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तमिलनाडु पुलिस हिरासत में हुई मौत का मामला: बेनिक्स और जयराज के परिजनों को न्याय का इंतजार

जब जुलाई में जे. पर्सिस को सरकारी नौकरी की पेशकश की गई, तब वो उस शहर में जहां वो पली बढ़ी थीं, काम करने के लिए नहीं जा सकीं. उनको राजस्व विभाग में कनिष्ठ सहायक की नौकरी का ऑफर उस दुःखद घटना के मुआवजे के रूप में दिया गया था जिसकी चपेट में उनका परिवार आ गया था. उनके पिता पी जयराज और भाई जे बेनिक्स को कथित तौर पर तमिलनाडु पुलिस ने प्रताड़ित कर मार दिया. दरअसल तमिलनाडु के थूथुकुड़ी जिले के सत्तानकुलम तालुका का दफ्तर, जहां पर्सिस को काम करना था, ठीक उसी पुलिस स्टेशन के सामने है जहां उनके पिता एवं भाई को प्रताड़ित किया गया था.

34 वर्षीय पर्सिस कहती हैं, "रोज काम पर जाते समय मैं उस घटना को याद नहीं करना चाहती." सत्तानकुलम में उनके पुश्तैनी घर में भी उनके माता-पिता और भाई की यादें थीं. पर्सिस अपने पति के साथ विजयवाड़ा में रहती थीं और अपने भाई की मौत की खबर सुनकर उन्होनें लॉकडाउन के दौरान विजयवाड़ा से सत्तानकुलम की 24 घंटे की यात्रा सड़क मार्ग द्वारा तय की. जब तक वो अपने घर पहुंची उनके पिता की भी मृत्यु हो चुकी थी. वो कहती हैं," उस घर में रहने से हमेशा उनकी याद आएगी."

इसलिए पर्सिस ने अपना सामान बांधा और वो वहां से लगभग 100 किलोमीटर दूर टेंकसी जिले के पुलियांगुड़ी में शिफ्ट हो गईं. वो अपने साथ अपनी विधवा मां और तीनों बेटियों को भी वहीं ले गईं. वो वहां पर चर्च के पास कच्ची और संकरी रोड पर बने अपने पति के घर रहने लगीं और भविष्य में भी उनका यहीं रहने का विचार है. पर्सिस को कादयानल्लूर तालुका दफ्तर में सरकारी नौकरी मिल गई और उसके लिए उन्हें रोजाना 15 किलोमीटर का सफर तय करना पड़ता है. लेकिन जो हादसा उनके परिवार के साथ हुआ था वो कहीं पीछे छूट गया है.

'न्याय में देरी नहीं होनी चाहिए'

बता दें कि 19 जून की रात को पुलिस ने 58 वर्षीय जयराज और उनके 31 वर्षीय बेटे बेनिक्स को सत्तानकुल्लम में उनकी मोबाइल एसेसरीज की दुकान से गिरफ्तार कर लिया था. उनका अपराध सिर्फ इतना था कि उन्होनें कोरोना संकट की वजह से लगाए गए लॉकडाउन का उल्लंघन करते हए कर्फ्यू के समय में भी दुकान खोली हुई थी.

पुलिस ने जयराज को उठा लिया था और बेनिक्स को पुलिस स्टेशन आने को कहा था. वहां उन्हें बुरी तरह से मारा पीटा गया और प्रताड़ित किया गया. अगले दिन उन्हें मजिस्ट्रेट के सामने पेश करने से पहले सत्तानकुलम सरकारी अस्पताल ले जाया गया जहां कथित तौर पर उनकी चोटों की जांच नहीं की गई और उन्हें हिरासत में भेज दिया गया. उनके परिवार को तो यह सब दो दिन बाद पता चला जब उन दोनों को कोविलपट्टी सरकारी अस्पताल में भर्ती करवाया गया. वहां पर 22 जून को बेनिक्स ने दम तोड़ दिया और अगले दिन उनके पिता ने. इन दोनों की मृत्यु के बाद जनाक्रोश फैल गया. राज्य सूचना एवं प्रचार मंत्री कदम्बूर सी राजू, थूथुकुड़ी से सांसद कनिमोई करूणानिधि, डीएमके नेता उदयनिधि स्टालिन और तमिल मनीला कांग्रेस के प्रमुख जी के वासन सहित कई पार्टियों के नेता उनके परिजनों से मिले. मद्रास हाईकोर्ट की मदुरै पीठ ने इस मामले पर स्वतः संज्ञान लेकर कार्यवाही शुरू कर दी.

