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गोस्वामी का गणतंत्र: न्यूज़रूम नहीं, दरबार

27 अगस्त को तेजिंदर सिंह सोढ़ी ने ट्विटर पर रिपब्लिक टीवी के जम्मू-कश्मीर ब्यूरो के चीफ पद से इस्तीफा देने की घोषणा की. उन्होंने लिखा, "पत्रकारिता को उसकी आत्मा की साढ़े तीन साल तक हत्या करने के लिए माफ़ीनामा लिखने के बाद, मैंने रिपब्लिक टीवी से इस्तीफ़ा दे दिया है. जल्द ही और जानकारी यहां पर दी जाएगी."

ये "जानकारी" इसके बाद एक सितंबर को पी-गुरूज़ नामक वेबसाइट पर प्रकाशित हुई, जिसमें दावा किया गया था कि यह पत्रकार के "रिपब्लिक टीवी में काम करने के भयानक अनुभव" को दर्शाता हुआ "खुलकर लिखा गया पत्र" है.

बाकी खुलकर लिखे हुए इस्तीफों की तरह यह पत्र भी अंत में ट्विटर पर पहुंच गया. न्यूजलॉन्ड्री ने रिपब्लिक टीवी के कई पूर्व कर्मचारियों से तेजिंदर के दावों पर उनका मत और रिपब्लिक टीवी के न्यूज़रूम में उनके अनुभव को समझने के लिए बात की.

तेजिंदर के दावों की फेहरिस्त.

एक पेशेवर हत्यारे सा काम

तेजिंदर की रिपब्लिक टीवी के एचआर प्रमुख को लिखी गई 3,500 शब्दों की ईमेल बहुत से विषयों की विस्तार से चर्चा करती है, जिनका उन्होंने कंपनी में रहते हुए सामना किया. वह कहते हैं कि उन्होंनेे रिपब्लिक टीवी में काम करना इसलिए शुरू किया क्योंकि उसके मालिक और संपादक अर्णब गोस्वामी ने उन्हें विश्वास दिलाया था कि चैनल "दबे कुचलों की आवाज़" बनेगा. पर तेजिंदर कहते हैं कि उन्हें जल्दी ही एहसास हो गया कि पत्रकारों का इस्तेमाल अर्णब लोगों को निशाना बनाने के लिए कर रहे थे.

वह बताते हैं कि किस प्रकार उन्हें सुनंदा पुष्कर की मौत के लिए उनके पिता को घेर कर, उनके पति कांग्रेस सांसद शशि थरूर के खिलाफ बोलने के लिए मजबूर करने को कहा गया था. तेजिंदर यह भी बताते हैं कि जम्मू और कश्मीर में ब्यूरो चीफ के नाते उनका मुख्य काम, पूर्व प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्रियों "उमर अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती को निशाना बनाकर उनके खिलाफ बोलना" था. वे यह भी स्वीकारते हैं कि उन्होंने अपना काम अच्छे से किया और "सुनिश्चित किया कि उन्हें देशद्रोही की तरह दिखाया जाए और उनके हर काम में कमी निकाली जाए."

न्यूजलॉन्ड्री से बातचीत में तेजिंदर ने स्वीकार किया कि ऑनलाइन घूम रही ई-मेल उन्होंने ही लिखी है. वे कहते हैं कि इस ईमेल को सार्वजनिक कर उन्होंने बहुत बड़ा पेशेवर खतरा मोल लिया है. यह जानते हुए कि अपने पिछले संस्थान के बारे में उल्टा-सीधा बोलना उन्हें मीडिया जगत में बेरोजगार बना सकता है. एक ऐसी दुनिया जहां बड़े-बड़े पत्रकार अपने न्यूज़ रूम और कंपनियों के अंदर क्या हो रहा है, इस पर बात नहीं करते.

तेजिंदर न्यूज़लॉन्ड्री को बताते हैं, "किसी को तो करना ही था. जो हम कर रहे थे वह पत्रकारिता नहीं है, बेवजह निशाना बनाना है. मुझे इसका एहसास पहली बार तब हुआ जब मुझे एक पोस्टर लेकर और काली पट्टी बांधकर कांग्रेस के दफ्तर के बाहर प्रदर्शन करने के लिए कहा गया."

वह आगे कहते हैं, "मेरा काम पेशेवर हत्यारे की तरह था. यह पता लगाना कि उमर अब्दुल्ला क्या कह रहे हैं, महबूबा मुफ्ती क्या बोल रही हैं, उसमें कमी ढूंढ़ लेना और फिर ख़बर देना कि वह देशद्रोही हैं."

