क्या करेंगे? सरकार पत्रकारों को खतरे की चपेट में ला रही है."

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