Pakshakarita
‘’आत्मनिर्भरता’’ के विविध रंग: किसान, पत्रकार, अखबार और आम इंसान
बहुत पुरानी कहानी है सोने के अंडे देने वाली मुर्गी की, जो हमने बचपन से सुनी है. एक लालची आदमी सारे सोने के अंडे एक साथ पाने के लिए मुर्गी का पेट फाड़ देता है. फिर कभी उसे सोने का क्या, खाने वाला सफेद अंडा भी नहीं मिल पाता. इस कहानी का प्रकट मूल्य हमें यह बताया जाता रहा है कि लालच बुरी बला है. पुरानी पारंपरिक कथाओं में हालांकि कुछ मूल्य छुपे भी होते थे, जो तत्काल उजागर नहीं हो पाते थे. मसलन, अंडा सोने का हो या सामान्य, उसका होना मुर्गी पर निर्भर है. मुर्गी के बगैर आप अंडे की कल्पना नहीं कर सकते. निर्भरता यहां एक मूल्य है. यह बाहरी नहीं, अंतर्निहित है. अन्योन्य सम्बंध है अंडे और मुर्गी का.
ठीक वैसे ही, एक बच्चा जवान होकर अपने पैरों पर खड़ा होने तक माता-पिता पर निर्भर रहता है. यह निर्भरता अंतर्निहित है. उसी तरह बुजुर्ग माता-पिता अपने बच्चों पर निर्भर होते हैं. यह भी कोई बाहर से थोपी हुई निर्भरता नहीं है. परिवार नामक समाज की सबसे छोटी इकाई ऐसी निर्भरताओं से ही बनती है. इसके आगे उत्पादन और सहकार के सम्बंधों से पैदा होने वाली निर्भरता होती है. इससे समाज बनता है. यही समाज एक नागरिक समुदाय के रास्ते होते हुए राष्ट्र बनने तक पहुंचता है. राष्ट्रों की परस्पर निर्भरता एक विश्व समुदाय का निर्माण करती है.
फर्ज़ करें कि राष्ट्र के शीर्ष पर एक ऐसा व्यक्ति बैठा है जिसे किसी परिवार या समाज की दरकार नहीं है. इसलिए उसे बार-बार ऐसा लगता है कि वह किसी पर निर्भर नहीं है. उसे एक गिलास पानी चाहिए तो वह खुद ले सकता है. वास्तव में उसे लेना पड़ता है, क्योंकि देने वाला कोई नहीं है. उसकी निजी व सार्वजनिक असम्पृक्तता से पैदा हुई उसकी कथित आत्मनिर्भरता उसे ऐसे में एक मूल्य जान पड़ती है. इस मूल्य को वह एक सामान्य गुण समझता है, जो सबमें होना चाहिए. उसके अनुयायी वही समझते हैं जो वह उन्हें समझाना चाहता है.
ऐसी ही व्यापक सहमतियों के रास्ते आत्मनिर्भरता एक राष्ट्रीय कार्यक्रम में तब्दील हो जाती है. फिर बजट हो, महामारी का टीका हो, स्वास्थ्य हो, शिक्षा हो, रोजगार हो, आजीविका हो, हर क्षेत्र में यह राष्ट्रीय कार्यक्रम केंद्रीय नारा बन जाता है. चूंकि आत्मनिर्भरता से एक ध्वनि स्वतंत्रता की भी निकलती है, लिहाजा यह शब्द समाज के बीच जाकर अलग-अलग अर्थछवियां ग्रहण कर लेता है. निर्भरता, गुलामी का पर्याय बन जाती है. आत्मनिर्भरता, आज़ादी का पर्याय. इस तरह समाज को आदिम युग से जोड़ते आया निर्भरता का मूल्य नकारात्मक होकर दरक जाता है. आत्मनिर्भरता के पैरोकारों को इसकी भनक तक नहीं लगती क्योंकि वे हिंदी के अखबार नहीं पढ़ते.
आइए, इस पखवाड़े आम इंसान में उभरती आत्मनिर्भरता की कुछ छवियां हिंदी के अखबारों के आईने में देखें. केवल इसलिए नहीं कि 2021-22 के बजट का मूलमंत्र आत्मनिर्भरता है. इसलिए भी क्योंकि काफी सोच-समझ कर ऑक्सफर्ड डिक्शनरी वालों ने 2020 का शब्द ‘आत्मनिर्भरता’ को चुना है. यह सुनने में अच्छा लगता है. अपने समाज में इसका अक्स देखने में शायद बुरा लगे.
निर्भरता की नकारात्मकता: कुछ स्थानीय सुर्खियां
दो दिन पहले उत्तर प्रदेश के बलरामपुर में एक जवान लड़के ने अपने बाप के खेत से दो पत्तागोभी तोड़ ली थीं. बाप ने इस पर डांट दिया. लड़के ने लाठी-डंडे से पीट कर मां-बाप को मार दिया. ख़बर सभी स्थानीय अख़बारों में है. लड़का दो पत्तागोभी के लिए बाप के खेत पर निर्भर था, सो बाप का डांटना उसे नागवार गुज़रा. इस उम्मीद में कि अब सारा खेत उसका होगा, वह आत्मनिर्भर होगा, उसने हत्या कर डाली.
