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मध्यप्रदेश के किसानों के लिए काला सोना नहीं रहा सोयाबीन, कौन है जिम्मेवार
मध्यप्रदेश कभी सोया राज्य के रूप में जाना जाता था, लेकिन होशंगाबाद जिले के मनीष गौर अब सोयाबीन नहीं बोना चाहते हैं. वह कहते हैं, "लगातार घाटे और मौसम की मार से अब सोयाबीन बोना खतरे से खाली नहीं है. पिछले साल उन्होंने सोयाबीन बोया था पर उसमें पौधा अच्छा होने के बाद भी फल नहीं लगे थे, इसका कारण वह अप्रमाणित बीज को मानते हैं."
इस साल भी सोयाबीन फसल बोने का समय हो गया है और प्रदेश में बीज का संकट बना हुआ है. यह कहानी केवल मनीष की नहीं है. मध्यप्रदेश के उन सभी जिलों में जहां सोयाबीन बहुतायत से बोया जाता है, ऐसी ही खबरें आ रही हैं.
मध्यप्रदेश में काला सोना अब काले कोयले में तब्दील हो रहा है. वजह सोयाबीन का गिरता उत्पादन और पिछले कई सालों से लगातार हो रहा घाटा. वैसे हर साल ही सोयाबीन की फसल में कई तरह की दिक्कतें सामने आती रही हैं, लेकिन इस साल की शुरुआत में बीज का संकट खड़ा हो गया है. मप्र के कई जिलों से प्रमाणित बीज नहीं मिल रहे हैं, किसान बाजार से अप्रमाणिक बीज खरीद रहे हैं, जिसकी कीमत साढ़े दस हजार रुपए प्रति क्विंटल तक है. उस पर भी अंकुरण की कोई गारंटी नहीं है. सरकार भी मांग के अनुपात में बीज की आपूर्ति नहीं कर पा रही है.
कृषि विशेषज्ञ और रिटायर्ड प्रोफेसर कश्मीर सिंह उप्पल कहते हैं, "मप्र में 70 के दशक के बाद हरित क्रांति के बाद सोयाबीन की फसल को बड़े पैमाने पर प्रमोट किया गया था. इसका असर यह हुआ कि खरीफ के सीजन में मोटे अनाज वाली फसलों की जगह बड़े पैमाने पर सोयाबीन की खेती का विस्तार हुआ. इससे मध्यप्रदेश का परम्परागत फसल चक्र खत्म हो गया. सोयाबीन एक नगद आधारित फसल है, अब इसके दुष्परिणाम किसान आत्महत्या के रूप में सामने आ रहे हैं."
कृषि कर्मण अवार्ड से सम्मानित पदमश्री किसान बाबूलाल दाहिया कहते हैं, "शुरू में जब देश में सोयाबीन आया तो किसानों ने उसे हाथों हाथ लिया. सोयाबीन ने अपने रकबे में विस्तार कर, ज्वार, अरहर, तिल, मूग उड़द, मक्का आदि 10-12 अनाजों की भी बलि ले ली और उससे जल स्तर घटा व खेतों ने अपनी उर्वर शक्ति खोई वह अलग."
इस परिस्थिति के बावजूद मध्यप्रदेश सोयाबीन उगाने के मामले में देश में अव्वल बना हुआ है. रकबे को देखें तो मप्र में देश के कुल सोयाबीन क्षेत्र का 49 प्रतिशत हिस्सा है, इसके बाद महाराष्ट्र की 34 प्रतिशत और राजस्थान की 10 प्रतिशत हिस्सेदारी है. इसी तरह उत्पादन के मामले में मध्यप्रदेश की 52 प्रतिशत हिस्सेदारी है. इसके बाद महाराष्ट्र की 32 प्रतिशत और राजस्थान की 10 प्रतिशत हिस्सेदारी है. इसके बावजूद अब किसानों का सोयाबीन से मोहभंग हो रहा है.
कृषक नेता केदार सिरोही बताते हैं, "मध्यप्रदेश में सोयाबीन के बीज की भारी किल्ल्त हो रही है. इसकी वजह हैं पिछले दो तीन सालों से अच्छी फसलों का न होना. उसकी एक वजह मौसम की मार तो है ही, लेकिन अच्छा पौधा होने के बाद पौधों में अफलन की शिकायतें भी आई हैं. इसकी वजह बीजों पर किसी की लगाम नहीं होना."
दरअसल, सालों पहले जब मशीनें से ज्यादा काम नहीं होता था, तब किसान खुद ही सोयाबीन का बीज संरक्षित कर लेता था, लेकिन पिछले एक दशक में मशीनों की उपलब्धता ने ज्यादातर कटाई का काम हारवेस्टर से ही हो रहा है. हारवेस्टर से निकला हुआ दाना बीज बनने लायक नहीं होता है, इससे हर साल बीज खरीदना किसान की मजबूरी है.
