Obituary

दिलीप कुमार: ‘शायरी पढ़ो, बरखुरदार’

1955 की बात है. पूरे परिवार के साथ हम लोग ‘इंसानियत’ फ़िल्म देखने गए थे. इस फ़िल्म में दिलीप कुमार और देव आनंद थे. फ़िल्म देखने के बाद कोई दिलीप कुमार तो कोई देव आनंद की तारीफ़ कर रहा था, लेकिन मुझे तो चिम्पांज़ी का काम सबसे अच्छा लगा था. मैं समझ नहीं पा रहा था कि क्यों लोग दिलीप कुमार की तारीफ़ कर रहे हैं? मैं तब छठवीं क्लास में था.

थोड़ा बड़ा होने पर मैं कानपुर चला गया था. वहां स्कूल से छुट्टी मार कर दोपहर में मैटनी शो में मैंने दिलीप कुमार की ‘देवदास’ देखी. तब दिलीप कुमार का बुखार चढ़ना शुरू हुआ. उन दिनों मैटिनी शो में पुरानी फ़िल्में रीरन में आती थीं. उन दिनों में दिलीप कुमार की फ़िल्मों का ख़ुमार छा गया था. हर अन्दाज़ में उनको देखकर हम उनके दीवाने हो गए. उनके बहुआयामी व्यक्तित्व ने बहुत प्रभावित किया. उन दिनों पूरा हिंदुस्तान दिलीप कुमार, देव आनंद और राज कपूर के तीन खेमों में बंट चुका था. उनके आपस में झगड़े तक हो जाते थे.

मुझे याद है इलाहाबाद में यूनिवर्सिटी में उस समय किसी ने अफ़वाह उड़ा दी कि राज कपूर ने दिलीप कुमार के चेहरे पर तेज़ाब फिंकवा दिया है. तब दिलीप कुमार के प्रशंसकों ने राज कपूर के प्रशंसकों की पिटायी कर दी थी. मैं बताऊं कि हम लोगों के कई दोस्तों ने दिलीप कुमार की हेयर स्टाइल अपना ली थी. वे बस स्टॉप पर सड़क की ओर पीठ करके ऐसे खड़े होते थे ताकि लोग उनके बाल देखें. उनका ऐसा प्रभाव था कि हर जवान लड़के की ख़्वाहिश होती थी कि उसे टीबी हो जाए ‘देवदास’ की तरह. यहां तक कि 1965 में मुंबई में मेरे एक रूममेट को एक बार बेसिन में थूकने पर ख़ून दिखा तो वह ख़ुश हो गया कि उसे टीबी हो गयी है. वह इतना बड़ा फैन था दिलीप कुमार का. मैंने कहा कि डॉक्टर को दिखाओ. हो सकता है मसूड़े में ज़ख़्म हो, और वही निकला.

मैंने पहली फ़िल्म पंकज पाराशर के लिए ‘जलवा’ लिखी थी. इस फ़िल्म में नसीरुद्दीन शाह और कामिनी कौशल थे. इसमें मैंने दिलीप साब को ट्रिब्यूट दिया है. मैंने कामिनी कौशल को दिलीप कुमार का फ़ैन बनाया है. वो अपने जीवन की हर घटना को दिलीप कुमार की किसी फ़िल्म से जोड़ कर याद करती है. कामिनी कौशल को स्क्रिप्ट सुनाते समय मैं डरा हुआ था कि पता नहीं उनका क्या रिएक्शन हो? कामिनी ने सुना तो ख़ूब हंसी और कहा कि बहुत रोचक किरदार लिखा है. वही फ़िल्म सुभाष घई ने देखी तो उन्होंने पंकज पाराशर से मेरे बारे में पूछा और कहा कि आज से वह मेरा राइटर है. उसे भेज दो.

