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पूरी दुनिया के सिनेमा को स्तब्ध कर देने वाली फ़िल्म बाइसिकल थीव्स
साल 1949 के बसंत में 37 वर्ष के सत्यजीत रे जब पी एंड ओ लाइनर नाम के जहाज पर अपनी पत्नी के साथ लंदन के लिए रवाना हुए तो उन्हें दूर-दूर तक यह आभास नहीं था कि इस यात्रा से लौटने के बाद वह उनको रोज़गार देने वाली ब्रिटिश विज्ञापन कंपनी डीजे केयमर, जो उनको अपने लंदन स्थित मुख्यालय में काम सीखने के लिए भेज रही थी, के मुलाजिम नहीं रहेंगे. स्वयं सत्यजीत रे के शब्दों में उनकी कंपनी के मैनेजमेंट को भरोसा था कि लंदन स्थित उनके हेड ऑफ़िस में छह महीने काम करने के बाद मिस्टर रे की वापसी ‘चाय और बिस्किट्स को बेचने की कला में माहिर’ एक ‘फ़ुल-फ़्लेज्ड एडवर्टाइजिंग मेन’ की शक्ल में होगी.
डीजे केयमर के ख़्वाब टूटने वाले थे. हालांकि, पी एंड ओ लाइनर पे कदम रखने से पहले ही रे को सिनेमा का भारी चस्का लग चुका था लेकिन डीजे केयमर प्रायोजित इस सफ़र ने एक नौजवान को वह अवसर उपलब्ध करा दिया जिसकी उसे ज़रूरत थी. कंपनी को क्या पता था कि लंदन के सिनेमाघरों की टिकट खिड़की पे खड़े तमाम अनाम दर्शकों के बीच दिखायी जा रही एक ख़ास फ़िल्म एक भारतीय नौजवान की आखों में पल्लवित होते हुए तमाम दृश्यों की शैशव कल्पनाओं को एक झटके में परिपक्व कर देने के लिए इंतज़ार कर रही थी.
1948 में रिलीज़ हुई वह ख़ास फ़िल्म थी इटली के नव यथार्थवादी चलचित्रकार विटोरियो डी सिका (1902-1974) की बाइसिकल थीव्स जिसका मूल इटालियन में टाइटल था- ‘Ladri di biciclette’. हिंदी में हम चाहें तो साइकिल चोर कह सकते हैं. लंदन में रहते हुए रे ने छह माह में क़रीब सौ फ़िल्में देखीं लेकिन इन सब में से साइकिल की चोरी पर बनी इस फ़िल्म ने उन्हें झकझोर दिया.
सत्यजीत रे ने लिखा- ‘इस सफ़र ने वस्तुतः मेरे एडवर्टाइजिंग कैरियर पर ख़ात्मे की मुहर लगा दी. लंदन पहुंचने के तीन दिनों के भीतर मैंने बाइसिकल थीव्स देखी. यह फ़िल्म देखने के बाद मैंने फ़ैसला कर लिया कि यदि मैंने पाथेर पांचाली- जिसे बनाने का ख़्याल कुछ समय से मेरे दिमाग़ में चल रहा था- बनायी तो मैं इसे ठीक इसी तरह गुमनाम अभिनेताओं और मामूली सी लोकेशन्स के साथ बनाऊंगा. लंदन प्रवास के पूरे समय में बाइसिकल थीव्स और नियो-रीयलिस्ट सिनेमा के सबक़ मेरे दिमाग़ में घुमड़ते रहे और सफ़र वापसी के दौरान मैं यह लगभग तय कर चुका था कि पाथेर पांचाली किस तरह बनेगी.’
