Obituary
हिमालय जैसे विराट व्यक्तित्व वाले हिमालयपुत्र सुंदरलाल बहुगुणा
‘क्या हैं जंगल के उपकार,
मिट्टी, पानी और बयार.
मिट्टी, पानी और बयार,
जिन्दा रहने के आधार.’
पर्यावरण और हिमालय की हिफाजत की समझ को विकसित करने वाले इस नारे के साथ एक पीढ़ी बड़ी हुई. इस नारे को जन-जन तक पहुंचाने वाले हिमालय प्रहरी सुन्दरलाल बहुगुणा के साथ. साठ-सत्तर के दशक में हिमालय और पर्यावरण को जानने-समझने की जो चेतना विकसित हुई उसमें सुन्दरलाल बहुगुणा के योगदान को हमेशा याद किया जायेगा.
पर्यावरण और हिमालय को जानने-समझने वालों के अलावा एक बड़ी जमात है जो उन्हें एक आइकाॅन की तरह देखती है. कई संदर्भों में, कई पड़ावों में. उन्हें पहचान भले ही एक पर्यावरणविद के रूप में मिली, लेकिन स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता, सामाजिक समरसता के लिये काम करने वाले कार्यकर्ता, महिलाओं और दलित समाज में गैरबराबरी लिये उन्होंने बड़ा काम किया. एक सजग पत्रकार के रूप में वे लंबे समय तक लिखते रहे.
गांधीवादी सुन्दरलाल बहुगुणा का जन्म टिहरी गढ़वाल के सिल्यारा (मरोड़ा) में 9 जनवरी, 1927 को हुआ था. उनकी प्रारंभिक शिक्षा टिहरी में हुई. उन्होंने लाहौर से बीए किया. एमए करने काशी विद्यापीठ गये, लेकिन आधे से पढ़ाई छोड़कर आंदोलन में शामिल हो गये. यह वह दौर था जहां एक ओर देश में आजादी के लिये आंदोलन चल रहा था, दूसरी तरफ टिहरी रियासत की दमनकारी नीति के खिलाफ जनता में असंतोष था. टिहरी की राजसत्ता ने अपने हक-हकूक को लेकर संघर्ष कर रही निहत्थी जनता पर 30 मई, 1930 को तिलाड़ी के मैदान में गोलियां चलाई. जिसमें कई आंदोलनकारी मारे गये, कई ने जान बचाने के लिये यमुना में छलांग लगा दी. यह घटना टिहरी रियासत के खिलाफ उपजे गुस्से को संगठित रूप देने का कारण भी बनी.
सुन्दरलाल बहुगुणा का आजादी के आंदोलन और टिहरी रियासत के खिलाफ आंदोलन से नाता 1940 से जुड़ गया था. तब वे मात्र तेरह साल के थे. यह उनके जीवन में एक युगान्तकारी परिवर्तन था. सुप्रसिद्ध भूगर्भशास्त्री डाॅ. खड़क सिंह बाल्दिया ने अपनी पुस्तक ‘हिमालय में गांधी के सिपाही सुन्दरलाल बहुगुणा’ में इस घटना को इस तरह रखा है-
"टिहरी के स्कूल के पास खेल के मैदान में लड़के खेल रहे थे. हवा में जोर-जोर से बोलने और चिल्लाने की आवाज गूंज रही थी. लड़कों ने देखा, अजीब से कपड़े पहना एक आदमी चला आ रहा है. वह न तो शाही सरकार का कोई कारिंदा लगता है, न ही नगर के आम आदमी की तरह. खादी का कुर्ता, धोती और सिर पर सफेद टोपी. कंधे में किताबों से भरा झोला और बगल में एक विचित्र बक्सा. लड़कों ने उसे घेर लिया.
‘क्या है आपके बक्से में?
अजनबी ने जमीन पर बक्सा रखा, कंधे से झोला उतारा और पेड़ तले छांह में बैठ गया.
‘पूछते हो इस बक्से में क्या है? इसमें है भारत के भाग्य को बदलने वाला एक यंत्र! देखना चाहते हो ना?
‘हां-हां, दिखाओ ना!’
अजनबी ने धीरे से बक्सा खोला. एक छोटा सा चरखा था.
‘यह है महात्मा गांधी का चरखा. इसकी ताकत से हम अंग्रेजों की पराक्रमी सरकार को देश से हटाने की कोशिश में लगे हैं. जानते हो कैसे?’
लड़के उसे ताकने लगे. अजीब आदमी है. अजीब चीजें लिये चलता है! अजीब बात करता है!
