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सेंट्रल विस्टा: राजपथ के खुदे हुए बाग़ और नदारद जंजीरों का एक और सच है

पिछले कुछ हफ्तों में, दिल्ली के एक मध्यकालीन नर्क में बदल जाने के दौरान, यह शायद उचित ही है कि इन परिस्थितियां ने उसके अपने नीरो को अचानक और अपरिवर्तनीय रूप से उजागर कर दिया है.

परिस्थितियों ने एक मिथक, जो अब एक खुशनुमा भ्रम से ज्यादा कुछ नहीं है, की निर्ममता को सबके सामने खोल कर रख दिया है. यह पुरातन शहर, जिसने अनेकों साम्राज्यों के उतार और चढ़ाव को देखा है, जो सत्ता के बदलते आयामों को अच्छे से समझता है, उसमें अब उस अजीब, मोरों से भरे किसी दूसरे यथार्थ, बच्चों के लिए गढ़े जाने वाले मुहावरे और विचारकों वाली दाढ़ी की ओर लौटने का कोई रास्ता नहीं है. नहीं रास्ता है इस भरोसे की ओर, कि यह सच भी हो सकता है.

राजपथ के खुदे हुए बाग़ और नदारद जंजीरों के साथ-साथ एक और सच, जो पिछले पूरे साल हम सबकी आंखों के सामने ही छुपा बैठा था, उजागर हो गया.

सेंट्रल विस्टा परियोजना एक साम्राज्यवादी सत्ता का कथानक है. इस परिभाषा से उसकी मूल प्रेरणा जनतंत्र के खिलाफ है. यह जनता को गहरी, शक की नज़र से देखता है, और कानून के हिसाब से चलने की कोशिश करने वाले किसी भी संस्थान को खोखला कर देता है. एक जनतांत्रिक गणतंत्र में इसकी कोई जगह नहीं है.

"आधुनिकता" और "राष्ट्रीय पहचान" के लगातार प्रचार ने इसके जनता विरोधी द्वेष को होशियारी से छुपा रखा है, जिसने सेंट्रल विस्टा को एक अनचाहा "औपनिवेशिक" आयाम दे दिया है. जैसे कि इंडिया गेट पर जो नाम लिखे हुए हैं वह हिंदुस्तानियों के नहीं हैं, या फिर हमारे संविधान को लेकर कभी चर्चा नहीं हुई और हमारा गणतंत्र उस संसद में नहीं बना जिसे भारत 74 साल से जानता है. जैसे कि सेंट्रल विस्टा, जिसको बनाने की मेहनत और खर्चा भारतीयों ने किया- कभी भारतीयों का था ही नहीं क्योंकि उसको बनवाया अंग्रेजों ने था, जिनसे देश पांच पीढ़ियों पहले आज़ाद हो चुका है.

इस दिखावटी "राष्ट्रवाद" के ऊपर से दिखावे की परत उधड़ चुकी है. जब लोग ऑक्सीजन के लिए तड़पते हुए सड़कों पर पड़े थे और श्मशानों व कब्रिस्तानों में लाशों का अंबार लग रहा था, आवश्यक सेवा संरक्षण अधिनियम को ऑक्सीजन का प्रबंध करने के लिए नहीं बल्कि मजदूरों को इंडिया गेट के उद्यानों को तहस-नहस करने की मंजूरी देने के लिए किया गया, एक ऐसी काल्पनिक परियोजना के लिए जिसकी प्रेरणा कभी ठीक थी ही नहीं.

यह (लेख), जनता और संस्थाओं के मूक दर्शक बन, इस परियोजना के इस मुकाम तक पहुंचने, शहरी कानून की एक पूरी शाखा का बेरोकटोक उल्लंघन कर सारे "वैध" कागज़ात और "मंजूरियां" हासिल करने का लेखा जोखा है.