(देखें.पृ. 9/10, इंट्रोडक्शन, अवर फ़िल्म्ज़, देयर फ़िल्म्ज़, सत्यजीत रे, ओरियेंट ब्लैकस्वॉन,1976, रीप्रिंट 2018
यहां से हम समझ सकते हैं कि वैश्विक पटल पर भारतीय सिनेमा के सशक्त और सर्जनात्मक हस्तक्षेप के रूप में दाख़िल हुई पहली फ़िल्म पाथेर पांचाली (1955) के निर्माण के सैद्धान्तिक सूत्रों का विकास किस तरह हुआ था? रे ने अपनी फ़िल्म की लोकेशन के लिए एक साधारण गांव का चयन क्यों किया था और क्यों उन्होंने तमाम अल्प-ख्यात कलाकारों के साथ अपनी फ़िल्म में एक बूढ़ी रिश्तेदार इंदिर ठाकुरन की भूमिका के लिए बंगाली थिएटर की ‘गुमनाम’ हो चुकी 80 वर्ष की एक बूढ़ी अभिनेत्री चुन्नीबाला देवी को ढूंढ़ निकाला था?
यह जानना ज़रूरी है कि जिस फ़िल्म ने रे पर इतना गहरा असर छोड़ा था, उस फ़िल्म के दर्शनशास्त्र- जिसे सिनेमा का नव-यथार्थवाद कहा गया- में ऐसा क्या था और उसकी शुरुआत की पृष्ठभूमि क्या थी? इसके लिए हमें दूसरी आलमी जंग के ठीक बाद के यूरोप की तबाह हुई दुनिया में लौटना होगा. यह वह दौर था जब एक महायुद्ध की क़ीमत हर कोई अपने अपने तरीक़े से चुका रहा था. हताशा, ग़रीबी, मंदी और बेरोज़गारी ने एक साधारण मनुष्य के रोज़मर्रा के जीवन को उत्तरजीविता की एक भीषण जद्दोजहद में तब्दील कर दिया था.
स्वाभाविक था कि जब जनसमूहों का जीवन घनघोर संघर्षों से अटा पड़ा हो तब संप्रेषण की स्टूडियो संस्कृति की भव्य विलासिता और साज-सजावट एक अश्लील मंजर की तरह दिखने लगे. लेखन और सृजनात्मकता के इदारों से जुड़े कुछ लोगों के अंतःकरण इस बात के लिए छटपटा रहे थे कि कला के आभिव्यक्तिक रूप- जिसकी सिनेमा सबसे ताकतवर नुमाइंदगी करता था, स्टूडियो और भव्य सेट छोड़कर शहरों और क़स्बों की उन तंग गलियों और मोहल्लों में जा कर जीवन फ़िल्माएं जहां एक युद्ध ख़त्म होने के बाद ज़िंदगी को बसर करने का एक अन्य युद्ध निरंतर लड़ा जा रहा था.
बाइसिकल थीव्स के पटकथा लेखक और इस आंदोलन के मुख्य सिद्धांतकारों में से एक चेसारे जावतीनी विश्व युद्ध के दिनों में डायरी लिखते रहे थे. इस डायरी ‘सीक्वेंस फ्रॉम ए सिनेमैटिक लाइफ’ में उन्होंने लिखा- ‘Set up a camera in the street, in a room, see with insatiable patience, train ourselves in the contemplation of our fellow men in his elementary actions.'
जावतीनी ने अपनी डायरी में जो यह लिखा कि ‘किसी गली या किसी कमरे में चलकर कैमरा लगा लिया जाए और एक संगी साथी की घटती हुई बुनियादी ज़िंदगी को अगाध धैर्य के साथ देखने की कला में खुद को प्रशिक्षित किया जाए’, यह टिप्पणी ही सिनेमा का नव-यथार्थवादी दर्शन थी और जावतीनी के दोस्त डी सिका ने उनके इसी विचार को बाइसकिल थीव्स के रूप में पर्दे पर साकार किया था.
जावतीनी ने सिनेमा को गलियों में ले जाने की पैरवी की थी. यहां सहसा हमें अपने एक कवि अदम गोंडवी की याद आ सकती है जिनकी एक ग़ज़ल में ‘अदब’ (साहित्य) को ‘मुफ़लिसों की अंजुमन’ तक ले चलने का आग्रह समाविष्ट था- ‘भूख के अहसास को शेर-ओ-सुख़न तक ले चलो/ या अदब को मुफ़लिसों की अंजुमन तक ले चलो.’