‘इस चरखे से सूत काता जाता है. सूत से जुलाहे कपड़ा बनाते हैं. जो कपड़े मैंने पहने हैं, वे इसी चरखे से काते सूत के बने हैं. एक जुलाहे ने बुने थे ये कपड़े. खादी का कपड़ा बना कर जुलाहा अपने परिवार का पेट पाल रहा है. सूत कातने वाला भी सूत कात कर गुजर-बसर करता है. जरा सोचो, अगर चरखे से बने कपड़े पहनने लगोगे तो दसियों सूतकारो और जुलाहों की रोटी-रोजी का इंतजाम हो जायेगा.’
तेरह वर्ष का एक लड़का सामने आ गया. पूछा-
‘जो धोती आपने पहन रखी है उसे बनाने के लिये जो सूत आपने काता, उसमें कितना समय लगा?
अजनबी की आंखों में चमक आ गई.
‘क्या नाम है तुम्हारा?’
‘सुन्दरलाल!’
‘सुन्दरलाल! याद नहीं कि कितना समय लगा मुझे. पर इतना जरूर जानता हूं कि अगर हमारे सभी गांवों के लोग सूत कात कर अपने-अपने कपड़े बनवाने लगें तो हमारा देश स्वतंत्र हो जायेगा..."
वह अजनबी थे- श्रीदेव सुमन, जो उस टिहरी रियासत के खिलाफ चल रहे आंदोलन के पर्याय थे. इस घटना के लगभग चार साल बाद बाद ‘प्रजा मंडल’ के बैनर पर आंदोलन चल रहा था. इसमें श्रीदेव सुमन की 84 दिनों की भूख हड़ताल के बाद जेल में मौत हो गई. श्रीदेव सुमन की लाश रियासत ने भिलंगना में बहा दी. इसके खिलाफ लोग सड़कों पर आ गये. यह घटना 1944 की है. कीर्तिनगर में पुलिस की गोली से प्रर्दशन का नेतृत्व कर रहे नागेन्द्र सकलानी और मोलू भरदारी मारे गये. यह घटना एक जनवरी, 1948 की है. यहीं से उनके जीवन में एक नई चेतना और समझ का विस्तार हुआ. गांधीवादी दर्शन के रास्ते पर तो वे चले ही गये थे. बाद में देश आजाद हुआ और टिहरी रियासत से भी लोगों को मुक्ति मिली.
सुन्दरलाल बहुगुणा कांग्रेस के कार्यकर्ता और बाद में जिला पदाधिकारी रहे. 1949 में उनकी मुलाकात महात्मा गांधी की शिष्या मीरा बहन और सुप्रसिद्ध समाजसेवी ठक्कर बप्पा से हुई यहां से उन्होंने दलित छात्रों के उत्थान के लिये काम करना शुरू किया. टिहरी में दलित छात्रों के लिये ठक्कर बप्पा छात्रावास की स्थापना की.
सुन्दरलाल बहुगुणा का सामाजिक और राजनीतिक जीवन चल ही रहा था. इस बीच 1956 में 23 वर्ष की उम्र में उनका विवाह विमला बहुगुणा से हुआ. विमला बहुबुणा एक सामाजिक कार्यकर्ता थी और सुप्रसिद्ध गांधीवादी सरला बहन की शिष्या थी. उनके भाई विद्यासागर नौटियाल जाने-माने कम्युनिस्ट नेता और साहित्यकार थे. इस समय तक बहुगुणाजी अपने को पूरी तरह गांधीवादी दर्शन के साथ आत्मसात कर चुके थे. विमला जी ने उन्हें सामाजिक जीवन के लिये बहुत प्रेरित किया. यही वजह थी कि उन्होंने कांग्रेस की राजनीति से संन्यास ले लिया. इस नवदंपत्ति ने बालगंगा के किनारे सिल्यारा में ‘पर्वतीय नवजीवन मंडल’ की स्थापना की. उन्होंने यहीं झोपड़ी बनाई और शिक्षा के प्रसार का काम शुरू किया.
दिन में लड़कों को सुन्दरलाल पढ़ाते और रात में बालिकाओं को पढ़ाने का काम विमला बहुगुणा करती. शुरू में यहां मात्र पांच लड़कियां पढ़ने को आई. लेकिन बाद में इनमी संख्या 120 के आसपास हो गयी. धीरे-धीरे ‘पर्वतीय नवजीवन मंडल’ के विद्यालय में दूर-दूर से सवर्ण और हरिजन बच्चे पढ़ने आने लगे. इन्हें गांधीवादी आदर्शो के अलावा साफ-सफाई, स्वास्थ्य नैतिक मूल्यों और अनुशासन की शिक्षा की दी जाती थी. यह आश्रम इस क्षेत्र में शिक्षा के नये द्वार खोलने वाला साबित हुआ.