इस योजना पर तुरंत रोक लगाए जाने और उसे स्थाई रूप से वापस लेने का एक कारण बेपरवाही भी है, इससे पहले की इस देश की कानून व्यवस्था को कोई स्थाई नुकसान पहुंचे ऐसा करना ज़रूरी है. इसे टाल देना या फिलहाल के लिए ठंडे बस्ते में डाल देना, केवल इस परियोजना से कानून के अपमान को समर्थन ही देगा और शासन व जनता के बीच गहरी होती खाई को और चौड़ा कर देगा.

दो फैसले जिन्होंने भारत के शहरी कानून का ढांचा ही उलट दिया

2019 में, सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी ने जम्मू कश्मीर को "विशेष राज्य" का दर्जा देने वाले अनुच्छेद 370 को "जनतंत्र विरोधी कानून" बता कर हटा दिया. इसके एक कारण को जनता से काफी समर्थन मिला कि जम्मू कश्मीर राज्य के कानून, बाकी देश से अलग संविधान के 74वें संशोधन को न लागू कर जनतंत्र को नष्ट कर रहे हैं.

74वें संशोधन को जनता हाथ में सत्ता पहुंचाने वाला, ज़मीन पर जनतंत्र का एक महत्वपूर्ण अंग माना जाता है. यह संशोधन, देशभर में स्थानीय निकायों को अपने राज्य के मंत्रालयों से स्वतंत्र रहकर निर्णय लेने, विकास और खर्च करने का हक देता है. इसके मूल में यह भावना है कि सत्ता जनता के बीच ही बसती है. विकास के किसी भी योजना के पारित होने में उनकी स्वीकृति जरूरी है, और इसीलिए, इसे जनता के द्वारा चुनी हुई एक व्यवस्था के हाथ में दिया गया है.

ऐसे में यह जानकर आश्चर्य होता है कि पूरी सेंट्रल विस्टा भूमि का अधिग्रहण स्थानीय निगम की सभी प्रक्रियाओं को पूरी तरह से नजरअंदाज कर किया गया है. एनडीएमसी में योजना संबंधित कोई भी जानकारी दाखिल नहीं की गई है! जिसकी वजह से किसी ने भी स्थानीय निर्माण संबंधी नियमों के अनुपालन की जांच नहीं की है. यह मौजूदा शहरी कानूनों के ढांचे को उलट देने वाली बात है.

दूसरी तरफ, इससे भी ज्यादा भयावह बात यह है कि स्थानीय निकाय की जगह पर एक सरकारी एजेंसी केंद्रीय लोक निर्माण विभाग या सीपीडब्ल्यूडी को लाया गया है, जो कि एक चुनी हुई व्यवस्था नहीं है लेकिन उसे अधिकार वैसे ही मिल गए हैं. किसी चुनी हुई इकाई से अलग, यह किसी की भी निगरानी और जवाबदेही के अंदर नहीं आती, लेकिन तब भी उसे अपनी योजनाओं को स्वीकृति देने का अभूतपूर्व और पूरी तरह से अवैध अधिकार दे दिया गया है.

इसका यह मतलब है कि योजना के विस्तृत नक्शे और जानकारी किसी भी प्राधिकरण में जमा नहीं की गई है, और किसी के भी द्वारा, योजना निगम के नियमों का पालन करती है या नहीं इस पर मुहर नहीं लगाई गई है.

गैर अनुपालन की डगर

जिस स्तर पर नियमों का पालन नहीं किया गया है वह आश्चर्यचकित करने के साथ-साथ हिदायती भी है. हालांकि यह उल्लंघन अलग-अलग तौर पर पहले भी किए गए हैं, लेकिन राज्य के द्वारा एक साथ इतनी बड़ी संख्या में सामूहिक गैर अनुपालन, एक अलग प्रकार की बेपरवाही दिखाता है. सूची निम्नलिखित है:

  • स्थानीय इकाई एनडीएमसी- को पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया गया. कोई कागजात जमा नहीं हैं.

