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फिल्म लॉन्ड्री: "अभिनय के प्रति मेरा अथाह प्रेम ही मुझे अहन तक ले आया है"

पुरस्कार मिलने पर पहला सवाल तो यही होता है कि कितनी ख़ुशी मिली?

पुरस्कार आपकी मेहनत और प्रतिभा की पहचान होता है. हमेशा ख़ुशी होती है. अपेक्षित फिल्मों को पुरस्कार नहीं मिलता तो दुख भी होता है. मेरे लिए ‘भोंसले’ के लिए मिला पुरस्कार खास मायने रखता है. क्योंकि ‘भोंसले’ बनाने में अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा.

‘भोंसले’ के बारे में क्या कहेंगे? देवाशीष मखीजा ने इस फिल्म के बारे में तो बहुत पहले सोचा था. इस फिल्म की पूर्वपीठिका के तौर पर आप दोनों ने शॉर्ट फिल्म ‘तांडव’ भी बनांई थी…

देवाशीष ने फिल्म की कहानी बहुत पहले सुनाई थी. हम दोनों पैसों के इंतजाम में लगे रहे. इस दरमियां फिल्म की स्क्रिप्ट पर भी काम चलता रहा. पर्याप्त धन नहीं मिल पा रहा था तो हमने ‘तांडव’ बना कर एक टेस्ट भी किया. ‘तांडव’ को मिले रिस्पांस से उत्साह बढ़ा. हमें फिल्म के निर्माण के लायक धन जुटाने में समय लगा. इस फिल्म के नायक गणपत पर काफी मेहनत करनी पड़ी. उसकी भाषा, लुक और किरदार पर देवाशीष ने बहुत विस्तार से काम किया. हम दोनों निरंतर फिल्म पर ही विचार करते रहे.

आपने अपनी फिल्मों में मराठी किरदारों को बहुत विश्वसनीय तरीके से निभाया है ताजा उदाहरण ‘भोंसले’ के लिए मिला राष्ट्रीय पुरस्कार है.

मैं महाराष्ट्र में इतने सालों से हूं. ठीक है कि मैं मराठी बोल नहीं सकता, लेकिन मैं मराठी बहुत अच्छी तरह से समझता हूं. मराठी लोगों से मुझे बहुत प्रेम है. कई मराठी एक्टर मेरे दोस्त हैं. मराठी सोच, परंपरा और संस्कृति मुझे बहुत प्रभावित करती है. मराठी लोगों की सोच और बात-व्यवहार से मैं बहुत अभिभूत रहता हूं. घर से बाहर निकलने पर महाराष्ट्र के लोकल लोगों से हर मुलाकात में मैं उनके प्रेम को महसूस कर पाता हूं. मुंबई हो या का कोई अन्य शहर मैंने पाया है कि इन लोगों ने अपनी भाषा, संस्कृति और परंपरा को बचा कर रखा है. उन्हें उस पर गर्व है. इस प्रभाव के कारण जब भी कोई मराठी किरदार मैं निभाता हूं तो अचेतन रूप से वह प्रेम मुझे प्रेरित करता रहता है.

‘सत्या’, ‘अलीगढ़’, ‘भोंसले’ और ‘सूरज पे मंगल भारी’ में आपने चार मराठी किरदारों को निभाया.

जी मुझे ऐसा लगता है कि मुझे और भी मराठी किरदारों को निभाना चाहिए. मेरे सभी मराठी किरदारों ने मुझे नाम और शोहरत दिलाई है. मेरी प्रतिभा के विभिन्न आयाम को उन्होंने अच्छी तरह से उभरने का मौका दिया है.

तीनों फिल्में आप की ‘ट्रायलॉजी’ बनाती हैं. उनमें एक किस्म की समानता भी खोजी जा सकती है.