इसके बाद कांस्टेबल से लेकर इंस्पेक्टर तक दस पुलिस अधिकारियों को गिरफ्तार किया गया जिनमें से नौ अभी जेल में हैं और एक की कोरोना की वजह से मौत हो गई. जुलाई में सीबीआई ने राज्य पुलिस की आपराधिक जांच विभाग से इस मामले को अपने हांथ में ले लिया. सीबीआई ने आरोपियों के खिलाफ 26 सितंबर को, उनकी जमानत की 90 दिन की अवधि समाप्त होने के कुछ दिन पहले, इस मामलें में अपनी चार्जशीट दायर की. उसमें उनके ऊपर हत्या और गलत कारावास के आरोप लगाए. अब पर्सिस जल्द से जल्द न्याय की उम्मीद लगाए बैठी हैं.

वो कहती हैं, "सोचिये एक पिता को उसके बेटे के सामने पीटा गया और एक बेटे को उसके पिता के सामने प्रताड़ित किया गया. उन्हें शारीरिक और भावनात्मक रूप से कितनी यातनाएं झेलनी पड़ी होगी? क्या उन्हें कठोर से कठोर सजा नहीं मिलनी चाहिए?" बेनिक्स की मां सेल्वारानी याद करते हुए कहती हैं कि मार्च में लॉकडाउन लगने के बाद बेनिक्स की शादी को स्थगित कर दिया गया था. अगस्त और सितंबर के महीने का जिक्र करते हुए वो कहती हैं, "हम अवनी के महीने में शादी की योजना बना रहे थे."

जयराज और बेनिक्स को दी गई प्रताड़ना के बावजूद उनके परिवार को बिलकुल भी यह नहीं पता था कि उनकी मृत्यु हो जाएगी, उन्हें लग रहा था कि इलाज के बाद वे ठीक हो जाएंगे. पर्सिस कहती हैं, "मेरी बेटियां अक्सर मुझसे पूछती हैं कि क्या उनके मामा अब उनसे कभी बात नहीं करेंगे या कभी वीडियो कॉल नहीं करेंगे. "यह कहते हुए उनकी आंखें डबडबा जाती हैं.

इसके आगे वो कहती हैं, "न्याय में देरी नहीं होनी चाहिए और हमें सिर्फ न्याय नहीं मिलना बल्कि बाकियों को सबक भी मिलना चाहिए." वो पिता और भाई की मृत्यु के बाद न्याय के लिए थोड़ा जल्दी में दिखती हैं. "एक बार जब घटना पुरानी हो जाती है तो पीड़ितों के परिजनों के अलावा बाकी सारे लोग उसके बारे में भूल जाते हैं जैसा कि एंटी-स्टरलाइट के विरोध प्रदर्शन के मामले में हुआ था."

मालूम हो कि थूथुकुडी में स्टरलाइट कॉपर प्लांट के खिलाफ विरोध प्रदर्शन 2018 में हुआ था जिसमें पुलिस की गोली से 13 लोगों की मौत हो गई थी और कई स्थायी रूप से विकलांग हो गए थे. इस घटना की धीमी सीबीआई जांच से आत्मविश्वास पैदा नहीं होता है. जब आप पुलिस हिरासत में हुई मौतों के मामलों में दोषियों के खिलाफ कार्रवाई का ट्रैक रिकॉर्ड देखते हैं तो यह और पुख्ता हो जाता है.