ख़ैर, एक इतालवी लेखक बार्तोलिनी के इसी नाम के उपन्यास, जिसकी पटकथा जावतीनी ने तैयार की थी, पर डीसिका ने बाइसिकल थीव्स का निर्माण किया. साधारण जीवन को केन्द्रीयता देती हुई इस फ़िल्म ने लोगों के सामने आते ही सिनेमा के दर्शकों और सिनेमा के चिंतकों; दोनों को अपनी भावनात्मक इंटेन्सिटी और प्रस्तुति की नवलता से स्तब्ध कर दिया.
दूसरे विश्व युद्द के बाद सिनेमा की सैद्धांतिक समीक्षा के परिदृश्य में उभरने वाले समीक्षकों में फ़्रांस के समालोचक आंन्द्री बजां (1918-1958) का बड़ा नाम था. डी सिका के लिए उन्होंने कहा कि बाइसिकल थीव्स के निर्देशक का प्रदेय यह है कि उसने नव यथार्थवाद की मदद लेकर कनवेंशनल तरीक़े से ड्रामा को पेश करने की पूरी विधा को नए सिरे दे गढ़ा है. जैसे समुद्र में कोरल के नीचे कोई चट्टान छिपी होती है ठीक उसी तरह डी सिका के ड्रामेटिक कंस्ट्रकशन में जीवन के छोटे छोटे डिटेल्स की तह में एक अन्य जीवन छिपा रहता है. बजां ने इसे नाम दिया ‘माइक्रो-ड्रामाटर्जी’.
डी सिका की इस ‘माइक्रो-ड्रामाटर्जी’ फ़िल्म का आरम्भिक फ़्रेम मज़दूरों को काम की तलाश में मुब्तिला दिखाते हुए खुलता है. सरकार बेरोज़गार कामगारों को काम मुहैया कराती है. काम देने वाले रोज़गार दफ़्तर का कर्मचारी एंटोनियो रिक्की (लैम्बर्तो मग्गियोरेनी) के नाम को आवाज़ लगाता है और कई सारे बेचैन मज़दूरों के बीच में उसे वर्क परमिट और शहर के रास्तों पर फ़िल्मों के पोस्टर लगाने का काम दे देता है. लेकिन शर्त यह है कि इस काम के लिए एंटोनियो के पास एक साइकिल होनी ज़रूरी है.
रिक्की दो दिन की मोहलत मांगता है लेकिन काम देने वाला उसे हर हाल में और उसी पल एक साइकिल की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए कहता है. साइकिल के बिना मुश्किल से हाथ आया हुआ रोज़गार चला जाएगा. अचानक से आदमी की जगह साइकिल कहानी की नायक बनने लगती है. दूसरे मजदूर, जिनके पास साइकिल है काम के लिए चिल्लाने लगते हैं. रिक्की हाथ आए इस काम को गंवाने का जोखिम नहीं ले सकता. वह काम ले लेता है और अपनी ज़िंदगी में एक अदद साइकिल की ग़ैर-मौजूदगी में खोया हुआ घर चला आता है.
रिक्की की पत्नी यह कहते हुए कि बिस्तर पर बिना बेड-शीट के भी तो सोया जा सकता है, अपने पति के लिए साइकिल का इंतज़ाम करने के उद्देश्य से घर में मौजूद लिनेन और कॉटन की समस्त शयन-चादरों को इकट्ठा करके पास के स्टोर पर साढ़े सात हज़ार लीरा में बेच देती है. उस साढ़े सात हज़ार लीरा में से इकसठ सौ लीरा में रिक्की 1935 मॉडल की एक पुरानी बाइसिकल ख़रीद लेता है. बेरोज़गार रिक्की के लिए साइकिल एक प्रिविलेज है. यह साइकिल एक उत्तरयुद्धकालीन शहर में एक बेरोज़गार को अचानक सदमे से बाहर खींच लाती है लेकिन नियति ने एक मज़दूर के लिए एक और जद्दोजहद का इंतज़ाम कर रखा है.
