Newslaundry Hindi

किसान आंदोलन: बेनतीजा वार्ताओं की एक और तारीख, क्‍या करेंगे आंदोलनकारी?

आज दिन में 2 बजे दिल्‍ली के विज्ञान भवन में 41 किसान नेताओं और केंद्र सरकार के मंत्रियों के बीच होने वाली नौवें दौर की बातचीत बहुत मुमकिन है कि आखिरी हो. वैसे तो इसके कई कारण गिनाये जा सकते हैं लेकिन सबसे बड़ा कारण सरकारी है और वो ये है कि 26 जनवरी अब दो हफ्ते की दूरी पर है और सरकार आंदोलन को समेटने की जल्‍दी में है.

आंदोलन समेटने की जल्‍दी

पिछले दौर की बातचीत के बाद घटे घटनाक्रम से कुछ अंदाजा लगाया जा सकता है. अव्‍वल तो 4 जनवरी की बातचीत के बाद ऐसा लगता है कि किसान आंदोलन के नेतृत्‍व को इस बात का आभास हो गया था कि आज की बैठक से भी कुछ नहीं निकलने वाला, इसलिए उसने 26 जनवरी को एक समानांतर गणतंत्र दिवस किसान परेड की देशव्‍यापी कॉल दे दी और गुरुवार को दिल्‍ली की सरहदों पर ट्रैक्‍टर मार्च के रूप में इसका रिहर्सल कर के अपनी ताकत का मुज़ाहिरा भी सरकार को करवा दिया.

दूसरे, सरकार की ओर से जल्‍दबाजी में दो काम किये गये. बीती 6 जनवरी यानी बुधवार को केंद्रीय कैबिनेट की वीडियो कॉन्‍फ्रेंसिंग के माध्‍यम से एक बैठक बुलायी गयी जिसमें कृषि कानूनों पर चर्चा की गयी. कृषि सचिव संजय अग्रवाल से खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आंदोलन को जल्‍दी समेटने के उपायों पर बात की.

डेकन क्रॉनिकल की खबर कहती है कि प्रधानमंत्री ने कृषि मंत्रालय के अधिकारियों से कहा है कि वे कृषि कानूनों में बदलावों को सुझायें ताकि जल्‍दी से जल्‍दी आंदोलन को खत्‍म किया जा सके. नये कानूनों को बनाये रखने और आंदोलन को समाप्‍त करने के कानूनी रास्‍तों पर भी इस बैठक में विचार हुआ था. माना जा रहा है कि आज की बैठक में सरकार अपनी तरफ से कुछ अंतिम संशोधनों को सुझा सकती है जिसमें दो विकल्‍प प्रमुख हैं:

पहला, न्‍यूनतम समर्थन मूल्‍य पर लिखित गारंटी, जिसकी बात सरकार पहले से करती आयी है.

दूसरा, कृषि कानूनों को लागू करने में राज्‍यों को आजादी देते हुए इसे अनिवार्य रूप से लागू किये जाने का प्रावधान खत्‍म करना.

दरअसल, केंद्रीय कैबिनेट की बैठक से एक दिन पहले मंगलवार को बीजेपी के नेता और पंजाब के पूर्व मंत्री सुरजीत कुमार ज्ञानी और हरजीत सिंह ग्रेवाल ने प्रधानमंत्री से उनके आवास पर मुलाकात की थी. पिछले साल जब किसान कानून पास नहीं हुए थे, उस वक्‍त ज्ञानी बीजेपी की किसान समन्‍वय समिति के अध्‍यक्ष के बतौर पंजाब के किसानों से संवाद की जिम्‍मेदारी संभाल रहे थे.

सरकार की ओर से जल्‍दबाजी में किया गया दूसरा काम रहा कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर का धार्मिक पंथ के नेता बाबा लाखा सिंह से गुरुवार का मिलना, जिसके बारे में तोमर ने इनकार किया कि बैठक उन्‍होंने बुलायी थी. तोमर के मुताबिक बाबा लाखा सिंह खुद उनसे मिलने दिल्‍ली आये थे.