दो महीने पहले की बात है. झारखंड के रामगढ़ जिले की कहानी है. 35 साल का एक बेरोज़गार युवक अपने बाप की कमाई पर निर्भर था. पिता सेंट्रल कोलफील्ड लिमिटेड में कार्यरत थे. लड़के को अपनी गुलामी नहीं रास आयी. उसे ख़बर थी कि कर्मचारी की मौत के बाद उसके आश्रित को अनुकम्पा के आधार पर नौकरी मिलती है. फिर एक दिन उसने आत्मनिर्भर बनने की ठान ली और अनुकम्पा के आधार पर नौकरी पाने के लिए अपने पिता की हत्या कर दी.
पिछला पखवाड़ा शुरू हुआ ही था कि 17 जनवरी को बैतूल से एक खबर आयी- एक लड़की ने अपने पिता की इसलिए हत्या कर दी क्योंकि उसका पितृत्व किसी लड़के से उसके बात करने में खलल डाल रहा था. इसी बीच मेरठ के सरधना में एक मोबाइल नहीं दिलाए जाने से ख़फ़ा एक लड़के ने अपनी सौतेली मां की हत्या कर दी. जनवरी के आखिरी हफ्ते में छत्तीसगढ़ के बिलासपुर में मोबाइल छुपा लिए जाने पर एक लड़की ने अपने पिता की हत्या कर दी और शव घर को बाहर दफ़ना दिया.
ये तमाम ख़बरें राज्यों की राजधानी तक या दिल्ली तक नहीं पहुंच पाती हैं. इसलिए महानगरों में बैठ कर हिंदी अखबारों को पढ़े बिना इन्हें नहीं जाना जा सकता. क्राइम बीट, जो किसी अखबारी संस्थान में सबसे हेय दृष्टि से देखी जाती है, वो वास्तव में बदलते हुए समाज का आईना होती है लेकिन अपने यहां मामला ठीक उलटा है. इसलिए आत्मनिर्भर भारत की ये विविध छवियां हम नहीं देख पाते, जहां जनसामान्य की आत्मनिर्भरता पत्तागोभी तोड़ने से लेकर मोबाइल पर बात करने तक फैली हुई है. इसके लिए वे निर्भरताओं का गला काटने से गुरेज़ नहीं करते.
समाचार लेखन में आत्मनिर्भरता का प्रदर्शन
यह बात सत्ता शीर्ष को शायद कभी न समझ आए कि उसके नारे सबसे निचले स्तर पर कैसे काम करते हैं. वैसे, राज्य मुख्यालयों और महानगरों से छपने वाले हिंदी अखबारों के संस्करणों में भी आत्मनिर्भरता के उदाहरण कम नहीं हैं. हां, ये ठोस घटनाओं पर आधारित नहीं होते बल्कि समाचार लेखन की कलाकारी का मामला इसमें ज्यादा होता है. पिछले पखवाड़े की ऐसी कुछ अहम सुर्खियां देखें:
आधे से ज्यादा गर्भवती महिलाएं आंगनवाड़ी केंद्र नहीं जा रही हैं, तो क्या ज़रूरी है कि यह मान लिया जाय कि ये महिलाएं आत्मनिर्भर हो चुकी हैं? यह खबर दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण की है और दिल्ली से है. नेट पर मिल जाएगी. एक सहज सवाल पूछा जाना चाहिए कि रिपोर्टर को आंगनबाड़ी केंद्रों की अव्यवस्था पर खबर करनी थी या महिलाओं के वहां न जाने की दर पर? इसे कहते हैं खबर लिखने की कलाकारी.
जब खबर लिखने वाला कलाकारी करे तो नेता क्यों पीछे रहे? बंगाल में कोरोना की वैक्सीन पहुंची तो सरकार पर निर्भरता और अपनी बारी का इंतज़ार कोई विधायक क्यों करता? उसने सबसे पहले खुद को ही टीका लगावा लिया. बात खत्म.
स्टार्ट अप इंडिया नये उद्यमियों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए नरेंद्र मोदी का फ्लैगशिप प्रोजेक्ट था. इसके लिए इस बार बजट में हजार करोड़ का सीड फंड दिया गया है. यह खबर सभी अखबारों में प्रमुखता से छपी है. किसी ने सवाल नहीं उठाया कि 2019 के मुकाबले 2020 में बने स्टार्ट-अप में 45 फीसद की गिरावट क्यों आयी? प्रोजेक्शन है कि 2020 में खुले 75 फीसद स्टार्ट-अप अगले 12 महीने में बंद होने जा रहे हैं. औसत आंकड़ा यह है कि हर पांच में से चार स्टार्ट-अप अपने खुलने के पांच साल के भीतर भारत में बंद हो जाते हैं.
क्या इनके बंद होने के पीछे केवल पूंजी की कमी कारण है? हिंदी अखबार ऐसे सवाल पूछना बहुत पहले भूल चुके हैं.
बहरहाल, बात बजट की है तो आइए एक उद्घाटन करते चलें. हिंदी के सभी अखबारों में मोटे तौर पर बजट की कवरेज एक जैसी रही. उसकी वजह दिलचस्प है. कवरेज के लिए रिपोर्टरों और डेस्क को प्रतिक्रिया लेने हेतु जो बिंदु भेजे गये थे, वे भी एक ही थे. नीचे लिस्ट देखिए:
‘’प्रतिक्रिया लेने वाले बजट के कुछ खास आकर्षण...’’
