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भारत के 25 उच्च न्यायालयों में पुरुष जज 567 तो महिला जज महज 77
15 अगस्त 2018 को लाल किले से भाषण देते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था, ‘‘यह हमारे लिए गर्व का विषय है कि हमारे देश के सुप्रीम कोर्ट में तीन महिला जज बैठी हुई हैं. कोई भी भारत की नारी गर्व कर सकती है कि तीन महिला जज न्याय कर रही हैं.’’
उस समय सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस इंदु मल्होत्रा, जस्टिस आर भानुमति और जस्टिस इंदिरा बनर्जी जज थीं. तीन साल बाद जब पीएम मोदी इसबार 15 अगस्त को लाल किला पर बोलने के लिए खड़े होंगे तो शायद ही सुप्रीम कोर्ट में महिला जजों की संख्या पर गर्व के साथ कुछ बोल पाएंगे. क्योंकि जस्टिस मल्होत्रा और जस्टिस भानुमति के रिटायर होने के बाद जस्टिस इंदिरा बनर्जी ही सुप्रीम कोर्ट में इकलौती महिला जज हैं.
भारत के सुप्रीम कोर्ट में अभी 26 जज हैं. इसमें से 25 पुरुष और एक महिला है. ऐसी ही स्थिति अलग-अलग राज्यों के हाईकोर्ट में भी देखने को मिलती है. देश के 25 हाईकोर्ट में वर्तमान में 644 जज हैं, इसमें से महज 77 महिलाएं और बाकी 567 पुरुष हैं. यह जानकारी लोकसभा में भारत सरकार ने दी है.
28 जुलाई को बहुजन समाज पार्टी (बसपा) से सहारनपुर से सांसद हाजी फजलुर रहमान ने सवाल पूछा कि वर्तमान में उच्चतम न्यायलय और विभिन्न उच्च न्यायलयों में पुरुष महिला जजों की कुल संख्या कितनी है. और इनमें अल्पसंख्यक समुदाय और अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजातियों से संबंधित जजों की संख्या कितनी है. इसके अलावा रहमान ने अदालतों में खाली पड़े पदों की भी जानकारी मांगी थी.
रहमान के सवाल के जवाब में भारत के कानून मंत्री किरेन रिजिजू ने लिखित में जानकारी दी. रिजिजू ने पुरुष और महिला जजों की संख्या के साथ खाली पड़े पदों की जानकारी दी है.
लोकसभा में दिए गए इन आंकड़ों के मुताबिक सुप्रीम कोर्ट में अभी जजों के लिए स्वीकृत पद 34 हैं. इसमें से अभी आठ खाली हैं. वहीं मौजूदा 26 जजों में सिर्फ एक महिला है.
पांच हाईकोर्ट में एक भी महिला जज नहीं
भारत के अलग-अलग राज्यों में 25 हाईकोर्ट हैं. यहां जजों के लिए 1098 पद स्वीकृत है, जिसमें से 454 खाली हैं. भरे 644 पदों पर महिला जजों की संख्या सिर्फ 77 है, वहीं पुरुष 567 पदों पर हैं.
भारत सरकार द्वारा दी गई जानकारी के मुताबिक मणिपुर, मेघालय, पटना, त्रिपुरा और उत्तराखंड के हाईकोर्ट में एक भी महिला जज नहीं हैं. वहीं सात हाईकोर्ट में सिर्फ एक महिला जज है. ये हाईकोर्ट गुवाहटी, हिमचाल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर और लद्दाख, झारखंड, ओडिशा, राजस्थान, सिक्किम है.
मणिपुर के हाईकोर्ट में पांच पद स्वीकृत हैं और पांचों पर पुरुष ही हैं. ऐसी ही स्थिति मेघालय की है. यहां जजों के चार पद हैं और चारों पुरुष हैं. त्रिपुरा में जजों के पांच पद हैं, जिसमें एक खाली है और बाकी चार पुरुष हैं. अगर उत्तराखंड की बात करे तो यहां के हाईकोर्ट में जजों के लिए स्वीकृत पद 11 हैं, जिसमें से चार खाली हैं और बाकी सात पुरुष ही हैं. सबसे बुरी स्थिति बिहार के पटना हाईकोर्ट की है. यहां जजों के कुल 53 पद स्वीकृत हैं. इसमें से 34 पद खाली हैं, वहीं मौजूद 19 जजों में से एक भी महिला नहीं है.
