Opinion
क्या प्रधानमंत्री मोदी के द्वारा वैक्सीन नीति बदलने के पीछे दी गई वजहें मान्य हैं?
7 जून शाम 5:00 बजे, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने टेलीविजन के द्वारा जनता को एक संदेश दिया, जिसमें उन्होंने कोविड वैक्सीन को खरीदने की नीति पर यू-टर्न लेने की घोषणा की. पिछली नीति का विस्तृत वर्णन (जिसका नाम लिब्रलाइज़्ड एंड एक्सीलरेटेड फेज़ 3 स्ट्रेटजी था) 19 अप्रैल को जारी हुई एक प्रेस विज्ञप्ति में था, और उसकी घोषणा 20 अप्रैल को प्रधानमंत्री के पिछले उद्बोधन में की गई थी. इस नीति की आलोचना की गई थी.
1 जुलाई से, 18 से 44 साल के भारतीयों के लिए वैक्सीन का प्रबंध करने की जिम्मेदारी राज्यों और उनके सीमित वित्तीय संसाधनों पर नहीं होगी. अधिकारी स्तर पर खरीद का जिम्मा पूरी तरह केंद्र सरकार पर होगा और राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को वैक्सीन सप्लाई भी वही करेगी. 18 वर्ष की आयु से ऊपर वाला हर भारतीय मुफ्त वैक्सीनेशन का हकदार होगा, लेकिन निजी तौर पर फंड किए गए वैक्सीनेशन का प्रावधान भी होगा. अस्पताल वैक्सीन की कुल मात्रा का एक चौथाई खरीद सकते हैं और 150 रुपए के अतिरिक्त शुल्क के साथ उसे कीमत अदा करने वाले नागरिकों को लगा सकते हैं.
नीति में आया यह 'यू-टर्न', भले ही स्वागत योग्य हो, लेकिन इसके बताए जा रहे कारणों से कुछ नए सवाल खड़े होते हैं.
पहला, यह स्वागत योग्य क्यों है?
अधिकतर सरकारें, नीतियों को वापस लेने जिन्हें आम भाषा में यू-टर्न कहा जाता है, को पसंद नहीं करतीं. कुछ और नहीं तो इससे यह ज़रूर दर्शित होता है कि मंत्रियों और उनके नीतिगत सलाहकारों से भूल हुई और उनके आलोचक सही थे. हालांकि वास्तविक तौर पर भूल अक्सर होती हैं और ऐसे अवसरों पर भूल को स्वीकार कर नीति को वापस लेना ही सही कदम होता है.
वैक्सीन खरीद के मामले में, भारत सरकार और वैक्सीन निर्माताओं तक से वैक्सीन की पर्याप्त मात्रा में आपूर्ति के ऑर्डर को आखिरी समय तक नजरअंदाज करने की भूल हुई. कोई नहीं जानता कि क्या, कब, किसके साथ और कितना स्टॉक ऑर्डर किया गया. यह वो सवाल हैं जिन्हें जनहित याचिकाओं के उत्तर में अदालतें भी पूछ रही हैं. उदाहरण के तौर पर, 3 जून को उच्चतम न्यायालय ने 1 मई की पॉलिसी को "विवेकहीन और तर्कहीन" बताकर सरकार से प्रश्नों की एक लंबी फेहरिस्त का उत्तर देने की मांग की.
तीसरे चरण की नीति की आलोचना राजनीतिक घटकों की और से भी की गई. कांग्रेस पार्टी के नेता और पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने वैक्सीन की खरीद में राज्यों को एक दूसरे से प्रतियोगिता करने के वित्तीय तर्क पर सवाल उठाया, भले ही वह कुल खरीद के 50 प्रतिशत के लिए ही था.
तमिलनाडु के वित्त मंत्री पी थ्यागराजन ने इसे और साफगोई से कहा. उन्होंने एक जाहिर सी बात रखी की केंद्र सरकार के द्वारा वैक्सीन के लिए निर्धारित 35 हजार करोड़ रुपए अंततः करदाताओं से ही आएंगे चाहे कोई भी वैक्सीन को खरीदे. इसलिए यही सही जान पड़ता है कि, "लोगों के लिए वैक्सीन के इंतजाम का काम जितनी दक्षता से हो सके, होना चाहिए."
भारतीय रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने करण थापर को दिए गए एक इंटरव्यू में इस नीति की खास तौर पर तीखी आलोचना की. उनका कहना था कि सरकार ने अपनी भूलों से सीख न लेने की एक विलक्षण अयोग्यता दिखाई है, वे आगे कहते हैं, "अपनी असफलताओं को न पहचान पाने की असफलता, भविष्य की असफलताओं का मार्ग प्रशस्त करती है." उन्हें इसमें जरा सा भी संदेह नहीं था कि केंद्र सरकार का इतना प्रभाव और जिम्मेदारी थी कि, "वह वैक्सीन खरीदने में पहले और हमारे वैक्सीन निर्माताओं पर निवेश करती." उनका कहना था कि बहुत से वैक्सीन निर्माता, "अलग-अलग राज्यों से डील करना नहीं चाहेंगे", और राज्य सरकारों को वैक्सीन खरीदने के लिए एक दूसरे से प्रतियोगिता करना केवल उसकी कीमतें ही बढ़ाएगा.
