Film Laundry
फिल्म लॉन्ड्री: हिंदी फिल्मों में दलित चरित्र
सोशलिज्म और बराबरी का सपना
चावली- सोशलिज्म... सोशलिज्म का होत है?
निर्मल कुमार- सोशलिज्म... सोशलिज्म भी एक किस्म का डायनामाइट है, जो पुरानी दुनिया के पुराने विचारों को उड़ा देगी और एक नई दुनिया को जन्म देगी.
चावली- थारी ये नई दुनिया कैसी होगी बाबू?
निर्मल कुमार- बड़ी अनोखी, बहुत ही सुंदर, जहां पर कोई नंगा, भूखा और बेघर ना होगा.
चावली- थारे सोशलिज्म में अहीर का छोरा चमार की बेटी से ब्याह कर सकेगा?
निर्मल कुमार- जरूर, इस दुनिया में प्यार के रास्ते में समाज की बनाई हुई दीवारें नहीं होंगी. इसी दुनिया की तरफ जा रही है हमारी यह सड़क. क्यों, क्या कहती हो?
चावली- तब मैं जरूर बनाऊंगी ये सड़क.
ख्वाजा हम्मद अब्बास लिखित-निर्देशित ‘चार दिल चार राहें’ (1959) के इस दृश्य में फिल्म की नायिका चावली (मीना कुमारी) चमार की बेटी है. यहां वह ट्रेड यूनियन के नेता निर्मल कुमार (पी जयराज) के साथ संवाद कर रही है फिल्म के क्लाइमेक्स से थोड़ी देर पहले आये इस दृश्य मैं मजदूरों को सड़क बनाने का ठेका मिल चुका है. सड़क निर्माण के कार्य में हाथ बंटाने के लिए निर्मल कुमार नायिका चावली को राजी कर रहा है. तीन जोड़ियों की इस फिल्म में पहली जोड़ी गोविंदा (राज कपूर) और चावली (मीना कुमारी) की है. बचपन के दोस्त गोविंदा और चावली क्रमशः अहीर और चमार जाति के हैं. दोनों की दोस्ती और लगाव को देखकर गोविंदा के पिता उसे शहर भेज देते हैं ताकि वह चावली से ना मिल सके. शहर से पढ़ कर लौटने के बाद गोविंदा परिवार में अपना फैसला सुना देता है कि वह चावली से ही ब्याह करेगा. चावली काली, अनाथ और बाल विधवा है.
इस शादी के लिए गोविंदा का परिवार सहमत नहीं होता. चावली नहीं चाहती कि वह भाग या छिप कर शादी करे. उसके कहने पर गोविंदा बारात लेकर आने के लिए राजी होता है, लेकिन उसकी बारात में गांव का कोई शामिल नहीं होना चाहता. नतीजतन केवल अनाथ चंदू पहलवान और एक मशालची (तीन व्यक्तियों) की बारात लेकर वह चावली के घर की तरफ जाता है. इस बीच अहीर और चमार समाज के लोग अलग-अलग कारणों से इस शादी के खिलाफ हो जाते हैं. गोविंदा देखता है कि चावली के घर में आग लगी हुई है. चंदू पहलवान जानना चाहता है कि आग किसने लगाई? आग अहीरों ने लगाई है और चमारों ने गोविंदा को आने से रोका है. पुजारी बताता है कि यह ‘पाप और धर्म की आग है’, जिसमें कुलटा चावली जलकर राख हो जाएगी.
गोविंदा को चावली नहीं मिल पाती है. उसकी एक ही पायल घर में मिलती है. गोविंदा को संदेह होता है कि चावली जल गई होगी. वह बदहवास गांव से निकलता है. रास्ते में उसे दूसरी पायल मिलती है तो उसकी उम्मीद बनती है. वह सोचता है कि चावली जिंदा है तो उसे कभी ना कभी जरूर मिलेगी.
