Newslaundry Hindi
नीतीश कुमार के गांव में बाकी तो सब ठीक है, बस रोजगार नहीं है
बिहार में रोजगार की स्थिति पहले भी अच्छी नहीं थी. कोरोना के दौर में लॉकडाउन के बाद जब से लाखों की संख्या में मजदूर बिहार वापस लौटे हैं, यह स्थिति और भयावह हो गई है. इसकी झलक हमें नालंदा से करीब 25 किलोमीटर दूर स्थित मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के गांव कल्याण बिगहा में भी मिली.
13 सालों से भारतीय जनता पार्टी के साथ और बीच में करीब दो साल राष्ट्रीय जनता दल के साथ, नीतीश कुमार 15 सालों से बिहार के मुख्यमंत्री हैं. ऐसा माना जाता है कि बिहार में कोई भी योजना आती है तो उसे सबसे पहले मुख्यमंत्री नालंदा ले जाते हैं. यह उनका गृह जिला है. लेकिन उनके ही गांव में नौजवान रोजगार के लिए परेशान दिखे.
साफ-सुथरी सड़कों से होते हुए हम गांव पहुंचे. गांव में प्रवेश करते ही एक अस्पताल है, उसके आगे स्कूल है, जो पहले 10वीं तक हुआ करता था, लेकिन अब उसे 12वीं तक कर दिया गया है. अस्पताल और स्कूल के गेट पर लगा बोर्ड अब उखड़ गया है. इस गांव में ज़्यादातर लोग खेतीबाड़ी करते हैं.
हम थोड़ा आगे बढ़े तो कुछ नौजवान सड़क किनारे एक छोटे से तालाब में जाल से मछली पकड़ते दिखे. हमने उनसे बातचीत करने की कोशिश की तो मछली पकड़ रहा एक लड़का बेसाख्ता बोल पड़ा- “इस बार तो नीतीश कुमार जाने वाले हैं.” कैमरा और माइक निकालने पर वह यह बात दोबारा बोलने से मना कर देता है और मछली पकड़ने लगता है. इस गांव के ज़्यादातर लोगों की स्थिति इसी नौजवान जैसी है. लोग बिहार सरकार से नाराज तो हैं, लेकिन नीतीश कुमार के खिलाफ कुछ नहीं बोलते.
यहां हमारी मुलाकात कन्हैया कुमार से हुई. हमने उनसे पूछा की इस गांव में क्या समस्या है तो वे बताते हैं, ‘‘कोई रोजगार नहीं है. बाकी सब है. पानी, बिजली और लाइट सब कुछ है.’’
32 वर्षीय कुमार ज़्यादा पढ़े लिखे नहीं हैं. वे कहते हैं, “सरकार को कंपनी खोलनी चाहिए ताकि हम लोग काम कर पाए. इस गांव से कई लोग बाहर कमाने जाते हैं, लेकिन लॉकडाउन के बाद गांव लौट आए हैं. मेरे बड़े भाई लॉकडाउन के बाद दिल्ली वापस कमाने गए, लेकिन एक महीना बाद लौट आए क्योंकि वहां काम नहीं मिला. ऐसा सिर्फ मेरे बड़े भाई के ही साथ ही नहीं हुआ बल्कि कई और लोगों के साथ हुआ है.’’
वहीं पर हमारी मुलाकात विक्रम नाम के एक युवक से हुई. दिल्ली के बदरपुर में रहकर नौकरी करने वाले विक्रम लॉकडाउन लगने से पहले ही किसी काम से घर आए थे और तब से यहीं हैं. कन्हैया की तरह विक्रम भी कहते हैं, ‘‘बाकी सब तो ठीक ही है. बस कोई काम नहीं है. मार्च से बैठे हुए है. बाहर में फिलहाल काम नहीं है."
कोरोना महामारी के बीच बिहार में चुनावी सभाएं और प्रचार प्रसार जारी है. विपक्ष लगातार बिहार सरकार को रोजगार के मामले पर घेर रहा है. राष्ट्रीय जनता दल के नेता और महागठबंधन से मुख्यमंत्री के उम्मीदवार तेजस्वी यादव ने सरकार को घेरते हुए यह दावा किया है कि अगर उनकी सरकार आती है तो कैबिनेट की पहली बैठक में 10 लाख सरकारी नौकरियों की भर्ती प्रक्रिया शुरू की जाएगी.