तीनों समाज से कटे हुए लोग हैं. वे अपनी मर्जी से नहीं अलग हुए हैं. कहीं ना कहीं सामाजिक दबाव या कोई और कारण रहा है. मानसिक रूप से अशांत और बेचैन व्यक्तियों के साथ समाज का रवैया कभी अच्छा नहीं रहा है. समाज उन्हें अलग कर देता है. ‘अलीगढ़’ के रामचंद्र सिरस को देखें. समाज ना केवल उसे अकेला छोड़ता है, बल्कि उसके घर में जबरन प्रवेश भी करता है. उसकी प्राइवेसी का उल्लंघन करता है. दूसरी तरफ ‘भोंसले’ है. हम जानते हैं कि कोई व्यक्ति जब रिटायर करता है तो हम उसे उसका अंत मान लेते हैं. ये सभी किरदार अपने-अपने तरीके से समाज से उपेक्षित हैं. तीनों का परिवेश अलग है. समाज अलग है, लेकिन तीनों एकाकी हैं. मैंने सोच-समझकर ये फिल्में नहीं चुनी थीं, लेकिन निश्चित ही यह एक ट्रायलॉजी है. यह अनियोजित है.

इन तीनों फिल्मों के निर्देशक की अप्रोच के बारे में क्या कहेंगे? उनके अप्रोच में किस तरह का फर्क है?

हंसल मेहता एकाकीपन वाला आदमी नहीं है. तीनों में केवल हंसल ही लोगों के बीच में रहता है. समाज में शामिल होकर रहना हंसल का स्वभाव है. हंसल लेखक नहीं है. उसकी स्क्रिप्ट अपूर्व असरानी ने लिखी थी. रामचंद्र सिरस के अकेलेपन की उसकी समझ बहुत अच्छी थी. बाकी दोनों अपने-अपने तरीके से एकाकी व्यक्ति हैं. देवाशीष मखीजा को तो 10 फोन करें तो शायद वह एक बार उठाएगा. उसने खुद को बाहर से काट दिया है. वह अपने व्यक्तित्व को फिल्मों में लेकर आता हैं. दीपेश जैन अपने घर में मां-बाप के साथ रहते हुए भी कमरे में अकेले रहता है. मुझे पता चला है कि उसका खाना भी उसके कमरे में पहुंचा दिया जाता है. अपने कमरे में ही लिखता, देखता सुनता रहता है. वह परिवार में होते हुए भी बिल्कुल अलग है. शायद इसी वजह से दीपेश जैन ने इतना बढ़िया किरदार लिखा भी था.

‘अलीगढ़’ के रामचंद्र सिरस. ‘गली गुलियां’ के खुद्दुस और ‘भोंसले’ के गणपत के बारे में कलाकार मनोज बाजपेयी क्या सोचते हैं और उन्हें पर्दे पर उतारते समय आपने कौन सी युक्ति अपनाई?

मुझे ‘अलीगढ़’ और ‘गली गुलियां’ करने में अधिक मेहनत लगी. ‘अलीगढ़’ में मुझे उस व्यक्ति के अंदर तक पहुंचना था, जो अपने कमरे के अंदर ही रहना चाहता है. उसके जीवन के साथी हैं लता मंगेशकर और व्हिस्की... उस दिमाग तक पहुंचने की कोशिश मुझे बहुत ज्यादा करनी पड़ी. एक प्रोफेसर का मराठी लहजा भीखू म्हात्रे जैसा नहीं होगा. तो फिर उसका स्वरूप क्या होगा? उसकी संवाद अदायगी कैसी होगी? बॉडी लैंग्वेज क्या रखी जाए? इस सारे पहलुओं की तैयारी में मुझे लगभग एक महीना लगा था. ‘गली गुलियां’ अलग तरीके से मुश्किल फिल्म थी. खुद्दुस के किरदार में मैं अंदर तक घुस चुका था. यहां तक कि 27-28 दिनों की शूटिंग के बाद मेरे कानों में सीटी की आवाज आने लगी थी. डर कर मैंने दीपेश से कहा था कि शूटिंग रोक दो. मुझे डर था कि कहीं मेरा ब्रेकडाउन न हो जाए? उस समय दीपेश जैन और यूनिट के दूसरे सदस्यों ने मुझे अच्छी तरह संभाला था. उस फिल्म की शूटिंग के दौरान एक अलग किस्म के मानसिक प्रक्रिया से मैं गुजरा था. उस फिल्म के बिहाइंड द सीन फोटो देखें तो आपको पता चलेगा कि मैं किस अवस्था में पहुंच चुका था. ‘भोंसले’ के गणपत के बारे में ऐसा था कि शूटिंग में चार साल की देरी होने की वजह से निर्देशक देवाशीष मखीजा से हर मुलाकात में हम स्विफ्ट के ग्रीटिंग और करैक्टर के बारे में बातें किया करते थे. शूटिंग पर जाने के समय तक मैंने गणपत को अच्छी तरह समझ और आत्मसात कर लिया था.

