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गांधी की दांडी यात्रा का लाइव कवरेज नहीं हुआ लेकिन मोदी की इस यात्रा को 24 घंटे चैनलों ने दिखाया

दांडी यात्रा के बहाने देश के मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बीते 12 मार्च को भारत की आज़ादी के 75 साल पूरे होने के उपलक्ष्य में बहुप्रतीक्षित जश्न का आगाज़ कर दिया. दांडी मार्च के ऐतिहासिक आंदोलन का नाट्य रूपान्तरण करते हुए 81 लोगों की संख्या का विशेष ध्यान रखा गया. इस पैरोडी में देश के पर्यटन व संस्कृति मंत्री ने भी पैदल मार्च किया. दांडी मार्च का ऐतिहासिक पथ जल्द ही पर्यटन की दृष्टि से विकसित किया जा सकता है और इसे निजी-सार्वजनिक भागीदारी के तहत डालमिया जैसे किसी सेठ को दिया जा सकता है.

मोदी जी को किसी ने ख्याल नहीं दिलाया वरना इस विशिष्ट अवसर पर एक भिन्न और स्वतंत्र मंत्रालय का गठन किया जा सकता था जिसे विनिवेश मंत्रालय के साथ समन्वय के आधार पर काम करने के लिए विशिष्ट शक्तियां दी जा सकती थीं. इसके अलावा, 2022 तक आयोजित होने वाली तमाम ऐसी पैरोडियों और नाट्य-रूपान्तरण की परियोजनाओं पर वो मंत्रालय काम कर सकता था. कोरोना और लॉकडाउन जनित आर्थिक तबाही व नागरिक स्वतन्त्रता का गंभीर असर थियेटर व नाट्यकर्मियों पर पड़ा है, लिहाजा उनका इस्तेमाल यहां किया जा सकता था. यह सस्ता भी पड़ता और रोजगार सृजन के कुछ आंकड़े भी जनरेट हो सकते थे. खैर…

खबर है कि आने वाले 75 सप्ताहों तक ऐसा ही कुछ-कुछ होता रहेगा ताकि आज़ादी की हीरक यानी डायमंड जुबली मनाते समय आज़ादी के मूल आंदोलन में न सही, लेकिन उसके नाट्य रूपान्तरण में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अत्यंत सक्रिय भूमिका का उल्लेख किया जा सके. जिन्होंने आज़ादी के आंदोलन का मूल इतिहास न पढ़ा होगा, उन आने वाली पीढ़ियों को भी यह तथ्य कंठस्थ हो जाएगा कि दांडी से लेकर स्‍वतंत्रता-प्राप्ति की आधी रात को दिये भाषण तक में मोदी जी का ही योगदान रहा है.

फिलहाल 14-15 अगस्त, 2022 की दरमियानी रात को प्रस्‍तावित कार्यक्रम का विवरण सार्वजनिक नहीं हुआ है, लेकिन आश्चर्य नहीं होना चाहिए यदि सरकार ने आधी रात को संसद खोलने बल्कि नयी संसद खोलने और जवाहर लाल नेहरू की तरह ‘नियति से मिलन’ का संदेश देने का कोई कार्यक्रम भी बनाया हो. ऐसी ही हरकतों को अलग-अलग भाषाओं में ‘इतिहास का पुनर्लेखन’ (नापाक मंशा से) कहा जाता है, जहां इतिहास खुद को दोहराते हुए विकृत और भौंडा होकर सामने आता है. उसके बाद आने वाली पीढ़ियां दांडी मार्च के बारे में कुछ इस तरह पढ़ रही होंगी-

