Film Laundry

फिल्म लॉन्ड्री: किस्सा ख्वानी बाज़ार में गूंजेंगे दिलीप कुमार और राज कपूर के किस्से

पिछले साल जब यह खबर आई थी कि खैबर पख्तूनख्वा कि सरकार जल्दी ही दिलीप कुमार और राज कपूर के पुश्तैनी मकानों का अधिग्रहण करेगी तो किसी ने ट्विटर पर यह जानकारी शेयर करते हुए दिलीप कुमार को टैग कर दिया था. इस खबर से दिलीप कुमार इतने आह्लादित हुए कि उन्होंने अपने पुश्तैनी मकान को याद करते हुए मां और दादा-दादी से जुड़ी स्मृतियां शेयर की थीं. कैसे वह दादा की पीठ पर सवार होकर घर में घूमते थे और दादी उन्हें कहानियां सुनाती थीं. मां बड़े से रसोई घर में जब काम कर रही होती थी तो वह रसोई घर के बाहर बैठे उनका इंतजार करते थे. उन्होंने यह भी लिखा था कि किस्सा ख्वानी बाजार से ही उन्हें किस्सागोई का पहला पाठ मिला था. जिसकी मदद से उन्होंने अपने करियर में अच्छी कहानियों की फिल्में चुनीं. दिलीप कुमार ने तब ट्विटर पर आग्रह किया था कि कोई मुझे मेरे मकान की तस्वीरें भेज दे. उनके प्रशंसकों ने पाकिस्तान से तस्वीरें भेजी भी थीं.

एक किस्सा जयप्रकाश चौकसे सुनाते हैं. राज कपूर और कपूर खानदान के अंतरण चौकसे साहब के मुताबिक, "राज कपूर के जीवन काल में उसी किस्सा ख्वानी बाजार से एक युवक उनसे मिलने आया था. उसने उनके मोहल्ले और बाजार की बातें तफ्सील से उन्हें बतायीं तो राज कपूर को यकीन हो गया कि सचमुच कोई उसी गली से आया है. उन्होंने उसकी जबरदस्त खातिरदारी की और ढेर सारे उपहार देकर विदा किया. अपने अंतिम समय में पृथ्वीराज कपूर बड़ी शिद्दत से अपनी हवेली और गली को याद करते थे."

किस्सा ख्वानी बाज़ार में पेशावर के व्यापारी बहार से लौटने पर यहां अपने अनुभव और किस्से बयान करते थे. शाहरुख खान का परिवार भी इसी किस्सा ख्वानी बाज़ार से दिल्ली आया था. उनके रिश्तेदार आज भी वहां हैं.

यकीनन विभाजन नहीं हुआ होता तो अपनी गली बाजार और हवेली से कपूर खानदान, दिलीप कुमार और शाहरुख खान का रिश्ता बना रहता. ऐतिहासिक कारणों से यह मुमकिन नहीं रहा. दिलीप कुमार ने सक्रिय दिनों में पेशावर की अनेक यात्राएं की थीं. पेशावर यात्रा की उनकी यात्राओं के कुछ वीडियो यूट्यूब पर आसानी से देखे जा सकते हैं, जिनमें वह अंदरूनी ख़ुशी के साथ स्थानीय भाषाओं और बोलियों में बोलते नजर आते हैं. कुछ सालों पहले कपूर खानदान के रणधीर कपूर, ऋषि कपूर और राजीव कपूर भी पेशावर गए थे और अपनी हवेली का दर्शन किया था. तब उन्होंने इच्छा जाहिर की थी कि इसके संरक्षण की व्यवस्था होनी चाहिए. तभी से वहां की हुकूमत इस कोशिश में लगी थी, जो आखिरकार जून 2021 के पहले हफ्ते में मुकम्मल हो गयी.

2 जून 2021 को पाकिस्तान के प्रमुख अखबार ‘डॉन’ के रिपोर्टर मंजूर अली ने खबर प्रकाशित की कि खैबर पख्तूनख्वा के पुरातत्व और संग्रहालय निदेशालय ने हिंदी फिल्मों के मशहूर कलाकारों दिलीप कुमार और राज कपूर के पुश्तैनी मकान का अधिग्रहण कर लिया है. पिछले साल सितंबर में ही प्रांतीय सरकार ने घोषणा की थी कि वह जल्दी ही दोनों मकानों का अधिग्रहण करेगी और उन्हें संग्रहालय में तब्दील करेगी.

