Opinion

म्यांमार मसले पर चुप्पी भविष्य में हो सकती है घातक!

'मेरे पिया गए रंगून, वहां से किया है टेलीफोन, तुम्हारी याद सताती है’! फ़िल्म पतंगा (1949) में सी रामचंद्रन और शमशाद बेगम का गाया हुआ ये गीत हम भारतीयों की ज़ुबान में यदा कदा ही सही लेकिन कानों में पड़ते ही होंठों के साथ तालमेल करते हुए आगे ज़रूर बढ़ने लगता है. द्वितीय विश्वयुद्ध की पृष्ठभूमि पर बनी फ़िल्म में नायक बर्मा में है और वहां से अपनी देहरादून में बैठी पत्नी को फ़ोन करते हुए कहता है ‘हम छोड़ के हिंदुस्तान बहुत पछताए, हुई भूल के तुमको साथ ना लाए, हम बर्मा की गलियों में और तुम हो देहरादून, तुम्हारी याद सताती है’. यह वहीं रंगून हैं जहां से हिंदुस्तान के आख़िरी मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र की दिल्ली वापस आने की तमन्ना मरने के बाद भी आज तक अधूरी रह गयी. उनका ख़ुद का लिखा शेर ‘कितना है बदनसीब ज़फ़र दफ़्न के लिए, दो गज ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में.’ उनकी ज़िंदगी का असल बताता है.

बर्मा को सन् 1948 में ब्रिटेन से आज़ादी मिली और इसे म्यांमार के नाम से जाना जाने लगा. लेकिन म्यांमार को ब्रिटेन से मिली आज़ादी के बाद से ही वहां के सैन्य शासन का सामना करना पड़ रहा है. म्यांमार में साल 2021 के फ़रवरी के महीने में हुए तख़्तापलट के बाद हुए विद्रोह में लगभग 536 से अधिक लोगों की जाने चली गईं जिनमें अधिकतर बच्चे शामिल हैं. इसीलिए वहां हो रहे विरोध प्रदर्शनों में ‘सेव द चिल्ड्रेन’ को ज़ोरों के साथ मुद्दा बनाया जा रहा है. हालांकि टीवी चैनल डेमोक्रेटिक वाइस ऑफ़ बर्मा ने लिखा है कि चुनावी अनियमितताओं के चलते तख़्तापलट हुआ है. सैन्य शासन के बिना देश को एकजुट नहीं किया जा सकता. ताज़ा मामले में तख़्तापलट के बाद सैन्य कार्यवाही में विरोध कर रहे नागरिकों पर पुलिस द्वारा गोली चलाने का आदेश दिया गया जिसको पुलिस प्रसाशन ने मना कर दिया. ऐसे में उन पुलिस अफ़सरों पर कड़ी कार्यवाही की चेतावनी भी दी गयी. बताया जा रहा है कि ये अफ़सर भारत में हैं लेकिन भारत सरकार इस संदर्भ में आधिकारिक रूप से कुछ भी कहने के मूड में नहीं है. डब्ल्यूडॉटफ़्रान्स 24 ने भी लिखा है कि म्यांमार के भागने वाले पुलिस अधिकारियों ने भारत को मुश्किल में डाल दिया.

ऐतिहासिक रूप से देखें तो म्यांमार के इतिहास में ये दूसरा बड़ा जन आंदोलन है. 1988 में सैन्य शासन के ख़िलाफ़ छात्रों ने एक बड़ा जन आंदोलन शुरू किया था. इसी आंदोलन से म्यांमार की वर्तमान काउंसलर आंग सांग सू की एक राष्ट्रीय नेता बनकर उभरी थीं. इसके बाद जब 1990 में सैन्य प्रशासन ने चुनाव कराया, तो उनकी पार्टी, नेशनल लीग फ़ॉर डेमोक्रेसी ने ज़बरदस्त जीत हासिल की. हालांकि सैन्य प्रशासन ने चुनाव के नतीजों को खारिज कर दिया और आंग सान सू ची को उनके घर पर नज़रबंद कर दिया गया. यह नज़रबंदी साल 2010 में ख़त्म हुई. इसके बाद से उन्होंने देश में लोकतंत्र लाने की कोशिशों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया. वो 2016 से लेकर 2021 तक म्यांमार की स्टेट काउंसलर के साथ विदेश मंत्री भी रही. इस साल फ़रवरी की पहली तारीख़ को सेना ने म्यांमार सरकार का तख़्तापलट किया और प्रशासन अपने हाथ में ले लिया. तब से देश में आंदोलन चल रहा है, जिसका नेतृत्व युवा पीढ़ी और छात्र लगातार कर रहे हैं.