बेरोज़गार के इस प्रिविलेज पर जिसमें वह असावधानीवश ताला जड़ना भूल गया था, एक चोर की निगाह पड़ जाती है. काम के पहले ही दिन वह एंटोनियो की साइकिल चुरा कर भागता है. एंटोनियो पीछा करता है किंतु चोर को पकड़ नहीं पाता. यहीं से एक झटके में फिर से बेरोज़गार हो चुके बेरोज़गार की चुराई गई साइकिल को ढूंढ़ने की दर्दनाक क़वायद शुरू हो जाती है.
इस क़वायद में एंटोनियो का दस-बारह साल का बेटा ब्रूनो जो हक़ीक़त में एक शरणार्थी का बेटा था, भी शामिल हो जाता है और बाप-बेटे मिलकर एक बड़े, बेचैन और उद्दिघ्न शहर में किसी अज्ञात किंतु पहचाने जा सकने वाले चोर के चंगुल से अपनी चुरायी हुई साइकिल को फिर से पाने की खोजयात्रा पर निकल पड़ते हैं.
भीड़भाड़ भरा एक समूचा शहर एक क्षण में निर्मम हो जाता है. उसकी असुरक्षा का अहसास उसे पुलिस थाने से लेकर एक भविष्य बताने वाले तक के पास ले जाती है लेकिन वह कहीं से मदद नहीं पाता. मुमकिन है चोर ने साइकिल बेच दी हो, इसलिए वह अपने बेटे और कुछ दोस्तों के साथ शहर के साइकिल बाज़ार में पहुंच जाता है. व्यथा से भरी हुई आंखों के साथ यहां वह अपनी 1935 मॉडल की फ़ीडे कंपनी की साइकिल के संभावित और अलग-अलग कर दिए गए पुर्ज़ों को तलाशता है.
पिता की हताशा में शामिल उम्मीद भरा ब्रूनो दुकानदारों के झिड़कने के बाबजूद कभी किसी साइकिल की घंटी उठाकर देखता है तो कभी मडगार्ड. आपा खोकर एंटोनियो एक बार ब्रूनो को थप्पड़ मार देता है और फिर मलाल करता है. बाप बेटे को एक रेस्तरां में ले जाकर सैंडविच खिलाता है और बावजूद हताशा के थोड़ी देर के लिए साइकिल गुम जाने का दर्द भूलकर दोनों कुछ पलों के लिए जीवन जीते हैं.
आख़िर में एंटोनियो चोर तक पहुंचकर उसे पहचान लेता है लेकिन पुलिस द्वारा उसके घर तलाशी लेने पर साइकिल बरामद नहीं होती. एंटोनियो का दोषारोपण गवाह और ठोस सुबूत के अभाव में सच होने के बाबजूद कमजोर पड़ जाता है. मोहल्ले के लोग चोर को बेक़सूर बताते हुए उसके पक्ष में खड़े हो जाते हैं. पुलिस एंटोनियो को इस मसले को रफ़ा दफ़ा करने की सलाह देती है. यहां आकर एंटोनियो की हताशा उसे ही एक पीड़ित से एक बाइसकिल चोर बना देने के कगार पर ले आती है. वह भी एक साइकिल चुराने की ठानता है लेकिन बदनसीब साबित होता है. भीड़ उसे दौड़ाकर पकड़ लेती है. उसे पीटने लगती है. उसका हैट सड़क पर गिर जाता है. ब्रूनो उसे उठा लेता है. डीसिका कैमरे से, अपने ही बेटे के सामने भीड़ से पिटते हुए पिता की बेबस और अनैतिकता के बोझ से भारी हुई निगाहों को एक बेहद मार्मिक शॉट से पकड़ते हैं.
वह बेटे के सामने नज़रें झुका लेता है. चोर के साथ उसके बेटे को देखकर साइकिल का मालिक दयावश क़ानूनी कार्यवाही से पीछे हट जाता है और एंटोनियो को पुलिस के हवाले न करके, जाने देता है. अपने बेटे का हाथ पकड़कर, म्लान कदमों से चलता हुआ एंटोनियो फिर से अपने आप को एक निर्मम शहर के हवाले कर देता है.