पंजाब के नानकसर सिख पंथ की नुमाइंदगी करने वाले बाबा लाखा सिंह ने किसानों और सरकार के बीच मध्‍यस्‍थता करने का प्रस्‍ताव दिया है, वहीं किसान संगठनों का कहना है कि बाबा उनके प्रतिनिधि नहीं हैं. अयोध्‍या में राम मंदिर के शिलापूजन में जिन धार्मिक व्‍यक्तित्‍वों को आधिकारिक न्‍योता गया था, उनमें बाबा भी शामिल थे.

गुरुवार को ही कृषि मंत्रालय के अधिकारियों ने बैठक की और आज की वार्ता के लिए कुछ प्रस्‍ताव तैयार किये हैं.

इन सभी कदमों का निचोड़ बस इतना है कि सरकार कानूनों को वापस लेने नहीं जा रही. कुछ रास्‍ते सुझाये जाएंगे, जिसके बाद आगे की वार्ता की गुंजाइश समाप्‍त हो जाएगी.

किसान क्‍या करेंगे

यह पहले दिन से तय है कि किसान संगठन कानूनों को वापस लेने से कम पर नहीं मानने वाले हैं. सरकार की ओर से अगर राज्‍यों की मर्जी पर कानून के क्रियान्‍वयन को छोड़ने का प्रस्‍ताव दिया जाता है तो इसका सीधा अर्थ निकलेगा कि सरकार सीधे तौर पर पंजाब के किसानों तक समूचे आंदोलन को फिर से समेटकर दर्शाना चाह रही है. किसान ऐसा नहीं होने देंगे.

एमएसपी की लिखित गारंटी पर पहले ही समझौता नहीं हो सका है क्‍योंकि किसान कानून को ही वापस लेने पर अड़े हुए हैं.

जाहिर है, ऐसे में अगर एक बार फिर सरकार कोई तारीख देने की कोशिश करती है, तो किसान संगठन बातचीत से पीछे तो नहीं हटेंगे लेकिन इतना तय है कि अगली वार्ता की मेज़ पर सरकार के पास किसानों को देने के लिए कुछ नहीं होगा. यह बात दोनों पक्ष समझ रहे होंगे.

कुल मिलाकर एक दूसरे के धैर्य की परीक्षा लेने का यह दोतरफा खेल आज की वार्ता के बाद और कितना लंबा चलेगा, इस पर संदेह हैं.

ऐसे में किसानों के पास अपना पूर्वघोषित कार्यक्रम तो है ही. देश भर के अलग-अलग स्‍थानों से किसानों के जत्‍थे चल चुके हैं दिल्‍ली के लिए. आज गाजीपुर बॉर्डर पर उत्‍तर प्रदेश के किसानों के कुछ प्रतिनिधि पूर्वांचल से पहुंच रहे हैं. केरल से भी हजार किसानों का एक जत्‍था आ रहा है. महाराष्‍ट्र से भी कुछ और किसान आने वाले हैं. यह सारी तैयारी 26 जनवरी के लिए है.

सरकार नहीं चाहती कि 26 जनवरी के सरकारी कार्यक्रम में किसी तरह की खलल पड़े. इसलिए उसकी कोशिश होगी कि आज की बातचीत के बाद किसी तरह आंदोलन टूट जाए. सूत्रों की मानें तो किसी तरह की बलपूर्वक कार्रवाई से सरकार बचेगी क्‍योंकि उसके बाद क्‍या हालात बनेंगे, उसकी कल्‍पना करना मुश्किल है.

आंदोलन की गति

किसानों के आंदोलन में मौजूद युवाओं का धैर्य अब चुक रहा है. 31 दिसंबर से लेकर 3 जनवरी के बीच हरियाणा में हुई घटनाएं इसका गवाह हैं. युवाओं के बीच एक समानांतर नेतृत्‍व भी काम कर रहा है जो परदे के पीछे से अपनी कार्यवाहियों को अंजाम दे रहा है. इनमें बठिंडा की लोकप्रिय युवा शख्सियत लक्‍खा सिधाना का नाम सबसे खास है जिनकी सोशल मीडिया अपील को घंटे भर में दो लाख व्‍यू मिल रहे हैं. 3 जनवरी को रेवाड़ी के बैरिकेड तोड़कर धारूहेड़ा तक आये जवानों के मुंह पर लक्‍खा सिधाना का ही नाम था.