हाल ही में भारत के पूर्वोत्तर राज्य मिजोरम में म्यांमार से आए शरणार्थियों को वापस भेजने के संदर्भ में मिज़ोरम सरकार द्वारा केंद्र को उन्हें राजनीतिक शरण देने की अपील की है. मुख्यमंत्री जोरामथांगा ने इस बारे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखकर केंद्र से आग्रह किया था कि इस मानवीय संकट को नजरंदाज नहीं किया जा सकता. यह स्थापित तथ्य है कि मिजोरम से सटे म्यांमार के सीमावार्ती क्षेत्र में चिन समुदाय के लोग रहते हैं, जो कि नस्लीय रूप से मिजो हैं और स्थानीय मिजो समुदाय के साथ उनके तबसे संबंध हैं जब भारत स्वतंत्र नहीं हुआ था. मुख्यमंत्री का कहना है कि यही वह भावनात्मक आधार है, जिसके कारण मिजोरम तटस्थ नहीं रह सकता.

हालांकि भारत में शरणार्थियों को लेकर किसी भी तरह के क़ानून नहीं हैं. क्योंकि उसने 1951 की संयुक्त राष्ट्र संधि और शरणार्थियों की स्थिति से संबंधित 1967 के प्रोटोकाल पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं. वहीं म्यांमार के शरणार्थी दीर्घकालिक वीजा (एलटीवी) के अंतर्गत भी नहीं आते. ऐसे में भारत सरकार ने स्पष्ट रूप से मिज़ोरम के मुख्यमंत्री को जवाब में कहा था ऐसे लोगों को प्रोत्साहित नहीं किया जाना चाहिए.

भारत का म्यांमार के तख़्ता पलट और शरणार्थियों के मामले में हस्तक्षेप ना करना कितना सही है कितना ग़लत इस पर अध्ययन लगातार किया जा रहा है लेकिन प्रथम दृष्ट्या जो भौगोलिक स्थिति बनती दिख रही है वह वाक़ई चिंताजनक है.

म्यांमार को 1935 में अंग्रेजों ने इसे अलग देश बनाया, फिर 1948 में इसे ब्रिटेन से आज़ादी मिली. 1962 में यहां सैन्य शासन आरम्भ हुआ. 2010 तक लम्बे संघर्ष के बाद पहली बार जब लोकतांत्रिक व्यवस्था में चुनाव हुए उसके बाद वहां की लोकप्रिय नेता आंग सांग सू की पर लगातार आरोप लगते रहे. 1988 का छात्र आंदोलन दुनिया भर में सराहा और याद किया जाता है. म्यांमार इन दिनों चीन और ख़ुद की सेना से लगातार संघर्ष कर रहा है. चीन का म्यांमार पर लगातार बीआरआई (बेल्ट एंड रोड इनिसिएटिव) प्रोजेक्ट के लिए दबाव बनाना कहीं ना कहीं भारत के लिए भविष्य में एक ख़तरा खड़ा कर सकता है. एक रिपोर्ट के अनुसार चीन ने म्यांमार को लगभग चार बिलियन डॉलर का क़र्ज़ दे रखा है और इसी क़र्ज़ का ब्याज 500 मिलियन डॉलर म्यांमार को चुकाना पड़ता है. ऐसे में म्यांमार की आंग सांग सू की इस प्रोजेक्ट में ज़्यादा दिलचस्पी नहीं दिखा रही थी. मौजूदा हालातों को देखें तो बीआरआई मेगा सिटी प्रोजेक्ट के साथ साथ कच्चे तेल और गैस पाइपलाइन के भी प्रोजेक्ट पर चीन को हानि पहुंची हैं. ग्लोबल टाइम्स की एक रिपोर्ट के अनुसार म्यांमार के तख़्तापलट के बाद हुई हिंसा में चीन निवेशित 32 कम्पनियों को लूट लिया गया जिसकी पुष्टि म्यांमार स्थित दूतावास ने की थी.

चीन की चाल को बीआरआई प्रोजेक्ट के ज़रिए समझना ज़रूरी है. चीन मलक्का के रास्ते से भारत आना नहीं चाहता क्योंकि उसकी नज़र म्यांमार के सितवे बंदरगाह तक सीधी सड़क और दूसरा रंगून तक पहुंचने की है. रंगून से अंडमान निकोबार, सितवे से कोलकाता, विशाखापत्तनम और चेन्नई पर नज़र लगाए हुए चीन, म्यांमार को एक माध्यम की तरह प्रयोग करने में लगातार लगा है. उधर चीन सितवे और रंगून से भले ही भौगोलिक स्थिति के हिसाब से भारत के इन प्रदेशों पर नज़र रखे है लेकिन इसी सहारे उसकी नज़र ओडिसा के चांदीपुर, बालासोर, बीलर द्वीप, जहां से भारत अपनी मिसाइलों का परीक्षण करता है उसे टारगेट कर सकता है. उधर चेन्नई के श्री हरिकोटा, आंध्र प्रदेश जहां से जीएसएलवी रॉकट लांच होते हैं उसे भी टारगेट कर सकता है.