पुलिस बर्बरता का काला इतिहास

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार, 2014 से 2018 तक तमिलनाडु में कम से कम 35 मौतें पुलिस हिरासत में हुई हैं और अभी तक किसी भी आरोपी को सज़ा नहीं हुई है. एक अप्रैल 2019 से 30 मार्च 2020 तक, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने देश भर में 1,697 ऐसी मौतें दर्ज कीं जो पुलिस हिरासत में हुई थीं, इनमें से 1,584 मौतें न्यायिक हिरासत में हुईं और 113 पुलिस हिरासत में. कांग्रेस सांसद कार्ति चिदंबरम के एक सवाल के जवाब पर गृह मंत्रालय ने बताया कि उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल, बिहार, पंजाब, महाराष्ट्र, राजस्थान और हरियाणा के बाद तमिलनाडु इस मामले में पुलिस हिरासत में 12 मौतों और न्यायिक हिरासत में 57 मौतों के साथ नौवें स्थान पर है.

आधिकारिक रिकॉर्ड इस मामले की गंभीरता को नहीं दर्शाते हैं. वास्तव में बहुत सारे मामलें तो सामने ही नहीं आते. इसके अलावा पर्सिस ने थूथुकुड़ी जिले में कुछ और ऐसे मामलों के बारे में बताया जैसे कि पिकुलम के 29 वर्षीय एस महेन्द्रन जिनकी मृत्यु 13 जून को हुई और एस राजा सिंह जिनको गंभीर चोटें आई थीं. दोनों को कथित तौर पर सत्तानकुलम पुलिस द्वारा ही प्रताड़ित किया गया था.

इसके अलावा सत्तानकुलम के मार्टिन का मामला भी उन्होंने बताया, उन्हें भी सत्तानकुलम पुलिस ने ही अगस्त में कथित तौर पर प्रताड़ित किया था. फिर एक लॉरी चालक, एस सेलवन, के भाइयों द्वारा पुलिस हिरासत में प्रताड़ित किये जाने के खिलाफ हलफनामा दायर किये जाने के बाद सितंबर में उस लॉरी चालक को कथित तौर पर पुलिस ने पीट पीटकर मार दिया था. इसके अलावा टेंकसी में 27 जून को एक ऑटो चालक एन कुमारेसन को पुलिस ने इतना पीटा कि उसकी मृत्यु हो गई. जून में ही कायलपट्टिनम के हबीब मुहम्मद ने बताया कि पुलिस ने उनको इतना पीटा कि उन्हें डायलिसिस करवाना पड़ा. ख़बरों के अनुसार, ऑटो चालक हबीब को अरुमुगनेरी पुलिस ने इस आरोप में हिरासत में लिया था कि वो कोरोना कन्टेनमेंट ज़ोन में बिना मास्क पहने गए और रोकने पर पुलिस अधिकारी के मुंह पर धुआं छोड़ा.

हबीब ने न्यूज़लांड्री को बताया, "मुझे पुलिस स्टेशन ले जाया गया और प्लास्टिक के पाइप से मेरी जांघों एवं पैरों पर मारा. पैरों पर मारने के बाद मुझे ऊपर नीचे कूदने को और उठक-बैठक लगाने को कहा. एक महिला पुलिस अधिकारी ने तो मेरे मुंह पर लात भी मारी." गंभीर रूप से घायल हबीब को उस दिन घर वापस पहुंचने में 90 मिनट लग गए. उन्होनें बताया कि बाकि दिन उन्हें सिर्फ 15 से 20 मिनट ही लगते थे.

हबीब इलाज के लिए एक निजी अस्पताल गए लेकिन जब डॉक्टरों को पता चला कि यह पुलिस प्रताड़ना का मामला है तो उन्होनें हबीब को कायलपट्टिनम के सरकारी अस्पताल में भेज दिया. वहां से उन्हें थूथुकुड़ी मेडिकल कॉलेज भेज दिया गया. हालांकि कायलपट्टिनम में इस मामले को एक्सीडेंट के रजिस्टर में नोट किया गया और प्रोटोकॉल के अनुसार स्थानीय पुलिस को सूचित कर दिया गया.