पैसों की दिक्कत की वजह से क्या ‘भोंसले’ की शूटिंग में व्यवधान भी पड़ा या आप लोगों ने एक साथ ही शूट कर लिया?

10 दिनों की शूटिंग के पैसे लेकर हमने शूटिंग चालू कर दी थी. उम्मीद थी कि पैसे आ जाएंगे. प्रॉमिस किए हुए पैसे नहीं आए. बाद में यह हो गया था कि मैं शूटिंग खत्म करने के बाद पैसों के लिए लोगों को फोन किया करता था. यहां मैं संदीप कपूर का नाम लूंगा. उन्होंने मेरे एक फोन कॉल पर फिल्म के निर्माता पीयूष सिंह को बुलाकर शूटिंग के लिए सारे पैसे एक साथ दे दिए थे. मैं उनका शुक्रगुजार रहूंगा. ‘भोंसले’ बनाने में बहुत कठिनाई हुई थी, इसलिए उसके राष्ट्रीय पुरस्कार का खास महत्व है.

‘भोंसले’ में एक राजनीतिक अंतर्धारा भी है. उसके बारे में क्या कहेंगे?

दुनिया भर के बड़े शहरों में लोकल वर्सेस माइग्रेंट का संघर्ष चल रहा है. उस पृष्ठभूमि और परिवेश में मुंबई में ‘भोंसले की कहानी को देखें तो गणपत का जीवन महत्वपूर्ण हो जाता है. गणपत एक लिहाज से लोकल है, लेकिन समाज में चल रहे झगड़े से वह इत्तफाक नहीं रखता. फिल्म करते हुए मुझे लग रहा था गणपत और कोई नहीं देवाशीष मखीजा ही हैं. देवाशीष मखीजा ने गणपत में खुद को डाला है. उसने एक लोकल व्यक्ति को विश्व नागरिक के विचार का बना दिया है. इस समझ के बावजूद वह बाहर आकर क्रांति नहीं करना चाहता. सामाजिक द्वंद और झगड़े में वह नहीं पड़ना चाहता. बाद में स्थितियां ऐसी बन जाती हैं कि वह हस्तक्षेप करने से नहीं रुकता.

मुझे लगता है कि सरकारी नौकरी और कानून का जानकार होने की वजह से गणपत संविधान प्रदत्त समानता और नागरिक अधिकारों को ज्यादा बेहतर तरीके से समझता है. उसको व्यवहारिक स्तर पर अपनाता और पहल करता है.

गणपत दो स्तरों पर जी रहा है. एक तो वह सार्त्र के अस्तित्ववाडी समस्याओं से उलझा हुआ है. अपने होने से ही उसको तकलीफ है. दूसरे, वह समाज के द्वंद से परिचित है, लेकिन किसी मंच पर जाकर वह अपनी राय नहीं पेश करता है. अपने जीवन तक ही उसने अपनी राय को समेट रखा है. गणपत के अंदर यह चाहत भी है कि कोई उसका ख्याल करें. कोई उसका ध्यान रखे. कोई उसके बारे में सोचे. उसने खुद को इस तरीके से काट लिया है कि कोई भी उसके पास जाने से हिचकता है. गणपत एक परतदार चरित्र है. वह कई परतों में जीता है.

पड़ोसी कमरे की सीता के प्रति उसकी हमदर्दी मानवीय व्यवहार से आगे जाती है.