  • केंद्रीय लोक निर्माण विभाग- एक भवन निर्माण संस्था, जिसे दिल्ली नगर कला आयोग या डीयूएसी ने स्थानीय इकाई की 'मान्यता' बिना अधिकार होते हुए भी दी है. यह अपनी योजनाओं को खुद ही स्वीकृति देती है. ऐसे विचित्र से कानून के लिए कोई प्रावधान नहीं है.

  • दिल्ली नगर कला आयोग- स्थानीय इकाई नई दिल्ली नगर निगम के बिना, दिल्ली के मास्टर प्लान और नियमों के अनुपालन को देखकर "स्वीकृति" देता है. इसे वैध कानूनी स्वीकृति की तरह बताया जाता है लेकिन यह खुद डीयूएसी के नियमों के हिसाब से गलत है.

  • विरासत संरक्षण समिति एचसीसी- कई पीढ़ियों में बनने वाली सबसे बड़ी विरासत परियोजना के लिए एक प्रार्थना पत्र तक नहीं दिया गया, जब तक उच्चतम न्यायालय ने 5 जनवरी 2020 को अपने निर्णय के द्वारा ऐसा करने के लिए मजबूर नहीं किया.

  • भूमि उपयोग में बदलाव- 100 एकड़ भूमि को "पब्लिक/सेमी पब्लिक" उपयोग से बिना एचसीसी की स्वीकृति के "सरकारी दफ्तर" की श्रेणी में बदल दिया गया, जबकि ग्रेड-1 विरासत इलाके में यह अनिवार्य है. सही प्रक्रिया कहती है कि पूरे सेंट्रल विस्टा पुनर्निर्माण के पास सितंबर में कंसल्टेंसी की बोली जारी होने से पहले एचसीसी की स्वीकृति होनी चाहिए.

कानून को इस नजरिए से देखते हुए उच्चतम न्यायालय के अल्पमत के निर्णय ने सेंट्रल विस्टा योजना के लिए भूमि उपयोग में बदलाव को खारिज कर दिया था. लेकिन इसके विपरीत बहुमत के निर्णय ने कहा था कि भूमि उपयोग में बदलाव के लिए एचसीसी से स्वीकृति लेना आवश्यक नहीं है.

  • सेंट्रल विस्टा कमेटी- स्थानीय इकाई एनडीएमसी के द्वारा जांच कर, पारित किए गए नक्शों के साथ कोई प्रार्थना पत्र मौजूद नहीं है. इसकी जगह कमेटी में उच्चतम न्यायालय के निर्णय से पहले सीपीडब्ल्यूडी को संसद के लिए कोई आपत्ति ना होने का "मत" दे दिया था. परंतु वह सीपीडब्ल्यूडी को स्थानीय इकाई की मान्यता नहीं देती, इसलिए यह "मत" मान्य नहीं है और कानूनी तौर पर मास्टर प्लान और स्थानीय उपनियमों के पालन होने की वैधता नहीं दे सकता.

  • सेंट्रल विस्टा परियोजना, राजपथ बगीचे और सचिवालय की इमारतों के किसी भी भाग का कोई भी तकनीकी नक्शा, एक फाइल में किसी भी एजेंसी में जमा नहीं किया गया. जिसकी वजह से, नियमानुसार जिन नियमों के पालन होने की स्वीकृति से पहले सुनिश्चित किए जाने की आवश्यकता होती है, वह नहीं हो सका. यहां तक कि अब भी नई संसद के डिजाइन में बदलाव की बात चल रही है.

  • पर्यावरणीय अनुमति- पर्यावरण पर प्रभाव का कोई भी स्वतंत्र आकलन नहीं किया गया. चुनी हुई संस्था एचसीपी कंसल्टेंट्स को उनके करार के हिसाब से यह आकलन स्वयं करना है. इससे स्वीकृति सुनिश्चित हो गई क्योंकि सभी कमेटियों से अस्वीकृत करने के अधिकार को छीन लिया गया. पर्यावरण मंत्रालय की विशेषज्ञ सलाहकार कमेटी या ईएसी, एचसीपी के आंकलन की जांच तो हो सकती है, लेकिन उसके पास योजना पर कोई बुरा प्रभाव डाल कर उसे अस्वीकृत करने का विकल्प नहीं है.

