Opinion
ग़ालिब: ‘मिल्लतें’ मिटाने के ख़याल वाला शायर
गज़ल की साहित्य परंपरा में यह कहने वालों की कोई कमी नहीं है कि इस्लाम का अल्लाह और हिंदू का ईश्वर कोई अलग-अलग सत्तायें नहीं है. नाम केवल एक बाह्य भेद है और यह भेद भी मनुष्य की कुछ व्यावहारिक और ठोस लौकिक ज़रूरतों के कारण अस्तित्व में आया है. वहदतुल वजूद के नशे में डूबी हुई शख़्सियतों में तो यह अवधारणा अलग अलग प्रतीक योजनाओं का सहारा लेकर बारंबार प्रकट होती है. ‘शेख़’ और ‘बरहमन’ को हर कोई अपने अपने तरीक़े से समझाता है. दोनों को बताया जाता है कि ज़ुन्नार (जनेऊ) और तस्बीह (ख़ुदा का नाम जपने के लिए प्रयोग की जाने वाली माला) में प्रयुक्त धागा वस्तुतः एक ही है. उर्दू के पहले ग़ैर-मुस्लिम शायरों में से एक माने जाने वाले शायर टेकचंद ‘बहार’ (1687-1766) का एक शे’र है-
'वही एक रेसमां है, जिसको हम तुम तार कहते हैं
कहीं तस्बीह का रिश्ता कहीं ज़ुन्नार कहते हैं’
मीर तक़ी मीर (1723-1810) जानते थे कि ‘शेख़ ओ बरहमन’ के बीच मंदिर और मस्जिद के झगड़े ‘हश्र’ तक रहने वाले हैं इसलिए मुताबिक़ उनके बेहतर यही था कि इस ‘राह’ चला ही न जाए.
‘हम न कहते थे कि मत दैर ओ हरम की राह चल
अब ये दावा हश्र तक शेख़ ओ बरहमन में रहा’
इस बाबत मीर के समकालीन मिर्ज़ा सौदा (1713-1781) के ख़्याल भी ऐसे ही थे. वह दोनों को बताते कि दैर (मंदिर) और हरम (मस्जिद) में सिवाय पत्थर (जुज़ संग) के और क्या है! शीश झुकाने के लिए ईश्वर किस जगह नहीं है?
'जुज़ संग क्या है दैर ओ हरम में जो सर झुके
सजदा किया है तुझको मैं पहचान हर कहीं’
’दैर ओ हरम’ तथा ‘तस्बीह ओ ज़ुन्नार’ के युग्म में इतने शे’र हैं कि उनके उद्धरणों से पूरी एक किताब भर सकती है. वाह्याचारों के खोखलेपन को दर्शाने वाली इस परंपरा में ग़ालिब भी सम्मिलित होते हैं. वह भी माला और जनेऊ (सुब्हा ओ ज़ुन्नार) को निरर्थक बताकर उस धर्मेतर आध्यात्मिक निष्ठा की परिकल्पना करते हैं जिसमें आडम्बरों का महत्व न होकर ‘वफ़ादारी’ की असली ‘आज़माइश’ होती है.
'नहीं कुछ सुब्हा ओ ज़ुन्नार के फंदे में गीराई
वफ़ादारी में शेख़ ओ बरहमन की आज़माइश है'
यह ‘वफ़ादारी’ कोई सतही अनुकरण नहीं है बल्कि एक अविचल प्रतिबद्धता (उस्तुवारी) है जिसका अनुपालन एक ‘बिरहमन’ को, जो धर्म के इस्लामिक ढांचे में बुतपरस्त है, को समादृत बनाता है.
'वफ़ादारी बशर्त-ए-उस्तुवारी अस्ल-ए-इमां है
मरे बुतख़ाने में तो काबे में गाड़ो बिरहमन को’
मिर्ज़ा हैदर अली ‘आतिश’ (मृत्यु-1847) का भी एक ऐसा ही शे’र है.