जी, ऐसा इसलिए होता है कि स्त्री तो क्या कोई पुरुष भी उसके संपर्क में नहीं है. जब सीता पूरी जिद्द के साथ उसका ख्याल रखना चाहती है तो आनाकानी के बावजूद उसे अच्छा लगता है. वह सीता और उसके भाई की जिम्मेदारी खुद ही ले लेता है. फिल्म में तो यह बात भी है कि अगर आप बगैर किसी तारीफ या रिटर्न की उम्मीद के किसी की तरफ मदद के लिए हाथ बढ़ाएंगे तो बगैर रिश्ते का ही एक परिवार बन जाएगा. सीता ने यही किया. उसने गणपत को जीवन का एक मकसद भी दे दिया. रिटायरमेंट के बाद अमूमन सक्रिय व्यक्तियों के जीवन लक्ष्यहीन हो जाते हैं. वे खुद को बेकार समझने लगते हैं. सीता और गणपत के बीच विकसित रिश्ते के मानी दर्शक अपने हिसाब से निकाल सकते हैं.

‘अलीगढ़’, ‘गली गुलियां’ और ‘भोंसले’ तीनों फिल्मों के नायक अस्तित्व के संकट से गुजर रहे हैं. वे समाज से अलग-थलग हो गए हैं. समाज भी उनके प्रति बेफिक्र है.

हां, तीनों ही किरदार अस्तित्ववादी संकट से गुजर रहे हैं. वे एक समान नहीं हैं. तीनों के परिवेश अलग हैं. तीनों के संकट अलग हैं. तीनों तीन शहरों अलीगढ़, दिल्ली और मुंबई में रहते हैं. आप गौर करेंगे कि तीनों अकेले रहने के बावजूद समाज के प्रति अतिवादी विचार और व्यवहार नहीं रखते हैं. आजकल तो इसे गाली समझा जाता है, लेकिन तीनों लिबरल विचार के हैं. तीनों को जीवन से प्रेम है. वे आगे भी जीना चाहते हैं. उनके ना चाहने के बावजूद उनकी प्राइवेसी में हस्तक्षेप करता रहता है. समाज उनके जीवन को निर्देशित और नियमित भी करना चाहता है. तीनों ही किरदार समाज के बंधे-बंधाये प्रचलित नियमों पर नहीं चलना चाहते.

आप की ऐसी और कौन सी फिल्में हैं, जिन्हें उचित सम्मान और पुरस्कार नहीं मिला. पूछने का मकसद यह है कि आपके दर्शक और प्रशंसक भी उन फिल्मों को देख और समझ सकें. मुमकिन है कि अचर्चित रहने की वजह से वे फिल्में देखने से रह गई हों.

मैं तो हमेशा कहता हूं कि ‘बुधिया सिंह’ मेरे जीवन के बेहतरीन परफॉर्मेंस में से एक है. और सब ने यह आशा की थी कि उस फिल्म के लिए पुरस्कार मिलेगा लेकिन नहीं मिला (अंदरूनी खबर यह थी कि इस पुरस्कार को अंतिम निर्णय और घोषणा से पहले सूची से इसे हटा दिया गया था किसी और अभिनेता के पक्ष में -अब्र). सारे विवादों के बावजूद नेशनल अवार्ड का खास महत्व इसलिए है कि यहां छोटी और क्षेत्रीय फिल्मों को भी बराबर का दर्जा मिल जाता है. इन फिल्मों से जुड़ी प्रतिभाओं को पहचान मिलती है. विवाद कैसे ना हो इस संदर्भ में सभी पुरस्कार समितियों को सोचना पड़ेगा. पुरस्कारों का महत्व बड़ा और ऊंचा बना रहे... इसके लिए इन पुरस्कार समितियों को लोकतांत्रिक तरीका अपनाना पड़ेगा.

एक बुधिया सिंह और कोई?

‘बुधिया सिंह’ है, ‘अलीगढ़’ है, ‘गली गुलियां’ है, ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ है... कहां तक नाम गिनवाएं?

‘सत्या’, ‘पिंजर’ और अब ‘भोंसले’ के भीखू म्हात्रे, रशीद और गणपत के बारे में थोड़े विस्तार से बताएं?