हबीब ने कहा, "पुलिस ने आकर हमें धमकाया और यहां तक कि थूथुकुड़ी मेडिकल कॉलेज से आई एंबुलेंस को भी वापस भेज दिया गया." आख़िरकार उन्होनें निजी अस्पताल में इलाज की मांग की जहां उन्हें बताया गया कि मांसपेशियों में चोट के कारण रेबडोमायोलिसिस हो गया है जिसके कारण उन्हें खून में हानिकारक प्रोटीन निकलता है जो गुर्दों को नुकसान पहुंचाता है.

डॉक्टर ने बताया कि उन्हें डायलिसिस करवाना पड़ेगा इसके बाद उनके परिवार को 13 डायलिसिस के लिए 1.7 लाख रुपये से ज्यादा खर्च करने पड़े. हालांकि अब डायलिसिस होना ख़त्म हो गया है लेकिन दवाइयां अभी भी चल रही हैं. अपनी शुरुआती हिचकिचाहटों को दूर करते हुए 29 जून को हबीब के परिजनों ने अरुमुगनेरी पुलिस स्टेशन में शिकायत दर्ज करवाई. टीफाग्ने द्वारा दायर की गई याचिका के बाद हबीब को कानूनी सहायता प्रदान करने के लिए जिले के कानूनी सेवा प्राधिकरण द्वारा एक अधिवक्ताओं का पैनल नियुक्त किया गया जिसके बाद उसके परिजनों ने इस मामले को आगे ले जाने का मन बनाया. एक लोकल एनजीओ मास एम्पावरमेंट एंड गाइडेंस एसोसिएशन के सचिव मोहम्मद सलिहु ने बताया कि अभी तक कोई कार्रवाई नहीं की गई है. हबीब के परिजनों ने एमईजीए को हबीब को प्रताड़ित किये जाने के कुछ दिनों बाद ही संपर्क किया.

22 जुलाई को परिवार ने पुलिस अधीक्षक एस जयकुमार से संपर्क किया. फिर भी, एफआईआर दर्ज नहीं की गई. आख़िरकार हबीब के परिजनों ने तिरुचेंदुर न्यायिक मजिस्ट्रेट की अदालत का दरवाजा खटखटाया, जिन्होंने आरोपी पुलिस अधिकारियों, जिनमें से दो को बाद में स्थानांतरित कर दिया गया, के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने का आदेश दिया.

एमईजीए के सलिहु ने कहा, "संयोग से तत्कालीन तिरुचेंदुर डीएसपी, जिन्होनें हबीब के परिजनों से मुलाकात की और इस मामले को आगे ले जाने का आश्वासन दिया, को भी स्थानांतरित कर दिया गया है." सबूतों के साथ छेड़छाड़ का भी आरोप लगाया गया है. सलिहु ने कहा, "एक आरटीआई के जवाब के अनुसार पता चला कि सरकारी अस्पताल के दुर्घटना रजिस्टर की डुप्लीकेट कॉपी से उस लाइन को हटा दिया गया जिसमें यह लिखा था कि यह घटना अरुमुगनेरी पुलिस स्टेशन में हुई थी जबकि मूल प्रतिलिपि की एक फोटो में साफ़ दिखता है कि उसमें लिखा हुआ है कि यह चोटें पुलिस स्टेशन में लगी थीं."