फिल्म स्पष्ट तरीके से अहीर और चमार के सामाजिक-आर्थिक फर्क को पेश करती है. आजादी के बाद के 10 सालों में भी स्थिति में कोई खास परिवर्तन नहीं आया है. समाजवाद का सपना तो दूर की बात है. सामाजिक और जातिगत मान्यताएं और पूर्वाग्रह अहीर गोविंदा और चमार चावली को नहीं मिलने देते हैं.
फिल्म में मजदूरों के आंदोलन से जुड़ने के बाद गोविंदा और चावली मिल जाते हैं. कितु बाहर समाज में आज तक अंतरजातीय विवाह को सामाजिक मंजूरी नहीं मिली है. भले ही संविधान इसका अधिकार देता है.
गौरतलब है कि ‘चार दिल चार राहें’ 1959 में आई थी. उसी साल आई बिमल राय की ‘सुजाता’ में भी जातीय भेदभाव से प्रेम में आई अड़चन की कहानी प्रस्तुत की गई थी. ‘सुजाता’ अधिक चर्चित और सफल फिल्म रही. नूतन के अभिनय, गीत-संगीत और कसी हुई पटकथा में चरित्रों के नाटकीय उतार-चढ़ाव और भावनात्मक उद्वेलन के कारण यह फिल्म दर्शकों के बड़े समूह के बीच पसंद की गई. लोकप्रिय संस्कृति में लोकप्रियता किसी भी फिल्म का मूल्य और महत्व बढ़ा देती है. उसे पुरस्कार दिलवा देती है. बिमल राय की खास निर्देशन शैली की यह लिरिकल फिल्म दर्शकों और समीक्षकों दोनों के द्वारा सराही गई. इस फिल्म में अछूत सुजाता और ब्राह्मण अधीर की प्रेम कहानी में आधारभूत ईमानदारी है. अछोत और ‘बेटी जैसी’ होने के कारण हीन और संकुचित मनोभाव से ग्रस्त सुजाता का मनोबल अधीर बढ़ाता है. वह कातर और खुद को कोसती सुजाता से कहता है ‘आत्म निंदा आत्महत्या से भी बड़ा पाप है’.
‘सुजाता’ सुबोध घोष की इसी नाम की बांगला कहानी पर आधारित थी. इसकी पटकथा मशहूर लेखक नबेंदु घोष ने लिखी थी और संवाद पॉल महेंद्र ने लिखे थे. ‘सुजाता’ में गांधीवादी दृष्टिकोण और सोच को फिल्म के नैरेटिव में पिरोया गया था.
ख्वाजा अहमद अब्बास और बिमल राय का फर्क
एक ही साल आई ‘चार दिल चार राहें’ और ‘सुजाता’ की चर्चा और सफलता के फर्क में उनके निर्देशकों की समझ और फिल्म शिल्प की भी भूमिका रही. ख्वाजा अहमद अब्बास कथ्य और अभिप्राय में सामाजिक रूप से प्रगतिशील, क्रांतिकारी और अग्रगामी होने के बावजूद क्राफ्ट और सिनेमाई भाषा में बिमल राय की तुलना में कम प्रभावशाली रहे. उनकी लिखी फिल्मों पर राज कपूर निर्देशित फिल्में कामयाब और मील का पत्थर साबित हुईं, मगर ख्वाजा अहमद अब्बास खुद वैसी कामयाबी नहीं हासिल कर सके. ‘चार दिल चार राहें’ की तीन कहानियों में से एक कहानी गोविंदा-चावली की थी, इसलिए जातीय भेदभाव और अछूत समस्या को छूती इस फिल्म पर राज कपूर और मीना कुमारी के होने के बावजूद दर्शकों और समीक्षकों का ध्यान नहीं गया. इस फिल्म को फिर से देखने की जरूरत है.