एक ओर सिधाना की यह स्‍वयंभू नौजवान फौज है जो भगत सिंह की पूजा करती है और राजस्‍थान के मशहूर घड़साना आंदोलन की विरासत को संभाले हुए है. दूसरी ओर युनिवर्सिटी में पढ़े-लिखे किसानों के बेटे हैं जो पंजाब के वाम छात्र संगठनों की राजनीति करते हैं. इन सभी की नजर में यह आंदोलन महज तीन कानूनों को वापस लेने का मामला नहीं है बल्कि एक राजनीतिक आंदोलन है. इस राजनीतिक आंदोलन से वे क्‍या हासिल करना चाहते हैं, यह अलहदा बात है. गनीमत अब तक बस इतनी है कि आंदोलन के केंद्रीय नेतृत्‍व से इनका पूर्ण मोहभंग नहीं हुआ है.

पिछले करीब डेढ़ महीने से दिल्‍ली की सरहदों, खासकर सिंघू बॉर्डर पर चल रहे धरने की प्रकृति में एक दिलचस्‍प बदलाव यह देखने में आया है कि आंदोलन के भीतर मौजूद वाम संगठनों, युवाओं के स्‍वतंत्र समूहों और सिखों के दक्षिणपंथी धड़ों के बीच एक किस्‍म की अदृश्‍य एकता कायम हुई है. दिल्‍ली की यह सरहद दर्जन भर गुरद्वारों में तब्‍दील हो चुकी है, जहां दिल्‍ली के सरदार वीकेंड पर मत्‍था टेकने और लंगर का प्रसाद चखने आ रहे हैं. दूसरी ओर तम्‍बुओं से निकलते इंकलाबी गीत और पोस्‍टर हैं.

इन दो ध्रुवों के बीच आंदोलन का 41 संगठनों वाला और कोर के सात सदस्‍यों वाला नेतृत्‍व राजनीतिक रूप से अब मध्‍यमार्गी लगने लगा है. तारीख पर तारीख की रणनीति न तो सिख दक्षिणपंथि‍यों को समझ आ रही है, न वाम धड़ों को. इससे आंदोलन के भीतर बेचैनी है. यह बेचैनी आज की वार्ता के बाद क्‍या शक्‍ल लेगी, कहना मुश्किल है.

जानकारों की राय

आंदोलन और सरकार के बीच बातचीत पर निगाह रखे कुछ जानकारों का मानना है कि सरकार अब आंदोलन से ध्‍यान भटकाने के लिए कुछ और मोर्चों को खोल सकती है. ये मोर्चे कुछ भी हो सकते हैं. सरकार का इंटेलिजेंस चूंकि सीधे आंदोलन को हाथ लगाने के पक्ष में नहीं है लिहाजा मीडिया और जनता का किसी दूसरी घटना या प्रक्रिया से ध्‍यान भटकाना एक फायदेमंद विकल्‍प हो सकता है.

इसके बावजूद 26 जनवरी को होने वाली समानांतर किसान परेड की तात्‍कालिकता को कैसे हल किया जाएगा, यह कोई नहीं बता सकता. समस्‍या यह भी है कि यह परेड कहां होगी, इस बारे में आंदोलन के नेतृत्‍व ने कोई स्‍पष्‍ट जवाब नहीं दिया है. प्रेस क्‍लब में आयोजित अपनी पहली कॉन्‍फ्रेंस में संयुक्‍त किसान मोर्चे से एक पत्रकार के इस संबंध में पूछे गये सवाल को डॉ. दर्शन पाल ने टाल दिया था.

