Opinion

1918 की महामारी और भारत

साल 1994 में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने एक रिपोर्ट में रेखांकित किया था कि मानवता के इतिहास की सबसे भयावह महामारी, 1918 की महामारी- स्पैनिश फ़्लू, ने उससे पहले या बाद की किसी महामारी की तुलना में कम समय में ज्यादा जानें ली थी. इस बात का उल्लेख करते हुए इतिहासकार अल्बर्ट मर्रीन मौतों की संख्या के आकलनों के हवाले से अपनी किताब में लिखते हैं कि उस महामारी में दुनियाभर में पांच से दस करोड़ लोगों की मौत हुई थी और शायद वह आंकड़ा बाद के अंक के क़रीब है. लौरा स्पिनी ने अपनी बेहद अहम किताब में इस महामारी की अवधि मार्च, 1918 से मार्च, 1920 तक निर्धारित की है, जिसने दुनिया की ढाई से पांच फ़ीसदी आबादी (पांच से दस करोड़) का ख़ात्मा कर दिया था.

हमारे देश में भी इस महामारी ने मौत का तांडव मचाया था. साल 2012 में प्रकाशित एक अध्ययन में सिद्धार्थ चंद्रा, गोरान कुलजनीन और जेनिफ़र रे ने बताया है कि ब्रिटिश भारत में मौतों का आंकड़ा अधिक-से-अधिक 1.38 करोड़ हो सकता है, जो 1951 में प्रकाशित किंग्सले डेविस के आकलन 1.7 करोड़ से कम है. इसके बावजूद समकालीन राष्ट्रीय नेताओं के लेखन में इस महामारी की भयावहता का उल्लेख न के बराबर है, जबकि इतिहासकारों ने स्थापित किया है कि इस त्रासदी ने स्वतंत्रता आंदोलन को धार देने में महती भूमिका निभायी थी. लेकिन यह समस्या केवल भारत की स्मृति या इतिहास की नहीं है, अन्यत्र भी ऐसा ही हुआ है. क्राफ़ोर्ड किलियन ने लिखा है कि लोग पहले महायुद्ध के जनसंहार पर या उससे पैदा हुईं क्रांतियों पर तो बात कर सकते थे, लेकिन उससे कहीं अधिक भयानक जनसंहार पर नहीं, जो उन्होंने ख़ुद अपने घरों और कामकाज की जगहों पर देखा था. उन्होंने अपने दादा-दादी का उल्लेख करते हुए कहा है कि 1918-19 में उनके छोटे-छोटे बच्चे थे, पर उन्होंने महामारी की कभी चर्चा नहीं की.

किलियन ने इस चुप्पी के दो कारण चिन्हित किये हैं- एक, लोगों में कुछ मौतों पर अन्य मौतों को तरजीह देने की प्रवृत्ति होती है, जैसे- लोग वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के आतंकी हमले में हुईं मौतों का उल्लेख करते हैं, लेकिन नशीले पदार्थों या मलेरिया जैसी बीमारियों से होने वाली कई गुना अधिक मौतों पर ध्यान नहीं जाता, तथा दो, महामारी के बाद चुप्पी सैनिकों में होने वाले तनाव की तरह है, लोग वैसे अनुभव के बारे में बात नहीं करना चाहते, जिसका न तो कारण समझ में आता है और न ही निदान. क्या इस आधार पर भारत की चुप्पी को समझा जा सकता है?

स्पिनी का मानना है कि महात्मा गांधी उन दिनों दस्त और बवासीर से ज़रूर बुरी तरह पीड़ित थे, लेकिन उन्हें फ़्लू का संक्रमण भी हुआ था. इस बीमारी से साबरमती आश्रम के भी बहुत लोग पीड़ित थे. गोपाल कृष्ण गांधी ने लिखा है कि वे फ़्लू से ग्रसित नहीं थे. बहरहाल, जो भी हो, गांधी उन दिनों बहुत अधिक शारीरिक और मानसिक परेशानियों से जूझ रहे थे. वे महामारी की विभीषिका को भी देख रहे थे. एक लेख में दिलीप दत्ता ने हरीलाल गांधी को लिखे उनके पत्र को उद्धृत किया है, जिसमें वे उनकी पत्नी और बच्चे की महामारी से मौत पर दुख प्रकट करते हुए लिखते हैं कि ऐसी इतनी ख़बरें चारों तरफ़ से आ रही हैं कि दिमाग़ पर असर होना बंद सा हो गया है. फ़्लू से संक्रमित सीएफ़ एंड्रयूज़ को लिखते हैं कि ईश्वर उन लोगों की रक्षा करता है, जिनसे उसे अपना काम कराना होता है, इसलिए उन्हें एंड्रयूज़ की कोई चिंता नहीं है.