आज़ादी के पहले की फिल्मों में अछूत चरित्र
अछूत समस्याओं पर इनके पहले भी फिल्में बनती रही हैं. महात्मा गांधी की प्रार्थनाओं, लेखों और भाषणों से 'अछूत' और ‘हरिजन’ शब्द प्रचलन में आए. उनके प्रभाव में फिल्मों की कहानियों में सामाजिक भेदभाव के इस पक्ष को फिल्मों का विषय बनाया गया. न्यू थिएटर्स की फिल्म नितिन बोस निर्देशित ‘चंडीदास’ में उच्च जाति के कवि चंडीदास (के एल सहगल) और उनकी निम्न जाति की प्रेमिका रानी (उमा शशि) के चरित्रों से समाज के पूर्वाग्रहों को दर्शाया गया था. इसे मशहूर नाटककार आगा हश्र कश्मीरी ने लिखा था. नितिन बोस की ‘चंडीदास’ इसी नाम से बनी देवकी बोस की बांग्ला फिल्म ‘चंडीदास’ की रीमेक थी. के एल सहगल की गायकी और विशिष्ट अभिनय के साथ हिंदी में होने की वजह से यह फिल्म देश भर में देखी गई. हिंदी में अछूत काह्रित्र को लेकर बनी यह पहली फिल्म मानी जा सकती है.
‘चंडीदास’ के दो सालों के बाद मुंबई के बॉम्बे टॉकीज ने जर्मन निर्देशक फ्रान्ज़ ओस्टन के निर्देशन में बनी ‘अछूत कन्या’ का निर्माण किया. इसे निरंजन पाल ने लिखा था. इस फिल्म का संगीत निर्देशन सरस्वती देवी ने किया था. देविका रानी और अशोक कुमार अभिनीत यह क्लासिक फिल्म गांधी जी के प्रभाव और प्रेरणा से चल रहे सुधारवादी आंदोलनों के असर में बनाई गई थी. इस फिल्म में भी नायक प्रताप ब्राह्मण है और नायिका का कस्तूरी अछूत है. दोनों बचपन के दोस्त हैं, लेकिन पारिवारिक असहमति और दबाव में प्रेम में होने के बाद भी दोनों की शादी नहीं हो पाती. प्रताप की शादी मीरा से हो जाती है और कस्तूरी से मनु का ब्याह हो जाता है. दोनों अपने वैवाहिक जीवन में स्वयं को व्यवस्थित करने की कोशिश करते हैं. इस बीच प्रताप की पत्नी मीरा और मनु की पूर्व पत्नी कजरी एक साजिश के तहत प्रताप और कस्तूरी की भेंट मेले में करवा देती है. उदहर वे मनु का कान देती अहिं. गुस्से में उतावला मनु सही स्थिति नहीं जानता. वह प्रताप पर आक्रमण करता है. उनकी लड़ाई एक रेलवे क्रॉसिंग पर चल रही है. दोनों को नहीं मालूम कि सामने से ट्रेन आ रही है. उनकी जान बचाने के लिए कस्तूरी आगे बढ़कर ट्रेन को रुकवाना चाहती है, लेकिन ट्रेन उसे कुछ चलती हुई निकल जाती है. पति और प्रेमी बाख जाते हैं.