आंदोलन में शामिल पंजाब के एक युवा बताते हैं कि आंदोलन का नेतृत्‍व इस तरह की कार्रवाइयों को ओपेन एंडेड यानी बहुविकल्‍पीय रखता है. वह अपनी ओर से कोई फ़रमान नहीं देता. इसके लिए वे आंदोलन शुरू होने के पहले हरियाणा में तोड़े गये बैरिकेडों का हवाला देते हैं. वे कहते हैं, ‘’कहा तो उसके लिए भी नहीं गया था, लेकिन मना भी नहीं किया गया था.‘’

बिलकुल यही उदासीन प्रतिक्रिया 3 जनवरी को धारूहेड़ा से 5 किलोमीटर पहले हुए उपद्रव पर भी देखी गयी, जब आंदोलन के नेतृत्‍व ने अपना मुंह नहीं खोला था. जानकारों की मानें तो आंदोलन की यही प्रकृति सरकार के लिए एक पहेली है.

मौतों पर चुप्‍पी

इस बीच 60 से ज्‍यादा किसान दिल्‍ली की सरहदों पर अपनी जान गंवा चुके हैं. ज्‍यादातर बीमारी, ठंड और शारीरिक व्‍याधियों से गुजर गये और कुछ ने अपने सुसाइड नोट में यह लिखकर अपनी जान दे दी कि उनकी मौत का जिम्‍मेदार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हैं.

सुसाइड नोटों में अपने नाम से प्रधानमंत्री को न तो कोई फ़र्क पड़ा, न ही किसानों के मरने से. आज तक उन्‍होंने इन मर चुके किसानों पर अपना मुंह नहीं खोला है जबकि दो दिन पहले अमेरिका के कैपिटल हिल में घुसे हिंसक उपद्रवियों के हंगामे पर उन्‍होंने बाकायदे ट्वीट किया है.

(साभार- जनपथ)

Also Read: किसान ट्रैक्टर मार्च: "यह तो ट्रेलर है पिक्चर तो 26 जनवरी पर चलेगी"

Also Read: कौन हैं वे किसान संगठन जो कृषि क़ानूनों पर मोदी सरकार को दे रहे हैं समर्थन?

आज दिन में 2 बजे दिल्‍ली के विज्ञान भवन में 41 किसान नेताओं और केंद्र सरकार के मंत्रियों के बीच होने वाली नौवें दौर की बातचीत बहुत मुमकिन है कि आखिरी हो. वैसे तो इसके कई कारण गिनाये जा सकते हैं लेकिन सबसे बड़ा कारण सरकारी है और वो ये है कि 26 जनवरी अब दो हफ्ते की दूरी पर है और सरकार आंदोलन को समेटने की जल्‍दी में है.

आंदोलन समेटने की जल्‍दी

पिछले दौर की बातचीत के बाद घटे घटनाक्रम से कुछ अंदाजा लगाया जा सकता है. अव्‍वल तो 4 जनवरी की बातचीत के बाद ऐसा लगता है कि किसान आंदोलन के नेतृत्‍व को इस बात का आभास हो गया था कि आज की बैठक से भी कुछ नहीं निकलने वाला, इसलिए उसने 26 जनवरी को एक समानांतर गणतंत्र दिवस किसान परेड की देशव्‍यापी कॉल दे दी और गुरुवार को दिल्‍ली की सरहदों पर ट्रैक्‍टर मार्च के रूप में इसका रिहर्सल कर के अपनी ताकत का मुज़ाहिरा भी सरकार को करवा दिया.

दूसरे, सरकार की ओर से जल्‍दबाजी में दो काम किये गये. बीती 6 जनवरी यानी बुधवार को केंद्रीय कैबिनेट की वीडियो कॉन्‍फ्रेंसिंग के माध्‍यम से एक बैठक बुलायी गयी जिसमें कृषि कानूनों पर चर्चा की गयी. कृषि सचिव संजय अग्रवाल से खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आंदोलन को जल्‍दी समेटने के उपायों पर बात की.