गांधी ने उन दिनों की अपनी शारीरिक परेशानी के बारे में विस्तार से लिखा है, पर फ़्लू पर नहीं. गोपाल कृष्ण गांधी जैसे अनेक लोगों का मानना है कि वे न केवल अपनी बीमारी से परेशान थे, बल्कि पहले महायुद्ध में ब्रिटेन की ओर से लड़ने के लिए भारतीयों की भर्ती कराने में अपने प्रयास को लेकर भी वे भीतर-भीतर घुट रहे थे. साबरमती आश्रम में उनके अनुयायियों ने जब अहिंसा के उनके आदर्श और युद्ध के विरोधाभास पर सवाल उठाये, तो गांधी ने उन्हें यह कह कर समझाने की कोशिश की कि अहिंसा अक्सर कायरता की ओट बन जाती है और युद्ध में शामिल होने से भारतीयों में अहिंसक प्रवृत्ति को बेहतर ढंग से अपनाने का प्रशिक्षण मिलेगा. खेड़ा में किसानों को उन्होंने यहां तक कह दिया था कि ब्रिटिश सेना में शामिल होकर वे भारत को स्वायत्त कर सकते हैं और कोई किसान वायसराय बनने की आकांक्षा भी रख सकता है.

बहरहाल, चंपारण और खेड़ा सत्याग्रह की कामयाबी के बावजूद उनका भर्ती अभियान असफल रहा था. इसी दौरान वे बीमार पड़े. गोपाल कृष्ण गांधी ने उनके पुत्र देवदास गांधी को लिखे पत्र का उल्लेख किया है, जिसमें उन्होंने कहा कि सब उनका दोष है. एंड्रयूज़ को उन्होंने लिखा कि वे वास्तव में भुगत रहे हैं. स्पिनी लिखती हैं कि महामारी से बचाव करने में ब्रिटिश शासन की विफलता से लोगों में व्यापक असंतोष था और गांधी दुखी थे. दत्ता ने जूडिथ ब्राउन के विश्लेषण के हवाले से उल्लेख किया है कि गांधी अपनी चेतना, अपने क़रीबियों और उनके पास आने वाले लोगों के साथ संघर्ष तथा अपनी बीमारी की वजह से 1918 के उत्तरार्द्ध में महामारी के दौरान सार्वजनिक जीवन से कट से गये थे. उन्होंने उस समय के सार्वजनिक भाषणों-लेखनों में महामारी का उल्लेख नहीं किया और उनकी जीवनी में भी इसका वर्णन नहीं मिलता है. इसे समझना मुश्किल है क्योंकि 1904 में दक्षिण अफ़्रीका में फैली महामारी के दौरान वे बहुत सक्रिय रहे थे और 1917 में अहमदाबाद में उन्होंने आसन्न महामारी से बचाव के उपाय सुझाए थे.