  • स्वतंत्र विरासतीय आंकलन- पहले ही की तरह खुद ब खुद मंजूरी. कंसल्टेंसी की जारी हुई बोली में कोई आवश्यकता सूचीबद्ध नहीं की गई, और ना ही सरकार और सलाहकारों की टीमों में कोई विशेषज्ञ है. इसे दूसरी तरह से देखें तो सबसे बड़ी विरासत परियोजना में एक भी विरासत विशेषज्ञ नहीं है.

  • आम सुनवाई- पूरी सेंट्रल विस्टा परियोजना, जो आने वाली पीढ़ियों को सैकड़ों वर्षो तक प्रभावित करेगी, उसके भूमि उपयोग के बदलाव की सुनवाई में एक आपत्ति या ऑब्जेक्शन के लिए सिर्फ 2.5 मिनट दिए गए. दर्ज की गई कुल आपत्तियां 1292 जिनमें से एक को भी लागू नहीं किया गया.

यह हुआ कैसे?

कैसे वे संस्थाएं जिन्हें संवैधानिक कर्तव्यों को निभाने की जिम्मेदारी और विभिन्न अधिकार दिए गए, और जो कानून केस हैरान कर देने वाले दुरुपयोग को पूरी तरह समझते हैं, ने एक के बाद एक यह उल्लंघन कैसे होने दिए?

देश के सबसे ज्यादा संरक्षित विरासतीय क्षेत्र में सेंट्रल विस्टा परियोजना को पास कराने की कुंजी उसे पूरी तरह गुप्त रखना और उसे सारी कानूनी अड़चनों को पार कर खुद ब खुद स्वीकृत हुई योजना की तरह पेश करना था, जिससे कोई सवाल ही न उठा सके.

आमतौर पर किसी भी शहरी योजना को एक नगर निगम जैसी किसी स्थानीय इकाई से मंजूरी लेनी पड़ती है. सेंट्रल विस्टा परियोजना के लिए यह संस्था नई दिल्ली नगर निगम होती जिसमें स्थानीय प्रतिनिधि और तकनीकी विभाग सारे नियम कानूनों के पालन किए जाने की जांच करते. इसके लिए सारे तकनीकी नक्शों को जमा किया जाना जरूरी होता है.

इसके बाद विरासतीय मामलों के लिए विरासत संरक्षण समिति की स्वीकृति चाहिए होती है. अन्य विभाग जैसे अग्नि सुरक्षा, प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड इत्यादि जरूरत के हिसाब से मत देते हैं. सेंट्रल विस्टा परियोजना के मामले में, सेंट्रल विस्टा कमेटी जिसको विरासत, क्षितिज, सड़क का फर्नीचर, उपयुक्त निशान और हरियाली के मानकों को सख्ती से संरक्षित करने की जिम्मेदारी दी गई है, उसकी भी स्वीकृति की आवश्यकता पड़ती है. बड़ी योजनाओं को पर्यावरण मंत्रालय की विशेषज्ञ सलाहकार कमेटी से भी स्वीकृति चाहिए होती है, जो पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभाव की विस्तृत जानकारी को जमा करने के बाद मिलती है जिसमें कटने वाले पेड़ों से लेकर पानी की निकासी, प्रदूषण की रोकथाम, ट्रैफिक और पार्किंग के मुद्दों जैसी चीजें शामिल होती हैं.

इन सब मंज़ूरियों के मिलने के बाद ही योजना दिल्ली नगर कला आयोग के पास जाती है, जहां पर अंत में उसके देखे जा सकने वाले पहलुओं का आंकलन होता है. डीयूएसी की जिम्मेदारी दिल्ली के नगरीय और पर्यावरण सौंदर्य को संरक्षित करना है. इसकी स्थापना 1973 में एक सशक्त और स्वतंत्र सलाहकार इकाई के रूप में हुई थी जिसके पास एक सिविल अदालत के अधिकार हैं.