डेकन क्रॉनिकल की खबर कहती है कि प्रधानमंत्री ने कृषि मंत्रालय के अधिकारियों से कहा है कि वे कृषि कानूनों में बदलावों को सुझायें ताकि जल्‍दी से जल्‍दी आंदोलन को खत्‍म किया जा सके. नये कानूनों को बनाये रखने और आंदोलन को समाप्‍त करने के कानूनी रास्‍तों पर भी इस बैठक में विचार हुआ था. माना जा रहा है कि आज की बैठक में सरकार अपनी तरफ से कुछ अंतिम संशोधनों को सुझा सकती है जिसमें दो विकल्‍प प्रमुख हैं:

पहला, न्‍यूनतम समर्थन मूल्‍य पर लिखित गारंटी, जिसकी बात सरकार पहले से करती आयी है.

दूसरा, कृषि कानूनों को लागू करने में राज्‍यों को आजादी देते हुए इसे अनिवार्य रूप से लागू किये जाने का प्रावधान खत्‍म करना.

दरअसल, केंद्रीय कैबिनेट की बैठक से एक दिन पहले मंगलवार को बीजेपी के नेता और पंजाब के पूर्व मंत्री सुरजीत कुमार ज्ञानी और हरजीत सिंह ग्रेवाल ने प्रधानमंत्री से उनके आवास पर मुलाकात की थी. पिछले साल जब किसान कानून पास नहीं हुए थे, उस वक्‍त ज्ञानी बीजेपी की किसान समन्‍वय समिति के अध्‍यक्ष के बतौर पंजाब के किसानों से संवाद की जिम्‍मेदारी संभाल रहे थे.

सरकार की ओर से जल्‍दबाजी में किया गया दूसरा काम रहा कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर का धार्मिक पंथ के नेता बाबा लाखा सिंह से गुरुवार का मिलना, जिसके बारे में तोमर ने इनकार किया कि बैठक उन्‍होंने बुलायी थी. तोमर के मुताबिक बाबा लाखा सिंह खुद उनसे मिलने दिल्‍ली आये थे.

पंजाब के नानकसर सिख पंथ की नुमाइंदगी करने वाले बाबा लाखा सिंह ने किसानों और सरकार के बीच मध्‍यस्‍थता करने का प्रस्‍ताव दिया है, वहीं किसान संगठनों का कहना है कि बाबा उनके प्रतिनिधि नहीं हैं. अयोध्‍या में राम मंदिर के शिलापूजन में जिन धार्मिक व्‍यक्तित्‍वों को आधिकारिक न्‍योता गया था, उनमें बाबा भी शामिल थे.

गुरुवार को ही कृषि मंत्रालय के अधिकारियों ने बैठक की और आज की वार्ता के लिए कुछ प्रस्‍ताव तैयार किये हैं.

इन सभी कदमों का निचोड़ बस इतना है कि सरकार कानूनों को वापस लेने नहीं जा रही. कुछ रास्‍ते सुझाये जाएंगे, जिसके बाद आगे की वार्ता की गुंजाइश समाप्‍त हो जाएगी.

किसान क्‍या करेंगे

यह पहले दिन से तय है कि किसान संगठन कानूनों को वापस लेने से कम पर नहीं मानने वाले हैं. सरकार की ओर से अगर राज्‍यों की मर्जी पर कानून के क्रियान्‍वयन को छोड़ने का प्रस्‍ताव दिया जाता है तो इसका सीधा अर्थ निकलेगा कि सरकार सीधे तौर पर पंजाब के किसानों तक समूचे आंदोलन को फिर से समेटकर दर्शाना चाह रही है. किसान ऐसा नहीं होने देंगे.

एमएसपी की लिखित गारंटी पर पहले ही समझौता नहीं हो सका है क्‍योंकि किसान कानून को ही वापस लेने पर अड़े हुए हैं.

जाहिर है, ऐसे में अगर एक बार फिर सरकार कोई तारीख देने की कोशिश करती है, तो किसान संगठन बातचीत से पीछे तो नहीं हटेंगे लेकिन इतना तय है कि अगली वार्ता की मेज़ पर सरकार के पास किसानों को देने के लिए कुछ नहीं होगा. यह बात दोनों पक्ष समझ रहे होंगे.