फिल्मों की देखा देखी रिपब्लिक टीवी के संपादकों ने भी अपनी तरह की इस पत्रकारिता के लिए एक नाम खोज लिया है- "चेज़ सीक्वेंस" अर्थात लगातार किसी का पीछा करना. पत्रकारों को ऐसे लोगों का पीछा करने के लिए कहा जाता है जो अमूमन विपक्षी दल के होते हैं. उनके मुंह के सामने जबरदस्ती माईक घुसेड़ देना और जवाब मांगते रहना.

हालांकि तेजिंदर के अनुसार उन्हें कभी साफ तौर पर ऐसा नहीं कहा गया की भारतीय जनता पार्टी दूध की धुली है, परंतु खबरों के चयन के तरीके से यह साफ जाहिर था. वे दावा करते हैं कि नगरोटा, जम्मू में सेना के असला गोदाम के पास भाजपा के नेताओं के द्वारा किए गए अवैध निर्माण पर उनकी रिपोर्ट को दबा दिया गया, जबकि उनके पास सेना के प्रवक्ता के द्वारा इस बात की पुष्टि का बयान था.

संयोगवश यह रिपोर्ट बाद में इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित हुई. जिन नेताओं की बात इस मामले में हो रही है वह भाजपा के निर्मल सिंह और कविंदर गुप्ता हैं, दोनों ही जम्मू और कश्मीर के पूर्व उप मुख्यमंत्री रहे हैं. तेजिंदर इस घटना को रिपब्लिक टीवी के फर्जी राष्ट्रवाद का एक उदाहरण बताते हैं.

अपने इस्तीफे में तेजिंदर रिपब्लिक टीवी के अंदर फैले वंशवाद की बात भी करते हैं. उनका दावा है कि अर्णब की पत्नी सौम्याब्रता रे हिंदी और अंग्रेजी दोनों चैनलों के कामकाज में अंतिम आवाज़ हैं. तेजिंदर अर्णब के बारे में कहते हैं, "वह सोनिया गांधी को सुपर प्रधानमंत्री कहते हैं, परंतु उनकी पत्नी रिपब्लिक टीवी की सुपर संपादक और मैनेजिंग एडिटर सबकुछ हैं. जबकि वे सिर्फ एग्जीक्युटिव एडिटर हैं, लेकिन उनकी अनुमति के बिना एक पत्ता भी नहीं हिल सकता."

सौम्याब्रता रे पहले टेलीग्राफ, एएनआई और तहलका के लिए काम कर चुकी हैं, इस समय वह रिपब्लिक टीवी की एग्जीक्युटिव एडिटर और साझा मालिक हैं.

दरबारी संस्कृति

न्यूज़लॉन्ड्री ने रिपब्लिक टीवी को छोड़ चुके बहुत से वरिष्ठ संपादकों, एंकर और पत्रकारों से उनके चैनल छोड़ने के कारणों और तेजेंद्र के आरोपों पर उनकी राय जानने के लिए बात की.

न्यूज़लॉन्ड्री को अहसास है कि अज्ञात सूत्रों के आधार पर की गई कोई रिपोर्ट लोगों को अटपटा लग सकता है परंतु हमसे बात करने वाले सभी लोगों ने अपना नाम गोपनीय रखने की शर्त पर ही बात की. ऐसा इसलिए कि वे लोग नहीं चाहते थे कि उन्हें कोई संस्थान परेशानी खड़ा करने वाले व्यक्ति के रूप में देखे. उन्हें यह भी डर था कि पिछले संस्थान के बारे में कुछ बोलना उन्हें बेरोजगार बना सकता है. भारत में अधिकतर मीडिया संस्थानों में कर्मचारियों के दूसरे समाचार संस्थाओं से बात करने की सख्त मनाही के नियम हैं, इसीलिए भारत में मीडिया पर रिपोर्ट करना दोहरी मुसीबत है.

हमसे बात करने वाले लोगों में बहुतों को अर्णब गोस्वामी के साथ निकट से काम करने का अनुभव है.

