Opinion

जब कार्टूनिस्ट देश के लिए ख़तरा बन जाए

एक कार्टून बनाया गया. कार्टून बन गया. जो कार्टून बना, उसे हंसना आता तो है, पर दूसरों पर. बुरा लग गया. रायता इसके बाद फैला. किसे अंदाज़ा होगा कि कार्टूनिस्ट से कुपित होने वाला ये पूरा प्रसंग देश के हालात और उसके वक़्त का एक हलफिया बयान बन जाएगा. लोगों के वोटों से बनी सरकार उन लोकतांत्रिक मूल्यों की ऐसी-तैसी करने में लगी है, जहां असहमति, आलोचना और अभिव्यक्ति की आज़ादी बुनियादी शर्त होनी चाहिए थी. यह बताता है कि हमारा देश, हमारी सभ्यता, संस्कृति, संस्कार, हमारी विचारशीलता, उदारता, सहिष्णुता कितनी भुरभुरी है. उन सीले बिस्कुटों की तरह जो चाय में डुबाए जाने के बाद मुंह तक पहुंचने से पहले ही टूटकर गिर पड़ते हैं.

पूरे भारत की यानी हमारी जगहंसाई हो रही है. दुनिया के सामने हम दया और उपहास के पात्र बन गए हैं और जिसकी वजह से बने हैं, वह हमारा नुमाइंदा है. अपनी शक्ल जरा ठीक से देखिये. किसी बांग्लादेशी को अपनी सेल्फी भेजिये, अपने देश की प्रति व्यक्ति जीडीपी के साथ. वह आपको एक क्यूट सी स्माइली भेजेगा. आपके कार्टून में बदलने की पुष्टि करते हुए. किसी स्केच में नहीं, असल ज़िंदगी में.

हम भूल जाते हैं, ख़ुद पर हंस पाना विकसित समाजों का लक्षण है. यूं तो हमारे यहां रिवाज तेज़ाबी नफ़रत में डुबोकर दूसरों पर नश्तर चलाना है पर जब ख़ुद पर आती है, तब हमारी आस्था, गरिमा, सम्मान आहत होने लगते हैं और हमें हिंसक कर देते हैं. ये हिंसा सिर्फ़ शारीरिक नहीं है. सरकारी कार्रवाइयों की अपनी हिंसा है, क़ानून और कागज़-पत्तर की अपनी. हम सबके सामने कितने कुपित, संकीर्ण, सतही, झूठे और बेईमान नज़र आ रहे हैं.

जो प्रधानमंत्री एक छोटे से कार्टून को लेकर बिलबिलाता फिरे, वह 130 करोड़ लोगों की नुमाइंदगी कैसे कर सकता है? ये सवाल बहुत सारे ज़हन में उठ तो रहा है, भले ही वे साफ़-साफ़ और ज़ोर से पूछ नहीं रहे हैं. ये नुमाइंदगी क्या सिर्फ़ भक्तगणों की आहत आस्थाओं, गौरक्षा दलों के मुस्टंडों, गाय के मूत और गोबर में अमृत तलाशने वालों, नफ़रत करने, मंदिर का चंदा चोरी कर चम्पत होने वालों, कमजोर और हाशिये पर खड़े लोगों को तंग करने वालों की है या बाक़ी लोगों की भी है? ये नुमाइंदगी देश की रक्षा, सेवा, उसका ख़्याल रखने के लिए है, या एक कार्टून का बुरा मानकर कोपभवन में जा नाक फुलाकर बैठने के लिए. एक कार्टून को लेकर टची हो जाना क्या जताता है?

ट्विटर को मेमो भेजने वाला सरकारी अफ़सर

एक सरकारी अफसर से कहा गया कि इस कार्टून को लेकर ट्विटर पर कार्रवाई करो जी. उसे बहुत ज़ोर से हंसी आने को हुई. दो वजहों से. एक तो कार्टून को देख कर. दूसरा इस फ़ैसले पर कि कार्टून को लेकर इस तरह की कार्रवाई एक लोकतांत्रिक, आज़ाद मुल्क की सरकार कैसे कर सकती है. पहले तो यक़ीन ही नहीं हुआ. फिर बहुत ज़ोर से हंसी आई, जो उसने रोक ली, क्योंकि नौकरी तो सबको प्यारी होती है.