कुल मिलाकर एक दूसरे के धैर्य की परीक्षा लेने का यह दोतरफा खेल आज की वार्ता के बाद और कितना लंबा चलेगा, इस पर संदेह हैं.

ऐसे में किसानों के पास अपना पूर्वघोषित कार्यक्रम तो है ही. देश भर के अलग-अलग स्‍थानों से किसानों के जत्‍थे चल चुके हैं दिल्‍ली के लिए. आज गाजीपुर बॉर्डर पर उत्‍तर प्रदेश के किसानों के कुछ प्रतिनिधि पूर्वांचल से पहुंच रहे हैं. केरल से भी हजार किसानों का एक जत्‍था आ रहा है. महाराष्‍ट्र से भी कुछ और किसान आने वाले हैं. यह सारी तैयारी 26 जनवरी के लिए है.

सरकार नहीं चाहती कि 26 जनवरी के सरकारी कार्यक्रम में किसी तरह की खलल पड़े. इसलिए उसकी कोशिश होगी कि आज की बातचीत के बाद किसी तरह आंदोलन टूट जाए. सूत्रों की मानें तो किसी तरह की बलपूर्वक कार्रवाई से सरकार बचेगी क्‍योंकि उसके बाद क्‍या हालात बनेंगे, उसकी कल्‍पना करना मुश्किल है.

आंदोलन की गति

किसानों के आंदोलन में मौजूद युवाओं का धैर्य अब चुक रहा है. 31 दिसंबर से लेकर 3 जनवरी के बीच हरियाणा में हुई घटनाएं इसका गवाह हैं. युवाओं के बीच एक समानांतर नेतृत्‍व भी काम कर रहा है जो परदे के पीछे से अपनी कार्यवाहियों को अंजाम दे रहा है. इनमें बठिंडा की लोकप्रिय युवा शख्सियत लक्‍खा सिधाना का नाम सबसे खास है जिनकी सोशल मीडिया अपील को घंटे भर में दो लाख व्‍यू मिल रहे हैं. 3 जनवरी को रेवाड़ी के बैरिकेड तोड़कर धारूहेड़ा तक आये जवानों के मुंह पर लक्‍खा सिधाना का ही नाम था.

एक ओर सिधाना की यह स्‍वयंभू नौजवान फौज है जो भगत सिंह की पूजा करती है और राजस्‍थान के मशहूर घड़साना आंदोलन की विरासत को संभाले हुए है. दूसरी ओर युनिवर्सिटी में पढ़े-लिखे किसानों के बेटे हैं जो पंजाब के वाम छात्र संगठनों की राजनीति करते हैं. इन सभी की नजर में यह आंदोलन महज तीन कानूनों को वापस लेने का मामला नहीं है बल्कि एक राजनीतिक आंदोलन है. इस राजनीतिक आंदोलन से वे क्‍या हासिल करना चाहते हैं, यह अलहदा बात है. गनीमत अब तक बस इतनी है कि आंदोलन के केंद्रीय नेतृत्‍व से इनका पूर्ण मोहभंग नहीं हुआ है.

पिछले करीब डेढ़ महीने से दिल्‍ली की सरहदों, खासकर सिंघू बॉर्डर पर चल रहे धरने की प्रकृति में एक दिलचस्‍प बदलाव यह देखने में आया है कि आंदोलन के भीतर मौजूद वाम संगठनों, युवाओं के स्‍वतंत्र समूहों और सिखों के दक्षिणपंथी धड़ों के बीच एक किस्‍म की अदृश्‍य एकता कायम हुई है. दिल्‍ली की यह सरहद दर्जन भर गुरद्वारों में तब्‍दील हो चुकी है, जहां दिल्‍ली के सरदार वीकेंड पर मत्‍था टेकने और लंगर का प्रसाद चखने आ रहे हैं. दूसरी ओर तम्‍बुओं से निकलते इंकलाबी गीत और पोस्‍टर हैं.