हबीब और एमईजीए की मांग है कि इस मामले की जांच क्राइम ब्रांच द्वारा की जाए. फ़िलहाल इसकी जांच भूमि अधिग्रहण सेल के पुलिस उप-अधीक्षक द्वारा की जा रही है. लेकिन तमिलनाडु में पुलिस की बर्बरता एक स्थानिक समस्या है. दंड प्रक्रिया के तहत, पुलिस हिरासत में मौतों के बाद आमतौर पर मजिस्ट्रियल पूछताछ होती है लेकिन राज्य या पुलिस विभागों की प्रतिक्रियाएं दुर्लभ हैं. हालांकि, थूथुकुडी की घटना के बाद एक एसओपी के साथ एक परिपत्र जारी किया गया था, जिसमें कहा गया था कि जघन्य अपराधों को छोड़कर बाकि में गिरफ्तारी टाली जा सकती है और गैर-जमानती मामलों में गिरफ्तार किए गए संदिग्धों को एक पुलिस स्टेशन के बजाय उप-विभागीय केंद्रों पर ले जाना चाहिए. राज्य सरकार द्वारा मद्रास उच्च न्यायालय की मदुरै बेंच को सूचित किया गया कि हिरासत में मौतों के मामले में पुलिस द्वारा अपनाई जाने वाली एसओपी को लागू करने के लिए एक उच्च स्तरीय समिति बनाई जाएगी जिसमें मुख्य सचिव, गृह सचिव और कानून सचिव शामिल होंगे.

इसके अतिरिक्त, इन जैसे मुद्दों से निपटने के लिए वैधानिक मंचों का ट्रैक रिकॉर्ड रखना भी जरूरी है. उदाहरण के लिए, सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के तीन साल बाद पुलिस हिरासत में कदाचार के आरोपों को देखने के लिए 2019 में राज्य पुलिस शिकायत प्राधिकरण स्थापित किया गया था. शीर्ष अदालत के निर्देशों का खुलेआम उल्लंघन करते हुए तमिलनाडु के शिकायत प्राधिकरण की अध्यक्षता गृह सचिव द्वारा की जा रही है ना कि उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश द्वारा. इसके सदस्यों में अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक, कानून व्यवस्था और पुलिस महानिदेशक शामिल होते हैं- उन्हीं लोगों के प्रतिनिधि जिनको इन मामलों में जवाबदेह ठहराहना है.

इसी तरह, पुलिस शिकायत प्राधिकरण के जिला-स्तरीय निकायों की अध्यक्षता सेवानिवृत्त जिला न्यायाधीशों द्वारा की जानी है. तमिलनाडु में इनकी अध्यक्षता कलेक्टर करते हैं. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की भी मानवाधिकारों के उल्लंघन के मामलों में निष्क्रियता के लिए आलोचना की गई है. मदुरै स्थित एक मानवाधिकार संस्था, पीपल्स वाच के कार्यकारी निदेशक हेनरी टीफाग्ने कहते हैं, "एनएचआरसी का पिछले 25 सालों का ट्रैक रिकॉर्ड देखें तो उन्होनें किसी भी मामले को अभियोजन के लिए नहीं भेजा सिर्फ मुआवजा देता रहा है."

पीपल्स वाच मद्रास उच्च न्यायालय में सत्तानकुलम में पुलिस हिरासत में हुई मौतों के मामलें में दायर की गई स्वतः संज्ञान की जनहित याचिका में एक पार्टी है. पुलिस हिरासत में हुई मौतों के बाद, 23 राजनीतिक दलों सहित तमिलनाडु और पुडुचेरी में 90 संगठनों ने ज्वाइंट एक्शन अगेंस्ट कस्टोडियल टार्चर नाम से एक फोरम गठित किया. टीफाग्ने कहते हैं, "यह फोरम किसी प्रताड़ना के खिलाफ कोई अभियान नहीं चला रहा है. हम इस प्रताड़ना के खिलाफ लड़ाई कर रहे हैं. इसलिए हमने पुलिस प्रताड़ना के कई मामले उठाएं हैं और उनको किसी ना किसी तरीके से आगे ले जा रहे हैं." कुछ हस्तक्षेप हुए लेकिन वो काफी नहीं थे. जयराज और बेनिक्स की मृत्यु के एक हफ्ते से भी कम समय में 29 जून को एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी वी बालकृष्णन ने कार्रवाई करने का फैसला किया.