सबसे ज़्यादा महिला जजों की संख्या मद्रास हाईकोर्ट में है. यहां जजों के लिए कुल 75 पद स्वीकृत हैं. जिसमें से 17 खाली हैं. भरे 58 पदों पर 45 पुरुष और 13 महिला जज हैं.
बॉम्बे हाईकोर्ट में आठ महिला जज हैं. यहां जजों के लिए कुल स्वीकृत पद 94 हैं. इसमें से 31 पद खाली हैं. यहां मौजूद 63 जजों में से 55 पुरुष और आठ महिलाएं हैं.
उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद हाईकोर्ट में अभी 87 पुरुष और सात महिला जज हैं. यहां जजों के लिए कुल स्वीकृत पद 160 हैं, जिसमें से 66 खाली पड़े हुए हैं.
राजधानी दिल्ली के हाईकोर्ट की बात करें तो यहां जजों के लिए कुल 60 पद स्वीकृत हैं, जिसमें से 30 पद खाली हैं. वहीं भरे 30 जजों में से 24 पुरुष और 6 महिलाएं हैं.
महिलाओं का कम से कम 50% प्रतिनिधित्व
लम्बे समय से महिला जजों की संख्या बढ़ाने की मांग होती रहती है. बीते साल दिसंबर महीने में भारत के अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने कहा था, ‘‘सुप्रीम कोर्ट सहित न्यायपालिका के सभी स्तरों पर महिलाओं का अधिक से अधिक प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करें. यह पहल सर्वोच्च न्यायालय से ही होनी चाहिए, यह देखते हुए कि नियुक्ति की विशेषाधिकार वाली शक्ति लगभग उच्चतम न्यायालय कॉलेजियम के पास है. सभी नेतृत्व के पदों पर महिलाओं का कम से कम 50% प्रतिनिधित्व प्राप्त करना लक्ष्य होना चाहिए.’’
लाइव लॉ की रिपोर्ट के मुताबिक केके वेणुगोपाल ने मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के राखी ‘जमानत’ आदेश के खिलाफ महिला वकीलों द्वारा दायर एसएलपी में अपने लिखित सबमिशन में कहा कि न्यायपालिका में महिलाओं के प्रतिनिधित्व में सुधार करने से यौन हिंसा से जुड़े मामलों में एक अधिक संतुलित और सशक्त दृष्टिकोण होने की दिशा में एक लंबा रास्ता तय किया जा सकता है.
दरअसल मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने बीते साल 30 जुलाई को एक महिला के साथ हुए दुर्व्यहार के मामले में जमानत देते हुए कहा था कि आरोपी पीड़िता के घर जाकर उसकी रक्षा करने के वादे के साथ ‘राखी बांधने’ का अनुरोध करे. इसके आदेश के खिलाफ अधिवक्ता अपर्णा भट्ट और दूसरी आठ महिला वकीलों ने चुनौती दी थीं. तब न्यायालय ने अटार्नी जनरल से सहायता करने का अनुरोध किया था. लाइव लॉ ने बताया कि इस मामले में लिखित प्रस्तुतिकरण में, अटॉर्नी जनरल ने बताया कि उच्च न्यायपालिका में महिलाओं का प्रतिनिधित्व लगातार कम है.
क्यों नहीं बन पाती महिलाएं जज?
ऑटर्नी जनरल का ऐसा कहना कि न्यायपालिका में महिलाओं के प्रतिनिधित्व में सुधार करने से यौन हिंसा से जुड़े मामलों में एक अधिक संतुलित और सशक्त दृष्टिकोण होने की दिशा में एक लंबा रास्ता तय किया जा सकता है. इस बात की तरफ इशारा करता है कि न्यायपालिका में महिला जजों की संख्या ज़्यादा होंगी तो महिलाओं के मुद्दों को लेकर संवेदनशीलता दिखेगी. हालांकि अपर्णा भट्ट ऐसा नहीं मानती हैं.