पुरातत्व विभाग के निदेशक डॉ अब्दुल समद ने ‘डॉन’ अखबार को बताया कि दोनों मकानों के वर्तमान मालिकों से स्वामित्व लेकर प्रांतीय सरकार को सौंप दिया गया है. सारी कानूनी प्रक्रियाओं और समुचित मुआवजे के बाद ही मकानों का अधिग्रहण किया गया है. इसी खबर के अनुसार राज कपूर की हवेली की कीमत एक करोड़ 15 लाख रुपए और दिलीप कुमार के मकान की कीमत 72 लाख रुपए तय की गई.

इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्राध्यापक और फिल्मों के इतिहासकार ललित जोशी पाकिस्तान से आई खबर पर कहते हैं, “यदि सरकार (पाकिस्तान की) चाहती तो 1950 के पाकिस्तान निकासी अधिनियम के अंतर्गत दोनों संपत्तियों का अधिग्रहण कर सकती थी.” लगभग 70 सालों के बाद अब जाकर यह संभव हुआ है.

गौरतलब है कि इमरान खान के नेतृत्व में चल रही पाकिस्तान और खैबर पख्तूनख्वा में ‘पाकिस्तान तहरीक ए इंसाफ’ पार्टी की सरकारों की पहल पर इस कोशिश को अंजाम दिया जा सका. अभी तक केवल बातें और कोशिशें ही चल रही थीं. कुछ सालों पहले अवामी नेशनल पार्टी ने दिलीप कुमार के मकान के अधिग्रहण और संरक्षण की नाकाम कोशिश की थी. 2015 में प्रांतीय सरकार ने पेशावर हाईकोर्ट को सूचित किया था कि अधिग्रहण की योजना फिलहाल रोक दी गई है, लेकिन वर्तमान मालिक इस मकान में किसी प्रकार की रद्दोबदल नहीं कर सकते. यह सच है कि पाकिस्तानी अवाम और सरकारों के जहन में दिलीप कुमार और राज कपूर के पुराने मकानों की निशानी को बचाने का विचार जब-तब कौंधता रहा था.

मूल रूप से लाहौरी इतिहासकार और लेखक इश्तियाक अहमद इन दिनों स्टॉकहोम में रहते हैं. भारत पाकिस्तान विभाजन और फिल्म इतिहास के अध्ययन में उनकी खास रूचि है. ताजा खबर के बारे में पूछने पर उन्होंने कहा, "यह कदम सही दिशा में उठाया गया है. मुझे नहीं मालूम कि यह ट्रेंड बन पाएगा या नहीं? कई बार हम तिल को ताड़ बना देते हैं और कई बार बड़ी घटनाओं को हम मामूली बात मान लेते हैं. यह ठीक है कि खैबर पख्तूनख्वा की सरकार ने दिलीप कुमार और राज कपूर के पुश्तैनी मकान खरीद लिए हैं, लेकिन वह मूर्खतापूर्ण इस्लामिक एजेंडा चलाते रहेंगे. याद होगा, कुछ लोग लाहौर में एक चौराहे को भगत सिंह का नाम देना चाहते थे, लेकिन नहीं दे पाए. भारत में भी तो शहरों और सड़कों के नाम बदले जा रहे हैं. पाकिस्तान ने यह सब बहुत पहले कर लिया. मुझे तो नहीं लगता कि कोई बड़ा बदलाव आएगा इस खबर के बाद भी....”

दिलीप कुमार और राज कपूर के मकानों के अधिग्रहण की खबर पर भारतीय फिल्म प्रेमियों और इतिहासकारों की कोई खास प्रतिक्रिया नहीं आई है. दिलीप कुमार और राज कपूर के परिवारों के सदस्य खामोश हैं. अमूमन दिलीप कुमार के ट्विटर हैंडल से ऐसी ख़बरों पर प्रतिक्रिया और खुशी जाहिर होती है, लेकिन इस बार उस हैंडल से भी कोई अपडेट नहीं है. कपूर खानदान के रणधीर कपूर कोविड-19 से हाल ही में उभरे हैं. हो सकता है कि उनकी नजर नहीं गई हो इस खबर पर. इस परिवार की नई पीढ़ी के सदस्य कपूर खानदान की विरासत को बोझ ही समझते हैं. वे अपनी जरूरत और सुविधा के हिसाब से खानदान और पूर्वजों को याद कर लेते हैं.