दलित चरित्रों का स्वरूप
इन सभी फिल्मों में दलित चरित्र महिलाएं हैं और उन्हें दीन-हीन ढंग से ही चित्रित किया गया है. अपनी सामाजिक स्थिति और दलित पहचान के कारण उन्हें अधिक तकलीफ झेलनी पड़ती है. उन्हें अपमान और लांछन से भी गुजरना पड़ता है और अंत में प्रेम के लिए त्याग व बलिदान करना पड़ता है. कस्तूरी तो जान भी गंवा देती है. फिल्मों में दलित चरित्रों के आख्यान पर काम कर रहे अध्येतानों के मुताबिक हिंदी फिल्मों में दलित चरित्र तो लिए गए, लेकिन उन्हें नायकों के समान दर्जा और महत्व नहीं दिया गया. उनके प्रति नायकों की प्रेमानुभूति में समानता तो दिखती है, लेकिन उच्च जाति के लेखक और निर्देशक दलित महिला चरित्रों के निरूपण और निर्वाह में मूल रूप से सदियों से प्रचलित धारणाओं से आगे नहीं बढ़ पाते. स्वाधीनता आंदोलन के साथ चल रहे सुधार आंदोलनों और आजादी के बाद नए भारत के निर्माण में जातीय भेदभाव की असमानता खत्म करने में वे उच्च जातीय लोकप्रिय तर्कों का ही सहारा लेते हैं. इन फिल्मों के नायक दयालु, उदार, प्रेमी और प्रगतिशील नजर आते हैं. वे प्रेम के आड़े आ रही सामाजिक दीवारों को तोड़ने के बजाय बीच का रास्ता बनाते हैं, जिसमें नायिकाओं को वेदना, अपमान और घुटन सहना और कुलटा जैसा संबोधन में सुनना पड़ता है.
पैरेलल सिनेमा का प्रगतिशील नैरेटिव
दलित चरित्रों के चित्रण और प्रस्तुति में गुणात्मक फर्क पैरेलल सिनेमा के दौर में आता है. नई भाव संवेदना और सामाजिक यथार्थ की समझ के साथ आए फिल्मकार राजनीतिक रूप से वामपंथी रुझान के कारण वर्ग और जाति में जकड़े समाज के दलित चरित्रों को अपनी फिल्मों में विशेष स्थान देते हैं. वे उनकी दारूण स्थिति और सामाजिक पहचान को पर्दे पर रूपायित करते हैं. हमें ‘अंकुर’, ‘निशांत’, ‘मंथन’, ‘आक्रोश’ और ‘दामुल’ जैसी फिल्में मिलती हैं. इन फिल्मों में श्याम बेनेगल, गोविन्द निहलानी और प्रकाश झा जैसे फिल्मकारों ने समय की मांग को देखते हुए फिल्मों के नैरेटिव में दलित चरित्रों को वांछित महत्व दिया है. वे दलित समाज के शोषण, उत्पीड़न, विरोध और विजय की कहानियों से प्रभावित होते हैं. हिंदी फिल्मों के मुख्यधारा से अलग इन फिल्मों में समाज के वंचित किरदारों को देखकर आम दर्शक के तौर पर हमें फिल्मकारों की प्रगतिशीलता लक्षित होती है, किंतु दलित चिंतकों ने इन फिल्मकारों की वाजिब आलोचना की है.
उन्होंने रेखांकित किया है कि अपनी सदाशयत के बावजूद प्रगतिशील फिल्मकार दलित चरित्रों को आश्रित, कमजोर, निर्भर और निम्न दर्जे का ही दिखाते हैं. दलित चरित्रों को इन फिल्मों में भी नायकत्व नहीं हासिल होता. कहीं वह शराब पीता है, कहीं उसका नाम कचरा है, कहीं वह भाववेश में सटीक निर्णय नहीं लेता आदि आदि... आशय यह है कि निम्न जाति, अछूत और दलित किरदारों के चित्रण में फिल्मकार अपनी उच्च जाति की संवेदना से ही चरित्रों का गठन और चित्रण करते हैं. उन्होंने अपनी फिल्मों के लिए खास डिजाइन और फार्मूले तय कर लिए हैं. उनमें दलित चरित्रों को पिरो कर वाहवाही और पुरस्कार बटोर लेते हैं. व समस्याओं की जड़ों पर चोट नहीं करते. वे उन चरित्रों की वर्तमान स्थिति के कारणों की गवेषणा नहीं करते. सदियों के दमन पर बात नहीं करते. नतीजतन इन फिल्मों में दलित चरित्र एकांगी और यांत्रिक स्वरूप में आने लगते हैं.