सुभाष घई तब अमिताभ बच्चन के साथ ‘देवा’ बना रहे थे. उसके लेखन में मैं उनका सहायक बन गया. बाद में वह फ़िल्म अमिताभ बच्चन ने छोड़ दी तो फ़िल्म ही बंद हो गयी. फिर सुभाष घई ने मुझे ‘राम लखन’ लिखने के लिए बेंगलुरु बुलाया. तब मेरे पास पहले से ही तीन फ़िल्में थीं. मैंने उनसे मजबूरी बताई कि मैं नहीं लिख पाऊंगा. वह फ़िल्म रह गयी. बाद में ‘सौदागर’ की योजना बनी तो उन्होंने मुझे बुलाया. उन्होंने बताया कि दो बूढ़ों की प्रेम कहानी बना रहा हूं. इसमें दिलीप कुमार और राज कुमार हैं. मेरी ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा. मैंने उन्हें बताया कि मैं तो दोनों का फ़ैन हूं.

सुभाष घई ने उसी वक्त मुझे हिदायत दी कि लिखते समय वे तुम्हारे लिए किरदार रहेंगे. तुम्हारा फ़ैन नहीं जागना चाहिए. फिर भी मैं उत्साहित था कि मेरे संवाद मेरे पसंदीदा एक्टर बोलेंगे. मेरे लिए यह बड़ा धर्मसंकट रहा. सुभाष घई फ़िल्म के लिए हमें लोनावाला ले गए. वहां फरयास होटल में उन्होंने दिलीप साब से मिलवाया और ख़ुद हेल्थ क्लब चले गए. उन्होंने मुझे कहा कि तुम दिलीप साब को उनका किरदार सुना दो. मैं एशिया और दुनिया के सबसे बड़े एक्टर के सामने अकेला बैठा था. सोच नहीं पा रहा था कि कैसे शुरुआत करूं? उन्होंने मेरी घबराहट पढ़ ली. उन्होंने कहा कि बरखुरदार कमरे में चलते हैं.

कॉफ़ी लाउंज से निकलने पर उन्होंने मेरा कमरा पूछा और ज़ोर देकर कहा कि आप के कमरे में चलेंगे. कमरे में मैंने उन्हें कुर्सी ऑफ़र की तो उन्होंने कहा, “नहीं, मैं खड़ा होकर सुनूंगा. मैं टहलता रहूंगा.” सीन सुनाने की बात आई तो मैंने फ़िल्म का उनका पहला सीन सुनाना शुरू किया. वह पूरे ग़ौर से सुनते रहे. सुनने के 20 सेकेंड के बाद मेरे कमरे की दीवारें उनके लिए सेट बन गयीं. उसे ही फ़ार्म हाउस बना दिया. उन्होंने बताया कि कल्पना करो कि यहां मंदिर है. उधर घोड़े बंधे हैं. थोड़ा आगे गाय-बैल हैं. बुआ और दीप्ति नवल अपना काम कर रहे हैं. मुकेश बंदूक में गोली भर रहा है. उन्होंने मेरे संवादों को बोलना शुरू कर दिया और रिएक्शन देने लगे. फिर पूछा कि बताओं कैसा लगा? मैं चुप रहा तो 6-7 वेरीएशन करके दिखाए और पूछा कि तुम्हें कौन सा पसंद है?

मैं क्या जवाब देता. मुझे तो सभी अच्छे लगे. मेरी यही प्रतिक्रिया रही कि आज यह स्पष्ट हो गया कि मैं कभी डायरेक्टर नहीं बन सकता. वे चौंक कर बोले, “क्यों? अच्छा लेखक ही अच्छा डायरेक्टर बनता है.” मेरा जवाब था मैं चुन ही नहीं पा रहा हूं कि कौन सा वेरीएशन रखना चाहिए. वे हंसने लगे. हमारी दोस्ती जैसी हो गयी. बाद में मैंने सलाह मांग़ी कि इंडस्ट्री में मुझे कैसे आगे बढ़ना चाहिए. उन्होंने एक ही बात ही कही, ‘लर्न टू से नो.’ मुझे याद है कि इसी फ़िल्म की शूटिंग के दौरान उनसे मिलने एक नया एक्टर आया और उसने एक्टिंग की टिप मांगी तो दिलीप कुमार ने कहा ‘शायरी पढ़ो’.