सरकार ने उस पर जो विश्वास जताया था, उसे उसका भी ख़्याल रखना था. वह ड्यूटी पर था और ज़ूम मीटिंग में सब उसे देख रहे थे. वह अपने दफ़्तर से उठकर बाथरूम चला गया कि दबी हुई हंसी वहां हंस लेगा. पर तब तक हंसी जा चुकी थी. न हंस पाने का तनाव अलग होता है, हंस न पाने का अलग. खर्रा भेजने का दारोमदार उस पर आ जाएगा, उस अफ़सर ने कभी नहीं सोचा था. न कम्पीटीशन परीक्षा के दौरान, न ट्रेनिंग में, न क़ानून की किताबों में. उसे लगा कि यह एक मज़ाक़ है पर उसे बताने वाले मंत्री नथुने फुलाकर बैठे थे, जिसमें से अदृश्य भाप निकलती हुई वह महसूस कर सकता था. उस अदृश्य भाप से पता चलता था कि वे कितने संजीदा हैं. नथुने फुलाकर और जबड़े से चबाकर बोलने वाले शख़्स से लग रहा था कि उस कार्टून की वजह से देश की सरकार, संप्रभुता, सुरक्षा, सम्मान ख़तरे में आ चुके हैं.

ऑर्डर ऊपर से थे, उसने कार्रवाई कर दी. ड्यूटी थी. देखते-देखते बात दफ़्तर में फैली, दफ़्तर से उनके सरकारी क्वार्टर्स के पास-पड़ोस में. उक्त अफ़सर के परिवार वालों को भी समझ नहीं आया कि इसे अपनी शान समझें या टाल जाएं. दफ़्तर के सहकर्मियों के व्हाट्सएप ग्रुप में एक तरफ़ उन अफ़सर की भूमिका की प्रशंसा हो रही थी, पर साथ ही प्राइवेट मैसेज में लोग अब इस वाले के साथ-साथ दूसरे कार्टूनिस्टों के धारदार कामों को शेयर करने लगे थे. अफ़सर के कुछ मातहत उसे बहादुर, कड़क, कुशल प्रशासनिक अधिकारी बता रहे थे, कुछ मज़े ले रहे थे. उसके अलावा सब शायद इस बात से राहत में थे कि ये काम उनसे करने को नहीं कहा गया.

सरकारी क्वार्टर वाले मुहल्ले में जहां अफ़सर रहता था, वहां की औरतें भी अपने व्हाट्सएप पर इस मामले की बात कर रही थी. मुहल्ले के बच्चों को भी समझ नहीं आया कि इस अफसर को हीरो समझा जाए या विलेन. उनके बीच भांति-भांति के ईमोजी शेयर होने लगे. अफ़सर का पूरा दिन और उसकी दुनिया देखते-देखते एक बेहद गंभीर और डार्क कॉमेडी में बदल चुकी थी. और शाम तक हर चेहरा अपनी विद्रूपता और विकृति के साथ उसे दीखने लगा. वह सोचता रहा कि ऐसा मानकर ही आगे बढ़ा जा सकता है कि कुछ हुआ ही नहीं. उस रात उसे नींद थोड़ा देर से आई. ये कॉमेडी उस अकेले की नहीं थी. पूरी नौकरशाही ही कार्टून चरित्रों में तब्दील होने लगी थी. अदालतें, चुनाव आयोग, मीडिया समूहों की तरह. लोकतंत्र खुद चमकते चांद से टूटा हुआ तारा बना डाला गया था. वही कौन कार्टून से कम था.

आलोचना और असहमति से परहेज

कार्टून को दबाने की जितनी कोशिशें की जा रही थीं, बात उतनी ही अधिक फैले जा रही थी. कथानक के दो पात्र थे, एक कार्टूनिस्ट और दूसरा कार्टून ख़ुद. लोग ढूंढ-ढूंढकर कार्टून देख रहे थे. वे कार्टूनिस्ट के कथ्य से सहमत भी थे. वे कार्टूनिस्ट के साथ सहानुभूति भी जता रहे थे. सरकार को शायद इस बात की बहुत तकलीफ़ थी कि जहां बड़े मीडिया समूहों में उनके ख़िलाफ़ चूं भी नहीं की जाती, एक कार्टूनिस्ट की इतनी हिम्मत कैसे हो सकती है. हालांकि इस कार्टूनिस्ट का काम देश पिछले 30 सालों से देख रहा है. वह आधा दर्जन प्रधानमंत्रियों पर कार्टून बना चुका है. कटाक्ष करना उसकी रोज़ी-रोटी है. कार्टून बनते ही तंज करने के लिए थे. उनका काम कटाक्ष करते हुए सवाल करना था.