बीज बनाने का काम दो तीन स्तरों पर किया जा रहा है. इसमें एक हिस्सा सरकारी बीज निगम से पूरा होता है, दूसरा हिस्सा खुले बाजार में गैर सरकारी संस्थाओं के माध्यम से बीज वितरण का काम होता है और तीसरा हिस्सा किसानों द्वारा एक दूसरे को बीज बेचकर किया जाता है, लेकिन इसके बावजूद भी बीजों के मामले में कई लोचे हैं.
किसान नेता और कृषक केदार सिरोही बताते हैं कि बीजों का यह खेल बड़े पैमाने पर किया जा रहा है. उनका कहना है कि जीएम बीजों को प्रवेश देने के लिए किसानों के बीज को जानबूझकर अमानक करार दिया जा रहा है. सरकारी स्तर पर भी बीजों को जरूरत के हिसाब से नहीं दिया जा रहा है, इसलिए प्रदेश भर में बीजों का संकट हैं. केदार खुद किसान हैं, और उन्होंने खुले बाजार से साढ़े दस हजार रुपए प्रति क्विंटल के हिसाब से बीज खरीदा है. उनका मानना है कि जो किसान सोयाबीन ही बोया आया है और सोयाबीन उत्पादन की दुनिया भर में मांग है, वहीं हमारे यहां यह कैसे घाटे में जा रहा है, इस पर सोचा जाना चाहिए.
बीज निगम के आंकड़े सिरोही की बात को पुष्टि भी करते हैं. बीज निगम बीज उत्पादन कार्यक्रम के तहत प्रदेश के 4500 किसानों को बीज वितरित करता है और उन्हें बाजार भाव से ज्यादा दरों पर खरीदता भी है, इसके बाद उसे प्रोसेस और टैगिंग करके दोबारा वितरित किया जाता है.
निगम के अपने भी 42 फार्म हैं जहां उत्पादन किया जाता है. निगम की वेबसाइट पर प्रमाणित आधार बीज वितरण में मार्केटिंग के जो आंकड़े प्रकाशित किए गए हैं उनके अनुसार 2015 में जहां 86295 क्विंटल सोयाबीन बीज का वितरण किया गया था जो घटकर 2020 में 15341.45 प्रति क्विंटल ही रह गया.
खरीफ सीजन की कुल फसलों में जिनमें धान, मक्का, ज्वार, उड़द, मूंग, अरहर, सोयाबीन आदि शामिल है, उसका कुल बीज वितरण 93923 क्विंटल से घटकर 25239 क्विंटल पर आ गया, जबकि इसी अवधि में रवी सीजन की फसलों के लिए बीज वितरण में केवल 1214 क्विंटल की मामूली कमी हुई. इससे साफ जाहिर होता है कि सोयाबीन के बीज वितरण में सबसे ज्यादा कटौती हुई है.
रकबा बढ़ा, उत्पादन घटा
मप्र के आर्थिक सर्वेक्षण में प्रकाशित आंकड़े बताते हैं- "पिछले सालों की अपेक्षा सोयाबीन क्षेत्र का रकबा 14 प्रतिशत तक बढ़ा है. हालांकि इससे उत्पादन नहीं बढ़ा, मप्र में पिछले साल कुल तिलहन फसलों के उत्पादन में 27 प्रतिशत की कमी आई है जबकि सोयाबीन के कुल उत्पादन में पिछले साल की तुलना में 33.62 प्रतिशत की कमी आई है."
इसका एक कारण खराब मौसम भी है. प्रोफेसर कश्मीर सिंह उप्पल कहते हैं, "बेमौसम भारी बारिश या अतिवृष्टि इसमें लगातार घाटा हुआ है और लोग इससे दूर हो रहे हैं. फसल बीमा के आंकड़ों को देखें तो यह बात सही भी लगती है. वर्ष 2020 में जहां रबी फसल में 8.95 लाख किसानों को फसल बीमा मिला, जबकि खरीफ के सीजन में 95 लाख किसानों ने फसल खराब होने का दावा प्रस्तुत कर बीमा लिया है. हालांकि बीमा की राशि नुकसान की तुलना में काफी कम है."
बाबूलाल दहिया बताते हैं, "सोयाबीन पूर्णतः व्यावसायिक फसल है जिसका किसान के घर में कोई उपयोग नहीं है. इसकी खेती में हल, बैल, गाय, गोबर, हलवाहा, श्रमिक किसी का कोई स्थान नहीं है. पूरा पूंजी का खेल है. पहले मंहगे दामों पर बीज फिर रासायनिक उर्वरक फिर जुताई में डीजल य किराए के रूप में नगदी खर्च. फिर कीटनाशक और नींदानाशक में नगद खर्च. फिर कटाई में भी भारी खर्च होता है इससे यह एक भस्मासुर जैसी फसल बन गई है."
(डाउन टू अर्थ से साभार)
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