‘सत्या’ का भीखू म्हात्रे एक ऐसा किरदार था, जो गैंगस्टर होने के बावजूद एक इंसान के तौर पर पर्दे पर आया. वह लोगों को इसलिए पसंद आया कि पहली बार कोई अपराधी एक व्यक्ति के तौर पर दिखा था. गैंगस्टर या अपराधी होने के बावजूद आप उसे एक अच्छे पति, पिता और दोस्त के रूप में पाते हैं. फिल्म शुरू होते ही हम देखते हैं वह अपनी स्वतंत्रता का उत्सव मना रहा है. वह भावुक है, भंगुर है, उसके साथ रहना, उसका प्यार हासिल करना भी खतरनाक है. ऐसे लोग नाराज हो जाते हैं तो उनसे बच पाना भी मुश्किल होता है. इस लिहाज और दृष्टिकोण से मैंने उस किरदार की रचना की थी. ‘पिंजर’ के बारे में सभी जानते हैं कि वह अमृता प्रीतम के लिखे उपन्यास पर आधारित है और निर्देशक डॉ चंद्रप्रकाश द्विवेदी ने उसे बहुत वास्तविक और विश्वसनीय तरीके से बनाया था. रशीद जैसा किरदार मेरे ख्याल में फिल्मों में नहीं आया है. विभाजन की पृष्ठभूमि और लोगों की तकलीफ के अलावा पूरी फिल्म में रशीद प्रायश्चित कर रहा है अपनी एक गलती का. उस गलती के लिए उसे कभी माफी नहीं मिलती है. यह अजीब है, क्योंकि भारतीय समाज में कुछ लोग महीने में अनेक गलतियां करते हैं और उन्हें माफी मिल जाती है. रशीद को उस व्यक्ति से ही माफी नहीं मिली, जिसे वह सबसे ज्यादा चाहता है. रशीद में देने का जो माद्दा है, वह उसे बहुत बड़ा इंसान बना देती है. ‘भोंसले’ के गणपत के बारे में पहले ही बता चुका हूं.

निश्चित रूप से पुरस्कार किसी कलाकार की व्यक्तिगत प्रतिभा और योगदान का सम्मान होता है, लेकिन फिल्मों में किसी भूमिका को गढ़ने में फिल्म के निर्देशक के साथ यूनिट के तमाम तकनीकी सहयोगियों और कलाकारों का योगदान भी होता है. किसी कलाकार की प्रतिभा को उभारने और निखारने में उनकी क्या भूमिका होती है?

बहुत बड़ी भूमिका होती है. 'भोंसले' फिल्म का ही उदाहरण ले तो देवाशीष ने इस फिल्म के लिए 4 सालों में मेरे साथ जितनी मेहनत की... इतने सारे मेल हुए, हमने नोट शेयर किये, बैठकें की, मेरी मानसिक और शारीरिक तैयारी में उनकी मेहनत और बार-बार जरूरी मुद्दों के लिए आगाह करना. चेताना, सावधान और तारीफ करना. एक्टर को दृश्य के लिए सही तरीके से तैयार करना. ये सारी चीजें निर्देशक और तकनीकी टीम के सहयोग के बिना मुमकिन ही नहीं हैं. इस पुरस्कार के मिलने पर मैं देवाशीष मखीजा और पूरी तकनीकी टीम के प्रति शुक्रगुजार महसूस करता हूं. उनके त्याग के बगैर यह फिल्म नहीं बन सकती थी. मैं ‘भोंसले’ को संदीप कपूर और पीयूष सिंह के बिना देख ही नहीं पाता, जिन्होंने आगे बढ़कर हमारा हाथ थामा. लेखक, निर्देशक और निर्देशन-प्रोडक्शन टीम के सहायक दिन के 18-18 घंटे काम करते थे. फिल्म एक ऐसा माध्यम है जिसमें तमाम व्यक्तियों और प्रतिभाओं का सहयोग होता है. यह ठीक है कि निर्देशक के वीजन के अनुसार सारा काम होता है. फिल्म उसी विजन को साकार करती है.

ऐसी मेहनत और कोशिश तो हर फिल्म में होती होगी. कलाकार को पुरस्कार मिले या ना मिले... वह क्या बात होती है, जो किसी फिल्म में कोई प्रतिभा छिटक कर मुखर हो जाती है और पहचान पाती है? पुरस्कार भी मिलता है.