एक व्यक्ति ने कहा की तेजिंदर की ईमेल साफ तौर पर दिखाती है कि इस क्षेत्र में गिने चुने अनुभवी लोग हैं जो अर्णब साथ काम करना चाहेंगे. "उन्होंने जो रिपब्लिक टीवी में जो बनाया है वह एक न्यूज़रूम नहीं, दरबार है. आमतौर पर एक संस्था में जूनियर, मध्य स्तर के और वरिष्ठ मैनेजर होते हैं पर अर्णब ने न्यूज़रूम को अनुभवहीन युवाओं से भर दिया है जो उनका किसी तरह से विरोध नहीं कर सकते. रिपब्लिक टीवी के सबसे अनुभवी लोग उसे छोड़ चुके हैं.”

इस व्यक्ति ने अर्णब में 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद आए बड़े बदलाव की ओर इशारा किया, "अर्णब और उनके चैनल पर आने वाले लोग बहुत आक्रामक हो गए हैं. आज अर्णब के पास किसी के लिए कुछ अच्छा कहने को नहीं है. समाचारों में यह ड्रामा, लगातार चीखना चिल्लाना एक हद के बाद बहुत शर्मनाक हो जाता है. उन्हें आज तक को पीछे छोड़ने का जुनून था, और उन्होंने उसे पीछे छोड़ भी दिया, पर उसके एवज में उन्होंने एक पत्रकार के तौर पर अपनी सारी विश्वसनीयता गवां दी."

एक पूर्व वरिष्ठ एंकर ने यह तर्क रखा कि जब आपके संस्थान के सारे अनुभवी पेशेवर लोग एक के बाद एक छोड़ कर जा रहे हों, तब आपको ठहर कर सोचना चाहिए. इस एंकर के अनुसार रिपब्लिक टीवी का वातावरण "विषैला और नकारात्मक" था.

यह एंकर आगे बताते हैं, "व्यक्ति के निजी जीवन का कोई सम्मान नहीं है. वह रात में एक बजे आपके ऊपर चिल्लाने के लिए फोन करता है. जो आदमी जो आपसे सहर्ष बात करने के लिए तैयार है, उसका भी पीछा करने, उसे उकसाने और मजबूर कर प्रतिक्रिया लेने जैसी बेतुकी मांग करता है."

इस एंकर ने बताया कि जो लोग टीवी चैनलों में काम करने आते हैं उन्हें अंदाजा होता है कि यह कितना मशक्कत वाला काम है और वे उस मेहनत के लिए मानसिक रूप से तैयार होते हैं. उनके शब्दों में, "मैं यह नहीं कहूंगा कि वहां किसी भी व्यक्ति ने अपनी अक्षमता के चलते काम नहीं छोड़ा. हमने जितना हो सकता था उतना अच्छा काम किया. पर वहां दिक्कत यह है कि अच्छा काम करने की वजह से आप लोगों की नजरों में आते हैं, इससे कुछ लोगों को दिक्कत हो जाती है. भले ही अर्णब आपकी क्षमता को जानते हों, पर किसी पर भरोसा नहीं करता. उसके चारों तरफ एक कोटरी बन गई है जो इस प्रकृति का इस्तेमाल करती है." इस एंकर ने यह भी कहा कि अगर कोई अच्छा काम करता था तो उसके आसपास के लोग असुरक्षित महसूस करने लगते थे.

"इस लिहाज से इस संस्थान के अंदर आपके बढ़ने की एक सीमा है, आपको उसी से संतोष करना पड़ेगा."

आदित्य राज कौल, जो रिपब्लिक टीवी में शीर्ष के संपादक और पत्रकार थे, उन्होंने तेजिंदर की ईमेल पर कोई टिप्पणी करने से इनकार किया लेकिन उन्होंने पत्रकार के तौर पर तेजिंदर की विश्वसनीयता की पुष्टि की. "वह थोड़ा भावुक हैं पर इससे आप उनके लिए कोई पूर्वाग्रह नहीं बना सकते. मैंने ही उन्हें पीटीआई की आराम की नौकरी छोड़कर टीवी में आने के लिए प्रेरित किया था. मैंने रिपब्लिक से वरिष्ठ संपादक और वरिष्ठ एंकर के तौर पर 31 दिसंबर, 2018 को इस्तीफा दे दिया था. मैंने अर्णब को आश्वस्त किया था कि मेरे इस्तीफा देने की वजह उन्हें या उनके चैनल को बदनाम करना नहीं, और मैं उस बात पर आज भी अडिग हूं. हालांकि मुझे रिपब्लिक टीवी से इस्तीफे पर कोई पछतावा नहीं है."

हम नंबर वन बनेंगे भी या नहीं?