चीन जानता है म्यांमार में आर्थिक, राजनैतिक और सामाजिक स्थिरता रहेगी तो उसका ये सपना कभी पूरा नहीं हो सकता. ऐसे में वो रोहिंग्या जो रखाइन प्रांत में हैं उनको अलग देश की मांग में सपोर्ट करता है. प्रांत की अलग स्वतंत्र सेना को चीन का समर्थन है. उधर शान के पठार में यूडब्ल्यूएसए जो म्यांमार का सबसे विद्रोही संगठन है उसे आर्म्ज़ (हथियारों) की मदद करता है. उधर म्यांमार की भारतीय सीमा पर अराकान योमा आर्मी को खड़ा करके चीन भारत को कई तरह से घेरते हुए दिखाई दे रहा है. अरुणांचल, नागालैंड, मणिपुर को हथियार देने वाला भी चीन ही है. म्यांमार ने भारत को इसी संगठन से लड़ने के लिए सर्जिकल स्ट्राइक की छूट भी दे रखी है.

चीन की इन अदृश्य चालों से बचने के लिए भारत को सितवे और रंगून के बंदरगाह को बनाने में मदद करनी चाहिए. क्योंकि भारत से सस्ते लेबर ले जाकर उसे बनाया जाना भी सम्भव है जिससे भारत और म्यांमार तक सीधे रास्ते भी खुलेंगे. उधर ऐसा करने से म्यांमार की आधिकारिक सरकार जो अपने देश के आतंकी संगठनों को लेकर चीन से ऐतराज़ जता चुका है. ऐसे में भारत को म्यांमार के आतंकी संगठनों को ख़त्म करने की भी छूट मिल जाएगी.

आंग सांग सू की म्यांमार की लोकप्रिय नेता हैं उन्होंने पूरी दुनियां को यह संदेश दिया है कि लोकतंत्र के लिए उनकी लड़ाई जारी रहेगी. बौद्ध धर्म के लिए पूरी दुनियां में मशहूर म्यांमार जो संदेश दे रहा है उसे भारत को संजीदगी से लेना चाहिए. क्योंकि भारत के लिए बौद्ध धर्म उतना ही ज़रूरी है जितना म्यांमार के लिए. 1991 में नोबल पुरस्कार विजेता आंग सांग सू की रोहिंग्या मुसलमानों को भगाने के मुद्दे पर उनकी छवि धूमिल होने लगी. सेना द्वारा दिए गए कई बयानों में रोहिंग्या मुसलमानों का पक्ष लिया गया. इसमें यूएन ने भी अपना पक्ष रखते हुए कहा की सेना जिन्हें मार रही है वो आतंकवादी हैं. आज वहीं रोहिंग्या मुसलमान बांग्लादेश और भारत में शरण लिए हुए हैं. अब मौजूदा हालात देखने पर पता चलता है कि म्यांमार में वर्तमान में जारी इमरजेंसी का यूएस तथा जी7 और कई यूरोपीय देशों ने विरोध किया है वहीं चीन और रूस इस आपातकाल के साथ हैं. भारत तटस्थ है. चीन की दोगली नीतियों का पर्दाफ़ाश यहीं से होता है जब कश्मीर में सेना द्वारा की गयी गोलीबारी उसे ग़लत और म्यांमार की सेना सही लगने लगती है. क्योंकि वहां उसका हित सधता दिखाई देता है. चीन ख़ुद बिगार मुसलमानों के साथ अत्याचार करता है.

भारत ख़ुद म्यांमार के साथ चल रही कालादान मल्टी रोड प्रोजेक्ट के तहत कोलकाता से सितवे बंदरगाह होते हुए ऐजवल तक सीधी सड़क ले जाना चाहता है लेकिन म्यांमार में अस्थिरता के चलते इस प्रोजेक्ट पर रोक सम्भव है. भारत का एक और प्रोजेक्ट जो ताइवान तक सड़क ले जाना चाहता है वह भी म्यांमार में शांति के बिना सम्भव नहीं है. उसको भी ग्रहण लग सकता है.