-पेंशन से कमाई तो 75 प्लस के बुजुर्ग को आयकर रिटर्न भरने से राहत
-75 साल से ऊपर वाले को टैक्स नहीं देना होगा- आयकर स्लैब में बदलाव नहीं, मिडल क्लास को राहत नहीं
-मोबाइल उपकरण पर ड्यूटी टैक्स बढ़ाकर 2.5 फीसद यानी मोबाइल फोन व चार्जर आदि की कीमतें बढ़ेंगी
-सोना-चांदी पर कस्टम ड्यूटी घटकर 12.5 फीसद यानी ये सस्ते होंगे
-कॉपर पर ड्यूटी घटकर 2.5 फीसद
-स्टील पर ड्यूटी घटकर 7.5 फीसद
-चुनिंदा आटो पार्ट्स पर ड्यूटी बढ़कर 15 फीसद
-कॉटन पर कस्टम ड्यूटी बढ़कर 10 फीसद
-अफोर्डेबल हाउसिंग और स्टार्ट-अप में छूट एक साल बढ़ी
ये सभी बिंदु प्रधानमंत्री के आत्मनिर्भर भारत अभियान का हिस्सा हैं. इन्हीं को कवर करने के लिए संपादकों ने अपने रिपोर्टरों से कहा. रिपोर्टरों ने वही किया. संपादकों के पास ये बिंदु कहां से आये, इसका केवल अंदाजा लगाया जा सकता है. अकेले हिंदुस्तान में रोशन किशोर का विश्लेषण अलहदा था, वो भी इसलिए कि वह मिंट से अनुवाद था.
दो खास खबरें
आत्मनिर्भरता के नाम पर अभियान तो वैसे हर भाजपा शासित राज्य में चल रहे हैं, लेकिन पिछले पखवाड़े छपी दो खबरों का जिक्र अलग से करना ज़रूरी लगता है. एक बिहार से है और दूसरी कांग्रेस शासित छत्तीसगढ़ से.
बिहार का दैनिक हिंदुस्तान खुशी-खुशी ऐलान करता है कि सरकारी स्कूलों से 40 लाख बच्चे कम हो गये हैं. अखबार लिखता है कि शिक्षा के प्रति सजगता और पैसे होने के कारण निम्न मध्यवर्ग के लोग भी अब अपने बच्चों को निजी स्कूलों में भेज रहे हैं. दूसरा कारण, सरकारी स्कूल 4 बजे तक होते हैं जबकि निजी स्कूलों में 2 बजे छुट्टी हो जाती है. तीसरा कारण डुप्लिकेसी का रुकना है. खबर देखिए:
खबर में दो प्रतिक्रियाएं हैं. दोनों ही सरकारी स्कूल में संख्या घटने को सकारात्मक बताती हैं. इनमें एक सज्जन प्रधान सचिव, शिक्षा विभाग, श्री संजय कुमार हैं. क्या ही विडम्बना है कि संजय कुमार खुद सरकारी नौकर हैं लेकिन इस बात से खुश हैं कि सरकारी स्कूल के ऊपर जनता की निर्भरता कम हो गयी है और लोग आत्मनिर्भर हो रहे हैं.
यहां खबर लेखन की कलाकारी तो साफ़ दिखती ही है लेकिन नीतिगत स्तर पर सार्वजनिक सेवाओं और कल्याणकारी राज्य की अवधारणा के लिए एक नफ़रत भी साफ़ झलकती है. ऐसा लगता है कि बिहार के शिक्षा विभाग ने ही अकेले प्रधानमंत्री के नारे का मर्म समझा है.
छत्तीसगढ़ में ये कहानी एक अलग ही आयाम ले लेती है क्योंकि वहां बच्चों की नहीं, किसानों की बात है जो दो महीने से ज्यादा वक्त से दिल्ली की सरहदों पर डेरा डाले हुए हैं. पहले खबर देखिए:
अब छत्तीसगढ़ के किसान खुद का कल्याण करेंगे, खबर का शीर्षक ये कहता है. 13 साल पहले किसानों के कल्याण के लिए एक परिषद बनायी गयी थी. खबर के अनुसार अब तक राज्य कृषक कल्याण परिषद किसानों का कुछ खास कल्याण नहीं कर पायी है. फिर अब क्या नया हो गया जो किसान खुद अपना कल्याण कर लेगा? खबर के मुताबिक भूपेश बघेल की सरकार ने इसका पुनर्गठन कर दिया है. गोया बस इसी की देरी थी, अब तो किसान आत्मनिर्भर हो ही जाएगा!
आत्मनिर्भर पत्रकार का क्या होगा?
किसानों के आत्मनिर्भर होने की हालांकि एक ही शर्त है: जैसे सरकार चाहेगी वैसे उसे आत्मनिर्भर होना पड़ेगा. अपने तरीके से आत्मनिर्भर हुए तो वही होगा जो दिल्ली में 26 जनवरी को हुआ और अखबारों को ऐसी आत्मनिर्भरता कतई पसंद नहीं आएगी. फिर वही छपेगा, जो सब अखबारों में 27 जनवरी की सुबह छपा. किसानों की आत्मनिर्भरता अखबारों के लेख आतंकवाद है, अराजकता है, गुंडई है. विश्वास न हो तो दैनिक जागरण के वरिष्ठ संपादक राजीव सचान का लेख देखिए- बाकायदे शीर्षक में गुंडागर्दी लिखा है. ये बात अलग है कि सचान खुद आत्मनिर्भर कभी नहीं रहे पत्रकारिता के मामले में, वे पूरी तरह अपने मालिकान पर ही निर्भर हैं.