रिपब्लिक टीवी के पूर्व कर्मचारियों से हमारी हर वार्ता में स्टिंग ऑपरेशन पर खासतौर से बल दिए जाने की बात सामने आई.

एक पूर्व रिपब्लिक टीवी एंकर जो अब एक दूसरे बड़े अंग्रेजी समाचार चैनल में काम करती हैं, उन्होंने बताया कि कैसे एक बार उन्हें अपने सूत्र का ही स्टिंग करने के लिए कहा गया. "वह हमें ऐसे निर्देश देते थे, 'गुप्त माइक लगा कर अपने सूत्र से मिलो', मैं ऐसा क्यों करूंगी? कोई भी व्यक्ति आपके लिए जानकारी का सूत्र तब बनता है जब आपके और उनके बीच एक भरोसा पैदा हो. उसकी पहचान गुप्त रखना मेरी जिम्मेदारी है, उसे उजागर नहीं करना होता. आप कल्पना करिए कि युवा पत्रकारों को वहां पर क्या सिखाया जा रहा है- आपके ऊपर विश्वास करने वाले गुप्त सूत्रों को खतरे में डालने में कोई दिक्कत नहीं है, चोरी से उनकी रिकॉर्डिंग कीजिए और फिर उनकी पहचान बाहर बता दीजिए जबकि वे ऐसा नहीं करना चाहते."

हाल ही में सुशांत सिंह राजपूत के फिटनेस ट्रेनर पर किए गए "स्टिंग ऑपरेशन" में रिपब्लिक टीवी की पत्रकार बिल्कुल शुरुआत में ही कहती हैं, "यह ऑफ द रिकॉर्ड है, हम इसे प्रसारित नहीं करेंगे."

यहां पर जिस चीज को एक खुलासे की तरह पेश किया गया वह दरअसल एक पत्रकार और उसके सूत्र के बीच हो रही औपचारिक बातचीत है न कि कोई खुफिया छानबीन. यहां यह तथ्य भी महत्वपूर्ण है कि स्टिंग ऑपरेशन पत्रकारिता में अंतिम विकल्प के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है, तब जबकि कोई बहुत बड़ा जनहित का मुद्दा इससे जुड़ा हो और सच्चाई किसी अन्य तरीके से सामने नहीं लायी जा सके.

जिस एंकर का बयान हमने ऊपर दिया है वह वह इस चैनल की संस्थापक सदस्यों में थीं, पर कुछ ही दिन में उसे छोड़ कर चली गईं. उनके लिए स्थितियां तब असहनीय हो गई जब उन्हें अपने खास सूत्र की पहचान उजागर करने के लिए मजबूर किया गया. उन्होंने बताया, "मुझे अपने एक बहुत विश्वस्त सूत्र से एक राजनेता के बारे में कुछ जानकारी मिली, यह उनके व्यक्तिगत जीवन से जुड़ी थी. जब मैंने इस जानकारी का ज़िक्र अर्णब और उनकी पत्नी से किया तो वह काफी उत्साहित हुए. उन्होंने मुझे धमका कर उस सूत्र की पहचान उगलवा लिया. अर्णब ने कहा कि अगर मैंने उन्हें नाम नहीं बताया तो वह टीवी पर जाकर पूछेंगे कि कौन है जो रिपब्लिक टीवी के पत्रकारों को पीछे से खबरें दे रहा है. फिर उन्होंने यह मांग रखी कि मैं अपने उस विश्वस्त सूत्र की अर्णब से भेंट कराऊं. मैंने कहा कि वह अर्णब से किसी हाल में नहीं मिलना चाहता. इस पर मुझे इस प्रकार की बातें सुनाई गईं, जैसे मुझे पता होना चाहिए मैं किससे बात कर रही हूं और कैसे कई प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री अर्णब से डरते हैं. उस समय बहुत ज्यादा छीछालेदार हो गई तो मैं बाहर टहलने के लिए निकल गई और फिर कभी पलट कर नहीं गई."