दूसरा, अगर यह स्वागत योग्य कदम है, तो खड़े होने वाले नए प्रश्न कौन से हैं?
अगर निर्धारित नीति को वापस लेना उचित होता, तब सरकार को चाहिए था कि वह एक प्रेस विज्ञप्ति निकाल कर यह स्वीकार करती कि वर्तमान नीति से परेशानियां हो रही थीं, नई व्यवस्था की घोषणा करती और स्वास्थ्य मंत्री के द्वारा एक प्रेस वार्ता में लिए गए निर्णय के कारण बताए जाते.
इसके बजाय, नीति की वजह से हुई गड़बड़ियों का मखौल बना कर और प्रधानमंत्री के एक बड़े और महत्वपूर्ण देश के संबोधन का विषय बना कर, सरकार ने कई नए सवाल खड़े कर दिए.
मसलन, पिछली गलती को साधारण तौर पर मानने के बजाय प्रधानमंत्री ने अप्रैल वाली नीति के पीछे की सोच को समझाने की कोशिश की, जिसमें राज्यों के ऊपर वैक्सीन की खरीद और कीमत देने की जिम्मेदारी डाल दी गई थी. ऐसा करने से आप कमज़ोर, दुविधा से गिरे हुए और गलती मानने से डरते हुए दिखाई पड़ते हैं. प्रधानमंत्री ने कहा कि पिछली नीति कई राज्यों की इस मांग को देखते हुए ली गई थी कि उन्हें भी इस बड़ी जिम्मेदारी में हाथ बंटाने दिया जाए, कि सारे निर्णय केंद्र सरकार द्वारा लिया जाना ठीक नहीं है. इसीलिए राज्यों के स्वास्थ्य और मुख्यमंत्रियों के साथ परामर्श में यह निर्णय लिया गया कि उन्हें देश में बनने वाली वैक्सीनों के एक चौथाई तक को खरीदने का अधिकार हो. यह स्पष्ट रूप से बाद में दी जाने वाली सफाई है.
मोदी सरकार की हर चीज को खुद ही मैनेज करने की वजह से आलोचना हुई थी. यह सही है कि राज्य सरकारों के स्वास्थ्य विभागों ने लोगों तक वैक्सीन पहुंचाने के तरीकों को अपनाने के लिए अधिक स्वायत्तता और स्वतंत्रता की मांग की थी. उदाहरण के लिए प्रधानमंत्री के मुख्य सचिव पीके मिश्रा के अनुसार, महाराष्ट्र ने यह इच्छा प्रकट की थी कि वे अपने नागरिकों के एक भाग को घर-घर जाकर वैक्सीन देना चाहते थे, लेकिन केंद्र सरकार इसके पक्ष में नहीं थी. कोविन एप पर आधारित वैक्सीन के पंजीकरण पर जोर देना अभी एक विवाद का कारण था लेकिन मोदी सरकार अपने मोबाइल एप पर आधारित तकनीकी युक्तियों के चाव की वजह से अड़ी रही.
इसलिए प्रधानमंत्री का, इन शिकायतों को राज्यों की तरफ से अपने सीमित बजट को वैक्सीन खरीदने में इस्तेमाल करने की मांग के रूप में पेश करना किसी कपट से कम नहीं था.
अगर हम यह भी मान लें कि राज्य और केंद्र शासित प्रदेश खुद आगे बढ़कर वैक्सीन खरीदने के लिए उतावले थे भले ही उनके पास उसके लिए आर्थिक संसाधन हों या न हों, प्रश्न तब भी यही उठता है कि मोदी सरकार ने उनकी इन मांगों को क्यों माना? खासतौर पर जब केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री और प्रधानमंत्री की आपस में सहमति नहीं थी. क्या केंद्र सरकार ने इस प्रश्न को नीति आयोग के पास या कोविड वैक्सीन लगाने पर राष्ट्रीय विशेषज्ञ समूह जिसकी अध्यक्षता वीके पॉल कर रहे हैं, के पास भेजा? आखिरकार बीपी अगस्त 2020 में इस कमेटी का यह स्पष्ट रूप से मत था कि वैक्सीन खरीदने की जिम्मेदारी केंद्र सरकार की ही रहनी चाहिए. इतना ही नहीं, कमेटी ने "सभी राज्यों को वैक्सीन खरीदने के अलग-अलग रास्ते न लेने की सलाह दी थी."
एक सवाल जिसका कोई जवाब देना नहीं चाहता, क्या इस कमेटी ने अगस्त 2020 और अप्रैल 2021 के बीच वैक्सीन की इस दोहरी खरीद पर अपनी राय बदल दी थी, जिसकी घोषणा प्रधानमंत्री ने अप्रैल में की. इस समय ऐसा प्रतीत होता है जैसे सरकार वैक्सीन नीति में हुई गड़बड़ियों का दोष किसी पर मढ़ने में विफल हो रही है.
