Report
अरावली बचाने को सोशल से लेकर लोकल तक वोकल हुए लोग, सुप्रीम कोर्ट ने लगाई रोक
अरावली पहाड़ियों से जुड़े मामले में सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार और संबंधित राज्यों को नोटिस जारी किया है. अदालत ने कहा है कि इस मामले में कुछ बातों पर और स्पष्टीकरण ज़रूरी है. इस तरह सुप्रीम कोर्ट ने फिलहाल नवंबर में दिए गए अपने ही फैसले और उस पर आधारित समिति की सिफारिशों पर रोक लगा दी है. कोर्ट ने इस मामले में अब स्वतः संज्ञान लिया है. मामले की सुनवाई तीन जजों की पीठ करेगी, जिसमें मुख्य न्यायाधीश सूर्य कांत, न्यायमूर्ति जे.के. माहेश्वरी और न्यायमूर्ति ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह शामिल हैं.
गौरतलब है कि 20 नवंबर 2025 को सुप्रीम कोर्ट ने पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय की खनन विनियमन समिति द्वारा सुझाई गई एक परिभाषा को स्वीकार कर लिया था. जिसके तहत केवल सौ मीटर से ऊंची पहाड़ियों को ही अरावली या उसकी पर्वत श्रृंखला का हिस्सा मानते हुए संरक्षित दायरे में रखा गया था. अब इस पूरे मामले पर सुप्रीम कोर्ट 21 जनवरी को सुनवाई करेगा.
माना जा रहा है कि कोर्ट ने अरावली के बारे में उपजे तनाव और आक्रोश को देखते हुए स्वतः संज्ञान लेते हुए ये फैसला किया.
सुप्रीम कोर्ट द्वारा केंद्र सरकार की इस परिभाषा को स्वीकारने के बाद पर्यावरण विशेषज्ञ और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने दावा किया कि इस नई परिभाषा के चलते अरावली का लगभग 90 से 92% हिस्सा कानूनी संरक्षण से बाहर हो जाएगा. कई निचली पहाड़ियों और टीलों का अस्तित्व खतरे में होगा. साथ ही यहां खनन गतिविधियां भी बेहद तेजी से बढ़ेंगी.
गौरतलब है कि अरावली भारत के उत्तर पश्चिम भाग में स्थित दुनिया की सबसे प्राचीन पर्वतमालाओं में से एक है. जिसे उत्तर भारत की लाइफलाइन माना जाता है. यह थार रेगिस्तान की रेतीली आंधियों को पूर्व की ओर बढ़ने से रोकने में एक प्राकृतिक दीवार की तरह काम करती है और दिल्ली के बाहरी इलाकों से लेकर हरियाणा, राजस्थान और गुजरात में ग्राउंडवाटर रिचार्ज करने में अहम भूमिका निभाती है. साथ ही मानसून की हवाओं को दिशा देने और उत्तर भारत में बारिश करने में मदद करती है. इसलिए पर्यावरणविदों का यह भी मानना है कि नई परिभाषा से थार के रेगिस्तान का विस्तर होगा, जो दिल्ली तक पहुंच सकता है. बता दें कि अरावली लगभग 692 किलोमीटर लंबी है और इसका 80% हिस्सा राजस्थान में है.
शायद यही वजह है कि सरकार की नई परिभाषा को लेकर सबसे ज्यादा विरोध राजस्थान से देखने को मिला.
इंटरनेट की दुनिया में हैशटैग सेव अरावली नाम से अभियान चल रहा है. यहां हजारों की संख्या में वीडियो और फोटो पोस्ट किए जा रहे हैं. इन वीडियोज़ में जनता से अरावली को बचाने की गुहार के साथ-साथ इस अभियान से जुड़ने की अपील की जा रही है. साथ ही साथ अरावली की नई परिभाषा के मुताबिक, जो संभावित खतरे हैं उन पर भी बात की जा रही है. इसके अलावा एआई की मदद से ऐसे वीडियो भी बनाए जा रहे हैं, जिनमें यह दिखाने की कोशिश की जा रही है कि सुप्रीम कोर्ट के नए फैसले के बाद 2050 में राजस्थान कैसा होगा. जैसे कि इन वीडियोज़ में लोगों के मुंह पर मास्क और कंधे पर सिलेंडर दिखाया गया है.