इस एंकर ने अर्णब को एक सामंती मीडिया मुगल की तरह पेश किया जो बेहद आत्ममुग्ध है. "अर्णब के दिमाग में शायद यह है कि मोदी के बाद इस देश का सबसे ताकतवर व्यक्ति वही है. मुझे याद है एक बार वह रात के 12:30 बजे अपने ऑफिस के बाहर आए और चिल्लाकर बोले- हम नंबर वन बनेंगे कि नहीं? हम सब मिलकर साथ देते थे, 'हां'. वह कहते थे, 'मुझे सुनाई नहीं दिया.' फिर हम और जोर से हां कह कर तालियां बजाने लगे. जब वह ऑफिस के लोगों को अपना कोई भाषण देते हैं तो बैठा नहीं जाता था. और अगर किसी ने मुस्कुरा दिया तो वह अर्णब के निशाने पर आ जाता है. "

इस एंकर ने बताया कि उन्हें सबसे ज्यादा परेशानी ऑफिस में कामकाज के वातावरण से हुई, "वह काम करने की विचित्र जगह है. हर दिन संपादकीय बैठक रात के 2:30 बजे तक खत्म होती थी और लोगों को सुबह 7:30 बजे दफ्तर में रिपोर्ट करने के लिए कहा जाता था. कोई साप्ताहिक छुट्टी नहीं मिलती थी. अक्सर हम ऑफिस में ही सो जाते थे. कई बार हमें रात के 3:30 बजे उठा कर प्रोमो शूट करने के लिए कहा जाता था. एक बार मैं ऑफिस से घर जाना चाहती थी क्योंकि मुझे थोड़ा बुखार था, पर मुझे गोली खाकर वहीं रहने के लिए कह दिया गया."

एक अन्य पूर्व पत्रकार ने भी स्टिंग से जुड़े ऐसे ही कुछ अनुभव साझा किए. उन्होंने कहा, "आपको लोगों का स्टिंग करने के लिए वाहियात निर्देश दिए जाते हैं, अगर सामने वाला आपसे खुलकर बात करने को तैयार हो या ऑन रिकॉर्ड जानकारी देने को तैयार हों, तब भी उसका स्टिंग करने की जिद की जाती थी. मुझे एक खास विश्वविद्यालय के छात्रों का स्टिंग करने के लिए कहा गया था. मैंने रिपब्लिक टीवी ज्वाइन करने के कुछ ही समय में छोड़ दिया. मुझे पता चल गया था कि यह सब मेरे बस का नहीं है."

इस पत्रकार के मुताबिक रिपब्लिक टीवी में जो हो रहा है वह पत्रकारिता नहीं है, यह समझने के लिए कई साल बिताने की जरूरत नहीं है.

खबरों की रूपरेखा

श्वेता कोठारी रिपब्लिक टीवी में इन्वेस्टिगेशन टीम की संस्थापक सदस्य थीं. इस टीम का नेतृत्व प्रेमा श्रीदेवी के हाथ में था जो खुद भी रिपब्लिक टीवी को छोड़कर जा चुकी हैं और खुद का एक नया वेंचर शुरू करने वाली हैं. श्वेता इस समय लॉजिकल इंडियन की कार्यकारी संपादक हैं, वे अपने पिछले संस्थान रिपब्लिक टीवी में व्याप्त अविश्वास के माहौल को बयान करती हैं.

वे कहती हैं, "मुझ पर शशि थरूर की जासूस होने का आरोप लगा था. यह उस समय की बात है जब चैनल नया नया ही शुरू हुआ था और हम शशि थरूर का पीछा सुनंदा पुष्कर वाली कहानी के लिए कर रहे थे. जब मैंने अर्णब से इस बात पर जवाब मांगा तो उन्होंने मुझसे कहा, 'हम तुम्हें बचाने की कोशिश कर रहे हैं और तुम्हें अपने किसी निकट के व्यक्ति की खबरों से अलग रख रहे हैं'. मुझे नहीं पता वह इस बात से क्या कहना चाह रहे थे."

श्वेता को संदेह है कि ऐसा संभवत इसलिए हुआ क्योंकि शशि थरूर उन्हें ट्विटर पर फॉलो करते हैं.

वे बताती हैं, "एक चीज जो सामने आई थी वह यह कि मैंने 2014 में शशि थरूर को कांग्रेस का अध्यक्ष बनाए जाने के लिए चेंज डॉट ओआरजी की एक याचिका पर दस्तख़त किए थे. पर उन लोगों के पास इसे जानने के लिए मेरी ईमेल खंगालने के अलावा और कोई रास्ता नहीं था."

श्वेता रिपब्लिक टीवी में एनडीटीवी से आई थीं और उन्होंने अर्णब को अपने साक्षात्कार में ही बता दिया था कि मेरा झुकाव दक्षिणपंथी विचारधारा की तरफ नहीं है. "उन्होंने और उनकी पत्नी ने मुझे आश्वासन दिया था की अपने खुद के ब्रांड से उनका लक्ष्य भारत और सैन्य बलों के लिए सही बात रखने का था. मुझे लगा कि अब वह टाइम्स नाऊ के साथ नहीं हैं तो रिपब्लिक टीवी थोड़ा भिन्न तरीके से खड़ा होगा."