सुप्रीम कोर्ट की वकील अपर्णा भट्ट न्यूज़लॉन्ड्री से बात करते हुए कहती हैं, ‘‘मैं ऐसा नहीं मानती की कोई महिला जज, महिलाओं के पक्ष में ज़्यादा बढ़िया फैसला दे सकती है और पुरुष जज नहीं दे सकते हैं. पुरुष जजों ने भी कई ज़रूरी फैसले दिए हैं. हां, मेरा यह मानना ज़रूर है कि निचली अदालतों में कोई पीड़ित महिला आती है तो वो चाहती है कि कोई महिला जज उनका पक्ष सुने. महिला जजों के सामने वो खुलकर अपनी बात रखती हैं. लेकिन सबसे ज़रूरी बात है, महिलाओं को मिलने वाला प्रतिनिधत्व.’’
आखिर महिलाओं को क्यों सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट में जज नहीं बन पा रही हैं? इसपर भट्ट कहती हैं, ‘‘जब कोई महिला वकील बनती है तो उसे काम मिलने में शुरू से ही परेशानी आती है. समान्यतः लोगों का ऐसा मानना है कि पुरुष केस को अच्छी तरह लड़ते हैं. तीन चार साल तक काम करने के बाद महिलाओं को कोर्ट व्यवस्था और परिवार दोनों से मदद नहीं मिलती है. ऐसे में वो कोर्ट में ज़्यादा मामलों को नहीं लड़ पाती हैं तो उनको कोई नोटिस ही नहीं कर पाता है. जिस तरह से पुरुष वकीलों को मौके और प्रोत्साहन मिलता है, उस तरह महिलाओं को नहीं मिलता है. दूसरी तरफ ऊपरी अदालत में नियुक्त करते वक्त कोर्ट में मौजूदगी, कितने केस लड़े आदि देखा जाता है, लेकिन महिलाओं को तो मौका ही नहीं मिल पाता है. ऐसे में वो आगे कैसे आ सकती हैं.’’
महिलाएं ऊपरी अदालतों में आएं इसके लिए क्या करना चाहिए. इसको लेकर भट्ट कहती हैं, ‘‘जजों का नियुक्ति पैमाना होता है कि कितनी दफा आप कोर्ट में अपीयर हुए, कितने मामलों में आपने बहस की और कितने पैसे कमाए हैं. बहुत सारी महिला वकील अपने साथ के पुरुष वकीलों से पिछड़ जाती हैं, क्योंकि उन्हें जब मौके ही नहीं मिलते तो जाहिर है कि उनका कोर्ट में अपीयरेंस कम होगा, उनकी आमदनी कम होगी.’’
अपर्णा भट्ट आगे कहती हैं, ‘‘अगर हम चाहते हैं कि महिलाएं आगे आएं तो हमें उन्हें प्रोत्साहित करना होगा. कई मामलों में कोर्ट के जरिए वकील तय होते हैं. ऐसे में महिलाओं को ज़्यादा मौके देने चाहिए. निजी कंपनियां भी वकील रखती हैं. इसको लेकर तो मैं कुछ नहीं कह सकती लेकिन जहां पर सरकारी काम होता है. वहां ध्यान रखना होगा कि महिलाओं को मौके मिलने चाहिए. सिर्फ यह कहना कि महिलाएं ज़्यादा आनी चाहिए, लेकिन हम उसके लिए कोई काम न करे तो यह सही नहीं होगा.’’
महिला जजों की संख्या बढ़ाने के लिए सुप्रीम कोर्ट में याचिका
सुप्रीम कोर्ट की महिला वकीलों की एसोसिएशन ने ऊपरी अदालतों में महिला जजों की संख्या बढ़ाने को लेकर एक याचिका दायर की थी. याचिका दायर करने वालों में से एक और इसके लिए जिरह करने वाली स्नेह खालिता न्यूज़लॉन्ड्री को बताती हैं, ‘‘पहली बार इसको लेकर मैं साल 2015 में याचिका दायर की थी. उस वक़्त जस्टिस जे एस खेहर ने चार जजों के साथ हमारी मांग सुनने के बाद कहा था कि यह बहुत कम संख्या है. उन्होंने भारत सरकार से इस मामले और ध्यान देने के लिए कहा था. हमसे महिला जजों की संख्या बढ़ाने के लिए तब सलाह भी ली गई लेकिन आज आप देखिए कि सुप्रीम कोर्ट में कितनी महिला जज है.’’