दांडी यात्रा ऐसे तो गांधी जी ने निकाली थी लेकिन व्यापक प्रचार-प्रसार इसे तब मिला जब मोदी जी ने इसे हरी झंडी दिखलायी. उस दिन जब मोदी जी साबरमती आश्रम से दांडी मार्च को हरी झंडी दिखला रहे थे तब लोगों में भारी जोश था और कई लोग इसमें भाग लेना चाहते थे, लेकिन मोदी जी ने बहुत सोच समझ कर केवल 81 लोगों को चुना. इस यात्रा में तत्कालीन भारत सरकार के पर्यटन मंत्री ने भी भाग लिया, हालांकि उनके पास इतना समय नहीं था कि वो पूरी यात्रा में रह पाते इसलिए वह केवल यात्रा का पहला चरण पूरा करके पश्चिम बंगाल चुनावों में अपने दल का चुनाव अभियान करने के लिए रवाना हो गए. पश्चिम बंगाल में पार्टी की जीत सुनिश्चित करने के उद्देश्‍य से ही हालांकि मोदी जी को भी वहां बार-बार जाना पड़ा.

आने वाली पीढ़ियां दांडी यात्रा को इसी तरह पढ़ें और समझें, इसके लिए कई लोगों की मेहनत लगी होगी. मसलन, ‘शिक्षा बचाओ’ आंदोलन चलाने वाले एक मूर्धन्‍य इतिहासकार ने इस महान राजनैतिक परिघटना के बारे में कुछ इस तरह लिखा होगा-

किसी देश की आज़ादी का इतिहास सतत प्रवाहमान रहता है. उसे केवल तिथियों, वर्षों और व्यक्तियों में सीमित करके नहीं देखा जा सकता बल्कि उन परिघटनाओं को वर्तमान परिस्थितियों में भी देखे जाने की ज़रूरत मानवी मात्र के लिए होती है. सबसे महत्वपूर्ण बात ये भी है कि किसी परिघटना का आकलन उसकी भव्यता से भी किया जाना चाहिए. जो दांडी यात्रा महात्मा गांधी ने की थी उस समय की परिस्थितियां फिर भी देश के अनुकूल थीं और इसलिए उस यात्रा का प्रभाव भारतीय हिन्दू जन मानस पर इस तरह नहीं पड़ा जैसा 2021 में उसी तिथि को किए गए दांडी मार्च के कार्यक्रम का पड़ा. उस समय गांधी की यात्रा का कोई लाइव कवरेज नहीं हुआ लेकिन इस यात्रा को चौबीसों घंटे न्यूज़ चैनलों ने दिखलाया और पूरे देश के लोगों ने इसका सीधा प्रसारण देखा.

संघ के इकलौते विचारक ने इस घटना को इतिहास में अमर रह जाने वाली कुछ घटनाओं में से एक बताया होगा. उनके अनुसार- “राम का जन्म और लंका में राम की विजय के समकक्ष इस घटना को रखा जा सकता है. उस समय देश एक ‘व्यापारी-सरकार’ से ग्रसित था जिसे लोग पराधीनता कह रहे थे लेकिन आज देश चौतरफा विकराल परिस्थितियों से घिरा है. उस समय हिन्दू-मुसलमानों के बीच फिर भी एक भाईचारा था लेकिन आज शत्रुता के माहौल में हिन्दू जन मानस क्लांत था. और बात व्यापारी सरकार के विदेशी होने की भी थी. आज की परिस्थितियों में जब देश पुन: अपने गौरव को पा लेने के लिए हर मोर्चे पर लड़ रहा है और विशेष रूप से हिंदुओं के ऊपर मंडराते खतरे से जूझ रहा है तब ऐसे आयोजनों का महत्व कुछ और ही होता है. माननीय नरेंद्र मोदी द्वारा झंडी दिखाने के इस कार्यक्रम को इतिहास में पहले हुई दांडी यात्रा से ज़्यादा महत्व दिया जाएगा. आज की और आने वाली पीढ़ी इसी यात्रा को याद रखेंगी.”

