Opinion

विनोद दुआ मामले में आदेश के बाद भी, पत्रकार क्यों सुरक्षित नहीं है?

उच्चतम न्यायालय के लिए एक शुभकामना, एक जयकार! परंतु एक ही क्यों? वो इसलिए क्योंकि अभी इस देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर लगने वाले अनुचित व मनमाने अवरोधों के हटने में अभी समय है.

3 जून को विनोद दुआ मामले में आया सुप्रीम कोर्ट का निर्णय इस बुरी खबरों के साल में एक लंबे इंतजार के बाद अच्छी खबर था. अपने 117 पन्नों के निर्णय में न्यायाधीश यूयू ललित और विनीत सरन कहते हैं, "हर पत्रकार, केदार नाथ सिंह मामले में रेखांकित शर्तों के अंतर्गत सुरक्षा का हकदार होगा, भारतीय कानून संहिता या आईपीसी की धाराओं 124A और 505 के अंतर्गत चलने वाला हर अभियोग अनुच्छेदों के अंदर दिए गए नियमों और सीमाओं पर सख्ती से चलना चाहिए, और उसका केदारनाथ सिंह मामले में निर्धारित कानून से पूरी तरह तारतम्य होना चाहिए."

आम भाषा में इसका अर्थ है कि, सरकार अपनी नीतियों की आलोचना या सवाल करने वाले, तथा सरकार के कामकाज पर रिपोर्ट या उसमें खामियां बताने वाले पत्रकारों पर राजद्रोह के मामले नहीं दायर कर सकती. यह एक अच्छी बात है और मीडिया में हम सभी को इस से प्रसन्नता और तसल्ली ‌होनी चाहिए.

लेकिन असल में, यह जजों के द्वारा उल्लेखित किए गए मामले केदार नाथ सिंह बनाम बिहार राज्य में करीब 60 साल पहले 1962 में ही निर्धारित हो गया था. इसके बावजूद, 6 दशकों बाद भी जिस आसानी से आईपीसी की धारा 124A को पत्रकारों और अन्य लोगों के खिलाफ इस्तेमाल किया जा रहा है, उससे सरकारें और थाना स्तर पर पुलिस इस निर्णय को समझ पाने में असमर्थ दिखती है.

इतना ही नहीं, आर्टिकल-14 नामक न्यूज़ वेबसाइट के द्वारा सूचीबद्ध किए गए आंकड़ों से पता चलता है कि 2014 में भाजपा के सत्ता में आने के बाद राजद्रोह के मामलों में बढ़ोतरी हुई है. उनके द्वारा तैयार किया गया डेटाबेस यह बताता है कि 2014 से 2020 के बीच दायर हुए राज्यों के मामलों में 28 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है.

विनोद दुआ के खिलाफ मामला एक तय ढर्रे पर चलता है. पिछले साल मार्च में एक भाजपा नेता ने उनके खिलाफ कुमारसेन शिमला में एक मामला दाखिल किया. उनका कहना था कि पत्रकार ने यूट्यूब पर अपने कार्यक्रम विनोद दुआ शो में प्रधानमंत्री और सरकार के खिलाफ "बेबुनियाद और विचित्र आरोप" लगाए थे. उनका मानना था कि यह आईपीसी की धाराओं 124A, 268, 501 और 505 के अंतर्गत दंडनीय था.

विनोद दुआ का केंद्र दिल्ली है. मामला हिमाचल प्रदेश में दायर किया गया था. उस समय तक तेजी से फैलती महामारी को देखते हुए देशव्यापी लॉकडाउन लागू कर दिया गया था. राज्यों के बीच आवाजाही पर रोक-टोक थी. पत्रकार जहां रहता हो उसके बजाय कहीं और मुकदमा दाखिल करना इस तरह के मामलों का एक खास पहलू है.

दुआ अधिकतर पत्रकारों से ज्यादा भाग्यशाली थे, वह अपने खिलाफ दाखिल किए गए मामले को खारिज करने के लिए उच्चतम न्यायालय में एक अर्जी दाखिल कर सके. अधिकतर पत्रकार खास तौर पर वे जो छोटे शहरों और कस्बों में रहते हैं, के पास यह क्षमता नहीं है. उनके लिए इस तरह के मामले में जवाब देने के पहले कुछ चरण ही किसी सज़ा से कम नहीं.

इसलिए भले ही यह मामला दुआ के पक्ष में जा रहा है, लेकिन यह याद रखना जरूरी है कि 60 वर्ष पहले उच्चतम न्यायालय के द्वारा दिए गए निर्देशों का निरंतर उल्लंघन होता है और उन्हें लागू करवाने का एकमात्र तरीका, पीड़ित व्यक्ति के द्वारा अपनी अपील लेकर अदालत भागना है.

इसके परे, स्वतंत्र पत्रकार जो बिना बड़े मीडिया संस्थानों के सहारे और सामान्यतः छोटी जगहों से रिपोर्ट करते हैं, उनके पास उच्चतम न्यायालय जाना तो दूर प्रारंभिक स्तर पर ही अपने ऊपर थोपे गए इन मामलों से लड़ने के संसाधन भी नहीं होते. अगर मामला आपके केंद्र के बजाय किसी और जगह पर दाखिल किया गया है तो उससे लड़ने की प्रक्रिया महंगी और कष्टकारी हो जाती है. अगर अदालत आपकी मौजूदगी चाहती है तो आपको वकील ढूंढने पड़ेंगे और अपना खुद का पैसा खर्च करना पड़ेगा.