तिरुचि के तत्कालीन पुलिस महानिरीक्षक बालाकृष्णन ने अपनी रेंज के 80 पुलिस कर्मियों, जिन्हें व्यव्हार सुधार की जरूरत है, जिनके रिकॉर्ड वांछित थे, के लिए एक कॉउंसलिंग प्रोग्राम करने की घोषणा की. ऐसे पुलिस कर्मियों को उनके पिछले आचरण, ख़ुफ़िया सूचनाओं और जनता की शिकायतों के आधार पर चुना गया था. बालाकृष्णन अपने प्रोजेक्ट को साकार नहीं कर सके क्योंकि अगले ही दिन उनका ट्रांसफर हो गया लेकिन जल्द ही पुलिस कर्मियों का एक समूह तिरुचि में राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य और न्यूरो-विज्ञान के विशेषज्ञों के साथ कॉउंसलिंग सेशन के लिए इकट्ठा हुआ.

तिरुचि के होली क्रॉस कॉलेज में सहायक प्रोफेसर पी अनीथा, जिन्होनें ऐसे कुछ सत्रों को संभाला है, कहती हैं, "पुलिस कोरोना के कारण लगे लॉकडाउन के दौरान बहुत तनाव में थी, जिसे वे झेलने में सक्षम नहीं थे. कॉउंसलिंग के दौरान हमने व्यक्तित्व विकास और तनाव प्रबंधन पर सत्र किया." लेकिन ये बालाकृष्णन का विचार नहीं था. वर्तमान में ग्रेटर चेन्नई पुलिस के संयुक्त आयुक्त बालाकृष्णन कहते हैं, “हमने पुलिस कर्मियों के व्यवहार में बदलाव लाने के

लिए एक महीने के लिए संज्ञानात्मक व्यवहार थेरेपी प्रदान करने की योजना बनाई थी. इसके लिए हमने मनोवैज्ञानिकों की मदद से एक मॉड्यूल तैयार किया, जिसमें कक्षा प्रशिक्षण, अभ्यास और अन्य गतिविधियां शामिल हैं. यदि आपको कोई आदत बदलनी है, तो इसमें कम से कम तीन सप्ताह लगते हैं. जब तक आप इसे तय समय के लिए नहीं करते हैं तब तक व्यवहार में बदलाव नहीं हो सकता है.”

दो जुलाई को मद्रास उच्च न्यायालय ने सरकार को निमहंस के साथ इन पुलिस सुधारों के कार्यक्रमों को जारी रखने का निर्देश दिया. लेकिन जब पुलिस की बर्बरता की बात आती है तो यह कितने प्रभावी हैं? पीपल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीस के सचिव वी सुरेश कहते हैं, "पुलिस अधिकारियों के मानसिक स्वास्थ्य को सुधारने के लिए पुलिसकर्मियों की काउंसलिंग करना बहुत जरूरी है, लेकिन हमें पुलिस अधिकारियों के हिंसक, गैरकानूनी और भ्रष्ट व्यवहार से भ्रमित नहीं होना चाहिए. मानसिक स्वास्थ्य के नाम पर भ्रष्ट व्यवहार या पुलिस के हिंसक व्यव्हार से नहीं जोड़ना चाहिए."

यहां पर यह समझना जरूरी है कि जहां एक ओर कुछ पुलिस अधिकारियों ने और निजी संगठनों ने व्यक्तिगत स्तर पर कुछ कदम उठाएं हैं वहीं सरकार द्वारा इस समस्या से निपटने के लिए कोई ठोस प्रयास नहीं किया गया है. सुरेश ने पुलिस से जवाबदेही मांगने में मीडिया सहित सिविल सोसाइटी की दिलचस्पी की कमी की ओर भी इशारा किया. वो कहते हैं, "जब तक नागरिकों को यह समझ नहीं आएगा कि जवाबदेही मांगना उनकी जिम्मेदारी है तब तक चीजें बदलने वाली नहीं हैं और पुलिस कानून के दुरुपयोग में लिप्त रहेगी."

