Opinion
किसान आंदोलन: पांच साल बाद इतिहास, राजनीति और भूलों का पुनर्पाठ
आज से महज पांच साल पहले हुए किसान आंदोलन की कहानी को याद करते हुए ऐसा लगता है जाने कितने बरस बीत गए. कोरोना और उसके बहाने बाद के दिनों में और अब तक जन आंदोलनों पर कायम राज्य के शिकंजे ने जमीन पर जैसी मुर्दा ठंडक ला दी है, अबकी 26 नवंबर को किसानों-मजदूरों के संयुक्त आंदोलन से उसका टूटना मुश्किल ही लगता है. फिर भी, बीते दशकों में चले सबसे लंबे आंदोलन को याद करना आज कुछ रोशनी दे सकता है.
दो दिन पहले ही वरिष्ठ पत्रकार आनंदस्वरूप वर्मा से इस संदर्भ में बात हो रही थी. वे कह रहे थे कि आज पीछे मुड़कर देखने पर संशय होता है कि साल भर चले इतने बड़े किसान आंदोलन की कोई राजनीतिक लाइन थी भी या नहीं. यह सवाल किसान आंदोलन के मूल्यांकन में कई जगह अपने-अपने ढंग से उठा है. ऐसा तब है जबकि आज से कोई बारह साल पहले पटियाला में डॉ. दर्शनपाल के साथ हुई लंबी बातचीत में उनकी दृष्टि बिलकुल साफ निकलकर आई थी, जब उन्होंने मुझसे कहा था कि ‘’किसानों की चेतना को उनकी जमीन से विस्तारित कर के व्यापक राजनीतिक सवालों तक ले जाने का कार्यभार अभी अधूरा है… पंजाब का किसान मूवमेंट राजनीतिक मूवमेंट नहीं बन पा रहा है.’’ (किसान आंदोलन ग्राउंड जीरो 2020-21, मनदीप पुनिया, सार्थक)
किसान आंदोलन के अगुवा वैचारिक प्रणेता के मन में यह अहसास यदि इतने साल से था, तो 2020 का आंदोलन राजनीतिक आंदोलन क्यों नहीं बन पाया या बनते-बनते कैसे रह गया? यह एक सवाल है. ऐसे बहुत से सवाल आज पूछे जा सकते हैं, बल्कि पूछे गए हैं. वास्तव में, खुद डॉ. दर्शनपाल ने बाद में यह बात स्वीकार की है कि ‘’तीन कृषि कानूनों के खिलाफ आंदोलन छेड़ने का जब विचार आया था तो वे इसे लेकर बहुत आशावादी नहीं थे’’ (द जर्नी ऑफ फार्मर्स रेबेलियन, पृ. 43). इस साक्षात्कार में उन्होंने आंदोलन की कुछ गलतियां स्वीकार की हैं, जो आश्चर्यजनक रूप से उन गलतियों से मेल खाती हैं जिन्हें 1947 में ही प्रो. एन.जी. रंगा ने गिनवा दिया था (किसान और कम्युनिस्ट, अभिनव कदम 43-44, पृ. 231). आश्चर्य नहीं कि इन्हीं गलतियों पर सोमपाल शास्त्री ने भी बाद में प्रकाश डाला है (भारत का किसान और राजनीति, अभिनव कदम 45-46, पृ. 15).
आंदोलन के ऐन क्षण में सही और गलत का बहुत फर्क नहीं समझ आता. प्राय: नकारात्मक नतीजे ही गलतियों के मूल्यांकन के लिए हमें बाद में प्रेरित करते हैं. इस संदर्भ में, आंदोलन के बीचोंबीच हम क्या करते हैं या नहीं, वह उतना ही अहम है जितना यह कि समाज में आंदोलन के न रहने पर हम पिछले आंदोलनों का क्या करते हैं. इस दृष्टि से आज पांच साल बाद किसान आंदोलन को समझना अहम है.
पहली छलांग
जाहिर है, हर गरम से गरम आंदोलन कालान्तर में एक ठंडे दस्तावेज में तब्दील हो जाता है. सर्द मौसम में उन दस्तावेजों को पढ़ना और अगली गरमियों के लिए उनसे सीखना एक जरूरी काम है, जिसका अभ्यास शायद इस समाज में धीरे-धीरे कम होता गया है. बीते पांच साल के दौरान किसान आंदोलन पर भी हिंदी और अंग्रेजी में काफी लेखन हुआ है. पांच बरस पूरे होने के मौके पर मैंने कुछ ऐसी किताबों को चुना है जिन्हें यदि मिलाकर पढ़ा जाए तो न सिर्फ आंदोलन को बल्कि देश में खेती-किसानी के मुद्दों को उनकी ऐतिहासिकता में राजनीतिक अर्थशास्त्रीय और दार्शनिक दृष्टिकोण से समझा जा सकेगा.