इन दो ध्रुवों के बीच आंदोलन का 41 संगठनों वाला और कोर के सात सदस्‍यों वाला नेतृत्‍व राजनीतिक रूप से अब मध्‍यमार्गी लगने लगा है. तारीख पर तारीख की रणनीति न तो सिख दक्षिणपंथि‍यों को समझ आ रही है, न वाम धड़ों को. इससे आंदोलन के भीतर बेचैनी है. यह बेचैनी आज की वार्ता के बाद क्‍या शक्‍ल लेगी, कहना मुश्किल है.

जानकारों की राय

आंदोलन और सरकार के बीच बातचीत पर निगाह रखे कुछ जानकारों का मानना है कि सरकार अब आंदोलन से ध्‍यान भटकाने के लिए कुछ और मोर्चों को खोल सकती है. ये मोर्चे कुछ भी हो सकते हैं. सरकार का इंटेलिजेंस चूंकि सीधे आंदोलन को हाथ लगाने के पक्ष में नहीं है लिहाजा मीडिया और जनता का किसी दूसरी घटना या प्रक्रिया से ध्‍यान भटकाना एक फायदेमंद विकल्‍प हो सकता है.

इसके बावजूद 26 जनवरी को होने वाली समानांतर किसान परेड की तात्‍कालिकता को कैसे हल किया जाएगा, यह कोई नहीं बता सकता. समस्‍या यह भी है कि यह परेड कहां होगी, इस बारे में आंदोलन के नेतृत्‍व ने कोई स्‍पष्‍ट जवाब नहीं दिया है. प्रेस क्‍लब में आयोजित अपनी पहली कॉन्‍फ्रेंस में संयुक्‍त किसान मोर्चे से एक पत्रकार के इस संबंध में पूछे गये सवाल को डॉ. दर्शन पाल ने टाल दिया था.

आंदोलन में शामिल पंजाब के एक युवा बताते हैं कि आंदोलन का नेतृत्‍व इस तरह की कार्रवाइयों को ओपेन एंडेड यानी बहुविकल्‍पीय रखता है. वह अपनी ओर से कोई फ़रमान नहीं देता. इसके लिए वे आंदोलन शुरू होने के पहले हरियाणा में तोड़े गये बैरिकेडों का हवाला देते हैं. वे कहते हैं, ‘’कहा तो उसके लिए भी नहीं गया था, लेकिन मना भी नहीं किया गया था.‘’

बिलकुल यही उदासीन प्रतिक्रिया 3 जनवरी को धारूहेड़ा से 5 किलोमीटर पहले हुए उपद्रव पर भी देखी गयी, जब आंदोलन के नेतृत्‍व ने अपना मुंह नहीं खोला था. जानकारों की मानें तो आंदोलन की यही प्रकृति सरकार के लिए एक पहेली है.

मौतों पर चुप्‍पी

इस बीच 60 से ज्‍यादा किसान दिल्‍ली की सरहदों पर अपनी जान गंवा चुके हैं. ज्‍यादातर बीमारी, ठंड और शारीरिक व्‍याधियों से गुजर गये और कुछ ने अपने सुसाइड नोट में यह लिखकर अपनी जान दे दी कि उनकी मौत का जिम्‍मेदार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हैं.

सुसाइड नोटों में अपने नाम से प्रधानमंत्री को न तो कोई फ़र्क पड़ा, न ही किसानों के मरने से. आज तक उन्‍होंने इन मर चुके किसानों पर अपना मुंह नहीं खोला है जबकि दो दिन पहले अमेरिका के कैपिटल हिल में घुसे हिंसक उपद्रवियों के हंगामे पर उन्‍होंने बाकायदे ट्वीट किया है.

(साभार- जनपथ)

Also Read: किसान ट्रैक्टर मार्च: "यह तो ट्रेलर है पिक्चर तो 26 जनवरी पर चलेगी"

Also Read: कौन हैं वे किसान संगठन जो कृषि क़ानूनों पर मोदी सरकार को दे रहे हैं समर्थन?