वहीं, उदयपुर, माउंट आबू और जयपुर को रेगिस्तान में तब्दील हो जाने का एक वीडियो भी बनाया गया. लेकिन आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के अलावा इंडिविजुअल क्रिएटर और राजनीतिक दलों के नेता शिक्षक सामाजिक कार्यकर्ता, लोकल कलाकार और स्कूली बच्च भी इस अभियान में हिस्सा ले रहे हैं. इंटरनेट पर चल रहे इस अभियान में आम जनों का गुस्सा भी है, आक्रोश भी है और मांगों की झलक भी साफ मिलती है.
सुप्रीम कोर्ट के इस नए फैसले के खिलाफ गुरुग्राम से लेकर हरियाणा, राजस्थान तक जमीन पर प्रदर्शन और अनशन किया जा रहा है लेकिन इंटरनेट खासकर इंस्टाग्राम पर प्रदर्शन का तरीका बिलकुल अलग है. कोई अरावली के पत्थरों पर ‘राम’ लिख रहा है तो कोई अरावली बचाने के लिए गाना गा रहा है. वहीं, कोई सरकार को ‘ललकार’ रहा है.
वहीं, एक वीडियो में स्कूली बच्चों के हाथ में पोस्टर हैं. जिन पर लिखा है, “अरावली हमारा कवच है, प्लीज सेव अरावली, अरावली हमारी माता है. इसे बचाओ, माइनिंग बंद करो.” इस रील को डेढ़ मिलियन से ज्यादा बार देखा गया है और सवा लाख से ज्यादा लोगों ने इसे लाइक किया है.
यह वीडियो राजस्थान के सीकर जिले में स्थित लक्ष्य पब्लिक स्कूल द्वारा अपलोड किया गया है. हमसे बातचीत करते हुए लक्ष्य पब्लिक स्कूल की प्रिंसिपल प्रतिभा सोढ़ी कहती हैं, “जैसे आप दिल्ली वालों के लिए ऑक्सीजन जरूरी है. वैसे ही हमारे लिए अरावली जरूरी है. अरावली के बिना हमारा क्या अस्तित्व है, ना यहां पर पानी बचेगा ना हरियाली. सब रेगिस्तान बन जाएगा.”
वह आगे कहती हैं कि हम समय-समय पर अलग-अलग सामाजिक मुद्दों पर इस तरह की वीडियो स्कूल में बनाते हैं ताकि लोग जागरूक हों. यह वीडियो भी हमारे इसी प्रयास का हिस्सा है. हालांकि, इस बार मुद्दा हमारे अस्तित्व की लड़ाई का है.
स्कूल के एक अन्य टीचर मनीष ढाका कहते हैं, “हम बच्चों से सिर्फ वीडियो नहीं बनवाते बल्कि उन्हें पहले मुद्दों के बारे में समझते हैं. ऐसा नहीं है कि जिन बच्चों ने हाथ में पोस्टर पकड़ा है, उन्हें मुद्दे की समझ नहीं है. वह भली-भांति जानते हैं कि राजस्थान के लिए अरावली कितना महत्वपूर्ण है.”