'कुफ़्र ओ इस्लाम की कुछ क़ैद नहीं, ए ‘आतिश’
शेख़ हो या बिरहमन हो, पर इंसां होवे’
सभी संवेदनशील, और ख़ासकर सूफ़ियों की वहदतुल वजूदी विचारधारा में आस्थावान, उर्दू शायरों ने ‘बुतपरस्ती’ को अपने काव्य-प्रतीकों में इस तरह से इस्तेमाल किया कि यह ‘बुतपरस्ती’ कट्टर और शुद्धतावादी कठमुल्लेपन के प्रतिपक्ष में साम्प्रदायिक सदभावना की साहित्यिक युक्ति बन गयी. दरगाह में रहने वाले सूफ़ी शायर दर्द (1715-1783) ‘ख़ुदा के घर में बुतपरस्ती’ करने लगे. एक बड़ा सृजनात्मक मस्तिष्क अपने परिवेश में हर उस प्रवृत्ति का प्रतिपक्ष निर्मित करता है जो धार्मिक जड़ता, अमानवीयता और नृशंसता को स्पेस देते हैं. प्रतिपक्ष के इस स्पेस के बनने की सबसे शानदार और आशाजनक संभावनाएं कला और साहित्य के क्षेत्र में होती हैं. प्रतिमा-भंजक महमूद गज़नी का प्रतिपक्ष कोई मीर तक़ी ‘मीर’ ही हो सकता है जब वह डंके की चोट पर राजनीतिक और सामाजिक घृणाओं के उत्स-बिंदुओं पर सृजन की तलवार से वार करे और घोषित करे कि काबा की रोशनी (शमा-ए-हरम) और ‘सोमनाथ का दिया’ वस्तुतः जिस एक ‘नूर’ से आलोकित हैं वह एक ही सर्वोच्च स्रोत से नि:स्रत हुआ है.
'उसके फ़रोग़-ए-हुस्न से झमके है सब में नूर
शम्मा-ए- हरम हो कि दिया सोमनाथ का’
तमाम प्रकार के राजनीतिक अंतर्विरोधों के साथ जीने वाले अमीर ख़ुसरो का फ़ारसी शे’र है.
'काफ़िर-ए-इश्क़ इश्क़म मुसलमानी मरा दरकार नेस्त
हर रंग मन तार गश्ता हाजते ज़ुन्नार नेस्त’
अर्थात, मैं प्रेम में होने के कारण काफ़िर हूं. मुझे ‘मुसलमानी’ की ज़रूरत नहीं है. मेरा हृदय ही धागा बन गया है, मुझे जनेऊ की भी ज़रूरत (हाजत) नहीं है.
ग़ालिब धार्मिक संकीर्णताओं का विरोध करने में इस परंपरा के शायरों के साथ होते हुए भी अपनी निजी इंटेलेक्चुअल तीक्ष्णता के कारण अलग से नज़र आते हैं. दरअसल, हम ग़ालिब को संश्लेषण की जगह विश्लेषण के अधिक पास देखते हैं. संकीर्णता की शल्य चिकित्सा करने में उन्होंने दिल के ऊपर दिमाग़ को वरीयता दी थी.
'ज़ुन्नार बांध, सुब्हा-ए-सद दाना तोड़ डाल
रह-रौ चले है राह को हमवार देखकर'
ग़ालिब अपने सहधर्मी से सीधे सीधे सौ मनकों की माला को तोड़कर ज़ुन्नार पहन लेने की सलाह देते हैं. यदि आदमी माला गिनने में लगा रहे तो उसके लिए रास्ते पर सहजता से चलना आसान नहीं होगा. उसका पूरा ध्यान मनका गिनने में रहेगा किंतु यदि माला तोड़ तोड़ दी जाए और उसे धागे के रूप में बांध लिया जाए तो इस स्थिति में हाथ ख़ाली हो जाएंगे और रास्ते पर सहजतापूर्वक चला जा सकेगा. भाव यह है कि आख़िर जनेऊ और अल्लाह के नाम जाप की माला के धागे तत्वतः एक ही हैं किंतु ग़ालिब उस प्रस्तुति को एक गम्भीर अर्थवत्ता से भर देते हैं. स्वयं ग़ालिब द्वारा 1818 में संकलित नुस्ख़ा ए हमीदिया, जिसमें तब के शे’र हैं जब ग़ालिब की उम्र 19 वर्ष थी, में ग़ालिब का एक और ऐसा ही शे’र है जिसमें वह मंदिर और मस्जिद को (दैर-ओ-हरम) को एक ऐसे दर्पण के रूप में परिकल्पित करते हैं जिसमें सिवाय तमन्नाओं की ‘तकरार’ के सिवा कुछ नहीं.