डीयूएसी और एनडीएमसी का आपसी संबंध और उनकी भूमिकाएं स्पष्ट रूप से परिभाषित हैं. जहां डीयूएसी एक स्वीकृति देने वाली संस्था है, वहीं एनडीएमसी आधिकारिक रूप से अनुमति देने वाली संस्था है. डीयूएसी केवल उन्हीं योजनाओं पर अपना मत दे सकती है जो उसे एनडीएमसी के द्वारा मिलें. अगर एनडीएमसी को लगता है कि कोई परियोजना ठीक नहीं है, तो वह उसे कभी डीयूएसी को देगी ही नहीं.

इसके साथ साथ स्थानीय नियमों के अनुपालन की जांच परख डीयूएसी का काम नहीं है. कई मायनों में भले ही वह एनडीएमसी से ऊपर की संस्था मानी जाती है क्योंकि उसके पास परियोजना बाद में पहुंचती है, लेकिन वह नियमों के अनुपालन की जांच नहीं करती. जब कोई भी फाइल डीयूएसी के पास आती है, तो यह निहित है कि यह जांच पहले ही हो चुकी है वरना फाइल वहां तक आती ही नहीं. उसके बाद वे फाइल को स्वीकृत या अस्वीकृत कर सकते हैं.

ऐसे निर्णय क्यों लिए गए?

स्थानीय इकाई एनडीएमसी, जिसमें विपक्ष के भी सदस्य हैं जो ग्रेड एक विरासतीय क्षेत्र में इस परियोजना के विनाशकारी प्रभावों और मौजूदा उप नियमों के पालन न किए जाने पर ऐसा करने वाले सवाल उठा सकते थे, शायद इसीलिए सरकार ने एक अजब निर्णय लिया.

उन्होंने स्थानीय इकाई के अस्तित्व को ही नगण्य बना दिया.

इसकी जगह पर सीपीडब्ल्यूडी, एनडीएमसी को नजरअंदाज कर डीयूएसी से सीधी "आधिकारिक स्वीकृति" लेगी, क्योंकि डीयूएसी के ही द्वारा उसे स्थानीय इकाई की मान्यता मिल चुकी थी.

इसे दूसरे तरीके से कहें तो, वेतनभोगी इंजीनियरों के एक समूह के पास पार्षदों जैसे ही अधिकार होंगे. सीपीडब्ल्यूडी के एक पत्र का शीर्षक इसे परिभाषित करता है- "सरकारी इमारतों के निर्माण को नियंत्रित करने के लिए उनकी निगमीय कानूनों से छूट." जिसका अर्थ है, वे जहां चाहे वहां कुछ भी, बिना किसी कानून के पालन किए बना सकते हैं, जिनका बाकि जनता को पालन करना पड़ता है.

यह कदम अकेला ही अभूतपूर्व रूप से संविधान के 74वें संशोधन को नष्ट करता है, उसकी गरिमा को इस कदर भंग करता है कि उसको जब चाहे किनारे किया जा सकता है. इसका यह मतलब भी है कि यह ढांचा जनता की जवाबदेही से परे है. पीएम केयर्स फंड की तरह यह भी एक पहचान रहित, सरकार के हुक्म की तामीर करने वाला है जो जानकारी को सार्वजनिक नहीं कर सकता.

डीयूएसी की "स्वीकृति" का असल मतलब क्या है?

सीपीडब्ल्यूडी को स्थानीय निकाय की मान्यता देने के ढर्रे पर ही, पीएसएन राव की अध्यक्षता वाली डीयूएसी ने नई संसद की इमारत को मंजूरी 1 जुलाई 2020 को दी. कोई भी योजना, बिना स्थानीय इकाई से स्वीकृति लिए डीयूएसी के पास जाकर "संकल्पित" मंजूरी ले सकती है. हालांकि इसके बावजूद, उस परियोजना को स्थानीय इकाई की जांच और स्वीकृति की प्रक्रिया के बाद ही आधिकारिक मंजूरी मिल सकती है. यह डीयूएसी के विनियामक ढांचे का हिस्सा है. निम्नलिखित चित्र देखें.