इंस्टाग्राम पर ही एक और वीडियो हमें दिखी. यह पीहू ने बनाई है. पीहू एक मशहूर चाइल्ड इन्फ्लुएंसर हैं और अपनी रोजाना की जिंदगी पर ब्लॉग बनाती हैं. इंस्टाग्राम पर पीहू के 11 लाख से ज्यादा फॉलोअर हैं. वह अपने वीडियो में कहती हैं, “दोस्तों क्या हो अगर आपको कहा जाए कि आपको वीआईपी सर्विस फ्री मिलेगी लेकिन बदले में आपके फेफड़े निकाल लिए जाएंगे. सुनकर चौंक गए ना? लेकिन ऐसी घटना राजस्थान में अरावली को लेकर सामने आई है. जहां नए नियमों के हिसाब से 100 मीटर से कम की पहाड़ियों को अरावली नहीं माना जाएगा.”
वीडियो में आगे पीहू राजस्थान में अरावली ना होने के नुकसान बताती हैं. वह कहती हैं कि इससे जीव-जंतु खत्म हो जाएंगे. राजस्थान के कुएं सूख जाएंगे, हरियाली खत्म हो जाएगी, फसलें खराब हो जाएंगी, पानी की समस्या बढ़ेगी और खनन माफिया का राज होगा.
वीडियो के अंत में पीहू कहती हैं कि मानव के लिए विकास जरूरी है लेकिन पेड़ ही नहीं रहे तो ऐसा विकास किस काम का? इस वीडियो को साढ़े तीन लाख से ज्यादा लोगों ने लाइक किया है.
इन्फ्लुएंसर्स के अलावा समाज के अन्य तबकों से भी लोग अरावली के समर्थन में सोशल मीडिया पर पोस्ट कर रहे हैं.
ऑल इंडिया ऑपरेटर यूनियन के अध्यक्ष शंकर सिंह भाटी ने भी अरावली को लेकर वीडियो अपलोड किया है. जिसमें वह जेसीबी ऑपरेटर के साथ दिख रहे हैं. वीडियो में वह कहते हैं, “अभी अरावली का मुद्दा चल रहा है. जिसमें हम सभी जेसीबी ऑपरेटर भाइयों ने यह तय किया है कि हम अरावली पर चलने वाले बुलडोजर को ऑपरेट नहीं करेंगे. साथ ही वह अपने पास में खड़े एक जेसीबी ऑपरेटर से भी यही बात दोहरवाते हैं. और देशभर के ऑपरेटर से अपील करते हैं कि कोई भी अरावली पर चलने वाले बुलडोजर को हाथ ना लगाए.”
वीडियो के अंत में वह अपील करते हैं, “आज हम चंद पैसों के लिए चले जाएंगे तो फिर तो आने वाली पीढ़ियों को उसका सामना करना पड़ेगा. यह रेगिस्तान बन जाएगा. सब पानी सूख जाएगा और कितने वन्य जीव नष्ट होंगे, पेड़ काटे जाएंगे, सांस लेना मुश्किल हो जाएगा. सभी ऑपरेटर भाइयों से निवेदन है कि अरावली पर्वतमाला पर कोई भी ऑपरेटर भाई मशीन पर न जाए.”
शंकर सिंह भाटी फिलहाल अजमेर में रहते हैं और राजस्थान के बड़ी मशीन चलाने वाले ड्राइवर जैसे कि जेसीबी, पोकलेन इत्यादि के संगठन ऑल इंडिया ऑपरेटर यूनियन के अध्यक्ष हैं. वह इंटरनेट के माध्यम से इस सेक्टर में काम करने वाले ड्राइवर और सहायकों की आवाज उठाते रहते हैं. सोशल मीडिया पर भी काफी सक्रिय रहते हैं और इन मुद्दों को सोशल मीडिया के जरिए उठते रहते हैं. उनके इंस्टाग्राम पर करीब पौने पांच लाख फॉलोअर्स हैं. उनके अरावली पर वीडियो को भी एक लाख से ज्यादा लोगों ने लाइक किया है और कंमेंटस अपना समर्थन दिया है.