क्यों नहीं मिल पाए दलित नायक
107 सालों के सिनेमा के इतिहास में ‘आलम आरा’ के बाद से लगभग 90 सालों की हिंदी फिल्मों की विकास यात्रा में फिल्मकारों को दलित नायक नहीं मिल पाए. दलितों के दमन, शोषण, उत्पीड़न की कहानियों में भी उन्हें नायक का दर्जा नहीं मिल पाया. सामान्य हिंदी फिल्मों में भी देश के अल्पसंख्यक, दलित, आदिवासी और वंचित समाज के चरित्रों को नायक-नायिका के रूप में नहीं पेश किया जाता है. क्यों नहीं वे सामान्य रोमांटिक फिल्मों के हीरो या हीरोइन होते? हमेशा वे सहयोगी और सेकेंडरी चरित्र होते हैं. उच्च जाति के नायक उनके संरक्षक, उद्धारक और पालक के रूप में आते हैं.
क्या वजह है कि हिंदी फिल्मों के नायक-नायिका समाज के वंचित समूह से नहीं आते. निश्चित ही इसके पीछे का बड़ा कारण फिल्मों के निर्माता, लेखकों, निर्देशकों और कलाकारों का मुख्या रूप से उच्च जाति का होना है. न केवल फिल्म, बल्कि समाज के सभी क्षेत्रों में नेतृत्व की कमान अभी तक उच्च जाति के हाथों में है. अपवाद स्वरूप कभी निम्न जाति के हाथों में नेतृत्व आता है तो उन्हें लुढ़कने, बदलने और सर्वमान्य सत्ता और मान्यता के पक्ष में आने के अनेक प्रलोभन मिलते हैं. अफसोस की बात है कि उनमें से कई इस प्रलोभन के शिकार हो जाते हैं. फिर भी आशा की जा सकती है कि समाज बदलने के साथ दलित चेतना की समझदारी में आए उभार के बाद सिनेमा सहित विभिन्न क्षेत्रों में दलित स्वर मुखर, सार्थक और सटीक होगा.
उम्मीद बाकी है
हिंदी फिल्मों में नीरज घेवन की ‘मसान’, अमित मासुरकर की ‘न्यूटन’, बिकास रंजन मिश्रा की ‘चौरंगा; ने फिल्मों में दलित चरित्रों के चित्रण और प्रतिनिधित्व में उन्हें महत्ता दी है. उन्हें नायक का दर्जा दिया है. फिल्मों में दलित चरित्रों की पहचान और निश्चयन के संदर्भ में मराठी के फिल्मकार नागराज मंजुले और तमिल के फिल्मकार पा रंजीत का उल्लेख लाजमी होगा. इनकी ‘फंड्री’, ‘धड़क’, ‘काला’ और ‘कबाली’ ने दलित किरदारों की पहचान और विमर्श को राजनीतिक चेतना और सामाजिक अभ्युत्थान के साथ पेश किया.
सच्चाई यह है कि डॉ. भीमराव अंबेडकर के प्रयासों के बाद दलित चेतना तो विकसित हुई है, लेकिन दलित पैंथर्स के गठन के समय जो दलित नेतृत्व उभार और नेतृत्व में हिस्सेदारी का दृढ़संकल्प दिखाता, वह कहीं खो सा गया है. राजनीति और सत्ता के खेल में दलित नेतृत्व की राजनीतिक पार्टियों का भटकाव और भ्रम अनेक किस्म के लाभ और अवसर से चालित होता है. फिल्मों में भी यह भटकाव और भ्रम दिखता है. जब दलित चरित्र नायक-नायिका होने के बाद भी ढंग से कुछ कह नहीं पाते. वे फिल्मों की घिसी-पिटी और ड्रामेबाजी में उलझ जाते हैं. उम्मीद है कि घेवन, मासुरकर, मंजुले और रंजीत की आगामी फिल्में इस संदर्भ में ठोस रूप में आश्वस्त करेंगी.
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