मेहनत और कोशिश हर फिल्म में होती है, लेकिन ‘भोंसले’ जैसी तकलीफ हर फिल्म को नहीं झेलनी पड़ती. इस फिल्म के सहयोगियों को हर दिन पैसे नहीं मिलते थे. हम लोगों से उन्हें वादे मिलते थे कि पैसे मिल जाएंगे. फिर भी उन्होंने काम में कोई ढिलाई नहीं की. उनका उत्साह कभी कम नहीं हुआ. ‘भोंसले’ के लिए मिले पुरस्कार को मैं उन लोगों के बिना कैसे देख सकता हूं? किरदारों की रचना और उनसे निभा रहे कलाकार की अंतरंगता ही मुखर होकर दर्शकों के बीच पहुंचती है.

आप को शुरू से देख रहा हूं. आप की उपलब्धियों से वाकिफ हूं. आप को जो पुरस्कार और सम्मान मिले, उनके बारे में दुनिया जानती है. जो पुरस्कतर और सम्मान नहीं मिले, मैं उनके बारे में भी जानता हूं. आपके अंदर जो क्षोभ, क्रोध और आंतरिक गुस्सा है...वह अपनी जगह. इन सभी के साथ एक आतंरिक ऊर्जा है...जो तमाम अवरोधों से टकराती और आगे बढ़ाती है आप को… बीच के कुछ सालों के ठहराव के बाद पुनरूज्जीवन लेकर आप लौटे … और अभी आप सक्रिय हैं। मैं उस आतंरिक ऊर्जा और इच्छाशक्ति के बारे में जानने को उत्सुक हूं?

वह और कुछ नहीं, सिर्फ और सिर्फ अभिनय के प्रति मेरा अथाह प्रेम है. यह अभिनय सिर्फ सिनेमा का नहीं है. उस अथाह प्रेम की गहराई मापनी है तो मेरे दिल्ली के दिनों को देखिए और समझिए. उन 10 सालों में मैंने शायद ही किसी महीने में दो हजार रुपए से ज्यादा कमाया हो. वह अभिनय ही था, जिसकी वजह से मैं दिल्ली में टिका रहा और मुंबई नहीं आया. अभिनय से उसी प्रेम की वजह से मैं सारे उथल-पुथल और अवरोधों के बावजूद अभी काम कर रहा हूं और मुंबई में टिका हुआ हूं. बीच में एक ऐसा समय आया, जब मैंने कुछ गलत फिल्में भी चुन ली और मेरी कुछ अच्छी फिल्मों को दर्शकों का सही रिस्पांस नहीं मिला. तब भी मेरे अंदर यह विश्वास था एक अच्छा रोल मुझे मिला तो मैं लौट आऊंगा. उन दिनों मीडिया समेत इंडस्ट्री के कुछ लोग जरूर यह सोच रहे थे कि मेरा कैरियर खत्म हो गया. मेरे अलावा हर व्यक्ति मान चुका था कि मैं खत्म हो गया. मैं लोगों के चेहरे के भाव पढ़ता था और अंदर ही अंदर मुस्काता था.

जब सभी मान चुके हो कि हम खत्म हो गए हैं और फिर आप लौट कर आते हैं तो एक अलग नजारा होता है. जिस समय मुझे प्रकाश झा की ‘राजनीति’ का रोल मिला, तब मेरे जहन में यह बात आ गई थी अब मैं वापस आ जाऊंगा. और वही हुआ भी. उन बुरे दिनों में भी हम और शबाना (पत्नी) मिल-बैठकर दूसरों की बुराई नहीं किया करते थे. अपनी संभावनाओं पर बात करते थे. पांच सालों तक द्वंद्व से गुजरा. उस दरमियान घर और किचन चलाने के लिए कुछ साधारण फ़िल्में कर लीं. एक तो मेरी जिद है. दूसरे, अभिनय से मोहब्बत है. लोगों की टिप्पणियों और आरोपों से मैं अपनी व्याख्या नहीं करता. लो टाइम में भी अपने को लो रख कर देख नहीं पाता था. उन दिनों में भी सुबह उठकर में वॉइस प्रैक्टिस करता था और कविता पाठ करता था. समाचारों से वाकिफ रहना और पेन-पेपर लेकर किसी भी काल्पनिक किरदार के बारे में सोचना और लिखना. मेरा अभ्यास जारी रहा.

तो फिल्म इंडस्ट्री के प्रति अभी भी गुस्सा है?