इस बात की पुष्टि और लोगों ने भी की जो 2014 से अर्णब के भाजपा की तरफ झुकाव के बावजूद उनके साथ काम करने को राज़ी हो गए थे. रिपब्लिक टीवी के पूर्व एंकर-संपादक कहते हैं, "मैंने टाइम्स नाउ को अर्णव के साथ काम करने के लिए इसलिए छोड़ा क्योंकि जब तक वहां थे कम से कम उन्होंने हमारे ऊपर कभी भी सीधा दबाव नहीं डाला, उन्होंने कभी नहीं कहा कि आप यह स्टोरी नहीं कर सकते क्योंकि यह भाजपा के खिलाफ है. नविका ने यह खुलकर करना शुरू कर दिया था. पर 2019 में रिपब्लिक टीवी में चीजें बहुत तेजी से बदलीं, पहले मैं कम से कम कुछ कहानियां तो दिखा ही लेती थी."

इसके उदाहरण के तौर पर वह एक बैंकिंग घोटाले को याद करती हैं जिसे वह नियमित रूप से दिखा रही थीं. "वे चाहते थे कि मैं इसका सारा दोष उन कांग्रेस विधायकों पर मढ़ दूं जो घोटाले में शामिल ही नहीं थे बल्कि कुछ लोगों की ज़मानत देने की कोशिश कर रहे थे. उन्होंने आरोपी की कुछ गैर भाजपा के लोगों के साथ फोटो को एक ही थैली का चट्टा-बट्टा बताकर खूब चलाया. जब मैंने उन्हें आरोपी की भाजपा के नेताओं के साथ तस्वीरें भेजीं, तो उस तरफ मरघट सी चुप्पी छा गई."

इन एंकर एडिटर का कहना था कि विपक्षी नेताओं से साक्षात्कार के दौरान कर्मचारियों के द्वारा अभद्रता की अपेक्षा की जाती थी. "अगर वह एक सामान्य तरीके से किया जाने वाला साक्षात्कार है, तो वह काम नहीं करेगा. वे चाहते हैं कि आप लोगों से अभद्रता से पेश आएं क्योंकि वही तो ड्रामा है. पत्रकारों से अपेक्षित है कि वह लोगों का पीछा करें पर इसलिए नहीं कि उन्हें कोई बहुत प्रासंगिक या ज्वलंत विषय पर सवाल करने हैं, बल्कि इसलिए कि आप अभद्रता से पेश आ सकें."

एक पूर्व निर्धारित कहानी को लेकर श्वेता बताती हैं कि इसका अनुभव उन्हें चैनल शुरू होने के कुछ महीने बाद हुआ. उन्हें कश्मीरी पंडितों के घाटी में वापस लौटने पर आम कश्मीरी मुसलमानों की प्रतिक्रिया का स्टिंग करने के लिए कहा गया. "मैं गांव-गांव घूमी और मैंने बहुत से लोगों से पूछा कि क्या वो कश्मीरी पंडितों का घाटी में फिर से स्वागत करेंगे. कुछ लोग थे, अधिकतर वे जिन्होंने किसी न किसी समय पर हथियार उठाए थे, जिन्होंने कश्मीरी पंडितों के खिलाफ हुई हिंसा में भाग लेने की बात कही. मैंने करीब 50 लोगों से बात की होगी जिनमें से 20 के करीब कैमरे पर थे, उनमें से तीन या चार ने वो कहा जो अर्णब दिखाना चाहते थे- पंडितों के प्रति नफरत. ज्यादातर वो लोग थे जिन्होंने विस्थापित कश्मीरी पंडित भाइयों के साथ शांति से रहने और उनका स्वागत करने की बात की, उन्हें कभी नहीं दिखाया गया."

‘जी-हुजूर’ मंडली का घेरा

विडंबना यह है कि अर्णब पुराने रिपब्लिक टीवी के कर्मचारियों की बातों में किंचित ही राहुल गांधी जैसे किरदार दिखते हैं, जो चाटुकार मंडली से घिरा हुआ है. एक अंतर बस यह है कि अर्णब जो कर रहे हैं उसमें वह सफल हैं.

