Film Laundry
फिल्म लॉन्ड्री: 'कर्णन' प्रतिष्ठा और समान अधिकार का युद्ध
उन्होंने इसलिए हमें नहीं पीटा कि हम ने बस में तोड़फोड़ की. हमारा दुर्योधन नाम उन्हें नहीं जंचा. उनका गुस्सा है कि हमने सिर कैसे उठाया? सिर उठाया है तो अब रेंगना नहीं है. आखिर कब तक कीड़े की जिंदगी जियेंगे... हमें मुकाबले कि लिए तैयार रहना होगा.
दशकों या यूं कहें कि सदियों से रेंगती, लाचार और बेबस जिंदगी जी रहे निम्न जाति के समाज के युवक कर्णन के अंदर उच्च जातियों और पुलिस के दमन से लावा धधक रहा है. वह पूरे गांव को संभावित द्वंद्व और मुठभेड़ के लिए ललकारता और साफ कहता है कि जिसे साथ नहीं देना है, वह अभी चला जाए.
वीरा सेल्वाराज लिखित-निर्देशित तमिल फिल्म ‘कर्णन’ का यह निर्णायक दृश्य है. इसके पहले की संक्षिप्त कथा यह है कि सामाजिक शोषण और दमन के कुचक्र में पिस रहे पोडियानकुलम गांव के लोगों को इसकी आदत हो गई है. जाति व्यवस्था ने सदियों में ऐसा मजबूत व्यूह और मानस रचा है कि गांव के बड़े-बुजुर्गों की दैनंदिन अपमान और घृणा से मानहानि नहीं होती. उन्हें लगता है कि ऐसा ही होता है. यह कौन सी नई बात है? फिल्म की शुरुआत के एक दृश्य में एक बाज दाना चुग रहे चूजे को जब झपट्टा मारकर ले उड़ता है तो कर्णन के लिए भी यह रोज की सामान्य बात है. धीरे-धीरे इसी कर्णन को लगातार घट रही चंद घटनाओं से उच्च जाति की ज्यादतियों और अपने समाज की हीनता का एहसास होता है.
दरअसल, बंद और पिछड़े गांव पोडियानकुलम के ग्रामीण अपनी जीवनशैली और जिंदगी में मस्त हैं. आरंभ के दृश्यों में सांस्कृतिक त्यौहार और रिवाज में उनके हर्ष-उल्लास और गीत-नृत्य से उनकी खुशियां जाहिर होती हैं. बाहर की दुनिया से कटा यह गांव अपनी सीमाओं और परंपराओं में खुश व संतुष्ट है. फिल्म के ओपनिंग दृश्य में ब्लैंक स्क्रीन के साथ सड़क पर चल रही गाड़ियों की आवाजें सुनाई पड़ती हैं. दृश्य खुलता है. हमें सड़क पर तेजी से गुजरती गाड़ियां दिखाई पड़ती हैं. बीच सड़क पर एक किशोरी छटपटा रही है. अगल-बगल से गाड़ियां बदस्तूर आती-जाती रहती हैं. कोई उस किशोरी की जान बचाना तो दूर देखने तक नहीं उतरता. किशोरी दम तोड़ देती है. मृत्यु के साथ उसका चेहरा ग्राम देवी के चेहरे में बदल जाता है. ग्राम देवी की मुखाकृति दिखती है. कहते हैं कि कुंवारी लड़कियां आकस्मिक मौत के बाद देवी बन जाती हैं. वीरा सेल्वाराज ने ऐसी किंवदंतियों, बिम्बों, प्रतीकों और छवियों का पूरी फिल्म में उपयोग किया है. उनके सटीक और संदर्भित प्रयोग से फिल्म का कथ्य गहराई से उभरता है. अनेक अव्यक्त संदर्भ और अर्थ व्यक्त होते हैं. हमें पता चलता है कि गांव के पास बस स्टॉप नहीं है.
अपमान की सतत घटनाएं
गांव की एक लड़की अपने पिता के साथ किसी शिक्षा संस्थान में दाखिले के लिए निकलती है. गांव में बस स्टॉप ना होने से वे दोनों पड़ोसी गांव के बस स्टॉप पर जाते हैं. यह उच्च जातियों का है. बस स्टॉप पर बैठे कुछ मनचले नौजवान उस लड़की को देखकर छेड़खानी करते हैं तो वृद्ध पिता से नहीं रहा जाता. वह प्रतिकार करता है तो नौजवान उसे पीट देते हैं. अपमान के घूंट पीकर लाचार पिता अपनी बेटी के साथ गांव लौट जाता है. इसके बाद कबड्डी के मैच में निम्न जाति के कर्णन और उसके साथियों के साथ उच्च जाति के लोग बदतमीजी और बेईमानी करते हैं. इस बार गांव इसे सामूहिक अपमान के तौर पर लेता है. फिर एक गर्भवती औरत अपने बेटे और पति के साथ अस्पताल के लिए निकलती है. अस्वस्थ गर्भवती महिलाओं को देखने के बावजूद कोई सवारी नहीं रुकती तो उसका बेटा गुजरती बस पर पत्थर मारता है. बस का कांच टूट जाता है और हंगामा होता है. इन घटनाओं से कर्णन उद्वेलित होता रहता है और एक दिन तय करता है कि उसके गांव में अब बस रुकेगी. इस जिद से बस रुकवाने की जोर-जबरदस्ती में बड़ा हंगामा होता है और फिर पूरा गांव जुट जाता है.