कुछ पुराने वामपंथियों की आत्मा भी 26 की घटना पर चीत्कार कर गयी. पुलिसवाले से कुलपति बनकर रिटायर हुए विभूति नारायण राय ने तो जल्दबाजी में सीधे लिख मारा कि किसान आंदोलन का यही ‘’हश्र’’ होना था. बमुश्किल दस दिन हुआ है उन्हें यह ‘हश्र’ दिखाए. अब, जबकि यूपी से लेकर हरियाणा और मध्यप्रदेश तक महापंचायतें हो रही हैं, वे अपने शब्द वापस नहीं ले सकते क्योंकि एक बार छपा हुआ शब्द वापस नहीं होता. इसीलिए शायद नामवर जी कहते थे- बोलने से ज़बान नहीं कटती, लिखने से हाथ कट जाता है!
इस मामले में विशेष रूप से नवभारत टाइम्स का जि़क्र किया जाना होगा जो आंतरिक और बाहरी सेंसरशिप के इस ख़तरनाक दौर में अपने एडिट पेज पर इलाहाबाद के पुराने और जुझारू माले नेता लालबहादुर सिंह का उत्साहवर्द्धक लेख लीड पीस के रूप में छाप देता है. अब, अखबार भले कारोबार हो गये हों लेकिन पन्ना प्रभारी की छाप तो दिखती ही है पन्ने पर. पिछले दिनों अरब स्प्रिंग की विफलता पर इसी पन्ने पर चंद्रभूषण जी का लेख पठनीय रहा. वे नभाटा के संपादकीय प्रभारी हैं. इस किसान आंदोलन के दौरान उन्होंने नभाटा के संपादकीय पन्ने को जिस तरह संभाले रखा है, यह पत्रकारीय आत्मनिर्भरता की एक छोटी सही, लेकिन नोट करने लायक बात है.
पत्रकार का आत्मनिर्भर होना इस दौर में सबसे जोखिम भरी परिघटना है. कितने अफ़सोस की बात है कि 30 जनवरी की शाम दिल्ली के सिंघु बॉर्डर से मनदीप पुनिया और धर्मेंद्र सिंह की गिरफ्तारी को हिंदी के अखबारों ने कवर नहीं किया. धर्मेंद्र सिंह पूर्णत: आत्मनिर्भर हैं, अपना यूट्यूब चैनल चलाते हैं. आत्मनिर्भर मनदीप भी हैं, लेकिन उनकी अपनी दुकान नहीं है. वे 26 नवंबर के पहले से ही जनपथ डॉट कॉम के लिए किसान आंदोलन को नियमित कवर कर रहे थे और इस बीच उन्होंने अंग्रेजी की पत्रिका दि कारवां में दो स्टोरी लिखी थीं.
पत्रकारों के लिए आत्मनिर्भरता कितनी बुरी शै है, इसका अंदाजा इस बात से लगाइए कि जब अदालत में मनदीप से प्रेस कार्ड मांगा गया तो वे कुछ नहीं दिखा सके. जनपथ खुद ऐसा आत्मनिर्भर मंच है कि 10 साल से बेरोज़गार उसके संचालक के पास अपना खुद का प्रेस कार्ड नहीं है, तो वो मनदीप की ओनरशिप लेने क्या खाकर आते? फिर आनन-फानन में दि कारवां ने एक चिट्ठी जारी की कंट्रीब्यूटर की, जिसे अदालत में पूरी तरह कारगर नहीं माना गया. अंतत:, इंडिया टुडे ग्रुप से मनदीप को दो साल पहले मिला रिटेनरशिप वाला पुराना अस्थायी कार्ड खोजा गया. अस्तु, किसी तरह ज़मानत हुई.
अगर आपको लगता है कि मामला केवल एक अदद प्रेस कार्ड तक सीमित है तो न्यूज़लॉन्ड्री की रिपोर्टर निधि सुरेश के अनुभव आपके काम के हैं. उन्हें सिंघु बॉर्डर पर किसानों के बीच जाने से इसलिए रोका गया क्योंकि उनके पास ‘’राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त’’ प्रेस कार्ड नहीं था! अब ये “राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त” क्या बला है भला?
जैसा मैंने पहले कहा, सरकार को वैसे ही आत्मनिर्भर किसान पसंद हैं जो उसके तरीके से आत्मनिर्भर हों. इस लिहाज से राष्ट्रीय और मान्यता प्राप्त पत्रकार का सीधा मतलब है कि आप निर्भर पत्रकार हों या आत्मनिर्भर, दोनों ही स्थितियों में आपको सरकार के हिसाब से निर्भर या आत्मनिर्भर होना होगा. क्या समझे?
नरेंद्र मोदी का आत्मनिर्भर भारत अभियान अपने मूल में मोदी-निर्भर अभियान है जहां आत्मनिर्भरता को मोदी सरकार से मान्यता प्राप्त होना पड़ेगा. ऐसे ही नहीं इस देश में कोई भी आत्मनिर्भर हो जाएगा!