गांधी के अनन्य सहयोगी खान अब्दुल ग़फ़्फ़ार खान का परिवार भी महामारी की चपेट में आया था. उनके बेटे ग़नी खान को संक्रमण हुआ और वे बुरी तरह बीमार पड़े. गोपाल कृष्ण गांधी ने इस बाबत एक मार्मिक बयान लिखा है कि अब्दुल ग़फ़्फ़ार खान की पत्नी मेहर क़ंध ने ईश्वर से प्रार्थना की कि वह उनकी जान ले ले और बेटे को ठीक कर दे. ग़नी खान ठीक होते गए और मेहर क़ंध बीमार होती गयीं, अंतत: चल बसीं. सीमांत गांधी ने भी महामारी पर कुछ नहीं लिखा और बोला. जिस प्रकार महामारी के दस साल बाद आयी गांधी की आत्मकथा में इसका कोई विवरण नहीं मिलता, उसी प्रकार पंडित जवाहरलाल नेहरू की आत्मकथा या अन्य लेखनों में महामारी अनुपस्थित है. यह सब खेड़ा सत्याग्रह के दौरान हुआ था, पर उस आंदोलन के नेता सरदार वल्लभभाई पटेल ने भी महामारी पर बाद में अपने विचार अभिव्यक्त नहीं किया. हां, यह भी दर्ज किया जाना चाहिए कि इस विपदा और अन्य महामारियों के बारे में बाद के साहित्यकारों ने गाहे-बगाहे ज़रूर लिखा है.

राष्ट्रीय नेताओं का महामारी पर नहीं लिखना इसलिए भी आश्चर्यजनक है कि वह दौर भारत के लिए दूसरे कारणों से भी बेहद त्रासद था. अमिय कुमार बागची ने पहले महायुद्ध के दौरान भारतीय अर्थव्यवस्था और समाज पर लिखे शोध पत्र में बताया है कि ब्रिटेन ने युद्ध से पहले ही तय कर लिया था कि युद्ध काल में खाद्य उत्पादन बढ़ाने से बेहतर उसका आयात करना है. युद्ध शुरू होते ही भारत से भारी मात्रा में अनाज भेजा जाने लगा. देशभर की मंडियों में सरकारी एजेंट ख़रीद कर रहे थे. अकाल और अन्य कारणों से 1918-19 में देश की ऊपज में बड़ी गिरावट भी हुई थी.

बागची ने रेखांकित किया है कि उस समय हुई बड़ी संख्या में मौतों का कारण महामारी को बताया जाता रहा है, लेकिन कुछ अध्ययनों ने इंगित किया है कि भूख और बेरोज़गारी ने महामारी की गंभीरता को बहुत अधिक बढ़ा दिया था. इन तीन कारणों ने लोगों की कार्यक्षमता को भी प्रभावित किया था. युद्ध से पहले के अकालों और औपनिवेशिक दमन से हालत पहले से ही बिगड़ी थी. नतीज़ा यह हुआ कि 1911 और 1921 के बीच भारत की आबादी में उल्लेखनीय कमी आयी. इस अवधि में, ख़ासकर युद्ध के अंतिम सालों में (वही समय महामारी का भी है) भोजन की समुचित उपलब्धता के कारण, इंग्लैंड और वेल्स में जीवन प्रत्याशा कई साल बढ़ गयी, लेकिन भारत में इसमें बड़ी गिरावट आ गयी.

भले ही व्यक्तिगत और सामूहिक आघात या अन्य कारणों से उस आपदा के बारे में राष्ट्रीय नेताओं ने नहीं लिखा, पर वे या तत्कालीन भारतीय मानस निश्चित रूप से 1918 की महामारी के दौरान ब्रिटिश शासन के रवैये से बहुत क्षुब्ध था. इस आपदा के तुरंत बाद जालियांवाला बाग की घटना होती है और कुछ साल पहले स्वशासन की आस में ब्रिटिश सेना में भारतीयों की भर्ती करा रहे महात्मा गांधी असहयोग आंदोलन शुरू कर देते हैं. दुनिया के कई हिस्सों में भी बाद का दौर आंदोलनों और राजनीतिक उथल-पुथल का युग है. कई विद्वान और राजनेता याद कराते रहते हैं कि जैसे 1918 के इनफ़्लुएंज़ा की कोई राष्ट्रीयता नहीं थी और वह किसी भी वर्ग या नस्ल को अपना शिकार बना रहा था, उसी तरह आज हमारे सामने कोरोना महामारी, अन्य बीमारियां और जलवायु परिवर्तन की समस्याएं हैं. इनका सामना वैश्विक सहकार से ही किया जा सकता है.

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