इसके साथ साथ, प्रधानमंत्री ने 5 से 6 दशकों की पिछली सरकारों को कोई काम ठीक से न करने के पैंतरे का भी इस्तेमाल किया. कोई भी अच्छा सलाहकार उन्हें अपने संदेश में इसे शामिल करने से रोक देता क्योंकि कोरोनावायरस महामारी पूरी तरह से 2020 की समस्या थी और ऐसा करने से उनकी व्याकुलता स्पष्ट दिखाई पड़ रही थी. (क्या यहां खिसियानी बिल्ली खंभा नोचे इस्तेमाल हो सकता है?)
उनके द्वारा अपने संदेश में कही गई एक बात की सत्यता को परखना बहुत ज़रूरी है. उन्होंने कहा कि अधिकतर वैक्सीन कार्यक्रमों में साल 2014 तक कवरेज 60 प्रतिशत तक ही था, जो उनके दावे के अनुसार उनके सरकार में आने के समय एक बड़ा चिंता का विषय था. उन्होंने यह भी कहा कि अगर उन्होंने 2014 के पहले की गति से काम किया होता तो इसे बढ़ाने में 40 साल और लग जाते. उन्होंने दावा किया कि इसीलिए उनकी सरकार ने इस कवरेज को 90 प्रतिशत तक लाने के लिए मिशन इंद्रधनुष शुरू किया था.
इसे नम्रता से भी कहने का कोई और तरीका नहीं है लेकिन यह बात सरासर गलत है. अगर उनके भाषण की स्क्रिप्ट को पहले सरकार के अंदर भी जारी कर दिया जाता तो स्वास्थ्य मंत्रालय के ज्ञाता इस तथ्यात्मक भूल को सही कर देते.
जून 2016 में विश्व स्वास्थ्य संस्था के बुलेटिन के अंदर प्रकाशित, भारतीय डब्ल्यूएचओ और दिल्ली में कार्यरत यूनिसेफ के अधिकारियों तथा स्वास्थ्य मंत्रालय के एक सिविल सर्वेंट के द्वारा लिखे गए एक पेपर के अनुसार, "1999 से 2013 के बीच, अनुमानित राष्ट्रीय कवरेज धीरे धीरे बढ़ता रहा. बीसीजी वैक्सीन का 74% से 91%, डीपीटी-1 वैक्सीन का 74% से 90% और डीपीटी-3 वैक्सीन का 59% से 83%, मुंह के रास्ते दी जाने वाली पोलियो वैक्सीन का 57% से 82% और खसरा के लिए वैक्सीन की पहली खुराक का 56% से 83%."
और वैसे भी, पिछले कई दशकों में भारत का अपनी जनसंख्या को अलग-अलग वैक्सीन देकर शरीर में प्रतिरोधी क्षमता को बढ़ाने का प्रदर्शन कैसा रहा, इसका हमारे सामने खड़ी कोविड वैक्सीन की समस्या से कोई लेना देना नहीं है. न ही यह इस प्रकार के किसी भी वाद विवाद को शुरू करने का सही समय था. अधिक से अधिक, एक संकीर्ण व दलगत दृष्टिकोण से यह बात घुमाने का एक तरीका था, जिसमें आप यह कह रहे हैं कि दूसरी राजनीतिक विचारधाराओं की पिछली सरकारें भी वैक्सीनेशन के कार्यक्रमों में सफल नहीं रही थीं.
चाहे जो भी हो, प्रधानमंत्री के व्यापक वैक्सीनेशन को लेकर एक वार्ता की तरफ जाना यह प्रदर्शित करता है कि प्रधानमंत्री कवरेज रेट के सिद्धांत को समझते हैं और वैक्सीनेशन के लिए जनसंख्या के अनुपात में लक्ष्य रखने की महत्ता का उन्हें ज्ञान है. लेकिन "वह दो वैक्सीन जिन्हें राष्ट्र ने एक साल में ही लांच कर दिया था", इसके संदर्भ में देश के प्रदर्शन की बात करते हुए वह फिर से अपने पुराने ढर्रे, अब तक दी गई 23 करोड़ खुराक़ों पर बार-बार ज़ोर दिए जाने पर लौट आए. देखने में यह संख्या चाहे कितनी भी बड़ी दिखाई दे, लेकिन भारत की जनसंख्या के अनुपात में यह केवल 6% वयस्कों को वैक्सीन की दोनों खुराक और 17.5% के लिए केवल पहली खुराक मात्र है.
यह नीतिगत परिवर्तन सही दिशा की तरफ एक स्वागत पूर्ण कदम है लेकिन संकट को एक नौटंकी में बदलकर, मोदी सरकार ने वैक्सीन नीति के गड़बड़ियां होने के संदेहों की पुष्टि ही की है.
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