कार्टूनिस्ट को अब तक विषय चाहिए होता था. अब विषय ने ख़ुद कार्टूनिस्ट को ढूंढ लिया था. इस तरह की अहमक हरकत के बाद कार्टूनों की धार और तेज़ होती चली गई. दूसरे कार्टूनिस्टों की नज़रें भी विषय की तरफ़ घूमने लगी थीं. दांव उलटा पड़ने लगा था. सरकार जब ट्विटर को कार्टूनिस्ट का काम हटवाने के लिए मजबूर नहीं कर पाई, एक विचित्र संयोग की तरह एक बड़े मीडिया घराने ने उस कार्टूनिस्ट के साथ अपना करार रद्द कर दिया. क्यों किया होगा, इसका अंदाज़ा लगाना आज के समय में मुश्किल नहीं था. ऐसे ही अंदाज़े चुनाव आयोग, सुप्रीम कोर्ट, सीबीआई, प्रवर्तन निदेशालय वग़ैरह के बारे में भी लगाये जा रहे थे. शुरू में तो लोग डर रहे थे पर बाद में हंसने लगे थे. ये कार्टून की, कार्टून के द्वारा, कार्टून के लिए बन चुकी व्यवस्था थी. इस कार्टूनमय व्यवस्था के केन्द्र में किसी दूसरे व्यक्ति के लिए न जगह थी, न ज़रूरत. बस एक ही काफ़ी था.

जो ताबड़तोड़ सरगर्मी एक कार्टूनिस्ट को लेकर दिखाई गई थी, उससे एक बात तो साफ थी कि कमी मुस्‍तैदी की न थी. नाक-कान-आंख जमाए सरकार हर वक्‍त मुस्‍तैद थी, बस उन मोर्चों पर जहां होने की कोई दरकार न थी.

जिस सरकार से हरकत में आने की समझदार उम्मीद छोड़ी जा चुकी थी, वह यकायक न सिर्फ़ सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर लगाम कसने निकल पड़ी, बल्कि आनन-फ़ानन में उसने नया क़ानून भी निकाल दिया कि अब क्या बोला जा सकता है और क्या नाक़ाबिल-ए-बर्दाश्त है. ऐसी तत्परता बाक़ी जगहों पर नहीं दिखलाई दी. लोग चंदा चोरी करके चम्पत हो गये. वैक्सीन कम पड़ गईं. ऑक्सीजन कम पड़ी. दवाएं कम पड़ीं. बिस्तर कम पड़े. जानकारियां छुपाई गईं. आंकड़ों के नाम पर धूल झोंकी गई. इंटरनेट से बाहर के हिंदुस्तान के लिए वैक्सीन की व्यवस्था ही मुश्किल कर दी गई. नौकरियां चली गईं. कारोबार डूबने लगे. पर सरकार शुतुरमुर्ग की तरह रेत में सिर धंसाए सोती रही.

अपने नागरिकों के साथ इतने क्रूर मज़ाक़ कौन करता है. इस क्रूर मज़ाक़ के पीछे कौन है. न कोई बता रहा था, न नाम ले रहा था, सिवा कार्टूनिस्ट के. वह बता रहा था चित्रों की मदद से आसानी से समझ में आ जाने वाली बात. ख़तरे की घंटी शायद वहीं से बजनी शुरू हुई थी. लोगों को समझ में आने लगा था.

खिलाड़ी ख़तरों के

असफलताओं को ढंकने का रामबाण इलाज है सच्चे और काल्पनिक ख़तरों के बारे में बात करना. यह सरकार ख़तरों की सबसे बड़ी खिलाड़ी है. वह हमें बताती रही है कि हम कितने ख़तरे में हैं. पाकिस्तान से ख़तरा है. आतंकवाद से ख़तरा है. कश्मीर से ख़तरा है. चीन से ख़तरा है. देश के बहुसंख्य हिंदू ख़तरे में हैं. विपक्षी दलों से ख़तरा है. माओवादियों से ख़तरा है. काले धन से ख़तरा है. घुसपैठियों से ख़तरा है. क़ब्रिस्तानों से ख़तरा है. आरक्षण से ख़तरा है. ये ख़तरे असल में हों न हों, पर वोट दिलाने का कारगर फ़ॉर्मूला जरूर हैं. लेकिन इन काल्‍पनिक ख़तरों का झुनझुना बजा- बजाकर इस देश के नागरिकों और लोकतंत्र को कितने ख़तरे में डाला गया है, उसका हिसाब होना अभी बाकी है.