आरके स्टूडियो दो साल पहले बिक गया. राज्य और केन्द्रीय सरकार और कपूर खानदान के सदस्यों ने उसे बचने की कोशिश ही नहीं की. वह अब एक लग्जरी अपार्टमेंट में बदल चुका है. जहां सबसे सस्ते फ्लैट की कीमत लगभग 6 करोड़ रुपए है. सिर्फ गेट पर आरके स्टूडियो का प्रतीक चिह्न बचा हुआ है. यह विडंबना और कड़वी सच्चाई है कि आरके स्टूडियो समेत सभी पुराने स्टूडियो एक-एक कर बिक या बदल रहे हैं. एक महबूब स्टूडियो को छोड़कर बाकी सभी स्टूडियो ने अपने अहाते के कुछ हिस्सों में अपार्टमेंट खड़े कर दिए हैं. महबूब कण की वसीयत के मुताबिक महबूब स्टूडियो की ज़मीन नहीं बेची जा सकती. एक ज़माने में मनमोहन शेट्टी वहां की खाली ज़मीन पर मल्टीप्लेक्स बनाना चाहते थे. तब वक्फ बोर्ड में जमा महबूब खान की वसीयत से यह जानकारी मिली थी.

आजादी के बाद और आजादी के पहले के अनेक स्टूडियो मालिकों के मृत्यु के पश्चात उनके वारिसों की बेख्याली से सारे स्टूडियो बिक गए. उनके नाम और ठिकाने अब केवल पुरानी पत्र-पत्रिकाओं और कुछ पुस्तकों में मिलते हैं. उल्लेखनीय है कि 1913 से 2021 तक में सक्रिय भारतीय फिल्म इंडस्ट्री के सभी केंद्रों के पुराने स्टूडियो नहीं बचे हैं. मुंबई, कोलकाता, चेन्नई, हैदराबाद, लाहौर (विभाजन पूर्व के स्टूडियो) में कार्यरत स्टूडियो का दस्तावेजीकरण भी नहीं हुआ है. वर्तमान भाजपा सरकार को फिल्म इंडस्ट्री से एलर्जी सी है.

2014 की पहले की सरकारों और संस्थानों ने भी उनके संरक्षण और रखरखाव या दस्तावेजीकरण की दिशा में कोई ठोस कार्य नहीं किया था. हर साल देश के विभिन्न शहरों में इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल होते हैं, जिनमें करोड़ों रुपए खर्च होते हैं. फिल्मों के हेरिटेज को संभालने की जिम्मेदारी कोई नहीं लेना चाहता है. राष्ट्रीय फिल्म संग्रहालय और फिल्म हेरिटेज फाउंडेशन ही थोड़ा-बहुत ठोस उपाय और कोशिश कर रहे हैं. देशभर में फिल्मी दस्तावेजों के दर्जनों निजी संग्राहक हैं जिनकी रूचि पुरानी पत्र-पत्रिकाओं और पुस्तकों के संरक्षण और रखरखाव से ज्यादा उनकी खरीद-बिक्री और मुनाफे पर रहती है. कायदे से भारत सरकार या देश में सक्रिय फिल्मों से संबंधित शोध और अध्ययन संस्थानों को आगे बढ़ कर उन्हें एक साथ खरीद लेना चाहिए. केंद्रीय पुस्तकालय भी यह काम कर सकते हैं. केंद्र और राज्य सरकारें इस मद में विशेष अनुदान की व्यवस्था कर सकती हैं.

सीएसडीएस के अध्येता और इतिहासकार रविकांत इसे पाकिस्तान सरकार की अच्छी पहल मानते हैं. उनके अनुसार, “ऐसी चेतना स्वागत योग्य है कि पूर्वजों की धरोहर को बचा कर रखा जाए. आप देखें कि भौगोलिक-राजनीतिक विभाजन के बावजूद दोनों देशों के बीच ऐतिहासिक-सांस्कृतिक संबंधों की निरंतरता बनी रही. सिनेमा से बना संबंध प्रवहमान रहा. हां बीच-बीच में कुछ व्यवधान जरूर आए. मुझे तो लगता है कि भारत में भी ऐसी कोशिश होनी चाहिए. मुंबई में मंटो समेत अनेक फिल्मी हस्तियों के ठिकाने पता किए जा सकते हैं. और कुछ नहीं तो उन्हें ‘मार्क’ किया जा सकता है. दिलीप कुमार और राज कपूर हमारे इसी सांस्कृतिक संबंध के एक सेतु हैं.”