चूंकि हम किसान आंदोलन को केंद्र में रखकर बात कर रहे हैं, तो सबसे पहले बारी आती है उस आंदोलन के सूक्ष्म विवरणों की, जिनका ब्योरा आंदोलन का अनन्य अंग रहे पत्रकार मनदीप पुनिया ने 2022 में छपी अपनी किताब ‘’किसान आंदोलन ग्राउंड जीरो 2020-21’’ में दिया है. यह किताब उन विरोधाभासी घटनाओं का स्मृति-पुंज है जिन्होंने मिलकर हमारे दौर के सबसे बड़े आंदोलन को न सिर्फ खड़ा किया, बल्कि उसे टिकाए रखा और एक संतोषजनक अंजाम तक पहुंचाने का भी काम किया. इस किताब को आज की तारीख में पढ़ा जाना हमें मनुष्य के कर्तृत्व के प्रति आश्वस्त करता है- कि कोई भी आंदोलन महज एक राजनीतिक कार्रवाई नहीं होता, सबसे पहले वह मनुष्य के अदम्य साहस, संयम और कमजोरियों की निर्मिति होता है.
आइए, इस किताब से एक शुरुआती अंश देखते हैं. वह पहली छलांग, जिसने बैरीकेडों को अप्रासंगिक बना डाला था. बात 25 नवंबर 2020 की है जब दिल्ली में बैठे तमाम आंदोलन-समर्थक लोग किसानों के सरहद पर पहुंचने की बाट जोहकर अपनी नींद खराब कर रहे थे और उधर हरियाणा में 23 नवंबर की रात से ही गिरफ्तारियां शुरू हो चुकी थीं. मनदीप पुनिया लिखते हैं, “मोहड़ा मंडी वह जगह थी जहां हरियाणा के किसानों को दिल्ली कूच के लिए जमा होना था. दो दिन से अंबाला इलाके के किसान नेता अमरजीत मोहड़ी की फेसबुक पर कई वीडियोज फेसबुक पर तैर रही थीं, जिसमें वह हरियाणा के किसानों को 26 नवम्बर के बजाय 25 नवम्बर को मोहड़ा मंडी से मार्च करने की अपील कर रहे थे. उनकी तैयारी पुलिस द्वारा हर जिले की सीमा पर लगाए गए बैरिकेडों को एक दिन पहले ही तोड़ने की थी ताकि अगले दिन जब पंजाब के लोग आगे बढ़ें तो हरियाणा की सड़कों पर उन्हें बैरिकेड न मिलें. एक तरह से यह हरियाणा का पंजाब के लिए दोस्ती का हाथ बढ़ाने का पहला कदम था जो वाकई बहुत कारगर साबित हुआ.”
उस सर्द सुबह, एक किसान अंबाला के एक प्राइवेट हॉस्पिटल में गया और डॉक्टरों के कपड़े पहनकर बाहर आया. चंद मिनटों में किसान से डॉक्टर बने यह जनाब अपनी स्कूटर पर चढ़े और दिल्ली की ओर दौड़ निकले. करीब दो किलोमीटर बाद पुलिस बैरिकेडों के पास पहुंचकर अपना स्कूटर रोका और एक सभ्य डॉक्टर की तरह पुलिस वालों से कुछ देर बातचीत करके स्कूटर वापस मोड़ लिया और मोहड़ा मंडी के पास जमा हो रहे किसानों के पास आकर उन्हें पुलिस की तैयारियों का सूरत-ए-हाल बयान कर दिया.
अभी सुबह के 10 ही बजे थे कि 20 के आसपास ट्रैक्टर-ट्रालियां मोहड़ा मंडी में जमा हो गई थीं. कुछ किसान भी वहां जमा थे. फ़टी जैकेट वाला नौजवान भी रेलवे ट्रैक से भागते-भागते जत्थे में आ मिला था. अभी लोग ट्रैक्टरों को बंद कर नीचे उतर ही रहे थे कि अमरजीत मोहड़ी की गाड़ी वहां आकर रुकी और गुरनाम सिंह चढूनी एक नटखट हंसी के साथ गाड़ी से छलांग मारकर बाहर आए. हल्की खुसुर-फसुर के बाद गुरुद्वारे में मत्था टेका गया और कम्बलों में लुके किसानों ने अपने ट्रैक्टर दिल्ली की तरफ दौड़ा दिए.