‘दैर-ओ-हरम आईना ए तकरार ए तमन्ना
वामांदगी ए शौक़ तलाशे है पनाहें’
ग़ालिब के पास इन सतही विभेदों का समाधान तमाम आइडेंटिटीज और रिवाजों (रूसूम) को ‘तर्क़’ (त्याग देने) कर देने में अंतर्निहित था. ऐसा करके ही ‘मिल्लतें’ मिट सकती थीं. एक सच्चे ईमान को पैदा कर सकती थीं.
‘हम मुवह्हिद हैं, हमारा क़ेश है तर्क़-ए-रुसुम
मिल्लतें जब मिट गयीं, अजज़ा-ए-ईमां हो गयीं’
दिसम्बर 1859 के एक एक ख़त में वह लिखते हुए वह अपने प्रिय शिष्य मुंशी हर गोपाल तफ़्ता से कहते हैं.
‘ये जो तुम लिखते हो कि तुमने उस शख़्स को अपने अज़ीज़ों में गिना है. बंदापरवर, मैं तो बनी आदम को-मुसलमान या हिंदू या नस्रानी (यहूदी)- अज़ीज़ रखता हूं और अपना भाई गिनता हूं. दूसरा माने या न माने’
यह ग़ालिब का सहज सामाजिक मानववाद था जिसमें अपने पूरे अस्तित्व को धार्मिक आइडेंटिटी से बांध देने और जीवन की निर्णायक चेतना को उस अस्मिता का बंधक बना देने की गुंजायश न थी. जहां न ‘कुफ़्र’ की चिंता थी और न ‘ईमान’ की तंग-दिल परिभाषा. ग़ालिब इन दोनों से ‘फ़ारिग’ रहकर जीने के ख़्वाहिशमंद थे. स्वाभाविक था कि इस सोच के क़ायल आदमी की ज़िंदगी में ख़ुदा का नाम जपने वाली माला (सबह) और उस बिछौने ( सज्जादा), जिस पर बैठकर नमाज़ पढ़ी जाती है, का कोई ख़ास स्थान नहीं था. जीवन के अंतिम समय की ओर बढ़ते हुए जर्जर ग़ालिब ने अक्टूबर 1861 के ख़त में मिर्ज़ा अलाउद्दीन ‘अलाई’ को अपने साहित्यिक उत्तराधिकारी के रूप वर्णित करते हुए जब सब चीजों को उन्हें सौंप देने सम्बंधी जज़्बात बयां किए तो साथ में यह जोड़ना नहीं छोड़ा- ‘सबह व सज्जादा का यहां पता नहीं, वरना वो भी अज़ीज़ न रखता’ [अर्थात, तुम्हारे पास भिजवा देता]
ग़ालिब को बने बनाए रास्तों पर चलने से उज़्र था. उनके किरदार में परम्पराओं के अंधानुकरण के प्रति एक जन्मना प्रतिपक्ष था. यह प्रतिपक्ष उन्हें नैसर्गिक रूप से ‘रह-ओ-रस्म’ का ‘मुन्हरिफ़’ (विरोधी) बनाता था. ग़ालिब ने अपने किरदार की इस निर्बाध सपाटता का तादात्म्य एक ऐसी कलम से किया था जिसे ‘क़त’ लगाकर टेढ़ा काटा जाता है किंतु टेढ़े क़त लगी वह कलम जब लिखती है तो ‘सीधा’ लिखती है.