एक समान बात सामने आती है कि उन्होंने अपने आसपास कुछ वफादार लोगों का एक घेरा बना रखा है जो इस मंडली के बाहर के किसी व्यक्ति को अर्णब की नजरों में आने पर असुरक्षित हो जाते हैं.

एक पूर्व संपादक की मानें तो अर्णब इस बात से खुश है कि तेजिंदर की ईमेल ने साम्याब्रता की भूमिका सबके सामने उजागर कर दी है. "वे परिवारवाद के खिलाफ कैसे इतना शोर मचा सकते हैं जब वह खुद परिवारवादी हैं. अर्णब ने चैनल की लगाम अपनी बीवी को थमा दी हैं. उन्होंने बेहद करीबियों का छोटा सा घेरा बना लिया है और जो उससे वफा़दारी दिखाते हैं उन्हें इसका ईनाम मिलता है."

इस पूर्व संपादक का कहना था कि उन्हें साम्याब्रता से तालमेल बिठाने में खास तौर पर परेशानी हुई जबकि अर्णब के साथ उनके मैत्रीपूर्ण समीकरण थे. "चीख चीख कर, आक्रामक और मुद्दों को सनसनीखेज़ तरीके से पेश करने के निर्देश लगातार दिए जाते हैं. मैं कम से कम 13 घंटे की शिफ्ट कर रही थी जो अगर काम अच्छा हो तो चल जाता है. पर उनके दिमाग में हर खबर का निष्कर्ष पहले ही तय है और उनके दिमाग में उसे पेश करने का तरीका स्पष्ट है, तो आपका काम केवल उन्हें वह करके देना है जो वो चाहते हैं."

संस्तापक टीम के एक सदस्य और पूर्व कर्मचारी का अर्णब के बारे में कहना है कि उनकी नजर में हर चीज ब्लैक एंड व्हाइट है. चीजों की बारीकी के लिए कोई जगह नहीं. वे कहते हैं, "आप या तो अच्छे हैं या बुरे हैं, आप या तो उसके साथ हैं या उसके खिलाफ हैं. मैंने रिपब्लिक टीवी इसलिए छोड़ा क्योंकि वह जगह केवल एकतरफा पत्रकारिता और गंदी राजनीति के लिए थी. जो लोग जोड़-तोड़ जानते थे वह ऊपर चढ़ गए और मेहनत करने वाले पत्रकारों का या तो शोषण हुआ या उन्हें हाशिए पर धकेल दिया गया." इसके साथ उन्होंने यह बात भी जोड़ी कि एक समय था जब अर्णब योग्यता और हुनर को तरजीह देते थे, पर अब ऐसा नहीं है.

ऊपर जिक्र हुए पूर्व संपादक का यह भी कहना था कि इस सब के बावजूद इस आदमी में कुछ सकारात्मक बातें हैं. "अर्णब को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप कैसे दिखते हैं, आपका परिवार कौन सा है या आप कहां से आए हैं. वह आपको कैमरे के सामने जाने का मौका देगा और अगर उसे लगता है कि आपके अंदर योग्यता है तो आपको आगे धकेलेगा."

पूर्व संपादक-एंकर ने भी इस मत का समर्थन किया, "आप किसी भी परिवार से कोई भी हो सकते हैं, अर्णब के लिए ये मायने नहीं रखता. प्रसारण के लायक होने का मतलब अर्णब के लिए है कि क्या आप कैमरे पर बोल सकते हैं या नहीं. मैं एक पत्रकार के बारे में जानती हूं जिन्हें उनके पिछले चैनल में मुंह पर साफ बोल दिया गया कि वह कैमरे पर जाने के लिए "बहुत काले" हैं. पर अर्णब ने उन्हें हर कहानी में कैमरे पर दिखाया क्योंकि उन्हें इन चीजों की कोई परवाह नहीं है."

एक और पूर्व एंकर जिन्होंने अर्णब के आसपास मंडली के होने से इनकार किया, उन्होंने आदित्य और प्रेमा जैसे पुराने खिलाड़ियों का उदाहरण दिया जो कोई नई नौकरी हाथ में ना होते हुए भी रिपब्लिक टीवी छोड़ कर चले गए. "अर्णब के लिए कोई चीज मायने नहीं रखती. वो कुछ चीजों के लिए कुछ लोगों पर निर्भर करते हैं, पर कोई भी उसके लिए अनिवार्य नहीं है. उनकी पत्नी के अलावा सबकुछ अस्थायी है, जो रिपब्लिक में सभी गतिविधियों को नियंत्रित करती हैं. इसके अलावा एक प्रोडक्शन हेड है जो उनके साथ टाइम्स नाउ के दिनों से हैं, मुझे नहीं लगता इसके अलावा कोई भी वहां स्थाई है."