शायद यही कारण है कि 1997 में संयुक्त राष्ट्र के कन्वेंशन अगेंस्ट टार्चर पर हस्तक्षर करने के बावजूद ब्रूनेई, हैती, पलाऊ, सूडान के साथ-साथ भारत केवल पांच देशों में से एक हैं जिन्होनें इसको मंजूर नहीं किया. इस संधि में टार्चर के खिलाफ प्रभावी कदम उठाने की बात कही गई है. एंटी-टॉर्चर बिल भी कानून में तब्दील नहीं होते. 2010 में लोकसभा ने अत्याचार निवारण विधेयक पारित किया था. राज्य सभा ने इसे यूएनसीएटी के अनुरूप बनाने के लिए सेलेक्ट समिति को भेज दिया लेकिन 15वीं लोकसभा के विघटन के साथ यह बिल भी ख़त्म हो गया.

टीफाग्ने कहते हैं, “हमारे पास अत्याचार विरोधी कानून के अच्छे ड्राफ्ट हैं. उनमें से सबसे अच्छा ड्राफ्ट 2017 में विधि आयोग द्वारा तैयार किया गया था. 2014 में राज्य सभा की स्थायी समिति द्वारा एक और ड्राफ्ट विधेयक प्रस्तावित किया गया था. किसी भी ड्राफ्ट में यह सुनिश्चित किया जाना जरूरी है कि अत्याचार की परिभाषा यूएनसीएटी के अनुसार हो. हमें यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि प्रताड़ना के खिलाफ शिकायतों पर कोई समय सीमा ना हो और झूठी शिकायतों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होनी चाहिए ताकि पीड़ितों को इनके खिलाफ शिकायत करने से रोका ना सके. इसके अलावा बड़े अधिकारियों को इसके लिए उत्तरदायी बनाया जाना चाहिए."

सुरेश कहते हैं कि सिर्फ कानून पुलिस का रवैया नहीं बदल सकता है, जो यह सोचती है कि नागरिकों को हिंसा से दबाना चाहिए. वो इसे "कोलोनियल हैंगओवर" का हिस्सा कहते हैं जो रातों रात या अपने आप नहीं बदलेगा. वो कहते हैं, “पुलिस का लोकतंत्रीकरण और संस्थागत परिवर्तन, जिसमें बदलती मानसिकता और दृष्टिकोण, पुलिस अधिकारियों, चुने हुए प्रतिनिधियों और लोगों के बीच दृष्टिकोण को बदलना, और कार्य संस्कृति को बदलना शामिल हैं, के बारे में योजना बनानी होगी, उसको लागू करना होगा ताकि पुलिस के काम करने के तरीके में आमूलचूल परिवर्तन आ सके."

टीफाग्ने ने इसी तरह के एक बहु-आयामी दृष्टिकोण का सुझाव दिया. उन्होनें कहा, "प्रताड़ना के खिलाफ एक घरेलू राष्ट्रीय कानून की और यूएनसीएटी को मंजूरी देने की जरूरत है इसके साथ ही प्रताड़ना के खिलाफ एक व्यापक आंदोलन की भी जरूरत है. इन सभी को हमें एक साथ जोड़ने की जरूरत है."

अब पर्सिस और उनके परिवार को सिर्फ जयराज और बेनिक्स के लिए न्याय नहीं चाहिए बल्कि इससे भी ज्यादा चाहिए. पर्सिस कहती हैं, "मुझे पता है कि मेरे पिता और मेरा भाई कभी वापस नहीं आएंगे. जब तक हम जिन्दा हैं हमें इस दर्द के साथ रहना होगा." उस डरावने हादसे को याद करते हुए वो कहती हैं कि "ऐसा किसी और के साथ नहीं होना चाहिए."

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