शूटिंग के पहले दिन ही सुभाष घई ने मुझे कहा कि जाओ उनको सीन सुना दो और कहो कि शॉट तैयार है. मैंने जाकर उन्हें सीन सुनाया तो थोड़ा ठहरने और सोचने के बाद उन्होंने कहा कि मैं किरदार को एक लहजा देता हूं. और फिर उन्होंने पश्तो, हरियाणवी और अवधि के घालमेल से एक लहजा तैयार किया और मेरे हिंदी संवादों को उस लहजे में बोला तो मुझे ख़ुशी हुई. मैंने जाकर सुभाष घई को बताया तो उनका सवाल था, “क्या तू राज़ी हो गया.” मैंने हां कहा तो सुभाषजी ने कहा कि अब तू मरा. राज कुमार का सीन आने दे फिर पता चलेगा. वही हुआ. राज कुमार की बारी आयी तो उन्होंने पूछा, “लाले, कैसे बोल रहा है?” (राज कुमार उन्हें लाले और दिलीप कुमार उनको शहज़ादे बुलाते थे.) बहुत मुश्किल से राज कुमार समझाने पर माने कि चलो जाने दो.

फ़िल्म का एक सीन था जिसमें दिलीप साब नदी किनारे खड़े होकर दारू के नशे में राज कुमार को गालियां दे रहे हैं. उधर राज कुमार बंदूक में गोलियां भर रहे हैं. इस सीन की शूटिंग वे किसी ना किसी बहाने टालते जा रहे थे. तीन दिनों के बाद सुभाष नाराज़ हो गए. उन्होंने कहा की पैक अप करो. यह फ़िल्म हम लोग नहीं करेंगे. तीन दिनों से 250 लोगों की यूनिट बैठी हुई थी. मैं घबराया. सुभाषजी के भाई अशोक घई ने मुझसे कहा कि चलो दिलीप साब के पास चलते हैं. हम भागे-भागे दिलीप कुमार के पास पहुंचे.

बात हुई तो उन्होंने कहा कि मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि कैसे परफॉर्म करूं?

मैंने कहा आपने तो इतनी फ़िल्मों में शराबी का सीन किया है. इसमें क्या दिक़्क़त है.

इस पर उन्होंने कहा कि तब मैं जवान था. मेरा नियंत्रण था अभिनय और शरीर पर. अभी मैं 65 का हूं. एक सूत भी गड़बड़ी हुई तो सीन ख़राब हो जाएगा.

मैंने कहा कि आप शूट कीजिए. मैं कैमरे के पीछे खड़ा रहूंगा. सीन ऊपर-नीचे होने पर उंगलियों से इशारा कर दूंगा. ज़्यादा होने पर 6-7 और काम होने पर 3-4. इस तरह वह सीन हुआ. फिर हमारे बीच शर्त लगी कि अगर दर्शक इस सीन पर ताली बजाएंगे तो दिलीप साब मुझे 100 रुपए देंगे और ताली नहीं बजी तो मैं 100 रुपए दूंगा. इस सीन पर आज भी ताली बजती हैं. मैंने 100 रुपए मांगे तो उन्होंने हंसते हुए कहा था कि आकर ले लेना. वह मैं कभी नहीं ले पाया.

Also Read: फिल्म लॉन्ड्री: किस्सा ख्वानी बाज़ार में गूंजेंगे दिलीप कुमार और राज कपूर के किस्से

Also Read: 'स्टैन स्वामी की मौत भारतीय कानून व्यवस्था पर कलंक'