अपमान और दमन के कारण गुस्से से उबल रहा कर्णन असमानता का प्रतीक बने बस पर अपनी नाराजगी जाहिर करता है. उल्लेखनीय है कि वह बस कंडक्टर या ड्राइवर पर आक्रमण नहीं करता. व्यक्तियों के बजाय उसका गुस्सा वस्तु (बस) पर निकलता है. विभिन्न आंदोलनों में भी हम देखते हैं कि आंदोलनकारी अपना गुस्सा सरकारी या निजी संपत्तियों पर निकालते हैं. उन्हें नुकसान पहुंचाते हैं. वास्तव में यह कमजोर और सताए हुए तबके का प्रतिरोध होता है जो चली आ रही दमनकारी सत्ता और सिस्टम के खिलाफ होता है. निम्न जाति का कर्णन और उसके गांववासी बस में तोड़फोड़ कर सत्ता के प्रति अपना विरोध जाहिर करते हैं. बस उनके लिए दमन का प्रतीक है. यह उनकी पहचान, अधिकार और प्रतिष्ठा की भी लड़ाई है. प्रशासन और आसपास की उच्च जातियों के समाज ने कभी जरूरत ही नहीं समझी कि पोडियानकुलम गांव में बस स्टॉप होना चाहिए. इस गांव के लोगों को भी संविधान प्रदत्त अधिकार और सुविधाएं मिलनी चाहिए.
यही वह निर्णायक मोड़ है जब कर्णन अपने गांव को ललकार कर चली आ रही प्रथा और परंपरा के खिलाफ लामबंद करता है. इसके पहले तहकीकात के लिए आई पुलिस और उसके अधिकारी के सामने गांव के निम्न जाति का प्रधान अपनी पगड़ी नहीं उतारता. यह बात उच्च जाति के पुलिस अधिकारी को नागवार गुजरती है. वह जब उनका नाम पूछता है तो वह दुर्योधन बताता है. यह सुनकर पुलिस अधिकारी तमतमा उठता है. निम्न जाति में दुर्योधन? वह कुछ बुजुर्गों को पूछताछ के लिए थाने ले जाता है. काफी देर तक बुजुर्गों के ना लौटने पर चिंतित कर्णन कुछ ग्रामीणों के साथ थाने पहुंचता है तो वह उन्हें अचेत अवस्था में थाने की छत पर देखता है. इस अत्याचार से कर्णन के अंदर का धधकता लावा लहक उठता है. वह थाने में मौजूद पुलिसकर्मियों की बेहिसाब मरम्मत करता है. वह अपने बुजुर्गों को गांव ले आता है. गांव के एक बुजुर्ग कर्णन से कहते हैं कि तुमने थाना और पुलिसकर्मियों पर आक्रमण कर गांव के लिए मुसीबत और मौत मोल ले ली है. यहीं कर्णन अधिकारों और प्रतिष्ठा के लिए जागृत होने का उन्हें एहसास कराता है कि अब लड़ना होगा. हमने जो सिर उठाया है तो उसे झुकने नहीं देंगे. हम देखते हैं कि पहले एक किशोरी, फिर कुछ महिलाएं और फिर पूरे गांव के लोग कर्णन के साथ आ जाते हैं.
अगले दृश्य में निर्देशक वीरा सेल्वाराज फिर से एक रूपक रचते हैं. स्थानीय लोकनाट्य शैली में ग्राम देवी की मुखाकृति में किशोरियां उद्बोधन गीत और नृत्य से घुटन और डर में जी रहे ग्रामीणों को जागृत करती हैं. इस ‘मार्चिंग’ गीत में हम ग्रामीणों की तैयारी देखते हैं. वे गांव की सुरक्षा के साथ संभावित आक्रमण को भांप कर अपने पारंपरिक गंवई हथियार निकालते हैं. और फिर लंबे क्लाइमैक्स में पुलिस अधिकारी के नेतृत्व में आए पुलिसकर्मियों और ग्रामीणों की मुठभेड़ का चित्रण होता है. आखिरकार गांव वालों की जीत होती है और पारंपरिक जश्न मनाया जाता है. भीगी आंखों से कर्णन गांव की एक वृद्ध के आमंत्रण पर नृत्य करता है.
