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स्पीच का महत्व समझते थे दिलीप कुमार- मनोज बाजपेयी

बचपन में हमारे हीरो राजेश खन्ना और अमिताभ बच्चन थे. धर्मेन्द्र और शत्रुघ्न सिन्हा आदि हमें आकर्षित किए रहते थे. हम लोग कभी-कभी रीरन में आयी दिलीप कुमार, राज कपूर और देव आनंद की फ़िल्में देख लिया करते थे.

मेरे पिताजी दिलीप कुमार के प्रशंसक थे. मैं उनकी बातें चकित भाव से सुनता था. कुछ फ़िल्में भी देख आता था.

जब हिंदी सिनेमा में अभिनय को लेकर कोई सोच नहीं थी, तब दिलीप कुमार एक सोच लेकर आए थे. अभिनय को उन्होंने भाषा के साथ जोड़ा. उन्होंने जो भी देखा और सुना, उसका निचोड़ अभिनय की तकनीक में लाने की कोशिश करते रहे. यह बात बिलकुल सही है कि कई पीढ़ियों तक दिलीप कुमार ही अभिनय की मिसाल बने रहे. बाद की तीन पीढ़ियों और अभी तक दिलीप साब की छाप अभिनेताओं में दिखती रही. एक्टिंग के लिए दिलीप कुमार के अलावा कोई बड़ा रेफरेंस मिला ही नहीं. उनके बाद बलराज साहनी हैं और उनसे थोड़ा पहले से मोतीलाल थे.

दिलीप साब सम्पूर्ण अभिनेता की तरह उभर कर सामने आए. हिंदुस्तानी सिनेमा की हर मांग वह पूरी करते थे. अगर दिलीप कुमार के अभिनय की पराकाष्ठा देखनी है तो आप को ‘देवदास’ देखनी चाहिए और कई बार देखनी चाहिए. ‘नया दौर’ देखनी चाहिए. उनकी बाक़ी फ़िल्में भी देखनी चाहिए.

फ़िल्मों की एक्टिंग में एक महत्वपूर्ण तत्व है, स्पीच. अभिनय का गहराई से अध्ययन करने वाले स्पीच का अध्ययन करते हैं. आजकल के कलाकार उस पर ज़्यादा ध्यान नहीं देते. रियलिज्म के नाम पर स्पीच पर काम करना बंद कर चुके हैं कलाकार. इसी वजह से उनके अभिनय से बारीकी निकल गयी है. आज के कलाकार स्थूल अभिनय करते हैं. हिंदी सिनेमा में किसी ने स्पीच के महत्व को समझा और उसका उपयोग किया तो वे दिलीप कुमार हैं.

मैंने उनसे स्पीच सीखी. ‘मुग़ले आज़म’, ’देवदास’ और ‘दिल दिया दर्द लिया’ हो. ‘दिल दिया दर्द लिया’ का खंडहर का दृश्य याद करें, इसमें जब वे नायिका से संवाद कर रहे हैं. मैं अपने साथी अभिनेताओं से कहूंगा कि इस दृश्य को जाकर देखें. अनेक सालों के बाद ‘मशाल’ का दृश्य याद करें, जब वे अपनी पत्नी की मदद के लिए आवाज़ दे रहे हैं. वह सीन दिलीप साब की वजह से इतना प्रभावकारी बना. उन्हें स्पीच की बेइंतहा समझ थी. इमोशन को स्पीच के जरिए दर्शकों तक पहुंचाना वे जानते थे. इधर ट्विटर पर कुछ फ़िल्मों के सीन लगाए थे उन्होंने. उन फ़िल्मों को देखिए.

वे पढ़ते बहुत थे. उनकी राजनीतिक-सामाजिक समझ थी. हमारे लिए वे प्रेरणा के स्रोत रहे हैं. अपने अभिनय पर वे लगातार काम करते रहे. ‘शक्ति’ देख लें. उनकी चुप्पी कैसे बोलती है. अभिनय के हर पहलू के वे उस्ताद रहे. वे कुशल डान्सर नहीं थे, लेकिन उनके मटकने में भी अभिनय था. थिएटर और फ़िल्मों में आने के बाद मैंने उन्हें समझना शुरू किया. उनसे सीखने की कोशिश की.

दिलीप कुमार को थिएटर के लोगों ने अधिक स्वीकार नहीं किया और फ़िल्मों के कलाकार उनकी बारीकी सीख नहीं सकते थे. यही वजह है कि उनके अभिनय का सही मूल्यांकन और अध्ययन नहीं हो पाया. मैं ज़ोर देकर कहूंगा कि सभी अभिनेताओं को उनकी फ़िल्में देखनी चाहिए. फ़िल्मों की एक्टिंग वह समझते थे कि कैमरे के आगे कैसे क्या करना चाहिए?

(अजय ब्रह्मात्मज की मनोज बाजपेयी से बातचीत पर आधारित)

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