गुस्सा फिल्म इंडस्ट्री के प्रति नहीं है. उन लोगों पर क्रोध आता है जो मेरे पास आते तो हैं लेकिन मेरे लायक रोल लेकर नहीं आते हैं. पहले की बात है. अभी स्थिति-परिस्थिति बदल चुकी है. जब भीखू म्हात्रे और समर प्रताप सिंह जैसे किरदारों को निभाने के बाद भी मेरे लिए इंडस्ट्री के पास भूमिकायें नहीं थीं. तब गुस्सा आना जायज था, क्योंकि इंडस्ट्री मुझे एक खास कोने में बिठा देना चाहती थी. मैं ऐसा नहीं चाहता था. ऐसी सुरक्षा नहीं चाहता था. फिल्म इंडस्ट्री से मेरी नाराजगी और असुरक्षा ने ही मुझे यहां तक पहुंचाया. याद करें तो उन दिनों मैं अकेला ही था अपनी तरह का... अभी ढेर सारे कलाकार आ गए हैं. उनका सामूहिक जोश और प्रयास नए दरवाजे खोल रहा है. मेरी नाराजगी तो लोगों ने पढ़ ली, लेकिन मेरी बुद्धिमानी नहीं समझ पाए.

पिछले साल आउटसाइडर-इनसाइडर का मामला बहुत प्रखरता से उमरा. आप तो भुक्तभोगी रहे हैं. मैं खुद सालों से इस विषय पर लिखता रहा हूं. हिंदी प्रदेशों के मध्यवर्गीय समाज से आए कलाकारों के साथ फिल्म इंडस्ट्री के रवैए को लेकर मैं खुद लिखता और बताता रहा हूं. मुझे आज भी लगता है कि यह इंडस्ट्री लोकतांत्रिक तरीके से प्रतिभाओं का उपयोग नहीं करती है. फिल्म इंडस्ट्री के इनसाइडर उनके प्रति जानबूझकर दुत्कार और तिरस्कार का रवैया अपनाते हैं.

निश्चित ही फिल्म इंडस्ट्री लोकतांत्रिक तरीके से नहीं चलती है. मैंने बहुत सोचा कि यह इंडस्ट्री ऐसी क्यों है? आउटसाइडर और इनसाइडर का खेल बिल्कुल अलग किस्म का है. फिल्में ब्लॉकबस्टर होते ही हर आउटसाइडर इनसाइडर हो जाता है. जब तक इंडस्ट्री के सफल लोगों को मेरी जरूरत नहीं है या मेरे बगैर उनका काम चल सकता है, तब तक मैं आउटसाइडर ही बना रहूंगा. मैं आउटसाइडर ही भला... कुछ लोगों के साथ अपनी मर्जी के काम तो कर रहा हूं. वास्तव में देखें तो इनसाइडर सफल लोगों के पास आउटसाइडर कलाकारों के लिए कहानियां ही नहीं हैं. उनके पास किरदार भी नहीं हैं. इनसाइडर और आउटसाइडर का विवाद 21 साल पहले शुरू हुआ. उस समय कुछ लोगों को लगा कि आउटसाइडर कलाकार और प्रतिभाएं उनकी रोजी-रोटी पर हाथ डालेंगी. उन्होंने अपना एक समुदाय बनाया और उन्हीं लोगों के साथ काम किया.

आपने विशेषकर 21 साल पहले का हवाला दिया. कोई विशेष घटना या व्यक्ति उससे जुड़ा है क्या?

मैं इसके बारे में विस्तार से नहीं बताऊंगा. उसमें व्यक्ति विशेष का जिक्र आ जाएगा. मैं नाम नहीं लूंगा. यह आप लोगों की खोज का विषय है. कुछ इनसाइडर ने अपनी सुविधा और सुरक्षा की वजह से इसे शुरू किया. मेरे पास तो फर्स्ट हैंड एक्सपीरियंस है. पिछले साल सुशांत सिंह राजपूत की मौत के बाद इस पर विशेष चर्चा हुई. लोगों ने अपना गुस्सा जाहिर किया. मुद्दा तो पहले से चला आ रहा है. बाहरी प्रतिभाएं इन्हें झेलती और जूझती आ रही हैं. मेरे हिसाब से अंतिम निष्कर्ष यही है कि जिस दिन यह फिल्म इंडस्ट्री लोकतांत्रिक होगी और प्रतिभा के आधार पर फिल्में देगी, तभी यह इंडस्ट्री अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपना मुकाम बना पाएगी. इसके अलावा बॉक्स ऑफिस एक ऐसा विलन है, जो अभी तक जिंदा है. फिल्म पत्रकार और दर्शक भी फिल्मों की कमाई का उल्लेख करते हैं. वह अभी तक कलेक्शन से किसी फिल्म की गुणवत्ता मापते हैं.