बाइसिकल थीव्स की ख़ासियत एक कथानक की ग़ैर-मसालेदार प्रस्तुति थी. फ़िल्म में न तो कोई ‘धमाकेदार’ दृश्य था और न किसी तरह का कोई ‘क्लासिकल’ टच. जैसे जैसे डी सिका का कैमरा शहर की सड़कों पर घूमता है खलनायक साइकिल चोर नहीं रहता बल्कि किसी दूसरे की तकलीफ़ से परे अपनी अपनी चिंता में खोया हुआ एक पूरा शहर ही कहानी का त्रासदी का स्रोत बन जाता है. अपने बेटे की कलाई पकड़े हुए शहर में अपनी खोयी हुई साइकिल ढूंढ़ने की नायक की साधारण प्रयत्न ही उसके असाधारण ‘ऐक्शन’ बन जाते हैं.
सत्यजीत रे ने लिखा कि ‘इस फ़िल्म में साइकिल एक आदमी और उसकी भुखमरी के बीच में खड़ी हुई थी. यह फ़िल्म सिनमा के कुछ आधारभूत सिद्धांतों की ‘ट्रायअम्फ़ंट री-डिस्कवरी’ थी. विषय की सार्वभौमिकता, प्रभावशाली प्रस्तुति और निर्माण की कम लागत के कारण भारतीय फ़िल्म निर्माताओं के लिए यह आदर्श फ़िल्म थी. भारत के फ़िल्म निर्माताओं को जीवन की ओर, यथार्थ की ओर लौटना चाहिए’.
नव-यथार्थवादी फ़िल्मों का एक पक्का रूपक शहर की बैकड्रॉप में भटकता हुआ कोई शख़्स होता था. राजकपूर की फ़िल्म ‘जागते रहो’ (1956) का नायक भी शहर में भटकता हुआ एक सीधा सच्चा आदमी था जो बेईमानों की एक कॉलोनी में फंस गया था. शोमैन कहे जाने वाले राजकपूर के शुरुआती सिनमा पर नव-यथार्थवाद का गहरा प्रभाव पड़ा था. उनकी एक अन्य फ़िल्म बूट पॉलिश (1954) भी इसी प्रभाव की फ़िल्म थी.
आज के फ़िल्मकारों के पास फ़िल्मों में निवेश के लिए अकूत पैसा है. ऊंचे दर्जे के कैमरे और लेंस हैं. दृश्य एडिट करने के लिए उच्चस्तरीय सॉफ़्टवेयर हैं किंतु कुछ अपवादों को छोड़कर संवेदना भरी निगाहों का अकाल है. जावतीनी ने अपनी डायरी में कैमरे को किसी गली अथवा किसी साधारण आदमी के कमरे में लगाकर जिस अपार धीरज के साथ जीवन को देखने की गुज़ारिश की थी, स्पीड भरी समकालीन दुनिया के सिनमा से वह धीरज नदारद है. स्वयं सत्यजीत रे ने धीरे धीरे नव-यथार्थवादी दृष्टि से आगे बढ़कर अपना निजी क्राफ़्ट ज़रूर विकसित किया था किंतु पथेर पांचाली (1955) से लेकर अपनी अंतिम फ़िल्म गणशत्रु (1989) तक कैमरे के पीछे से जीवन को धीरज के साथ निहारने के बुनियादी फ़लसफ़े को उन्होंने कभी नहीं छोड़ा.
बाइसिकल थीव्स आज तक दुनिया भर में सिनेमा और महान सिनेमाकारों पर असर डालने वाली फ़िल्म मानी जाती है. आज बाइसिकल थीव्स और उसका नव-यथार्थवादी नज़रिया भले पूरा का पूरा हमारे काम का न रहा हो, शायद अकूत गति के इस समय में जीवन को ठहरकर देखने का उसका एक सूत्र अब भी हमारे सिनेमा के बहुत काम आ सकता है.
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