पर अबकी बार तो पूरा देश देख रहा है कि सबसे बड़ा ख़तरा कौन है. कार्टून बनाने वाला या जिसका कार्टून बना. सरकार के पास बताने के लिए ख़तरे कम पड़ने लगे हैं और उसे नये ख़तरों की सख़्त ज़रूरत है.

जल्‍द ही वो नया ख़तरा अवतरित हो गया और वो भी एक कार्टून की शक्‍ल में. उस कार्टून से भला किसे खतरा था? सरकार को? सारे मंत्रियों को? सारे अफ़सरों और बाबुओं को? देश और दुनिया के लोगों को? किसी को भी नहीं पर तंत्र जिस मुस्तैदी से एक रचनात्मक, संवेदनशील, मज़ाक़िया टीकाकार कार्टूनिस्ट के पीछे पड़ा था, मानो दुनिया के सारे फसाद की जड़ बेचारा वो मासूम का कार्टून ही है. हालांकि उस मुस्‍तैदी में सबकी बराबर हिस्‍सेदारी भी नहीं थी. कुछ सरकारी अफसर सिर्फ अपनी ड्यूटी बजा रहे थे, कुछ सिंहासन से बंधे हुए थे, कुछ चुपचाप मज़े ले रहे थे तो कुछ मन ही मन मुदित थे.

एक व्यक्तिवाचक संरचना में सब बाहरी ही होते हैं ख़ासतौर पर जब उस व्यक्ति की अक्षमता और धौंसपट्टी दोनों का जुलूस निकल चुका हो.

आईने में दीखता चेहरा

यह कार्टून जिस आदमी को बहुत बुरा लगा, उस आदमी ने बहुत सारे चेहरे बदले हैं. स्टाइल बदला है. बहुत ग्रूमिंग करवाई है, कपड़े बदले हैं. सितारों के साथ सेल्फ़ी खिंचवाई है. कैमरे उसे और वह सिर्फ़ कैमरे को देखता रहा है. लगा होगा कि कार्टूनिस्ट को भी वही करना चाहिए, जो देश के ज़्यादातर प्राइमटाइम एंकर करते हैं. कार्टून देखकर लोगों की हंसी सुनाई पड़ रही है, जिसका शोर बढ़ता जा रहा है. उसी इको चैम्बर में, जो बनाया तो सिर्फ उनका गौरव गान ही देखने और सुनने के लिये ही गया था. पर अब वह सब देखने-सुनने को मिल रहा है, जिसके लिए वे तैयार नहीं थे. कैमरे और टेलीप्राम्पटर का सच कार्टून के सच के सामने छोटा और बेमानी होने लगा. ज़्यादातर लोग दिन में एक बार तो आईने में शक्ल देख ही लेते हैं. कई लोग बहुत बार भी देखते हैं. जहां-जहां उनके पोस्टर लगे थे, वहां-वहां लोग उनके चेहरे की जगह कार्टून देखने लगे.

एक कार्टून को लेकर पूरा देश अपनी भयानक तकलीफ़ों के बावजूद हंसने लगा. इधर सरकार हर तरफ़ अपनी धौंस दिखाकर ये उम्मीद कर रही है कि मामला दब जाएगा. सब लोग उनके बोलने से पहले ही हंसने लगते हैं- कुछ मज़े और मज़ाक़ में, कुछ खिसिया कर. जिन लोगों ने बड़ी उम्मीद के साथ वोट दिया था, वो भी. चीयरलीडर थककर घर लौट रहे हैं. जिस सोशल मीडिया पर सवार होकर उसने देश और दुनिया के सबसे ताकतवर ख़लीफ़ा के रूप में जगह बनाई है, वही सोशल मीडिया बाकी लोगों को समझ आ रहा है. उनके मित्र डोलन भाई (उर्फ़ डोनल्ड ट्रम्प) की मिसाल सामने है, जिसे सोशल मीडिया ने खड़ा किया और उसी ने रौंद भी डाला.