अरावली को बचाने के संदेश के इस तरह के वीडियो राजस्थान के लगभग हर क्षेत्र से आ रहे हैं. राजस्थानी से लेकर हिंदी और अंग्रेजी में भी लोग वीडियो बना कर अपना समर्थन जता रहे हैं.
दूसरी तरफ राजनीतिक दलों के नेता भी इस मामले को सड़क पर लगातार उठा रहे हैं. फिर चाहे वह सचिन पायलट हों या हनुमान बेनीवाल या फिर रविंद्र सिंह भाटी. राजस्थान विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले छात्र नेता शशि मीणा प्रतिदिन अपने साथियों के साथ राजस्थान विश्वविद्यालय के गेट पर प्रदर्शन कर रहे हैं.
बातचीत में शशि ने बताया कि वह बीते 23 दिसंबर से लगातार कैंपस के अंदर और बाहर कैंपेन कर रहे हैं और छात्रों को इस मुद्दे के लिए एकजुट कर रहे हैं. वह कहते हैं, “अरावली के बारे में अपने फैसले पर सुप्रीम कोर्ट को फिर से विचार करना चाहिए.” शशि फिलहाल राजस्थान विश्वविद्यालय से बीए तृतीय वर्ष की पढ़ाई कर रहे हैं.
इस तरह अरावली को लेकर इंटरनेट पर ही नहीं बल्कि जमीन पर भी विमर्श तेज होने लगा है. राजनीतिक पार्टी और उनके नेताओं के अलावा तमाम सामाजिक संगठन भी एकजुट हो रहे हैं. इनमें सबसे प्रमुख अरावली विरासत जन अभियान है. यह एक संयुक्त (अंब्रेला) संगठन है, जिसमें दिल्ली से लेकर गुजरात तक के तमाम छोटे-मोटे संगठनों को जोड़ा जा रहा है ताकि अरावली के समर्थन में जमीन पर एक आंदोलन तैयार किया जा सके.
इस संगठन का राष्ट्रीय स्तर पर मशहूर सामाजिक कार्यकर्ता और पर्यावरणविद् नीलम अहलूवालिया नेतृत्व कर रही हैं. बातचीत में नीलम ने कहा, “अरावली विरासत जन अभियान सुप्रीम कोर्ट द्वारा लगाई गई अंतरिम रोक का हम स्वागत करते हैं. हालांकि विशेषज्ञ समितियों का यह तय करना कि क्या कुछ अरावली का हिस्सा है और क्या नहीं, यह हमारे लिए गंभीर चिंता का विषय है. अरावली को परिभाषित करने की नहीं बल्कि उसे पूर्ण संरक्षण और बचाव की आवश्यकता है.”
इसके साथ ही वह अरावली विरासत जन अभियान की मांगें भी सामने रखती हैं. इनमें अरावली के सिलसिले में पूर्णतः सहभागी और पारदर्शी प्रकिया अपनाने, चारों राज्यों में फैली अरावली श्रृंखला का एक स्वतंत्र और संचयी सामाजिक एवं पर्यावरणीय प्रभाव का अध्ययन कराने, खनन पर पूर्णतः रोक लगाने और अरावली को पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्र घोषित करने की मांग शामिल है.
वहीं, अरावली जल विरासत अभियान से जुड़ी राजस्थान के सिरोही से सामाजिक कार्यकर्ता लक्ष्मी हमें बताती हैं, “अरावली का मुद्दा हमारे लिए बहुत अहम है. इसलिए हम गांव-गांव जाकर इसके समर्थन में लोगों से जुड़ने की अपील कर रहे हैं. हम सिरोही के साथ-साथ पूरे राजस्थान में एक बड़े जन आंदोलन के लिए लोगों से लगातार बातचीत कर रहे हैं.”