सुन्दरलाल बहुगुणा के लिये सत्तर का दशक बहुत महत्वपूर्ण रहा है. असल में पहाड़ में आजादी के आंदोलन में भी दो मांगें प्रमुख रही हैं जल, जंगल जमीन पर हक-हकूक और शराबबंदी. आजादी के बाद भी इनके खिलाफ आंदोलन होते रहे. सत्तर के दशक में इन आंदोलनों ने नये सिरे से जन्म लिया. शराब के खिलाफ स्वर मुखर होने लगे. सुन्दरलाल बहुगुणा इन आंदोलनों में शामिल हुये. उन्होंने 1971 में शराब की दुकानें खाोलने के खिलाफ सोलह दिन तक अनशन किया.
साठ के दशक में पूरी दुनिया में ‘हिमालय बचाओ आंदोलन’ शुरू हो चुका था. जिस तरह से वनों का दोहन और जंगलात कानून बनने लगे थे लोगों में भारी असंतोष पनपने लगा. उत्तराखंड के दोनों हिस्सों कुमाऊं और गढ़वाल में 1973 आते-आते वन आंदोलन मुखर हो रहे थे. पहाड़ में जंगलों को बचाने को लेकर एक नई चेतना विकसित हो रही थी. युवा और छात्र भी इस आंदोलन में थे.
इसी समय सरकार ने यहां की बहुमूल्य लकड़ी को बड़े ईजारेदारों को तीस साला एग्रीमेंट पर देकर जंगलों को ठकेदारों के हवाले करने की नीति बना ली थी. इस आंदोलन में सुन्दरलाल बहुगुणा की महत्वपूर्ण भूमिका थी. चमोली जनपद के रैंणी गांव में इन्हीं सरकारी ठेकेदारों के खिलाफ 26 मार्च 1974 को जब गौरादेवी के नेतृत्व में महिलाओं ने नारा लगाया- ‘जंगल हमारा मायका है, हम पेड़ नहीं कटने देंगे.’ तो इसकी अनुगूंज पहाड़ से बाहर देश-दुनिया में पहुंच गयी. इसे ‘चिपको आंदोलन’ के रूप में जाना जाने लगा.
सुन्दरलाल बहुगुणा ने इस पूरे आंदोलन को आगे बढ़ाया. इसे जल, जंगल और जमीन के साथ जोड़ते हुये जीवन के लिये हिमालय और पर्यावरण को बचाने की समझ को स्थापित किया. इन सवालों को बहुत संगठित, नियोजित, तथ्यात्मक और व्यावहारिक रूप से समझाने और अपने हकों को पाने का रास्ता सुन्दरलाल बहुगुणा ने तैयार किया. वे एक दशक तक इस आंदोलन को देश-विदेश तक पहुंचाते रहे. चिपको आंदोलन की प्रासंगिकता को बताने के लिये उन्होंने हिमालय की पांच हजार किलोमीटर से अधिक यात्रा की. इसमें कोहिमा से कश्मीर की यात्रा भी शामिल है. देश-विदेश और गांव-गांव जाकर 1973 से 1981 तक चिपको आंदोलन को सक्रिय रूप से चलाया.
सुन्दरलाल बहुगुणा ने हिमालय की संवेदनशीलता को बहुत गहरे तक समझा ‘चिपको आंदोलन’ के आलोक में उन्होंने दुनिया के सामने प्रकृति और समाज के अन्तर्संबंधों को जिस तरह रखा, उससे पर्यावरण को नये सिरे से समझने में मदद मिली. हिमालय और प्रकृति से कैसे प्यार किया जाता है, समझा जाता है, महसूस किया जाता है, इस अहसास को उन्होंने अपनी पूरी जीवन यात्रा में शामिल किया.
जब दुनिया में उपभोग और तथाकथित विकास की नई परिभाषा गढ़ी जाने लगी थी तब सुन्दरलाल बहुगुणा के बहुत सारे विचार प्रकृति के बारे में ऐसे थे जो दुनिया को आसन्न संकटों से निकाल सकते थे. उन्होंने बहुत तार्किक तरीके से इस बात को सत्तर-अस्सी के दशक में ही रखना शुरू कर दिया था कि बेतरतीब विकास योजनाओं से जल, जंगल और जमीन पर खतरा पैदा होने वाला है. हिमालय के बारे में उनका मानना था कि हिमालय बचेगा तो जीवन भी रहेगा.
जब वे हिमालय की बात कर रहे होते थे तो उनकी चिंता सिर्फ हिमालय की नहीं थी, बल्कि एशिया की और भारत की बड़ी आबादी की थी जिनकी हिमालय और उनकी नदियों पर निर्भरता है. इसके लिये उन्होंने देश-दुनिया के विश्वविद्यालयों, शोध संस्थानों, पार्यावरण से जुड़ी बड़ी संस्थाओं और आम जनता से लगातार लंबे समय तक संवाद बनाया. कहा जा सकता है कि दुनिया भर में पर्यावरण को पाठ्यक्रम तक लाने और उस पर सरकारी विभाग खोलने तक में उनके विचारों की भूमिका रही.