दिल्‍ली युनिवर्सिटी से रिटायर और 2014 के बाद प्रख्यात इतिहासकार बने एक मास्‍टर ने संयुक्त रूप से लिखे एक शोध प्रबंध में यही रेखांकित किया. लेखकद्वय कहते हैं कि “आज़ादी का आंदोलन इस तरह से व्यवस्थित नहीं था क्योंकि उसमें वामी व खांग्रेसियों के साथ म्‍लेच्छों का भी दबदबा था और वो यह नहीं जानते थे कि कल क्या होगा. 2021 में परिस्थितियां बदल गईं थीं. अब यहां एक हिन्दू शासक था जो जानता था कि इतिहास में कब क्या हुआ था. इसलिए एक व्यवस्थित ढंग से कार्यक्रम संचालित हुए. अगर जन मानस पर हुए असर का आकलन करें, तो जिस तरह का मीडिया कवरेज मोदी जी के आज़ादी से जुड़े कार्यक्रमों को मिला वह दुनिया में एक मिसाल बना. पीछे हुए आज़ादी के कार्यक्रमों में हालांकि विदेशों से कुछ पत्रकार व्यक्तिगत संबंधों के कारण यहां आकर कार्यक्रमों का कवरेज करते थे लेकिन उन्हें वह प्रसिद्धि नहीं मिली जो 2021 में देखा गया.”

गोदी मीडिया से सन्यास ले चुकीं लेकिन ‘हल्‍ला बोल’ की पुरानी स्मृतियों में जी रहीं एक ऐंकरा ने इस यात्रा के बारे में अपनी आत्मकथा में कुछ इस इस तरह लिखा-

जब मैं अहमदाबाद, साबरमती आश्रम पहुंची तो देखा कि वहां तिल रखने भर जगह नहीं थी. ऐसा लग रहा था कि पूरे हिंदुस्तान की सुरक्षा व्यवस्था आज के कार्यक्रम में झोंक दी गयी हो. इसी दृश्य से अपना दिन बना दिया. मैंने तत्काल अपनी ओबी बैन को उस स्थल के एरियल शॉट लेने को बोला. हमारा कार्यक्रम लाइव जा रहा था. जब प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी इस ऐतिहासिक यात्रा का आगाज करने मंच पर पहुंचे तो देखा कि उनकी कलाई पर अक्सर बंधी रहने वाली घड़ी के बांधने का स्टाइल बदला हुआ था. मैंने अपने कैमरामैन को ज़ूम शॉट लेने को बोला ताकि इस बदले हुए स्टाइल को आज तक के दर्शकों को दिखला सकें. आज मोदी जी की कलाई घड़ी और उनके कलफ लगे लेकिन बेहद सौम्य तरीके से पहने गए आधी बांह के कुर्ते का जो प्रभाव जनता पर पड़ रहा था, मुझे अफसोस रह गया कि उसे ठीक से कवर न कर सकी. खैर, जब यात्रा शुरू हुई तो भारत माता की जय और जय श्री राम के उद्घोष के साथ मोदी-मोदी के गगनभेदी नारों ने इस यात्रा का महत्व बता दिया. हालांकि मैंने इतिहास नहीं पढ़ा लेकिन जितना गांधी की ऐसी ही एक यात्रा के बारे में सुनते रहे, मैं दावे से कह सकती हूं कि गांधी के कार्यक्रम में उन्हें जनता का ऐसा समर्थन न मिला होगा. इससे एक बात खुद मेरे लिए पुख्ता हुई कि कोई घटना ऐतिहासिक तब बनती है जब नेता डैशिंग होना चाहिए.