इसके साथ साथ, 124A पत्रकारों और विरोधियों के खिलाफ इस्तेमाल किए जाने वाले कई कठोर कानूनों में से केवल एक है. उदाहरण के लिए, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री खुलेआम पत्रकारों को धमकाते देखे गए हैं कि सरकार की नजर में "झूठी खबरें" फैलाने वाले किसी भी व्यक्ति के खिलाफ राष्ट्रीय सुरक्षा कानून या रासुका का इस्तेमाल किया जाएगा. जैसे कि अप्रैल माह हमें महामारी की दूसरी लहर के शिखर पर असल में हुई ऑक्सीजन की कमी.

पत्रकार सिद्दीक कप्पन के मामले में, जो हाथरस बलात्कार कांड पर रिपोर्ट करने गए थे लेकिन उन्हें उत्तर प्रदेश पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया और वह आज 200 दिन बाद भी राजद्रोह और आतंक विरोधी कानून यूएपीए के अंतर्गत जेल में हैं.

इतना ही नहीं, उत्तर प्रदेश में पत्रकारों के सामने आने वाली मुश्किलों के बारे में इस रिपोर्ट के हिसाब से आईटी कानून की धारा 66A जिसे उच्चतम न्यायालय ने 2015 में ही हटा दिया था, का इस्तेमाल जारी है.

इसीलिए जब सरकारों के पास, विरोध करने वाले लोगों या आलोचनात्मक पत्रकारिता और लेखन करने वालों के खिलाफ इस्तेमाल करने के लिए ऐसे कानूनों का एक असला मौजूद है, तब उच्चतम न्यायालय के द्वारा दी गई सुरक्षा काफी नहीं है. अदालत इस देश में दाखिल किए गए हर मामले पर नजर नहीं रख सकती. अगर मामला किसी छोटी जगह के पुलिस थाने में एक व्यक्ति या पत्रकार को परेशान करने की वजह से दाखिल किया गया है, तो उसे रोकने के लिए कुछ नहीं किया जा सकता. जब तक वह व्यक्ति अपने मामले की सुनवाई के लिए लड़ता है, तब तक यह प्रक्रिया ही उनके लिए सज़ा बन चुकी होती है.

इसी वजह से एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया और पत्रकारों का पक्ष रखने वाली कई संस्थाओं की यह मांग है कि इस साम्राज्यवादी कानून को इतिहास को कूड़ेदान में फेंक दिया जाए, बिल्कुल वाजिब है. अगर भारत यह चाहता है कि उसे एक आज़ाद और निर्भीक प्रेस रखने वाला जीवित लोकतंत्र समझा जाए, तो ऐसे कानूनों की कोई जगह नहीं है.

संविधान विशेषज्ञ फैजान मुस्तफा हाल ही में इंडियन एक्सप्रेस में छपे अपने लेख में इस बात को बखूबी रखते हैं. वे इस बात पर ध्यान दिलाते हैं कि राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो या एनसीआरबी के आंकड़ों के अनुसार, "2016 से 2019 के बीच राजद्रोह के मामले दाखिल होने में 160 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है जिनमें से केवल 3.3 प्रतिशत मामलों में अपराध सिद्ध हुआ." यह आंकड़े भी इसी बात का सबूत हैं, कि यह कानून किस प्रकार उत्पीड़न के लिए इस्तेमाल किया जाता है जबकि इसमें अपराध सिद्ध होने संभावना बहुत कम है.

1962 में ही केदारनाथ सिंह मामले में, राजद्रोह क्या होता है इसकी सीमाएं निर्धारित कर दिए जाने के बाद भी ऐसा क्यों हो रहा है? क्या इन बीच के वर्षों में, उस निर्णय ने इस कानून के दुरुपयोग को कम किया है? अगर हम आर्टिकल-14 के द्वारा इकट्ठा किए गए आंकड़ों को देखें तो ऐसा बिल्कुल प्रतीत नहीं होता.

वैसे भी, इस कानून के दुरुपयोग का असर केवल पत्रकारों ही नहीं सरकार की नीतियों की आलोचना और विरोध करने वाले आम नागरिकों पर भी पड़ता है, जिनके पास करने का संवैधानिक अधिकार है. 2016 में, मैंने खुद तमिलनाडु में कुडनकुलम परमाणु प्लांट का शांतिपूर्वक विरोध कर रही इदिन्थकरई की जीवट महिलाओं के चेहरे पर हैरानी थी, जब उन्हें यह बताया गया कि उनके ऊपर राजद्रोह का आरोप लगा है. अंत में उन्हें उच्चतम न्यायालय से राहत मिली.

राजद्रोह के कानून को असंवैधानिक घोषित किए जाने के लिए मीडिया की तरफ से पुरजोर मांग का न किया जाना आश्चर्यचकित नहीं करता. टेलीग्राफ ने अपने संपादकीय, जिसका शीर्षक "हुर्रा" है, में इसकी मांग की है. लेकिन अधिकतर संपादकीय मत न्यायालय के निर्णय का स्वागत करते हुए संयमित रहे हैं, और इस बात को कुरेदने से बचते हैं कि न्यायालय के पूर्व निर्णय से इस कानून के दुरुपयोग में कोई कमी नहीं आई.

विनोद दुआ मामले में उच्चतम न्यायालय का निर्णय महत्वपूर्ण ही नहीं ऐतिहासिक भी है. इससे शायद प्रशासन के द्वारा पत्रकारों के खिलाफ राजद्रोह के कानून के इस्तेमाल में थोड़ी कमी आ जाए. लेकिन जैसा पहले हुआ, जब तक यह कानून किताबों पर रहेगा तब तक इसके दुरुपयोग की संभावनाएं बनी रहेंगी, क्योंकि सभी सरकारें अपने अंतर्मन में ऐसे कानून चाहती हैं जिससे वो विरोध और पूछे जाने वाले प्रश्नों को दबा सकें.

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