'हूं मुन्हरिफ़ न क्यों रह-ओ-रस्म-ए-सवाब से
टेढ़ा लगा है क़त क़लम-ए-सरनविश्त को’
न केवल उस दौर में जिसमें ग़ालिब ज़िंदा थे, बल्कि हमारे समय में भी ग़ालिब की प्रासंगिकता क सर्वाधिक अमिटव्य चिन्ह यह ‘टेढ़ा’ लगा हुआ क़त’ है. कहने को हर एक कवि या शायर ने किसी न किसी रूप में चलते फिरते मज़हबी और दुनियावी संकीर्णताओं का थोड़ा बहुत विरोध किया है किंतु साहित्यिकता को भी लांघकर, जीवन में आचरण के स्तर पर भी संकीर्णता से मुक्त जीवन को एक बेपरवाह अन्दाज़ में जो जिया है, वह शख़्स ग़ालिब है. वह जिस तरह से जीवन को जीने का स्वप्न देखता है, उसमें सामाजिक-धार्मिक बंदिशें विचारों की एक इंडीविज़ूअल ऑटानमी से विस्थापित हो जाती हैं. विचारों की यह इंडीविज़ूअल ऑटानमी किसी अराजकता की प्रस्तावना नहीं करती, बस दिए हुए सत्यों से आंख-मूंदकर गलबहियां करने की जगह उन्हें उलट-पलटकर देखने की पेशकश करती है. इसी विश्लेषण बोध के चलते साहित्य के भीतर ग़ालिब का धार्मिकता-बोध केवल एक भावनात्मक विज्ञप्ति नहीं रहा बल्कि वह एक प्रखर और गंभीर बौद्धिक तर्क बन जाता है.
निजी तौर पर अपने से विपरीत धार्मिक पद्धति वाले लोगों, जिन्हें अपने एक शे’र में वह अहल-ए-कुनिश्त कहते हैं, की सोहबत में ग़ालिब उतने ही सहज थे जितने अपने समधर्मियों के बीच में. ग़दर के दिनों में ग़ालिब की मदद करने वालों में उनके हितैषी हिंदू शुभचिंतक सबसे आगे थे. वह महेशदास, जिसे क़िल्लत के घनघोर समय में शराब मुहय्या कराने के लिए ग़ालिब ने अपनी रचना ‘दस्तम्बू’ में ह्रदय की गहराई से धन्यवाद दिया था, का स्मरण इसलिए भी करते हैं कि भले स्वभाव के इस व्यक्ति ने शहर में मुसलमानों को बसाने के लिए कोई कसर नहीं उठा रखी थी. चूंकि ‘खुदा की मर्ज़ी न थी, उसकी क्या चलती’. महेश के अतिरिक्त वह अपने शागिर्दों में से एक हीरा सिंह नाम के नौजवान को याद करते हैं जो ग़दर के दुख भरे दिनों में निरंतर उनकी खैर ख़बर लेने के लिए आता रहा. हीरा सिंह को मदद की दरकार होती, ग़ालिब उसके साथ होते. ग़ालिब के एक दोस्त मास्टर प्यारे लाल ‘आशोब’ थे जो गुड़गांव में एक अध्यापक थे. वह दिल्ली कॉलेज के पास-आउट थे. उनकी गणना दिल्ली के प्रतिष्ठित गणमान्य लोगों में थी. हीरा सिंह की मदद को लेकर ग़ालिब मास्टर प्यारेलाल को ख़त लिखते हैं.
‘बरखुरदार हीरा सिंघ तुम्हारे पास पहुंचता है और ये तुम्हारा दस्तगिरफ़्ता (हवाले) है. रोहतक में तुमने उसे नौकर रखवा दिया था. ख़ैर, वहां की सूरत बिगड़ गयी. अब ये ग़रीब बहुत तबाह है. तुम्हीं दस्तगीरी (सहायता) करो तो ये संभले, वरना इसका नक़्श-ए-हस्ती (अस्तित्व का निशान) सफ़हे-दहर (संसार के पन्ने) से मिट जाएगा’.
मास्टर प्यारे लाल ‘आशोब’ ने ग़ालिब के फ़ारसी पत्रों का एक छोटा सा संकलन भी प्रकाशित कराया था (p.350,Russell & Islam OUP, New Delhi, 1994). जनवरी 1867 में ग़ालिब का मास्टर प्यारेलाल को लिखा गया एक ख़त मौजूद है. इस ख़त की भाषा में छिपे हुए स्नेह की बस कल्पना कीजिए.