शनिवार को पटना में महागठबंधन ने 'प्रण हमारा, संकल्प बदलाव का' नाम से अपना चुनावी घोषणा पत्र जारी किया. उसमें भी रोजगार को प्रमुखता दी गई है. वहीं दूसरी तरफ नीतीश कुमार सरकार में लंबे समय से उपमुख्यमंत्री का पद संभाल रहे बीजेपी नेता सुशील कुमार मोदी ने हाल ही में रोजगार को लेकर एक ट्वीट किया जिस पर उनकी जमकर आलोचना हुई. उन्होंने लिखा, ‘‘मौका मिला तो बेरोजगारी दूर करने में तनिक भी कोताही नहीं होगी..’ इसपर लोगों ने सवाल किया कि 15 साल से सत्ता में हैं और कितना वक्त चाहिए.
खुद नीतीश कुमार रोजगार के मामले पर एक अटपटा बयान देकर आलोचना का शिकार हो चुके हैं. उन्होंने कहा, ‘‘किस तरह से हमने काम करना शुरू किया है. गांव-गांव में और विकेंद्रित तरीके से काम किया. आगे कहते हैं अगर बड़े-बड़े उद्योगपति यहां पर उद्योग लगाते, तो उसी को लोग देखते और कहते बड़ा उद्योग हो रहा है. लेकिन, अब वो नहीं आए, क्योंकि बिहार चारों तरफ से जमीन से घिरा है. ज्यादा बड़ा उद्योग कहां लगता, समुद्र के किनारे जो राज्य पड़ते हैं, उन्हीं जगहों पर ज्यादा लगता है. हम लोगों ने तो बहुत कोशिश की.’’
न्यूज़लाउंड्री ने अपनी चुनावी यात्रा के दौरान लोगों से बातचीत में यह पाया कि नीतीश सरकार से लोगों में सबसे ज़्यादा नाराजगी रोजगार को लेकर है. यहीं स्थिति उनके गांव में भी दिखी. मछली पकड़ रहे युवकों से बात करके हम आगे बढ़े. गांव में प्रवेश करते ही एक पेड़ है. जिसके चारों तरफ चबूतरा बना हुआ है. पास में ही एक मंदिर है. मंदिर के सामने नीतीश कुमार का पुश्तैनी घर है. घर सामान्य है और उसके गेट पर ताला लटका हुआ है. उसके सामने एक बड़ा सा तालाब है. नीतीश कुमार के घर के बगल में उनकी मां, पिताजी और पत्नी का स्मृति स्थल है.
यहां चबूतरे पर हमें कई ग्रामीण बैठे मिले. ज़्यादातर नीतीश कुमार के हमउम्र थे और उनके साथ बचपन की यादें साझा करने लगे. यहां मिले एक व्यक्ति ने नाम नहीं छापने की शर्त पर कहा. “नीतीश को पलटकर देखने की आदत शुरू से नहीं है. वैसे शुरू से ही वो यहां कम ही रहते थे, लेकिन अब तो कभी-कभार ही आते है. वो इंसान शुरू से अच्छे हैं. काम भी उन्होंने खूब किया, लेकिन रोजगार नहीं दे पाए. सड़क, बिजली और पानी का इस्तेमाल आदमी तभी न करेगा जब गांव में रहेगा. इस गांव में करीब दो सौ परिवार मुसहर समुदाय के हैं. उसमें से 70 प्रतिशत वोट करने से पहले ईट-भट्ठे पर काम करने पंजाब, हरियाणा चले जाएंगे. उनको इस रोड और बिजली से क्या फायदा मिल रहा है.”
यहां हमारी मुलाकात जयेश कुमार से हुई जो सीएसी (बैंक से संबंधित कारोबार) सेंटर चलाते हैं. जयेश नीतीश कुमार के पड़ोसी हैं. वे कहते हैं, ‘‘यहां रोजगार की स्थिति बहुत ही ख़राब है. जब तक शिक्षा की स्थिति नहीं सुधरेगी तब तक कोई उपाय नहीं है. इनके मंत्री सब चिल्लाते हैं कि शिक्षा बेहतर हो गई, लेकिन सिर्फ वह कागजी स्तर पर है, जमीन पर कोई खास बदलाव नहीं हुआ. यहां 12वीं का स्कूल है. जो नीतीश कुमार के कर कमलों से ही शुरू हुआ, लेकिन आज तक उसमें पढ़ाई शुरू नहीं हुई. सिर्फ एग्जाम होता है. पढ़ाई नहीं होती है. यहां 12वीं का कोई शिक्षक नहीं है.’’