बहुत पुरानी कहानी है सोने के अंडे देने वाली मुर्गी की, जो हमने बचपन से सुनी है. एक लालची आदमी सारे सोने के अंडे एक साथ पाने के लिए मुर्गी का पेट फाड़ देता है. फिर कभी उसे सोने का क्या, खाने वाला सफेद अंडा भी नहीं मिल पाता. इस कहानी का प्रकट मूल्य हमें यह बताया जाता रहा है कि लालच बुरी बला है. पुरानी पारंपरिक कथाओं में हालांकि कुछ मूल्य छुपे भी होते थे, जो तत्काल उजागर नहीं हो पाते थे. मसलन, अंडा सोने का हो या सामान्य, उसका होना मुर्गी पर निर्भर है. मुर्गी के बगैर आप अंडे की कल्पना नहीं कर सकते. निर्भरता यहां एक मूल्य है. यह बाहरी नहीं, अंतर्निहित है. अन्योन्य सम्बंध है अंडे और मुर्गी का.
ठीक वैसे ही, एक बच्चा जवान होकर अपने पैरों पर खड़ा होने तक माता-पिता पर निर्भर रहता है. यह निर्भरता अंतर्निहित है. उसी तरह बुजुर्ग माता-पिता अपने बच्चों पर निर्भर होते हैं. यह भी कोई बाहर से थोपी हुई निर्भरता नहीं है. परिवार नामक समाज की सबसे छोटी इकाई ऐसी निर्भरताओं से ही बनती है. इसके आगे उत्पादन और सहकार के सम्बंधों से पैदा होने वाली निर्भरता होती है. इससे समाज बनता है. यही समाज एक नागरिक समुदाय के रास्ते होते हुए राष्ट्र बनने तक पहुंचता है. राष्ट्रों की परस्पर निर्भरता एक विश्व समुदाय का निर्माण करती है.
फर्ज़ करें कि राष्ट्र के शीर्ष पर एक ऐसा व्यक्ति बैठा है जिसे किसी परिवार या समाज की दरकार नहीं है. इसलिए उसे बार-बार ऐसा लगता है कि वह किसी पर निर्भर नहीं है. उसे एक गिलास पानी चाहिए तो वह खुद ले सकता है. वास्तव में उसे लेना पड़ता है, क्योंकि देने वाला कोई नहीं है. उसकी निजी व सार्वजनिक असम्पृक्तता से पैदा हुई उसकी कथित आत्मनिर्भरता उसे ऐसे में एक मूल्य जान पड़ती है. इस मूल्य को वह एक सामान्य गुण समझता है, जो सबमें होना चाहिए. उसके अनुयायी वही समझते हैं जो वह उन्हें समझाना चाहता है.
ऐसी ही व्यापक सहमतियों के रास्ते आत्मनिर्भरता एक राष्ट्रीय कार्यक्रम में तब्दील हो जाती है. फिर बजट हो, महामारी का टीका हो, स्वास्थ्य हो, शिक्षा हो, रोजगार हो, आजीविका हो, हर क्षेत्र में यह राष्ट्रीय कार्यक्रम केंद्रीय नारा बन जाता है. चूंकि आत्मनिर्भरता से एक ध्वनि स्वतंत्रता की भी निकलती है, लिहाजा यह शब्द समाज के बीच जाकर अलग-अलग अर्थछवियां ग्रहण कर लेता है. निर्भरता, गुलामी का पर्याय बन जाती है. आत्मनिर्भरता, आज़ादी का पर्याय. इस तरह समाज को आदिम युग से जोड़ते आया निर्भरता का मूल्य नकारात्मक होकर दरक जाता है. आत्मनिर्भरता के पैरोकारों को इसकी भनक तक नहीं लगती क्योंकि वे हिंदी के अखबार नहीं पढ़ते.
आइए, इस पखवाड़े आम इंसान में उभरती आत्मनिर्भरता की कुछ छवियां हिंदी के अखबारों के आईने में देखें. केवल इसलिए नहीं कि 2021-22 के बजट का मूलमंत्र आत्मनिर्भरता है. इसलिए भी क्योंकि काफी सोच-समझ कर ऑक्सफर्ड डिक्शनरी वालों ने 2020 का शब्द ‘आत्मनिर्भरता’ को चुना है. यह सुनने में अच्छा लगता है. अपने समाज में इसका अक्स देखने में शायद बुरा लगे.
निर्भरता की नकारात्मकता: कुछ स्थानीय सुर्खियां
दो दिन पहले उत्तर प्रदेश के बलरामपुर में एक जवान लड़के ने अपने बाप के खेत से दो पत्तागोभी तोड़ ली थीं. बाप ने इस पर डांट दिया. लड़के ने लाठी-डंडे से पीट कर मां-बाप को मार दिया. ख़बर सभी स्थानीय अख़बारों में है. लड़का दो पत्तागोभी के लिए बाप के खेत पर निर्भर था, सो बाप का डांटना उसे नागवार गुज़रा. इस उम्मीद में कि अब सारा खेत उसका होगा, वह आत्मनिर्भर होगा, उसने हत्या कर डाली.