वीरा सेल्वाराज ने तमिलनाडु में लगभग 25 साल पहले हुई एक सामाजिक घटना के आधार पर फिल्म की पटकथा तैयार की है. कहते हैं कि निम्न जाति के गांव के एक विद्यार्थी और बस कंडक्टर के बीच हुए झगड़े से प्रशासन बौखला गया था. तब 600 पुलिसकर्मियों ने 6 घंटे तक गांव में उत्पात और मारपीट की थी. इस घटना ने तमिलनाडु की राजनीति को आलोड़ित कर दिया था. 25 सालों के बाद आज की फिल्म में वीरा सेल्वाराज बताना चाहते हैं कि यह अतीत और इतिहास की बात नहीं है. समाज में आज भी उच्च जातियों और निम्न जातियों का भेद बना हुआ है. दमन और शोषण का कुचक्र जारी है. निम्न जाति की चेतना, जागृति, मांग और लड़ाई से उच्च जातियों की प्रतिनिधि सत्ता कानून-व्यवस्था के प्रपंच से उनके उठे सिर को झुकाना और कुचलना चाहती है.
कर्ण, दुर्योधन, द्रौपदी आदि महाभारत के चरित्रों के नाम निम्न जाति के नागरिकों ने अपना लिए हैं. फिल्म का नायक कर्ण है. कृष्ण (पुलिस अधिकारी) सत्ता के प्रतीक हैं. महाभारत में अर्जुन ने तैरती मछली की आंख में तीर भेदकर द्रौपदी को जीता था. ‘कर्णन’ फिल्म का नायक कर्णन गांव के रिवाज के मुताबिक हवा में उछली मछली को तलवार के एक ही वार से दो टुकड़े कर गांव की द्रौपदी का दिल जीत लेता है. लेखक और निर्देशक वीरा सेल्वाराज महाभारत के चरित्रों का नया रूपक भिन्न दृष्टिकोण से रचते हैं, जिसमें कर्णन नायक है और कृष्ण खलनायक. वह अपने दलित समाज का नेतृत्व करता है और बलशाली सत्ता से टकराता है. यह नायक आम भारतीय फिल्मों के नायक की तरह अकेला ही नहीं निकलता. वह पूरे समाज को सावधान करता है. उन्हें अपने साथ लेकर चलता है. उसकी लड़ाई और जीत सामूहिक, वास्तविक और विश्वसनीय लगती है.
वीरा सेल्वाराज न सिर्फ गांव के विभिन्न स्वभाव के चरित्रों को जोड़ने और एकजुट करने... उन्हें उन्मत्त, उद्वेलित, जागृत और संगठित होने का क्रमिक बदलाव दिखाते हैं, बल्कि गांव के जीव-जंतुओं का भी सार्थक और प्रतीकात्मक इस्तेमाल करते हैं. शुरू में गधे के अगले दोनों पांव का बंधा होना.... पूरे गांव की घुटन और जकड़न का प्रतीक है. बंधन खुलने के बाद चौकड़ी भरते हुए गधे का खुले मैदान में भागना आज़ादी का सुंदर एहसास है. शुरू में घोड़ा केवल चलता है, उस पर कोई सवार नहीं होता. आखिरी दृश्य के पहले वह अपने सवार कर्णन को लेकर सरपट भागता है. थाने में फड़फड़ाती तितली और विवश बुजुर्ग ग्रामीणों की बेचारगी में साम्यता है. सूर्य, प्रकृति, मशाल, लाल रोशनी आदि का सायास-अनायास उपयोग लेखक-निर्देशक के अभिप्राय को व्यक्त करने के साथ दर्शक की समझ और व्याख्याओं के लिए भी कुछ छोड़ देता है.
फिल्म में नायक कर्णन की भूमिका में लोकप्रिय स्टार धनुष के आ जाने से उद्देश्यपूर्ण सामाजिक बदलाव की इस फिल्म को दर्शकों को बड़ी दुनिया मिल गयी है. वीरा सेल्वाराज के दर्शकों का विस्तार हुआ है. अपनी पिछली फिल्म से आगे बढ़कर उन्होंने लोकप्रिय सिनेमाई भाषा, युक्ति और शैली को अपनाया है. उन्होंने लोकप्रिय फिल्मों में प्रचलित और स्थापित नायक के शिल्प को अपनी जरूरतों के हिसाब से ढाला है. फिल्म में धनुष कर्णन की भूमिका में उसे आत्मसात करते हुए ढलते हैं, लेकिन वह नायक की अपनी इमेज को भी बरकरार रखते हैं. यह फिल्म का कमजोर पक्ष है. तमिल सिनेमा के अन्य पॉपुलर कलाकार लाल, योगी बाबू, रजिशा विजय, नटराज सुब्रमण्यम आदि की सशक्त मौजूदगी ने सभी चरित्रों को जीवंत कर दिया है. भारतीय सिनेमा की यह दलित कथा उल्लेखनीय है.
फिल्म का गीत-संगीत विषय के अनुरूप और सुसंगत है. उद्बोधन जीत के भाव हैं...
पापा-मम्मी हारना नहीं
बेटे-बेटियों डरना नहीं
दादा-दादी हार ना मानना
खाकी यूनिफॉर्म में आए हैं राक्षस
बैल पर सवार
नजर आ रहे सभी साथियों को मार रहे हैं
हमारे सपनों को राख करने आए हैं
उनके हुजूम को रोको
हमें शहर और दुनिया में जाना है
हमारे पंख कहां गए
उन्हें लौटाने को कहो...
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