हम यहां बातचीत कर रहे थे तभी धर्मेंद कुमार नाम के एक शख्स गोलगप्पा की ठेली लेकर पहुंचे. धर्मेंद्र दिल्ली में रहकर काम करते थे, लेकिन लॉकडाउन लगने के बाद जब वहां स्थिति खराब हुई तो जैसे-तैसे भागकर गांव पहुंचे. गांव में घर ठीक से चले इसके किए उन्होंने गोलगप्पा बेचना शुरू कर दिया. वे बताते हैं, ‘‘लॉकडाउन लगने के तीन महीने बाद तक दिल्ली में आसरा देखे लेकिन काम मिलना शुरू नहीं हुआ. मकान मालिक को किराया नहीं दे पा रहे थे तो वो भगाने लगा फिर मज़बूर होकर ट्रक से वापस आ गए. ट्रक वाले को तीन हज़ार रुपए देने पड़े. नीतीश कुमार यहां रोजगार पैदा नहीं किए तभी तो प्रदेश जाना पड़ा. सबकुछ सुविधा तो दिए लेकिन रोजगार नहीं दिए.’’
चबूतरे पर बैठे उमेश शाह न्यूज़लॉन्ड्री से बातचीत में केंद्र और राज्य सरकार पर नाराजगी जाहिर करते हैं. वे कहते हैं, "कर्जा पाती लेकर बच्चों को हमने पढ़ाया. उन्हें कोई नौकरी नहीं मिल रही है. नरेंद्र मोदी सब कुछ प्राइवेट कर रहे हैं. जिसमें जिसको 50 हज़ार वेतन था उसके बदले 10-10 हज़ार देकर पांच से काम कराएगा. यही सब नीति है. ताकि सब जनता मर जाए.’’
शाह नीतीश कुमार के बचपन के साथी हैं. मुख्यमंत्री गांव आते हैं तो आप लोग उनसे शिकायत नहीं करते. इस सवाल पर शाह कहते हैं, “उनको मौका कहां है हमसे बातचीत करने का. आते है, माल्यार्पण करते है और चले जाते हैं. बड़े नेता है उनके पास समय का भी अभाव रहता है.”
नीतीश के गांव में लालू प्रसाद की तारीफ!
एक चुनावी सभा में नीतीश कुमार ने कहा कि हमने बीते 15 सालों में लगभग 6.8 लाख लोगों को सरकारी नौकरी दी है यानी हर साल लगभग 40 हज़ार लोगों को सरकारी नौकरी मिली है. जबकि बिहार से हर साल लाखों की संख्या में लोग पढ़ कर निकलते हैं. यहां हर महकमे में रिक्त पद है. ऐसे में सवाल उठना लाजिमी हैं कि इतने कम लोगों को रोजगार क्यों मिला.
यहां हमारी मुलाकात पप्पू ठाकुर से हुई. पप्पू ठाकुर से जब हमने रोजगार को लेकर सवाल किया तो वे कहते हैं, ‘‘नीतीश से ज़्यादा तो सरकारी नौकरी लालू के शासन में मिलता था. इन्होंने किसको काम दिया. रेलमंत्री थे तब भी कोई काम नहीं दिए. हमारे गांव में पढ़े लिखे लड़के भी इधर उधर घूम रहे हैं. लोगों का जमीन भी लिए स्कूल, कॉलेज और अस्पताल बनाने के लिए लेकिन किसी को काम नहीं मिला.’’
नीतीश कुमार के माता, पिता और पत्नी की समाधि के बिल्कुल सामने कंचन देवी का घर है. उनके पति सुविन्दर सिंह का एक पैर कटा हुआ जिसके कारण घर खर्च की जिम्मेदारी उनके ही ऊपर है. कंचन यहां बने सरकारी अस्पताल में सफाईकर्मी का काम करती हैं. जहां उन्हें महीने के सिर्फ 2500 रुपए मिलते हैं.