सोर्स- दिल्ली शहरी कला आयोग

नई संसद की इमारत को मिली हुई "स्वीकृति" तभी वैध है जब वह "आधिकारिक" स्वीकृति हो. लेकिन डीयूएसी से मिली हुई मंजूरी, चुनी हुई स्थानीय इकाई और विशेषज्ञ कमेटी की प्रक्रिया से नहीं होकर गुजरी थी, उसने तकनीकी नक्शे नहीं जमा किए थे और उसे जमा एक बिना चुनी हुई "स्थानीय इकाई" ने किया था जिसकी मान्यता खुद डीयूएसी ने ही दी थी, जिसका उसे अधिकार भी नहीं है लेकिन उसने ऐसा आवासीय और शहरी मामलों के मंत्रालय के निर्देशों पर किया. अर्थात, उसने एनडीएमसी को रास्ते से हटा दिया. यह छद्म रूप से अधिकार गढ़ा जाने जैसा था, इसलिए यह मंजूरी आधिकारिक मंजूरी नहीं है बल्कि अभी भी संकल्पित ही है.

प्राथमिक परेशानी अभी भी यही है. इस परियोजना के कानूनन नियमों का अनुपालन करने पर अभी तक किसी ने भी मुहर नहीं लगाई है.

कहीं और भी सही प्रक्रिया का पालन नहीं हुआ है. मोदी सरकार के अधिकतर योजनाओं की तरह ही 'विश्व स्तरीय' और 'कुशल' या 'समय से पहले' जैसे विशेषणों का सही मतलब है कि कानूनों को उन संस्थाओं ने तोड़ा-मरोड़ा है, जिनके ऊपर उनके पालन की जिम्मेदारी थी लेकिन उन्हें भ्रष्ट और खोखला किया जा चुका है.

इसीलिए इसमें कोई आश्चर्य नहीं हुआ, जब डीयूएसी के अध्यक्ष पीएनएस राव, जिनके ऊपर किसी परियोजना का आंकलन कर उसकी आवश्यकता और उसे मिली हुई सारी स्वीकृतियों को जांचना है, को सेंट्रल विस्टा परियोजना के टेंडरों का आंकलन करने वाली कमेटी का भी अध्यक्ष बना दिया गया.

इस कमेटी के अध्यक्ष के तौर पर वह सलाहकार सेवाओं के लिए प्रतिष्ठान का चुनाव भी करेंगे, और योजना की पूरी जानकारी के साथ, उसे डीएसई में भी जमा करवाएंगे. इसके बाद डीयूएसी के अध्यक्ष की भूमिका अदा करते हुए वह उसे मंजूरी दे देंगे.

मतलब वह अपने ही द्वारा चुनी गई परियोजना को खुद ही जमा करके, उसकी स्वीकृति खुद ही दे देंगे.

एक ही इकाई या व्यक्ति को एक परियोजना में स्वीकृति मांगने और देने वाले का अर्थ यह है कि कोई भी हद बहिष्कृत नहीं है. यह कानून को एक मज़ाक और सही प्रक्रिया को केवल आम नागरिकों का काम बना देती है.

यह धोखा इसलिए संभव हो पाया क्योंकि इस योजना के हर चरण पर कानून, स्वतंत्र संस्थानों और, खास तौर पर जनता से शत्रु की तरह बर्ताव किया गया. जिसकी वजह से, उन्हें हर कदम पर धोखे, फरेब और बेपरवाही के इस्तेमाल से नाकाम किया जाना "आवश्यक" है. शायद यही एक तरीका है जिससे यह पूरी तरह से अवैध परियोजना आगे बढ़ सकती है.

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