वे एंकर आगे कहती हैं, "आपको उन्हें दाद देनी पड़ेगी. वो केवल एक पत्रकार थे, और आज करोड़ों रुपए के मीडिया साम्राज्य पर बैठे हैं. वह बहुत अक्लमंद व्यापारी है और जानते हैं कि उसके दर्शक क्या चाहते हैं. चुनावों के दौरान सुबह 6:00 बजे से रात के 12:00 बजे तक स्टूडियो में बैठे रहना, बीच में बस खाने के लिए ही उठते थे. मुझे लगता है कि अर्णब के दिमाग में है कि मोदी के बाद भारत में सबसे ताकतवर व्यक्ति वो खुद हैं. वह अपनी प्रसिद्धि को, लोगों के द्वारा सोशल मीडिया पर अपने बारे में बात किए जाने को पसंद करते हैं. मुझे लगता है कि लोगों ने अगर उनके बारे में बात करना बंद कर दिया तो वह काफी उदास हो जाएंगे."

टीआरपी की लड़ाई

ताजा बार्क डाटा के अनुसार, रिपब्लिक भारत ने आज तक को सबसे अधिक रेटिंग वाले हिंदी समाचार चैनल वाली पायदान से हटा दिया है. टीआरपी की यह लड़ाई ही शायद वो वजह है जिसने पिछले महीने में टीवी के सबसे शर्मनाक क्षणों को जनता के सामने रखा है. एक तरफ आपके सामने हैं रिपब्लिक भारत के एंकर जो आम लोगों को रिया चक्रवर्ती के घर के बाहर धकिया रहे थे, और दूसरी तरफ आज तक के पत्रकार जो एक नागरिक के व्यक्तिगत दायरे में जबरदस्ती घुस रहे थे.

इस संदर्भ में रिपब्लिक भारत के एक पूर्व कर्मचारी कहते हैं, "मैं अर्णब को टीवी न्यूज़ के लिए हुई सबसे बुरी घटना के रूप में अकेले जिम्मेदार ठहराये जाने से ज्यादा प्रभावित नहीं हूं. यहां कौन अलग है? आप कोई भी चैनल ले लें, हर कोई "राष्ट्रवाद" और "हिंदू-मुस्लिम" बेच रहा है. मुझे रिपब्लिक भारत में काम शुरू करने से पहले पता था कि यह पत्रकारिता नहीं है, यह अंधराष्ट्रीयता है. उन्माद फैलाने का काम कर रहे हैं, ये सब टीआरपी का खेल है."

उन्होंने यह भी जोड़ दिया कि इसमें सबसे बड़ी गलती देखने वाली जनता की है. "क्या आप जानते हैं कि हम लोग हर गुरुवार को रेटिंग के आने के समय कितने दबाव में होते हैं? रेटिंग में छोटी से छोटी गिरावट के लिए आप जवाबदेह होते हैं. पर सवाल यह उठता है कि समाचार उपभोक्ता इस तमाशे को क्यों देख रहे हैं?"

समाचार उपभोक्ताओं की तरह ही, लगता है समाचार जगत में काम करने वालों को भी इस टीवी पर प्रसारित‌ होने वाले समाचारों के गिरते हुए स्तर की आदत हो गई है. जिन्होंने रिपब्लिक टीवी के साथ गोता लगाने का निर्णय लिया था, वह जानते थे कि वह वाल्टर क्रॉन्काइट या प्रसिद्ध एसपी सिंह के साथ काम नहीं करने जा रहे. दिक्कत यह नहीं थी कि वो चैनल में रहते हुए अपना लचीलापन दिखाने के इच्छुक नहीं थे, दिक्कत यह है कि वे रेंगने को तैयार नहीं थे- कुछ ऐसा जो अर्णब के विचार में रिपब्लिक में रहने की शर्त है.

न्यूजलॉन्ड्री ने अर्णब गोस्वामी से तेजिंदर व कई और पूर्व कर्मचारियों के लगाए आक्षेपों पर टिप्पणी करने के लिए संपर्क करने का प्रयास किया. उनकी तरफ से कोई जवाब आने पर इस रिपोर्ट में जोड़ दिया जाएगा.

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