दो महीने पहले की बात है. झारखंड के रामगढ़ जिले की कहानी है. 35 साल का एक बेरोज़गार युवक अपने बाप की कमाई पर निर्भर था. पिता सेंट्रल कोलफील्ड लिमिटेड में कार्यरत थे. लड़के को अपनी गुलामी नहीं रास आयी. उसे ख़बर थी कि कर्मचारी की मौत के बाद उसके आश्रित को अनुकम्पा के आधार पर नौकरी मिलती है. फिर एक दिन उसने आत्मनिर्भर बनने की ठान ली और अनुकम्पा के आधार पर नौकरी पाने के लिए अपने पिता की हत्या कर दी.
पिछला पखवाड़ा शुरू हुआ ही था कि 17 जनवरी को बैतूल से एक खबर आयी- एक लड़की ने अपने पिता की इसलिए हत्या कर दी क्योंकि उसका पितृत्व किसी लड़के से उसके बात करने में खलल डाल रहा था. इसी बीच मेरठ के सरधना में एक मोबाइल नहीं दिलाए जाने से ख़फ़ा एक लड़के ने अपनी सौतेली मां की हत्या कर दी. जनवरी के आखिरी हफ्ते में छत्तीसगढ़ के बिलासपुर में मोबाइल छुपा लिए जाने पर एक लड़की ने अपने पिता की हत्या कर दी और शव घर को बाहर दफ़ना दिया.
ये तमाम ख़बरें राज्यों की राजधानी तक या दिल्ली तक नहीं पहुंच पाती हैं. इसलिए महानगरों में बैठ कर हिंदी अखबारों को पढ़े बिना इन्हें नहीं जाना जा सकता. क्राइम बीट, जो किसी अखबारी संस्थान में सबसे हेय दृष्टि से देखी जाती है, वो वास्तव में बदलते हुए समाज का आईना होती है लेकिन अपने यहां मामला ठीक उलटा है. इसलिए आत्मनिर्भर भारत की ये विविध छवियां हम नहीं देख पाते, जहां जनसामान्य की आत्मनिर्भरता पत्तागोभी तोड़ने से लेकर मोबाइल पर बात करने तक फैली हुई है. इसके लिए वे निर्भरताओं का गला काटने से गुरेज़ नहीं करते.
समाचार लेखन में आत्मनिर्भरता का प्रदर्शन
यह बात सत्ता शीर्ष को शायद कभी न समझ आए कि उसके नारे सबसे निचले स्तर पर कैसे काम करते हैं. वैसे, राज्य मुख्यालयों और महानगरों से छपने वाले हिंदी अखबारों के संस्करणों में भी आत्मनिर्भरता के उदाहरण कम नहीं हैं. हां, ये ठोस घटनाओं पर आधारित नहीं होते बल्कि समाचार लेखन की कलाकारी का मामला इसमें ज्यादा होता है. पिछले पखवाड़े की ऐसी कुछ अहम सुर्खियां देखें:
आधे से ज्यादा गर्भवती महिलाएं आंगनवाड़ी केंद्र नहीं जा रही हैं, तो क्या ज़रूरी है कि यह मान लिया जाय कि ये महिलाएं आत्मनिर्भर हो चुकी हैं? यह खबर दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण की है और दिल्ली से है. नेट पर मिल जाएगी. एक सहज सवाल पूछा जाना चाहिए कि रिपोर्टर को आंगनबाड़ी केंद्रों की अव्यवस्था पर खबर करनी थी या महिलाओं के वहां न जाने की दर पर? इसे कहते हैं खबर लिखने की कलाकारी.
जब खबर लिखने वाला कलाकारी करे तो नेता क्यों पीछे रहे? बंगाल में कोरोना की वैक्सीन पहुंची तो सरकार पर निर्भरता और अपनी बारी का इंतज़ार कोई विधायक क्यों करता? उसने सबसे पहले खुद को ही टीका लगावा लिया. बात खत्म.
स्टार्ट अप इंडिया नये उद्यमियों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए नरेंद्र मोदी का फ्लैगशिप प्रोजेक्ट था. इसके लिए इस बार बजट में हजार करोड़ का सीड फंड दिया गया है. यह खबर सभी अखबारों में प्रमुखता से छपी है. किसी ने सवाल नहीं उठाया कि 2019 के मुकाबले 2020 में बने स्टार्ट-अप में 45 फीसद की गिरावट क्यों आयी? प्रोजेक्शन है कि 2020 में खुले 75 फीसद स्टार्ट-अप अगले 12 महीने में बंद होने जा रहे हैं. औसत आंकड़ा यह है कि हर पांच में से चार स्टार्ट-अप अपने खुलने के पांच साल के भीतर भारत में बंद हो जाते हैं.
क्या इनके बंद होने के पीछे केवल पूंजी की कमी कारण है? हिंदी अखबार ऐसे सवाल पूछना बहुत पहले भूल चुके हैं.
बहरहाल, बात बजट की है तो आइए एक उद्घाटन करते चलें. हिंदी के सभी अखबारों में मोटे तौर पर बजट की कवरेज एक जैसी रही. उसकी वजह दिलचस्प है. कवरेज के लिए रिपोर्टरों और डेस्क को प्रतिक्रिया लेने हेतु जो बिंदु भेजे गये थे, वे भी एक ही थे. नीचे लिस्ट देखिए:
‘’प्रतिक्रिया लेने वाले बजट के कुछ खास आकर्षण...’’