‘लाहौर पहुंचकर तुमने मुझे ख़त न भेजा. उसकी जितनी शिकायत करूं, बजा है. तुम नहीं जानते कि मुझे तुमसे कितनी मुहब्बत है. मैं तुम्हारा आशिक़ हूं और क्यों कर न हूं? सूरत के तुम अच्छे. सीरत के तुम अच्छे. खालिक ने तुममें कूटकूट कर खूबियां भर दी हैं. अगर मेरा सुलबी फ़र्जन्द (सौतेला पुत्र) ऐसा होता तो मैं उसे अपना फ़ख़्र-ए-ख़ानदान समझता. तुम जिस क़ौम और जिस ख़ानदान में हो, उस क़ौम और उस ख़ानदान के ज़रिया-ए-इफ़्तिख़ार (गौरव के कारण) हो. ख़ुदा तुमको सलामत रखे’.
जब कि दिल्ली वीरान पड़ी थी और ग़ालिब तन्हा थे, शिवजी राम नाम का एक नौजवान जिसे ग़ालिब जिसे बेटे की तरह मानते थे, ग़ालिब के पास आता और घण्टों बैठता. दुख दर्द बांटता. उसका बेटे बाल मुकुंद से भी ग़ालिब की खूब छनती. तमाम खुतूतों और ‘दस्तम्बू’ में इन रिश्तों का ज़िक्र ग़ालिब के सहज और सम्मिश्रित सामाजिक जीवन का संकेतक़ है. यदि यह सहज-सम्मिश्रित जीवन ग़ालिब की दिमाग़ी बनावट का हिस्सा न रहता तो क्या उनकी कलम यह कह पाती.
'काबे में जा रहा, तो न दो ताना, क्या कहीं
भूला हूं, हक़-ए-सोहबत-ए-अहल-ए-कुनिश्त को’
वेदना जब चुपके से संवेदना हो जाए, तो उसमें जगह की कोई कमी नहीं रहती. दुख का परकेन्द्रण मानवता की दिशा में उठा पहला पग है. ग़ालिब सभी के दुखों में शामिल होते. एक खत्री अपने बेटे के असमय देहांत पर उनसे मर्सिया लिखवाता. वह ग़ालिब का दोस्त था; बे-औलाद. इसलिए उसने ‘अपने हक़ीक़ी भतीजे’ को बेटा मानकर अपना लिया था किंतु नियति को कुछ और ही स्वीकार था.
‘18-19 वर्ष की उम्र, क़ौम का खत्री, खूबसूरत, वजादार नौजवान, बीमार पड़कर मर गया’- ग़ालिब मुंशी हरगोपाल को एक ख़त में लिखते हैं. ‘अब उसका बाप मुझसे अर्ज़ करता है कि एक ‘तारीख़’ उसके मरने की लिखूं, ऐसी कि वो फ़क़त तारीख़ न हो, बल्कि मर्सिया हो, और वो उसे पढ़-पढ़ के रोया करे’. ग़दर के ठीक बाद के दिन थे. ग़ालिब का लिखना छूटा हुआ था. उन्होंने मुंशी हर गोपाल से आग्रह किया कि ‘जो ख़ूं चकां शेर तुम निकालोगे, वो मुझसे कहां निकलेंगे. ब-तरीक़े मसनवी 20-30 शे’र लिख दो. नाम उसका बिरज मोहन था और उसको बाबू-बाबू कहते थे’.
धर्म और बिरादरी की बंदिशों के बाहर ग़ालिब के आंगन में सभी का आना जाना था. वह ‘बरहमन’ से आने वाले साल पर पूछते कि वह कैसा रहने वाला है.
'देखिए पाते हैं उश्शाक़, बुतों से क्या फ़ैज़
एक बरहमन ने कहा है कि ये साल अच्छा है’
ग़ालिब की ज़िंदगी में हालांकि ऐसा कोई साल न आया जो अच्छा ठहरता लेकिन ख़राब सालों में उसने अपनी इंसानियत को कभी धुंधला न पड़ने दिया.
(व्यक्त विचार निजी हैं और मिर्ज़ा ग़ालिब पर लेखक की अप्रकाशित रचना के अंश हैं)
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