‘चिपको आंदोलन’ के बाद 1980 में सरकार ने वन अधिनियम लाकर जंगलों को बचाने का सरकारी प्रयास किया. इस अधिनियम के अच्छाई-बुराई पर बातें हो सकती हैं, लेकिन यह कहा जा सकता है कि यह आंदोलन नीति-नियंताओं तक अपनी आवाज पहुंचाने में सफल रहा.
सुन्दरलाल बहुगुणा अस्सी के दशक में फिर चर्चा में आये. टिहरी में प्रस्तावित बांध परियोजना को कार्यरूप दिया जाने लगा तो टिहरी के प्रबुद्ध लोगों ने 1978 में टिहरी बांध विरोधी संघर्ष समिति का गठन किया. इसके संस्थापक अध्यक्ष वीरेन्द्रदत्त सकलानी थे. जब सुन्दरलाल बहुगुणा कोहिमा से कश्मीर की अपनी यात्रा (1981-83) से वापस आये तो उन्होंने इस आंदोलन में गहरी रुचि ली. वर्ष 1990 आते-आते तक उन्होंने इस आंदोलन को गति दी. हजारों की संख्या में लोग आंदोलन में शामिल हुये. बहुगुणा ने मौन के साथ भूख हड़ताल शुरू कर दी.
1993 में उन्होंने ‘हिमालय बचाओ आंदोलन’ को फिर से संगठित किया. 1995 में 45 दिन की भूख हड़ताल की जिसे तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव के आग्रह पर समाप्त किया. बाद में 2001 में गांधी समाधि, दिल्ली मे 74 दिन की भूख हड़ताल की. इसे बाद में पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा के आश्वासन के बाद समाप्त किया. इस प्रकार टिहरी बांध के विरोध में उन्होंने लगभग डेढ़ दशक तक आंदोलन किया. अंतिम समय तक वे अपने निवास ‘गंगा हिमालय कुटीर’ से इसके खिलाफ लड़ते रहे. गंगा को मां मानते हुये उन्होंने अपना मुंडन भी किया.
हिमालय प्रहरी सुन्दरलाल बहुगुणा के व्यक्तित्व का फैलाव दुनिया भर में था. आम लोगों से लेकर विश्वविद्यालयों तक. बड़े शोध संस्थानों से लेकर गांव-चैपालों तक. जैसा वह हिमालय को देखते-समझते थे, वैसा ही उनका जीवन भी था- दृढ़, विशाल और गहरा. यही वजह है कि आजादी के आंदोलन, टिहरी रियासत के खिलाफ संघर्ष और आजाद भारत में जन मुद्दों के साथ खड़े होकर उन्होंने अपने जीवन के अंतिम समय तक इन सरोकारों को कसकर पकड़े रखा.
प्रकृति, पानी, पहाड़ और पर्यावरण के प्रति उनकी संवेदना को इस बात से समझा जा सकता है कि उन्होंने चावल खाना छोड़ दिया था. उनका मानना था कि धान की खेती में पानी की ज्यादा खपत होती है. वे कहते थे कि इससे वह कितना पानी का संरक्षण कर पायेंगे कह नहीं सकते, लेकिन प्रकृति के साथ सहजीविता का भाव होना चाहिये. एक और उदाहरण है- 1981 में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने उन्हें पद्मश्री पुरस्कार देने की घोषणा की. उन्होंने इसे यह कहकर लेेने से इंकार कर दिया कि जब तक पेड़ कटते रहेंगे मैं यह सम्मान नहीं ले सकता.
हालांकि उनके काम को देखते हुये उन्हें प्रतिष्ठित जमनालाल पुरस्कार, शेर-ए-कश्मीर, राइट लाइवलीवुड पुरस्कार, सरस्वती सम्मान, आईआईटी से मानद डाक्टरेट, पहल सम्मान, गांधी सेवा सम्मान, सांसदों के फोरम ने सत्यपाल मित्तल अवार्ड और भारत सरकार ने पदविभूषण से सम्मानित किया. इन पुरस्कारों के तो वे हकदार थे ही, लेकिन सबसे संतोष की बात यह है कि हमारी पीढ़ी के लोगों ने उनके सान्निध्य में हिमालय और पर्यावरण की हिफाजत की जिम्मेदारियों को उठाने वाले एक समाज को बनते-खड़े होते देखा है.
Also Read
-
TV Newsance 311: Amit Shah vs Rahul Gandhi and anchors’ big lie on ‘vote chori’
-
No POSH Act: Why women remain unsafe in India’s political parties
-
Himanta family’s grip on the headlines via Northeast India’s biggest media empire
-
7 FIRs, a bounty, still free: The untouchable rogue cop of Madhya Pradesh
-
South Central 40: Election Commission’s credibility crisis and the nun who took Bishop Franco to court