वहीं भिवानी से सामाजिक कार्यकर्ता डॉक्टर लोकेश 23 दिसंबर से ही भिवानी और उसके आस-पास के इलाकों में तमाम सामाजिक संगठनों के साथ मिलकर प्रदर्शन कर रहे हैं. हमसे बातचीत में उन्होंने बताया, “अभी फिलहाल स्थानीय तौर पर हमारे साथ आठ संगठन सक्रिय हैं. अरावली कोई राजनीतिक मुद्दा नहीं बल्कि सबके जीवन से जुड़ा मुद्दा है. आने वाले दिनों में हम एक पुख्ता रणनीति तैयार करेंगे.”
सुप्रीम कोर्ट द्वारा मामले पर रोक लगाए जाने पर लोकेश कहते हैं, “सुप्रीम कोर्ट ने अभी अस्थाई तौर पर रोक लगाई है. लेकिन हमारा असली सवाल ये है कि जो समितियां बनाई गई हैं, इनको यह अधिकार किसने दिया कि वह अरावली की परिभाषा तय करें. सुप्रीम कोर्ट द्वारा मामले पर पुनर्विचार करना का फैसला स्वागत योग्य है लेकिन हमारा अभियान तब तक जारी रहेगा जब तक अरावली को विशेष पारिस्थितिकी क्षेत्र घोषित नहीं किया जाता.”
क्या है सरकार का पक्ष?
केंद्रीय पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र सिंह यादव का कहना है कि अरावली को लेकर इंटरनेट पर बहुत सारी भ्रामक जानकारियां साझा की जा रही हैं. सरकार अरावली को लेकर प्रतिबद्ध है.
वहीं, सरकार ने 24 दिसंबर को प्रेस रिलीज जारी करके बताया गया कि केंद्र सरकार ने सभी राज्यों को निर्देश दिया है कि अरावली पर कोई भी नई माइनिंग नहीं होगी. साथ ही सरकार ने अरावली के प्रोटेक्ट रेंज का एरिया बढ़ाने की भी बात कही है.
हालांकि, नीलम अहलूवालिया सरकार के इस बयान को भ्रामक बताती हैं. वह कहती हैं, “पर्यावरण मंत्रालय का 24 दिसंबर 2025 का प्रेस नोट पूरी तरह से भ्रामक है. यह केवल सर्वोच्च न्यायालय के आदेश को दोहराता है. सर्वोच्च न्यायालय ने स्वयं अपने फैसले में कहा है कि एमपीएसएम संपूर्ण भूवैज्ञानिक अरावली पर लागू होगा न कि 100 मीटर की सीमित परिभाषा पर. प्रेस नोट में यह नहीं कहा गया है कि मंत्रालय 100 मीटर के मानक का पालन नहीं करेगा.”
वह आगे कहती हैं कि पर्यावरण मंत्री को जवाब देना चाहिए कि एक समान परिभाषा के लिए कोई सार्वजनिक परामर्श क्यों नहीं किया गया? सार्वजनिक टिप्पणियां और सुझाव मांगने की लोकतांत्रिक प्रक्रिया का पालन किए बिना इसे न्यायालय को क्यों सौंप दिया गया?.
बीते पच्चीस सालों ने ख़बरें पढ़ने के हमारे तरीके को बदल दिया है, लेकिन इस मूल सत्य को नहीं बदला है कि लोकतंत्र को विज्ञापनदाताओं और सत्ता से मुक्त प्रेस की ज़रूरत है. एनएल-टीएनएम को सब्स्क्राइब करें और उस स्वतंत्रता की रक्षा में मदद करें.
Also Read
-
From Nido Tania to Anjel Chakma — India is still dodging the question of racism
-
‘Should I kill myself?’: How a woman’s birthday party became a free pass for a Hindutva mob
-
I covered Op Sindoor. This is what it’s like to be on the ground when sirens played on TV
-
Cyber slavery in Myanmar, staged encounters in UP: What it took to uncover these stories this year
-
Hafta x South Central: Highs & lows of media in 2025, influencers in news, Arnab’s ‘turnaround’