क्या आपको नहीं लगता है कि अगर मुंबई फिल्म इंडस्ट्री का विकेंद्रीकरण हो तो यह समस्या अपने आप ढीली पड़ जाएगी या खत्म हो जाएगी? उत्तर भारत का प्रशासन और समाज इसमें रुचि लेता और फिल्म निर्माण की गतिविधियां उधर होती तो आज स्थिति अलग रहती.

विकेंद्रीकरण तभी संभव है जब डायरेक्टर और प्रोड्यूसर उत्तर भारत से आएंगे और उसे उत्तर भारत में फिल्मों की शूटिंग और प्रोडक्शन करेंगे. गौर करेंगे तो अघोषित रूप से यह प्रक्रिया आरंभ हो चुकी है. कोरोना की वजह से लोग मुंबई से खिसक रहे हैं. ऐसा लगने लगा है कि बगैर मुंबई में रहे भी फिल्में बनाई जा सकती हैं. विकेंद्रीकरण होने से फिल्म इंडस्ट्री का लॉबी और फेवरिज्म का कल्चर भी खत्म होगा.

आपको मिला यह पुरस्कार नई प्रतिभाओं के लिए दीप स्तंभ की तरह काम करता है. फिल्मों में आने के लिए संघर्षशील कलाकारों को आप क्या संदेश और मंत्र देना चाहेंगे?

मैं तो हमेशा यही कहता हूं उत्तम काम करने के लिए आप की तैयारी भी उत्तम होनी चाहिए. अपने ऊपर काम करना, अपने व्यक्तित्व और अभिनय पर काम करना तो हमारी दिनचर्या का विषय होना चाहिए. आप जो कर रहे हैं, उसे हमेशा कम न मापें. लेकिन अधिक की तलाश में रहें. हाथ में लिए काम को अपना ‘मुगलेआजम’ ही मानें. जरूरी है कि खुद को ही जांचें. किसी और की जांच और माप की परवाह न करें. वेलिडेशन और अप्रूवल के लिए किसी और की तरफ मत देखिए. अपनी कमियों को समझ कर उसे दूर कीजिए. ना तो किसी की आलोचना और ना किसी की तारीफ की परवाह कीजिए. दोनों को सुन लीजिए और अगले दिन, अगली सुबह नई सोच और एनर्जी के साथ जुट जाइये.

मनोज बाजपेयी के अनुसार अभिनय का मूल मंत्र क्या हो सकता है?

मैं हमेशा कहता हूं कि एफटीआईआई, एनएसडी या व्हीसलिंगवुड्स की शिक्षा तब तक काम नहीं आएगी, जब तक आप खुद कुछ करना शुरू नहीं करेंगे. सभी जानते हैं कि एनएसडी में मेरा एडमिशन नहीं हो पाया था. उनका सिलेबस लेकर मैं बाहर में अभ्यास करता था. यह कभी मत सोचिए कि एक्टर पढ़ता नहीं है. खूब पढ़िए. किताब ना मिले तो अखबार के सारे पन्ने पढ़ जाइए. किसी कहानी का समाचार से किरदार बनाइए और फिर कुछ किरदार के बारे में दो पृष्ठों में लिखिए. कविता पढ़िए. सुबह में वॉइस एक्सरसाईज कीजिए. आज भी सुबह उठने के बाद कुछ घंटे मेरा काम सिर्फ इन अभ्यासों में बीतता है.

अपने समाज और राज्य से क्या प्रतिक्रियाएं मिली पुरस्कार पर?

मेरे पिताजी फूले नहीं समा रहे हैं. लगातार उनके इंटरव्यू चल रहे हैं. बहुत खुश हैं वे.

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