देश के विभाजन के बाद अनेक प्रतिभाओं ने मजहब की वजह से भारत के मुंबई से लाहौर और लाहौर से मुंबई प्रयाण किया. उन्होंने अपने ठिकाने बदले. दिलीप कुमार और राज कपूर समेत ऐसे सैकड़ों फिल्मी हस्तियों की सूची तैयार की जा सकती है. भारत और पाकिस्तान जाने के पहले मुंबई और लाहौर में उनके ठिकाने रहे होंगे. सभी के पुश्तैनी मकानों और रिहाइश की खोज करना उनका अधिग्रहण करना मुश्किल काम है, लेकिन मुंबई और लाहौर की नगरपालिकाएं इतना तो कर ही सकती हैं कि उनके ठिकानों पर एक शिलापट्टिका (प्लेक) लगवा दें कि अमुक हस्ती यहां इस साल से इस साल तक रही थी. अपने पूर्वजों की स्मृति को सुरक्षित रखना हमारा सामाजिक और सांस्कृतिक दायित्व है. इससे इतिहास जागृत होकर नयी पीढ़ी में संचारित होता है. इंग्लैंड और यूरोप की गलियों में घूमते हुए वहां के रिहायशी इलाकों के मकानों में ऐसी शिलापट्टिकाएं देखी जा सकती हैं. भारत में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है. उत्तर प्रदेश और बिहार में तो स्मृतियों को धुंधला कर दिया गया है. उनके स्मृति में लगाई गई शीलापट्टिकाएं हटाकर स्थानीय लोगों ने उन स्थानों पर कब्जा कर लिया है. स्थानीय प्रशासन इसके प्रति पूरी तरह से लापरवाह रहता है.

फिलहाल यही उम्मीद की जानी चाहिए कि खैबर पख्तूनखवा का पुरातत्व और संग्रहालय विभाग जल्दी से जल्दी जर्जर मकानों के मरम्मत और संरक्षण पर ध्यान देगा और उन्हें संग्रहालय बनाने की प्रक्रिया शुरू करेगा. यह एक प्रकार से ऐतिहासिक कार्य होगा. फिल्म प्रेमियों और दोनों देशों के सांस्कृतिक परंपराओं के अध्येताओं के लिए आकर्षण का केंद्र बनेगा. पर्यटकों भी यहां पहुंचेंगे. हो सकता है उसके बाद और भारत-पाकिस्तान में स्मृतियों की सुरक्षा और संरक्षण के प्रयास तेज हों.

और अंत में

कुछ समय पहले लाहौर के पत्रकार शिराज हुसैन ने अपने ट्विटर हैंडल पर हसनैन जमाल की सुनाई इरफ़ान शहूद की नज़्म शेयर की थी....

दिलीप कुमार की आखिरी ख्वाहिश...

ले चलो दोस्तों

ले चलो क़िस्सा-ख़्वानी के बाज़ार में

उस मोहल्ले ख़ुदा-दाद की इक शिकस्ता गली के मुक़फ़्फ़ल मकां में

कि मुद्दत से वीरां कुएं की ज़मीं चाटती प्यास को देख कर अपनी तिश्ना-लबी भूल जाऊं

ग़ुटरग़ूं की आवाज़ दड़बों से आती हुई सुन के

कोठे पे जाऊं कबूतर उड़ाऊं

किसी बाग़ से ख़ुश्क मेवों की सौग़ात ले कर सदाएं लगाऊं

ज़बानों के रोग़न को ज़ैतून के ज़ाइक़े से मिलाऊं

जमी सर्दियों में गली के उसी तख़्त पर नर्म किरनों से चेहरे पे सुर्ख़ी सजाऊं

कि यारों की उन टोलियों में नई दास्तानें सुनाऊं

उन्हीं पान-दानों से लाली चुराऊं

मुझे उन पुरानी सी राहों में फिर ले चलो दोस्तो

हां मुझे ले चलो उस बसंती दुलारी मधु की गली में

कि ख़्वाबों की वो रौशनी आज भी मेरी आंखों में आबाद है

मेरे कानों में उस के तरन्नुम की घंटी

सहीफ़ों की सूरत उतारी गई है

सभी को बुलाओ कि नग़्मा-सराई का ये मरहला आख़िरी है

बुलाओ मिरे राज को

आख़िरी शब है

फिर से हसीनों के झुरमुट में बस आख़िरी घूंट पी के

फ़ना घाटियों में

मैं यूं फैल जाऊं कि वापस न आऊं

सुनो दोस्तों

Also Read: फिल्म लॉन्ड्री: 'कर्णन' प्रतिष्ठा और समान अधिकार का युद्ध

Also Read: फिल्म लॉन्ड्री: हिंदी फिल्मों में दलित चरित्र