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विज्ञापनों पर संसद के आंकड़ों की न्यूजलॉन्ड्री की रिपोर्ट पर पीआईबी का जवाब

10 जुलाई को न्यूज़लॉन्ड्री ने नरेंद्र मोदी सरकार के द्वारा पेश किए गए मीडिया में विज्ञापनों पर खर्चे के दो अलग-अलग डेटासेट (आंकड़ों के संकलन) में विसंगतियों को रिपोर्ट किया. एक सेट इस वर्ष फरवरी महीने में संसद में पेश किया गया और दूसरा आरटीआई एक्ट के अंतर्गत दिसंबर 2019 में दिया गया.

न्यूजलॉन्ड्री की रिपोर्ट का खंडन करते हुए प्रेस इनफॉरमेशन ब्यूरो का कहना है कि संसद वाला डाटा केवल समाचार चैनलों के विज्ञापनों का प्रस्ताव भर था, असल में हुआ खर्च नहीं.

पीआईबी का पूरा जवाब निम्नलिखित है:

यह न्यूज़लॉन्ड्री के लेख, 'क्या मोदी सरकार ने मीडिया विज्ञापनों पर संसद को किया गुमराह?' के संदर्भ में है, जो कुछ हिंदी और अंग्रेजी समाचार चैनलों को प्रस्तावित और किए गए भुगतान को लेकर newslaundry.com पर प्रकाशित हुआ.

इस मामले में स्पष्ट किया जाता है कि टीवी चैनलों को किया गया भुगतान, थर्ड पार्टी मॉनिटरिंग रिपोर्ट (टीपीएमआर) में सत्यापित रिलीज़ ऑर्डर के वास्तविक क्रियान्वयन के अनुसार किया जाता है. भुगतान, तय की गई राशि से कम हो सकता है अगर स्पाट्स का प्रसारण पूरी तरह से रिलीज ऑर्डर के अनुसार न हुआ हो या भारत सरकार की लेखांकन प्रक्रिया के अनुसार कुछ और कमी हो.

एक आरटीआई के जवाब में दिसंबर 2019 में दिए गए आंकड़े और फरवरी 2021 में संसद में पेश किए गए आंकड़े दोनों ही सही हैं. यह आंकड़े दो अलग-अलग समय पर अलग-अलग संदर्भ में दिए गए हैं और इसलिए इनकी तुलना नहीं हो सकती.

न्यूजलॉन्ड्री पर प्रकाशित हुई रिपोर्ट, वाजिब पुष्टि के बिना तथ्यों को गलत तरीके से पेश करने पर आधारित है. यह रिपोर्ट भ्रमित करने वाली है और आंकड़ों को उनके संदर्भ से अलग करके पेश करती है.

उपरोक्त कथन के पश्चात, मुझे आशा है यह प्रत्युत्तर प्रकाशित किया जाएगा और माफी पेश की जाएगी.

यहां यह बात ध्यान रखना आवश्यक है कि दोनों ही डेटासेट, सूचना व प्रसारण मंत्रालय की मीडिया यूनिट विज्ञापन एवं दृश्य प्रचार निदेशालय या डीएवीपी के द्वारा तैयार किए गए थे.

न्यूजलॉन्ड्री की रिपोर्ट ने इस बात पर जोर दिया था कि साल 2017-18 के लिए डीएवीपी के द्वारा विज्ञापन पर खर्च के लिए तैयार किए गए दो डेटासेट, मेल नहीं खाते.

उदाहरण के तौर पर, संसद में पेश किए गए आंकड़ों के अनुसार साल 2017-18 में आज तक को 3.7 करोड़ रुपए के विज्ञापन मिले. लेकिन आरटीआई के आंकड़ों के अनुसार यह रकम गिरकर 2.4 करोड़ रुपए हो गई. इसके विपरीत, संसद के आंकड़ों के अनुसार 2017-18 में हिंदी चैनल एनडीटीवी इंडिया को 1.5 लाख रुपए के विज्ञापन मिले. लेकिन उसी साल के लिए आरटीआई के आंकड़ों में यह रकम बढ़कर 1.16 करोड़ रुपए हो जाती है.

सूचना व प्रसारण मंत्रालय के एक कर्मचारी ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया कि जहां संसद के आंकड़े समाचार चैनलों को प्रस्तावित विज्ञापनों का विवरण है, वहीं आरटीआई के आंकड़े केंद्र सरकार का वास्तविक खर्च बताते हैं.

यह प्रत्युत्तर हालांकि यह स्पष्ट करता है कि विज्ञापनों पर हुआ खर्च प्रस्तावित खर्चे से कम कैसे हो सकता है, लेकिन यह स्पष्ट नहीं करता कि वास्तविक खर्च प्रस्तावित खर्च से ज्यादा कैसे हो सकता है, जैसा कि एनडीटीवी इंडिया और सीएनएन न्यूज़18 के मामले में हुआ. मंत्रालय के कर्मचारी ने इसके लिए समाचार चैनलों को जिम्मेदार ठहराया.

उन्होंने कहा, "अगर किसी चैनल को किसी वर्ष में सरकार की ओर से कोई विज्ञापन प्रस्तावित नहीं किए गए, तब भी उस साल उन्हें सरकार से विज्ञापन का पैसा मिला. तब हो सकता है कि उक्त चैनल ने पिछले सालों में चलाए गए विज्ञापनों के पुराने बिल पेश किए हों."

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