कुछ साल पहले वह कितने टशन के साथ पूरे देश पर हंस रहा था, ‘घर में शादी है.. पैसे नहीं हैं.. हाहाहा.’ नोटबंदी का कार्टूनिस्ट कौन था, जब पूरे देश का कार्टून बना दिया गया था? तेल के दामों का कार्टूनिस्ट कौन है? कोविड की तमाम दुर्व्यवस्थाओं का कार्टूनिस्ट कौन है? प्रति व्यक्ति जीडीपी गिराने का? नौकरियां जाने का? बच्चों के अंधकारमय भविष्य का? देश के किसानों, अल्पसंख्यकों, नौजवानों को यातना देने का सोचा-समझा क्रूर मज़ाक़ कौन कर रहा है?

ये मज़ाक़ थोड़े कम क्रूर और धूर्त लगते, अगर अंट-शंट वादे करके कुर्सी न हासिल की गई होती. ये दुनिया और इतिहास की सबसे विलक्षण सरकार है जिसके वादों के सामने सब कुछ कार्टूनमय नज़र आता है. इसका श्रेय न नौकरशाही को मिलेगा, न पार्टी को, न कैबिनेट को, न मीडिया घरानों को, न उद्योगपतियों को. ये श्रेय उसी को मिलेगा, जिसने हर बात का श्रेय बेशर्मी से ख़ुद को दिया है.

पर हमें उनसे ख़तरा नहीं है. मेरी सरकार को अब विचार से ख़तरा है, अभिव्यक्ति से ख़तरा है, सवाल से ख़तरा है, श्लेष और वक्रोक्ति अलंकारों से ख़तरा है, कटाक्ष, हास्य और व्यंग्य से ख़तरा है, टिप्पणी से ख़तरा है, शांति और हक़ की बात करती औरतों, आदिवासी, दलितों और नौजवानों से ख़तरा है. उसे उसके झूठ पकड़ने वालों से ख़तरा है. आईना दिखाने वालों से ख़तरा है. अगर आपको लोकतंत्र में एक कार्टूनिस्ट से ख़तरा है तो फिर आपको हर नागरिक के आज़ाद और लोकतांत्रिक होने से ख़तरा है. आपकी सरकार को आपसे ही ख़तरा है.

ये ख़तरा एक ही आदमी को महसूस हो रहा है. अक्षम, असफल, कमजोर, अप्रभावी साबित होने के बाद कैसा लग रहा होगा अपने बंद कमरों में. अंदाज़ा लगाना बहुत मुश्किल है. कैसा लगता होगा, इतनी सारी लाशें बिछ गईं क्योंकि आपने समय रहते कदम नहीं उठाए. कितना दर्दनाक होता होगा उस आदमी के लिए, जो हमारी शिक्षा, स्वास्थ्य, शांति, आजीविका, अर्थव्यवस्था, क़ानून, सुरक्षा के लिए ज़िम्मेदार हो और कोई भी काम ठीक से न कर पाया हो. जब वह अपने पुराने वादे देखता होगा तो कितनी ग्लानि से भर जाता होगा. जब पूरा लाव-लश्कर किसी पेट्रोल पम्प से गुजरता होगा तो वहांं अपनी शक्ल देखना कितने अपराधबोध से भर देता होगा. जब भी सरकारी विभाग अपने आंकड़े साझा करते होंगे, तो उन्हें देखकर किसका कलेजा मुंह को नहीं आ जाता होगा और उसके बाद उन पर लीपा-पोती करवाने का हुक्म देते दिल पर पत्थर तो रखना ही पड़ता होगा. खाने का कौर कैसे निगला जाता होगा ऐसे में, ये सोचना भी अकल्पनीय है. एक रिकॉर्डेड सम्बोधन में कैमरे के सामने एक अटके हुए आधे आंसू से इस भयावह विषाद और ग्लानि का अंदाज़ा लगाना काफ़ी मुश्किल है.

ऐसे में क्या आश्चर्य कि आपको अपनी शक्ल बार-बार उस कैरीकेचर से मिलती दिखलाई दे, जो एक कार्टून का पात्र है. कि आप उसे बार-बार हाथ फेर मिटाना चाहें पर वह बार-बार फिर से वही हो जाए जिससे आप बचना चाह रहे हैं. उन सारी बातों की याद दिलाता हुआ, जो आपने हांकी तो थीं, पर कर नहीं पाये.

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