-पेंशन से कमाई तो 75 प्लस के बुजुर्ग को आयकर रिटर्न भरने से राहत
-75 साल से ऊपर वाले को टैक्स नहीं देना होगा- आयकर स्लैब में बदलाव नहीं, मिडल क्लास को राहत नहीं
-मोबाइल उपकरण पर ड्यूटी टैक्स बढ़ाकर 2.5 फीसद यानी मोबाइल फोन व चार्जर आदि की कीमतें बढ़ेंगी
-सोना-चांदी पर कस्टम ड्यूटी घटकर 12.5 फीसद यानी ये सस्ते होंगे
-कॉपर पर ड्यूटी घटकर 2.5 फीसद
-स्टील पर ड्यूटी घटकर 7.5 फीसद
-चुनिंदा आटो पार्ट्स पर ड्यूटी बढ़कर 15 फीसद
-कॉटन पर कस्टम ड्यूटी बढ़कर 10 फीसद
-अफोर्डेबल हाउसिंग और स्टार्ट-अप में छूट एक साल बढ़ी
ये सभी बिंदु प्रधानमंत्री के आत्मनिर्भर भारत अभियान का हिस्सा हैं. इन्हीं को कवर करने के लिए संपादकों ने अपने रिपोर्टरों से कहा. रिपोर्टरों ने वही किया. संपादकों के पास ये बिंदु कहां से आये, इसका केवल अंदाजा लगाया जा सकता है. अकेले हिंदुस्तान में रोशन किशोर का विश्लेषण अलहदा था, वो भी इसलिए कि वह मिंट से अनुवाद था.
दो खास खबरें
आत्मनिर्भरता के नाम पर अभियान तो वैसे हर भाजपा शासित राज्य में चल रहे हैं, लेकिन पिछले पखवाड़े छपी दो खबरों का जिक्र अलग से करना ज़रूरी लगता है. एक बिहार से है और दूसरी कांग्रेस शासित छत्तीसगढ़ से.
बिहार का दैनिक हिंदुस्तान खुशी-खुशी ऐलान करता है कि सरकारी स्कूलों से 40 लाख बच्चे कम हो गये हैं. अखबार लिखता है कि शिक्षा के प्रति सजगता और पैसे होने के कारण निम्न मध्यवर्ग के लोग भी अब अपने बच्चों को निजी स्कूलों में भेज रहे हैं. दूसरा कारण, सरकारी स्कूल 4 बजे तक होते हैं जबकि निजी स्कूलों में 2 बजे छुट्टी हो जाती है. तीसरा कारण डुप्लिकेसी का रुकना है. खबर देखिए:
खबर में दो प्रतिक्रियाएं हैं. दोनों ही सरकारी स्कूल में संख्या घटने को सकारात्मक बताती हैं. इनमें एक सज्जन प्रधान सचिव, शिक्षा विभाग, श्री संजय कुमार हैं. क्या ही विडम्बना है कि संजय कुमार खुद सरकारी नौकर हैं लेकिन इस बात से खुश हैं कि सरकारी स्कूल के ऊपर जनता की निर्भरता कम हो गयी है और लोग आत्मनिर्भर हो रहे हैं.
यहां खबर लेखन की कलाकारी तो साफ़ दिखती ही है लेकिन नीतिगत स्तर पर सार्वजनिक सेवाओं और कल्याणकारी राज्य की अवधारणा के लिए एक नफ़रत भी साफ़ झलकती है. ऐसा लगता है कि बिहार के शिक्षा विभाग ने ही अकेले प्रधानमंत्री के नारे का मर्म समझा है.
छत्तीसगढ़ में ये कहानी एक अलग ही आयाम ले लेती है क्योंकि वहां बच्चों की नहीं, किसानों की बात है जो दो महीने से ज्यादा वक्त से दिल्ली की सरहदों पर डेरा डाले हुए हैं. पहले खबर देखिए:
अब छत्तीसगढ़ के किसान खुद का कल्याण करेंगे, खबर का शीर्षक ये कहता है. 13 साल पहले किसानों के कल्याण के लिए एक परिषद बनायी गयी थी. खबर के अनुसार अब तक राज्य कृषक कल्याण परिषद किसानों का कुछ खास कल्याण नहीं कर पायी है. फिर अब क्या नया हो गया जो किसान खुद अपना कल्याण कर लेगा? खबर के मुताबिक भूपेश बघेल की सरकार ने इसका पुनर्गठन कर दिया है. गोया बस इसी की देरी थी, अब तो किसान आत्मनिर्भर हो ही जाएगा!
आत्मनिर्भर पत्रकार का क्या होगा?
किसानों के आत्मनिर्भर होने की हालांकि एक ही शर्त है: जैसे सरकार चाहेगी वैसे उसे आत्मनिर्भर होना पड़ेगा. अपने तरीके से आत्मनिर्भर हुए तो वही होगा जो दिल्ली में 26 जनवरी को हुआ और अखबारों को ऐसी आत्मनिर्भरता कतई पसंद नहीं आएगी. फिर वही छपेगा, जो सब अखबारों में 27 जनवरी की सुबह छपा. किसानों की आत्मनिर्भरता अखबारों के लेख आतंकवाद है, अराजकता है, गुंडई है. विश्वास न हो तो दैनिक जागरण के वरिष्ठ संपादक राजीव सचान का लेख देखिए- बाकायदे शीर्षक में गुंडागर्दी लिखा है. ये बात अलग है कि सचान खुद आत्मनिर्भर कभी नहीं रहे पत्रकारिता के मामले में, वे पूरी तरह अपने मालिकान पर ही निर्भर हैं.