न्यूज़लॉन्ड्री से बात करते हुए कंचन कहती हैं, ‘‘सब कुछ तो है. खाली पैसा नहीं है. मुझे काम के सिर्फ 75 रुपए रोजाना मिलते हैं. उससे क्या ही होगा. अगर कुछ पैसे बढ़ जाए तो खर्च चलाने में परेशानी न हो. इनके पैर देखिए (पति का पैर दिखाने के बाद वो रोने लगती है). नीतीश बाबू की मां जब तक थीं, गांव आती थी तो हमने उन्हें खाना बनाकर खिलाते थे. लेकिन आज हम मारे-मारे फिर रहे हैं. यहां साल में तीन बार आते हैं. मां, पिताजी और पत्नी की पुण्यतिथि पर. माल्यार्पण करते हैं. यहां भी हम उनसे मिलकर अपनी परेशानी बताए. दो बार उनके जनता दरबार में भी गए लेकिन कोई नहीं सुना. बताइये 2500 में किसी का घर चल जाएगा?’’
बैंक है पर जमा करने के किए पैसा नहीं है...
कंचन देवी के घर के सामने ही सड़क किनारे मीरु देवी समोसा की दुकान चलाती है. उनकी रोजाना की आमदनी सिर्फ 100 रुपए है. मीरु कहती हैं, ‘‘कोई कंपनी खुल जाती तो महिलाएं और पुरुष सभी काम करते. यहां दिनभर समोसे बनाती हूं. बेचती हुई और आमदनी सिर्फ सौ रुपए की होती है. उस सौ रुपए में बच्च्चों को खाना लाकर दूं या बैंक में जाम करूं. यहां बैंक तो खुल गया है लेकिन जमा करने का पैसा नहीं है.’’
मीरु के साथ समोसा बना रही नीलम कुमारी कहती हैं, ‘‘ई लोग बड़ा-बड़ा आदमी का सोचते हैं, हम गरीबों की कौन सुनता है. इस दुकान को हटाने के लिए कई बार पुलिस वाले आ चुके हैं. वे कहते हैं कि सरकारी जमीन पर दुकान है. इसे हटाओ. बताइये हम लोग गरीब हैं. जमीन है नहीं तो कैसे ज़िंदा रहेंगे.’’
चुनाव की क्या स्थिति है?
यहां मिले ज़्यादातर लोग सरकार से रोजगार के मामले पर नाराज़ दिखे, लेकिन चुनाव को लेकर सवाल पूछने पर सबका एक जैसा ही जवाब था- ‘नीतीश कुमार को छोड़कर हम किसी दूसरे के साथ कैसे जा सकते हैं.’
यहां मिले राजीव सिंह कहते हैं, ‘‘उनके कारण ही हमारे गांव में बैंक, आईटीआई, 12वीं तक स्कूल है. रोजगार की दिक्कत ज़रूर है. उम्मीद तो उनसे पहले से ही है कि इस समस्या को दूर करेंगे. रोजगार पैदा करना एक मुश्किल काम है. लेकिन जो भी हो हम लोग उनका साथ तो नहीं छोड़ सकते हैं.’’
गांव के मुहाने पर भैंस चरा रहे एक बुजुर्ग से हमने पूछा कि यहां से कौन जीत रहा तो वो कहते हैं, ‘‘कोई जीते हम तो नीतीश बाबू को वोट देंगे. ई रास्ता देख रहे हैं. पहले ऐसा नहीं था.’’
***
यह स्टोरी एनएल सेना सीरीज का हिस्सा है, जिसमें हमारे 34 पाठकों ने योगदान दिया. आप भी हमारे बिहार इलेक्शन 2020 सेना प्रोजेक्ट को सपोर्ट करें और गर्व से कहें 'मेरे खर्च पर आज़ाद हैं ख़बरें'.
Also Read
-
In Baramati, Ajit and Sunetra’s ‘double engine growth’ vs sympathy for saheb and Supriya
-
A massive ‘sex abuse’ case hits a general election, but primetime doesn’t see it as news
-
‘Vote after marriage’: Around 70 lakh eligible women voters missing from UP’s electoral rolls
-
Mandate 2024, Ep 2: BJP’s ‘parivaarvaad’ paradox, and the dynasties holding its fort
-
Know Your Turncoats, Part 9: A total of 12 turncoats in Phase 3, hot seat in MP’s Guna