करीब डेढ़ किलोमीटर बाद हरियाणा पुलिस के बैरिकेडों ने उन ट्रैक्टरों को रोकना तो चाहा मगर कुछ ही मिनटों में ट्रैक्टर बैरिकेडों के उस पार थे. जो किसान घर से नहाकर नहीं आया था, उसे वाटर कैनन ने अपने पानी से नहला दिया था. नहलाने का काम अभी चालू ही हुआ था कि वह फ़टी जैकेट वाला लम्बा-चौड़ा नौजवान उस वाटर कैनन के मुंह से कुश्ती करने लगा. उस जलतोप ने उसके भुजबल के आगे जवाब दे दिया और उसकी तेज-तीखी धार मुरझाकर टपकती टोंटी बनकर रह गई.
पुलिस वाले ‘हो-हो ओए-ओए’ के अलावा कुछ कर पाते उससे पहले वह नौजवान अपनी ट्रॉली में छलांग लगा चुका था. उस फटी जैकेट वाले नौजवान का नाम था नवदीप सिंह.
सोशल मीडिया के स्टार कई किसान इस पूरे घटनाक्रम का अपने फेसबुक के माध्यम से लाइव दिखा रहे थे तो कई जन छोटी छोटी वीडियोज बनाकर मीडिया वालों को भेज रहे थे. इन वीडियोज में हरियाणा के नौजवान किसान अपने ट्रैक्टरों से बैरिकेड हटा रहे थे, पुलिस किसानों पर आंसू गैस के गोले और पानी की तेज बौछारें बरसा रही थी. चंद मिनटों बाद ही नवदीप की छलांग का वीडियो पूरे हरियाणा और पंजाब में वायरल होने लगा था.
नवदीप की उस छलांग का ऐसा असर हुआ कि पूरे देश और मीडिया की नजर आंदोलनरत किसानों पर आ टिकी. इस घटना के बाद आंदोलन ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा.
आंदोलन ने ‘पीछे मुड़ कर नहीं देखा’ एक रूढ़ प्रयोग है. पीछे मुड़कर नहीं देखना कोई स्वस्थ बात नहीं है, इसलिए इसे हम तात्कालिक उत्साह के संदर्भ में लिखा मानेंगे. बेशक, हर आंदोलन पीछे मुड़कर देखता ही है. खुद लेखक ने भी पीछे मुड़कर जब देखा होगा तो उसकी स्थापनाएं बदली होंगी गोकि मनदीप ने यह किताब आंदोलन के बीच रहते हुए और उसके समाप्त होने के तुरंत बाद लिखी थी. इस लिहाज से यह किताब आंदोलन का एक रोजनामचा है. रोजनामचों की खूबी यह होती है कि वे इतिहास में अलग-अलग ताकतों के मूल्यांकन के लिए आर्काइव का काम करते हैं. गत दौर में इतिहासलेखन जिस तरह से आर्काइव और सरकारी गजेट पर निर्भर हुआ है, बहुत संभव है कि दसेक साल बाद इस किताब को अलग-अलग व्यक्तियों और संगठनों की आंदोलन में निभाई उनकी निजी भूमिकाओं के लिए खंगाला जाय.
मसलन, किताब में आंदोलन के आखिरी दौर का एक प्रसंग बताता है कि चीजें उतनी सपाट और सीधी नहीं थीं जितना बाहर से दिखाई देती थीं. मनदीप एक चिट्ठी का जिक्र करते हैं जो अमित शाह को लिखी गई थी और बताते हैं कि कुछ किसान नेता खुफिया एजेंसी रॉ के एक अधिकारी के माध्यम से सरकार के साथ बैकडोर की बातचीत में लगे हुए थे. इसी तरह, किसान नेताओं के चुनाव लड़ने की जल्दबाजी को लेकर किसान नेता सुरजीत फूल की 1 दिसंबर 2021 की बैठक में रखी बात भी कुछ संकेत देती है कि किसान नेताओं को मोर्चे से लौटने की इतनी जल्दी क्यों थी.