कुछ पुराने वामपंथियों की आत्मा भी 26 की घटना पर चीत्कार कर गयी. पुलिसवाले से कुलपति बनकर रिटायर हुए विभूति नारायण राय ने तो जल्दबाजी में सीधे लिख मारा कि किसान आंदोलन का यही ‘’हश्र’’ होना था. बमुश्किल दस दिन हुआ है उन्हें यह ‘हश्र’ दिखाए. अब, जबकि यूपी से लेकर हरियाणा और मध्यप्रदेश तक महापंचायतें हो रही हैं, वे अपने शब्द वापस नहीं ले सकते क्योंकि एक बार छपा हुआ शब्द वापस नहीं होता. इसीलिए शायद नामवर जी कहते थे- बोलने से ज़बान नहीं कटती, लिखने से हाथ कट जाता है!
इस मामले में विशेष रूप से नवभारत टाइम्स का जि़क्र किया जाना होगा जो आंतरिक और बाहरी सेंसरशिप के इस ख़तरनाक दौर में अपने एडिट पेज पर इलाहाबाद के पुराने और जुझारू माले नेता लालबहादुर सिंह का उत्साहवर्द्धक लेख लीड पीस के रूप में छाप देता है. अब, अखबार भले कारोबार हो गये हों लेकिन पन्ना प्रभारी की छाप तो दिखती ही है पन्ने पर. पिछले दिनों अरब स्प्रिंग की विफलता पर इसी पन्ने पर चंद्रभूषण जी का लेख पठनीय रहा. वे नभाटा के संपादकीय प्रभारी हैं. इस किसान आंदोलन के दौरान उन्होंने नभाटा के संपादकीय पन्ने को जिस तरह संभाले रखा है, यह पत्रकारीय आत्मनिर्भरता की एक छोटी सही, लेकिन नोट करने लायक बात है.
पत्रकार का आत्मनिर्भर होना इस दौर में सबसे जोखिम भरी परिघटना है. कितने अफ़सोस की बात है कि 30 जनवरी की शाम दिल्ली के सिंघु बॉर्डर से मनदीप पुनिया और धर्मेंद्र सिंह की गिरफ्तारी को हिंदी के अखबारों ने कवर नहीं किया. धर्मेंद्र सिंह पूर्णत: आत्मनिर्भर हैं, अपना यूट्यूब चैनल चलाते हैं. आत्मनिर्भर मनदीप भी हैं, लेकिन उनकी अपनी दुकान नहीं है. वे 26 नवंबर के पहले से ही जनपथ डॉट कॉम के लिए किसान आंदोलन को नियमित कवर कर रहे थे और इस बीच उन्होंने अंग्रेजी की पत्रिका दि कारवां में दो स्टोरी लिखी थीं.
पत्रकारों के लिए आत्मनिर्भरता कितनी बुरी शै है, इसका अंदाजा इस बात से लगाइए कि जब अदालत में मनदीप से प्रेस कार्ड मांगा गया तो वे कुछ नहीं दिखा सके. जनपथ खुद ऐसा आत्मनिर्भर मंच है कि 10 साल से बेरोज़गार उसके संचालक के पास अपना खुद का प्रेस कार्ड नहीं है, तो वो मनदीप की ओनरशिप लेने क्या खाकर आते? फिर आनन-फानन में दि कारवां ने एक चिट्ठी जारी की कंट्रीब्यूटर की, जिसे अदालत में पूरी तरह कारगर नहीं माना गया. अंतत:, इंडिया टुडे ग्रुप से मनदीप को दो साल पहले मिला रिटेनरशिप वाला पुराना अस्थायी कार्ड खोजा गया. अस्तु, किसी तरह ज़मानत हुई.
अगर आपको लगता है कि मामला केवल एक अदद प्रेस कार्ड तक सीमित है तो न्यूज़लॉन्ड्री की रिपोर्टर निधि सुरेश के अनुभव आपके काम के हैं. उन्हें सिंघु बॉर्डर पर किसानों के बीच जाने से इसलिए रोका गया क्योंकि उनके पास ‘’राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त’’ प्रेस कार्ड नहीं था! अब ये “राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त” क्या बला है भला?
जैसा मैंने पहले कहा, सरकार को वैसे ही आत्मनिर्भर किसान पसंद हैं जो उसके तरीके से आत्मनिर्भर हों. इस लिहाज से राष्ट्रीय और मान्यता प्राप्त पत्रकार का सीधा मतलब है कि आप निर्भर पत्रकार हों या आत्मनिर्भर, दोनों ही स्थितियों में आपको सरकार के हिसाब से निर्भर या आत्मनिर्भर होना होगा. क्या समझे?
नरेंद्र मोदी का आत्मनिर्भर भारत अभियान अपने मूल में मोदी-निर्भर अभियान है जहां आत्मनिर्भरता को मोदी सरकार से मान्यता प्राप्त होना पड़ेगा. ऐसे ही नहीं इस देश में कोई भी आत्मनिर्भर हो जाएगा!
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