Film Laundry
कुछ सपनों के मर जाने से जीवन नहीं मरा करता: आईएएस की तैयारी करने वाले लड़कों की कहानी एस्पिरेंट्स
द वायरल फीवर यानी टीवीएफ पर हाल ही में एक सीरीज आई है "एस्पिरेंट्स प्री मेन्स और लाइफ "ये सीरीज आईएएस की तैयारी करने वाले कुछ दोस्तों की कहानी है. ये केवल दोस्तों की ही कहानी नहीं है ये उस वातावरण की या कहूं आईएएस की तैयारी में मुब्तिला लोगों से जुड़े उस पूरे ईको सिस्टम का बयान है जो तैयारी में लगे युवक महसूस करते हैं जीते हैं.
कोचिंग क्लास कैसे काम करते हैं उन्हें इस फील्ड में अपनी उपयोगिता बनाए रखने के लिए क्या कुछ नहीं करना पड़ता. वालिदैन की उम्मीदें कैसे तैयारी में लगे व्यक्ति को प्रभावित करती हैं और कैसे और कितना वो एस्पिरेंट प्रभावित होता है. लड़की और लड़के में तैयारी के दौरान कैसे रिश्ते बनते हैं और कैसे उनका वजूद उस कालखंड तक ही महदूद रहता है. मकान मालिक का जो रवैया है वो दुनियावी ही तो है. जो चमत्कार को नमस्कार करती है ऐसे ही कुछ सूक्तिनुमा बातों को इस सीरीज में बताया है लेकिन केन्द्र में दोस्ती का रिश्ता है.
आईएएस बनने और ना बनने के बीच दोस्ती पर कितना असर आता है? क्यूं आता है? कौन कितना खालीपन जीता है. ऐसे ही कुछ सवालों के जवाब दोस्ती को मरकज में रखकर सीरीज तलाशती है. इसके बाई प्रोडक्ट के रूप में भी हमें बहुत जानकारीनुमा मनोरंजन मिलता है.
कोचिंग क्लास में पूछे जाने वाले सवाल- आप ही क्यों आईएएस बनेंगे? आप में ऐसा क्या है? ये सवाल उस समय ऐसे लगते हैं जैसे गब्बरसिंह शोले में पूछता है. अब इनमें से आप जवाब देते देते अंत में अटक ही जाते हैं. कितने आदमी थे? यह बताने के बाद खाली हाथ लौटकर आने का कारण नहीं बता पाने जितनी ही मुश्किल एस्पिरेंट्स को होती है.
सीरीज में मिजाह आपको हर जगह मिलेगा. एसके, अभिलाष, गुरी, संदीप भैया ,धैर्या, प्रगति ये सभी अपने आचार विचार में मुख्तलिफ़ हैं. जब ये बात कर रहे होते हैं तब काफ़ी कुछ ऐसा होता है जो आपका साम्य इन किरदारों से भिड़ा रहा होता है और आप और अधिक एक्साइटमेंट के साथ अपने आप का जुड़ाव सीरीज में महसूस करते हैं. छोटे-छोटे किरदार जैसे मकान मालिक अंकल आंटी या सड़क के गड्ढे भरने वाले मजदूर या सुरक्षा में लगे पुलिसकर्मी या कोचिंग में फीस जमा करने वाला क्लर्क या चायवाला या होटल में टेबल बुक करने वाला मुलाजिम सभी अपने संवादों से आपको हास्य के छींटों की तरह लगते हैं. आईएएस की तैयारी में अपने अतीत का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा दे चुके लोग इस सीरीज से ऐसे जुड़ाव महसूस करते हैं जैसे ये उनकी ही कहानी है और जो किरदार हैं वो नाम परिवर्तन की ही दरकार रखते हैं. यह सीरीज आशावाद की ओर ले जाती है. इन सभी एस्पिरेंट्स में से एक व्यक्ति आईएएस बनता है और एक राज्य प्रशासनिक सेवा में चुना जाता है. लेकिन एक खालीपन इन दोनों की ज़िंदगी में ही है. सीरीज ईगो पर भी आपका ध्यान आकर्षित करती है. कई बातें बहुत ही सहजता से कह दी गई हैं जैसे संदीप भैया राकेट से सैटेलाइट को आर्बिट में छोड़ने की वैज्ञानिक बात से कैसे आपको मुकाम तक पहुंचाने में अपनों के द्वारा किए गए सैक्रिफाइस को बताता है.
कुंवर नारायण और मैथिली शरण गुप्त और सोहनलाल द्विवेदी के अलावा दुष्यन्त की कविताएं हमको विभिन्न अवसरों पर सुनाई देती हैं. इनसे एक आनंद से भरा आशावाद तो जन्म लेता ही है.
सीरीज में इस बात को भी सहजता से बताया है कि आईएएस बनने वाले हर व्यक्ति को आइडल नहीं कहा जा सकता. धैर्या का ज़िन्दगी के प्रति नजरिया सकारात्मक ऊर्जा से भरपूर था उसकी ही पॉज़िटिव वेव्स ने अभिलाष का जीवन बदल दिया. हालांकि ये ही ज्ञान उसे गुरी ने भी दिया और एसके ने भी लेकिन सीरीज ये भी बताती है कि व्यक्ति ज्ञान भी उसी से हासिल करता है जिसमें उसकी श्रद्धा हो. अभिलाष संदीप भैया और धैर्या से प्रभावित था और गुरी और एसके को वह घर की मुर्गी दाल बराबर समझता था. हालांकि संदीप भैया जब उसे इस साल कोचिंग ना करने का कारण अपनी फैमिली की आर्थिक स्थिति बताता है तब हर बात में नकारात्मकता ढूंढने वाला अभिलाष इस बात पर भी ग़ौर नहीं करता कि वो हर दिन सिगरेट पीता है और जिस समय बता रहा है तब भी सिगरेट के साथ शराब भी पी रहा है. ऐसी बातों को अभिलाष ने नज़र अंदाज़ किया हम भी कर देते हैं.
आईएएस की कोचिंग क्लास में पढ़ाने वाला श्वेत केतु झा यानी एसके भी अपने पिता का फोन आने पर बेहोश ही हो जाता है लेकिन वो भी अपनी तरह से ही ज़िन्दगी जी रहा है. आईएएस की पढ़ाई के हिसाब से नहीं. कुल मिलाकर सीरीज इस बात पर आधारित है कि कुछ सपनों के मर जाने से जीवन नहीं मरा करता है. या बकौल साहिर "मैं ज़िन्दगी का साथ निभाता चला गया" जीवन के बैलेंस को बताने वाली और हंसाने वाली यह सीरीज देखने से ताल्लुक रखती है.
Also Read: वेब सीरीज़ पर आसन्न सेंसरशिप का खतरा
Also Read
-
Encroachment menace in Bengaluru locality leaves pavements unusable for pedestrians
-
Lucknow’s double life: UP’s cleanest city rank, but filthy neighbourhoods
-
Delays, poor crowd control: How the Karur tragedy unfolded
-
‘If service valuable, why pay so low?’: 5,000 MCD workers protest for permanent jobs, equal pay, leaves
-
Tata Harrier EV review: Could it be better than itself?