यहां ग़ौरतलब है कि म्यांमार के मामले पर अगर भारत खुलकर बोलता है तो म्यांमार चीन के साथ जा सकता है. क्योंकि 26 से ज़्यादा विद्रोही समूह वहां इन दिनों कार्यरत हैं. जिन्हें भारत और म्यांमार की सेना मारना चाहती है. पूरी दुनिया चाहती है कि आंग सांग सू की की सरकार वापस आए जिन्हें उनके ही घर में नज़रबंद करके रखा गया है. हालांकि भारत के साथ उनका सम्बंध अच्छा रहा है. माना जाता है कि म्यांमार की सेना 60 फ़ीसदी चीन के साथ तो 40 फ़ीसदी भारत के साथ है.

म्यांमार में वर्तमान में चल रहे ‘वी वांट आवर’ लीडर की मांग दुनिया भर के नेताओ और उनके समर्थकों के लिए एक संदेश है. आर्मी की दमनकारी नीतियों के ख़िलाफ़ भारत का बोलना इसलिए भी ज़रूरी है कि भारत को यूएन की सिक्योरिटी काउंसिल में सदस्य बनना है. और सदस्यता उसे तभी मिलेगी जब वो उसके पड़ोसी देश में हो रही दमनकारी नीति के ख़िलाफ़ खुलकर बोले.

भारत द्वारा म्यांमार में शरणार्थी पुलिस अफ़सरों को म्यांमार की सेना को सौंपना यह संदेश देगा कि भारत निरपेक्ष है लेकिन रिहाई के बाद म्यांमार की सेना उनके साथ निश्चित तौर पर ग़लत करेगी. ऐसे में भारत को अपनी शर्तों के साथ इस मामले पर निर्णय लेना चाहिए. अगर भारत उन्हें वापस नहीं करता तो आर्मी चीन का साथ देने को विवश हो सकती है. लॉस एंजिल्स टाइम्स की रिपोर्ट के अनुसार यूएन सिक्योरिटी काउंसिल ने म्यांमार पर ग्लोबल आर्म्ज़ एम्बर्गो लगा दिया है जिसके तहत वो किसी भी देश से बड़े हथियार नहीं खारीद सकता. हालांकि इससे म्यांमार की आर्मी को फ़र्क़ नहीं पड़ेगा. इसीलिए अमेरिका ने आर्मी के लोगों के बैंक खाते सीज कर दिए थे. और यूएन की सिक्योरिटी काउंसिल में ज़्यादा से ज़्यादा प्रतिबंध लगने की वकालत की है. लेकिन रूस और चीन का वीटो पावर इस पर रोक लगा देता है.

चीन चाहता है कि भारत कोई बड़ा स्टेप ले. भारत कोई क़दम नहीं उठाता तो सिक्योरिटी काउंसिल में बोलेगा कि तख़्ता पलट के ख़िलाफ़ भारत कुछ नहीं बोला. और उधर भारत के कोई एक्शन लेने पर म्यांमार की आर्मी को भारत के ख़िलाफ़ भड़का देगा. जिससे वो चीन के पक्ष में जा सकते हैं.

भारत का बच-बच कर चलने की मजबूरी एक और मामले में देखी गयी है. ईरान भारत का अच्छा दोस्त हैं, लेकिन इजरायल की ईरान से बिलकुल नहीं बनती. ऐसे में हाल ही में दिल्ली के इज़रायली दूतावास में ब्लास्ट हुआ तो इज़रायल ने ईरान पर आरोप लगाया कि ईरानी QUDS ने ये हमला किया है. वहीं ईरान ने कहा कि ये ख़ुद इज़रायल की मोसाद का काम है. अब भारत दोनों तरफ़ से फंसा हुआ है. अरब, इज़राइल और ईरान तीनों से भारत के रिश्तें बेहतर हैं लेकिन तीनों की आपस में नहीं बनती ऐसे में भारत के पास बैलेंस बनाकर चलने के सिवाय कोई और चारा नहीं बनता. लेकिन ऐसा कब तक चलेगा?

हम अब उस दौर में बिलकुल नहीं जी रहें कि कवि प्रदीप के लिखे गीत ‘दूर हटो ये दुनिया वालों हिंदुस्तान हमारा है’ में ब्रिटेन की हुकूमत की सेंसरशिप नीति के चलते गाने का संदर्भ रूस जापान और दुनिया के अन्य देशों के लिए दे दें. हां हम दुनिया में कहीं भी रहें जूता जापानी पहने, या लाल टोपी रूसी दिल हमेशा हिंदुस्तानी रहेगा और दुनिया के किसी भी कोने से अपनो को टेलीफ़ोन भी करते रहेंगे. शमशाद बेगम की आवाज़ में ‘मेरे पिया गए रंगून’ भी सुनते रहेंगे. वक़्त बदला है तो हम भी ज़रूर बदलेंगे क्योंकि अब बदलने की ज़रूरत है.

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