एक अन्‍य चैनल में इन्‍हीं की गोदीकालीन रहीं खातून ने अपने पुराने दिनों को याद करते हुए- जब उन्‍होंने बेसाख्‍ता पूछ लिया था कि आप ये सब करते कैसे हैं और मोदीजी निश्‍छल हंसी हंस दिए थे- एक साक्षात्कार में कहा, ‘’बेशक गांधी के बारे में लोगों ने पढ़ा होगा लेकिन मोदी जी को लोगों ने देखा है और यही इस पीढ़ी की सबसे बड़ी दौलत है कि मोदी जी के आज़ादी के कार्यक्रमों ने इस कदर लोगों के मन पर राज किया है.‘’

इतने महान पत्रकारों, विचारकों और इतिहासकारों का लिखा पढ़ने के बाद जब बच्चों की परीक्षा में दांडी मार्च पर सवाल आया तो उन्‍होंने जो उत्तर लिखा होगा, उसका सार नीचे प्रस्तुत है-

देश में एक जमात है जो नरेंद्र मोदी जी द्वारा किए गए आज़ादी के आंदोलन की तुलना किसी दौर में हुए गांधी के दांडी मार्च से भी करती है, लेकिन उस यात्रा के चूंकि बहुत से सबूत नहीं हैं बल्कि किंवदंतियों पर आधारित हैं इसलिए उन ब्यौरों को इतिहास में ज़रूरी प्रामाणिकता की कसौटी पर खरा नहीं उतारने के कारण निर्विवाद रूप से मोदी जी के दांडी मार्च को ही देश के लिए महत्वपूर्ण माना गया है. यह भी उल्लेखनीय है कि जिस दौर में कोई गांधी इस यात्रा का नेतृत्व कर रहे थे तब देश की परिस्थितियां इस तरह की यात्राओं के अनुकूल थीं. मुगलों और उनके वंशजों के कारण देश इस कदर आहत न हुआ था. वो अंग्रेजों के पीछे छिपे हुए थे मतलब मूल दुश्मन अंग्रेज़ ही मान लिए गए थे और यही गांधी के अनुकूल था क्योंकि अंग्रेजों को हिन्दी या गुजराती भाषा नहीं आती थी. इसलिए गांधी बहुत चालाकी से (बक़ौल अमित शाह वो एक चतुर बनिया थे) से अंग्रेजों से गुजराती या हिन्दी में कुछ बोलकर निकल जाते थे और वो उन्हें जाने भी देते थे, लेकिन मोदी जी के लिए विधि ने कुछ और ही लिखा था. इन बदली हुई परिस्थितियों में विपक्ष लगातार मोदी जी पर हमलावर रहा. उन्हें मार देने, उनके पीछे पड़े रहने, उन्हें काम न करने देने (स्रोत: नरेंद्र मोदी के भाषणों का संकलन, भाग 739) की परिस्थितियां पैदा करता रहा और चूंकि विपक्ष यहीं का था इसलिए वो हिन्दी, गुजराती जैसी भाषाएं भी जानता था और मोदी जी को कोई छूट नहीं मिल पाती थी. फिर भी ऐसी विकट परिस्थितियों में मोदी जी ने न केवल दांडी यात्रा की बल्कि 15 अगस्त 2022 तक लगातार कुछ न कुछ करते रहे और जोखिम उठाते रहे.

मोदीजी की दांडी यात्रा के दौरान तत्‍कालीन भाजपा आइटी सेल प्रमुख का भविष्य में एक ट्वीट- इतिहास के पुनर्लेखन के इस महती उद्यम में मोदी जी की सूझ-बूझ और उनका नेतृत्व कौशल हमारे लिए प्रेरणादायी है. तमाम विश्‍वविद्यालयों के माध्यम से इस पुनर्लेखन को ही वास्तविक इतिहास बनाकर ठेलना है ताकि देश में गांधी का नामलेवा कोई न बचे.

तो ये रहा एक मुख्‍तसर सा जायजा हाल ही में सम्पन्न हुए दांडी मार्च का और उसके दूरगामी असरात का. जाहिर है, अभी तक ऐसा लिखा नहीं गया लेकिन आज के शिक्षक, विचारक, इतिहासकार और पत्रकार कल को लिखेंगे तो इससे क्या अलग लिखेंगे. हालांकि उन्हें इससे क्लू मिल सकता है इसलिए अगर यह मजमून उनके किसी काम आता है तो वे धन्यवाद भी कह सकते हैं.

(साभार- जनपथ)

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