‘‘तब हमने ‘मेमोरेंडम ऑफ़ प्रोसीजर’, जहां जजों की नियुक्ति के लिए मानदंड बनता है, वहां पर एक प्रार्थना पत्र दिया था. जिसमें हमने मांग की थी कि जिस भी हाईकोर्ट में महिला जजों की कम संख्या हो वहां अनुपात को ध्यान पर रखकर, महिला जजों को नियुक्त किया जाए.’’ खालिता बताती हैं.
मार्च 2021 में यह मामला फिर सामने आया जब जस्टिस एस ए बोबडे मुख्य न्यायाधीश थे. स्नेह खालिता न्यूज़लॉन्ड्री से बताती हैं, ‘‘हमने जस्टिस एस ए बोबडे के सामने महिला जजों को लेकर आंकड़ें रखे. तब मैंने बहस भी की थी. मेरे बहस पर जस्टिस बोबडे ने कहा था कि हम चाहते हैं कि महिलाएं जज बनें, लेकिन उनका बाकी भी काम होता है. घर संभालना होता है. उस दौरान जस्टिस कौल ने कहा कि मैडम हम तो चाहते हैं कि महिला जज क्या चीफ जस्टिस बनें, लेकिन जब हम इसके लिए अप्रोच करते हैं तो बोलती हैं कि परिवार की वजह से हम लोग नहीं कर पाते. बेटा 12वीं में है. यह तो गलत अप्रोच है न. आपने किनसे पूछा? कौन होगा जो जज बनने से मना करेगा.’’
अपर्णा भट्ट की तरह स्नेह खालिता भी कहती हैं, ‘‘सबसे ज़रूरी है महिला वकीलों को प्रोत्साहन देना. हम आरक्षण नहीं मांग रहे हैं, लेकिन अगर आप अनुपात बराबर करना चाहते हैं तो थोड़ा सा तो आपको ध्यान देना पड़ेगा. जजों की नियुक्ति के मानदंड में आमदनी का जिक्र है. मेरे हिसाब से उसे थोड़ा कम कर देना चाहिए. थोड़ा उन्नीस-बीस होने पर आपको महिलाओं को मौका देना चाहिए ताकि 50 प्रतिशत आबादी को मौका मिल सके.’’
‘आरक्षण की व्यवस्था नहीं’
सांसद हाजी फजलुर रहमान ने महिला और पुरुष जजों के साथ-साथ उच्चतम न्यायालय और विभिन्न उच्च न्यायालयों में अल्पसंख्यक समुदाय और अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजातियों से संबंधित जजों की संख्या को लेकर भी सवाल पूछा था. लेकिन कानून मंत्री किरन रिजिजू ने इसका जवाब नहीं दिया. आगे उन्होंने बताया, ‘‘उच्चतम न्यायलय और उच्च न्यायलयों में न्यायधीशों की नियुक्ति भारत के संविधान के अनुच्छेद 124 और अनुच्छेद 224 के अधीन की जाती है. जो व्यक्तियों की किसी जाति या वर्ग के लिए आरक्षण का उपबंध नहीं करते हैं. अतः कोई जाति/वर्ग -वार आंकड़ा केंद्रीय रूप से नहीं रखा गया है.’’
अपने इस जवाब में रिजिजू बताते हैं, ‘‘सरकार उच्च न्यायलयों के मुख्य न्यायमूर्तियों से अनुरोध करती है कि उच्च न्यायलयों में न्यायधीशों की नियुक्ति में सामाजिक विभिन्नता सुनिश्चित करने के लिए न्यायधीशों की नियुक्ति के लिए प्रस्तावों को भेजते समय अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजातियों, अन्य पिछड़े वर्गों, अल्पसंख्यक समुदाय और महिलाओं से संबंधित उपयुक्त अभियर्थियों पर सम्यक विचार किया जाना चाहिए.’’
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