Opinion
अपने-अपने हैबिटैट में जूझती दो मादाओं की कहानी है शेरनी
शेरनी फिल्म बहुत सारे मुद्दों पर बात करती है. ये ऐसे अनछुए मुद्दों को उठाती है जो बेहद ख़ास होने के बावजूद हमारे जेहन से दूर हैं. पर्यावरण और वन्य जीव संरक्षण ऐसे ही मुद्दे हैं. शेरनी फिल्म कहानी है एक ऐसी महिला वन अधिकारी की जो एक द्वंद्व से जूझ रही है वो परेशान है कि उसकी नौकरी में कुछ ख़ास नहीं हो रहा. वो मानस भी बना रही है कि वो नौकरी छोड़ देगी. आज जब आर्थिक अस्थिरता में आप कितनी चुनौतियों से जद्दोजहद कर रहे होते हैं तब एक सरकारी नौकरी को छोड़ने का निर्णय लेना इतना आसान नहीं है. शादी करने के बाद बच्चे पैदा करने का दबाव बनाता परिवार, औरत के श्रृंगार की दुहाई देती मां और सास, इन सब के बीच जंगल की मर्दाना नौकरी कही जाने वाली अपनी सेवा में अपने कर्तव्य पालन में तमाम मुश्किलों का सामना भी वह कर रही है.
ईमानदारी से काम करने वाली विद्या जब देखती है कि जंगल में वाटरिंग होल्स में पानी भरने का काम करने वाला ठेकेदार अपना कार्य पेमेंट लेने के बाद भी नहीं करता क्योंकि उसका जीजा वहां का विधायक है. जब विद्या उसे सो कॉज नॉटिस देती है तो बड़ा अधिकारी इस बात को ही बेमानी करार देता है. कुल मिलाकर सरकारी सिस्टम में जिसे रक्षक बना रखा है वो अपने छोटे से फायदे के लिए प्रकृति का बड़ा नुकसान करने में भी नहीं हिचकिचाता. जो ईमानदारी से काम करना चाहता है उसे करप्ट सिस्टम काम करने भी नहीं देता. ब्यूरोक्रेट और राजनेता मिलकर देश को चूना लगाते हैं. यहां मामला चूंकि वन और पर्यावरण का है तो ये चूना प्रकृति और वाइल्ड लाइफ को लगाया जाता है.
1973 में प्रोजेक्ट टाइगर की शुरुआत इसलिए हुई ताकि राष्ट्रीय पशु बंगाल टाइगर को बचाया जा सके. इस फिल्म में एक मादा टाइगर अपने आवास की खोज में है. जंगल में रहने वाले लोगों से उसका टकराव होता है इस क्रम में उसे आदमखोर घोषित कर दिया जाता है.
प्रशासन हमारे देश में ऐसे काम करता है जैसे राजशाही में अयोग्य शासक करते थे. मतलब उनको ना सुनना अच्छा नहीं लगता. तर्क करने वाले से उनको ऐसे ही चिढ़ है जैसे एक धर्मान्ध को होती है. प्रशासन को काम करते देख कर कोई अल्पज्ञ भी कार्यकुशलता पर प्रश्न उठा सकता है यहां तो तुर्रा ये है कि आपको उसे मानना है.
ऐसा ही वाकया वन प्रशासन के बड़े अधिकारी पैदा करते हैं जब एक व्यक्ति की मौत होने पर हर किसी को मालूम है कि मृत शरीर पर जो निशान हैं उससे पता चलता है कि वो भालू के हैं. लेकिन ये बात नहीं सुनी जाती क्योंकि मंत्री का अहंकार मादा टाइगर को आदमखोर बताने में है. बड़ा अधिकारी मंत्री की लय में लय मिलाता है क्योंकि उसका फायदा इसी में है. हारा हुआ विधायक भी जब कहता है कि पीके ने कहा था वो तुम्हें शेरनी से बचाएगा, कहां बचाया. पीके एमएलए है.
अब निशान शेरनी के पंजों के बजाय भालू के हैं तो बात का रुख और हो सकता है. इस मुद्दे पर राजनीति होती है. महिला अधिकारी का उद्देश्य है मादा टाइगर को और उसके दो बच्चों को बचाना. उसका ये सीधा सादा सा उद्देश्य जो उसकी ड्यूटी भी है उसमें आने वाली अड़चनों को जब आप जानना चाहें तो फिल्म देखें. ये सच है कि भले ही आज लोकतन्त्र है लेकिन इसका भी इस्तेमाल किया जाता है.
सत्ता के साथ जिसका गठजोड़ है वो सुकून में है लेकिन जो ईमानदारी से अपना काम करना चाह रहा है वो भले ही परेशान है लेकिन उसकी अपनी ड्यूटी निभाने की जो तसल्ली है वो अपने आप में निश्चित रूप से आशावाद का संचार करती है.
एक शिकारी जो केवल अपने शिकार के नम्बर बढ़ाना चाहता है उसके तर्क आपको उसके अहंकार को बताते हैं. गांव वाले सहसंबंध में विश्वास करते हैं. इसके भी चिह्न आपको फिल्म देख कर मिल ही जाते हैं.
मादा टाइगर जो भले ही उस क्षेत्र में आ गई हो जहां गांव वाले हैं लेकिन वो अपने प्राकृतिक आवास की तरफ बढ़ रही है. बीच में कॉपर की खान को खोद कर उसके लिए मुसीबत भी आदमी ने खड़ी की है. अपने विकास के चक्कर में आदमी ने प्रकृति का नाश कर दिया. सरकार और प्रशासन इस आदमी की सबसे बड़ी प्रतिनिधि है.
एक महिला अधिकारी अपने घर में समाज में नौकरी में जैसे जूझ रही है वैसे ही एक मादा टाइगर भी जंगल में जूझ रही है. दोनों को अपना मुकाम कैसे मिलता है इसके लिए आप फिल्म देखें. फिल्म अमेजन प्राइम पर है और 18 जून 2021 को रिलीज हुई है. पर्यावरण संरक्षण और वाइल्ड लाइफ में इंसान के दखल ने आदमी और इंसान दोनों को मुसीबत में डाल दिया है.
फिल्म आपको सोचने पर मजबूर करेगी यदि आप हर जीव के अस्तित्व में विश्वास करते हैं. न्यूटन बनाने वाले अमित मसुरकर इसके निर्देशक हैं. विद्या बालन, विजयराज जहां एक पक्ष के रूप में आपको अपने विचलन को समझने की दृष्टि देते हैं वहीं बृजेंद्र काला और शरत सक्सेना को देखना आपको झुंझलाए रखता है. इतना ही मुश्किल है सच की ओर होना जितना काला और सक्सेना को इस फिल्म में देखना.
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