अंतिम अध्याय का शीर्षक ‘हार या जीत’ अपने आप में समूचे आंदोलन की उपलब्धि को प्रश्नांकित करने के लिहाज से उपयुक्त है. मनदीप ने अंतिम वाक्य में बेशक ‘मोर्चों पर डटने की बजाय प्रतिरोध के नाम पर खानापूर्ति’ करने वालों का नाम नहीं लिया है लेकिन मुक्तिबोध की एक पंक्ति के उद्धरण से आंदोलन के प्रति अपनी व्यक्ति-केंद्रित दृष्टि को स्पष्ट कर दिया है.
पीछे मुड़कर देखना, व्यक्तियों के पार देखना
कोई भी आंदोलन निजी साहस या बगावत का समुच्चय नहीं होता. साहस, संयम और प्रतिरोध का अपना मूल्य है, जिसे स्वीकार किया जाना चाहिए लेकिन एक इकाई के तौर पर आंदोलन को देखते वक्त समाज की ऐतिहासिक गति को नजर से ओझल नहीं होने देना चाहिए. मौके पर दर्ज किए गए ब्यौरों से आगे इतिहास, राजनीतिक अर्थशास्त्र और दर्शन वे तीन मूलभूत घटक हैं जिनकी सान पर किसी घटना या घटनाक्रम का मूल्यांकन किया जाना चाहिए. यह कमी हमारी अगली किताब पूरी करती है जो दो खंडों में है.
आंदोलन के दौरान और बाद में यूपी के मऊ से निकलने वाली हिंदी की पत्रिका ‘अभिनव कदम’ (संपादक: जयप्रकाश धूमकेतु) ने अपने दो बेहद महत्वपूर्ण संयुक्तांक ‘’किसान और किसानी’’ शीर्षक से निकाले थे (अंक संख्या 43-44 और 45-46). दिल्ली विश्वविद्यालय के शिक्षक और पत्रकार अटल तिवारी व बिपिन तिवारी के अतिथि संपादन में निकले ये दो संयुक्तांक मेरे विचार से किसान आंदोलन और भारत के कृषि संकट का एक मुकम्मल प्रस्तुतीकरण हैं. ऐसा मुकम्मल काम बीते दशकों में हिंदी में शायद ही हुआ हो. पहले विशेषांक का विषय है ‘’खंड 1: दस्तावेज’’. दूसरे विशेषांक का विषय है ‘’खंड 2: मूल्य और मूल्यांकन’’.
खेती-किसानी के ऐतिहासिक, दस्तावेजी और आंदोलन के मूल्यांकनपरक अध्ययन के लिए ये दो खंड नायाब महत्व रखते हैं. पहला खंड दस्तावेजी लेखों का संग्रह है जिसके चार खंड हैं: किसान और साहित्य, किसान और राजनीति, किसानों से संवाद तथा किसान और बुद्धिजीवी. करीब साढ़े पांच सौ पन्ने का दूसरा खंड ज्यादा विस्तृत है. इसे छह भाग में बांटा गया है: परंपरा, चिह्नांकन, मूल्यांकन, साक्षात्कार, साहित्य और आंदोलन.
कायदे से दोनों खंडों के बीच बस इतना अंतर है कि पहला खंड दस्तावेजी है यानी स्वतंत्रता-पूर्व से लेकर साठोत्तर तक खेती-किसानी की समस्याओं और आंदोलनों पर लिखे हुए को सामने लाता है जबकि दूसरा खंड साठोत्तर से लेकर अब तक के लिखे पर केंद्रित है. साहित्य वाले हिस्से की तुलना करने पर हम पाते हैं कि पहले के मुकाबले साहित्य, रंगमंच, फिल्मों और मीडिया में किसानों की चिंता घटती गई है. इस चिंता पर दूसरे खंड में अच्छे लेख हैं.
दूसरे खंड में ‘परंपरा’ के शुरुआती दो लेख अतिपठनीय हैं. पहला समाजवादी नेता और चिंतक सोमपाल शास्त्री का है. दूसरा इसी साल दिवंगत शिक्षाशास्त्री अनिल चौधरी का है. वरिष्ठ पत्रकार पी. साईनाथ से लेकर डॉ. दर्शनपाल और अन्य किसान नेताओं के साक्षात्कार बहुत विस्तृत हैं. पहले खंड में राहुल सांकृत्यायन, आचार्य नरेंद्र देव, राममनोहर लोहिया और तमाम पुराने लेखकों-चिंतकों का लिखा संग्रहित है.
किसान आंदोलन जब जनवरी 2021 के बाद थोड़ा स्थिर हुआ था, तब कुछ सवाल उससे निकलकर आने लगे थे. एक सवाल बड़े किसानों बनाम खेतिहर मजदूरों का था. दूसरा सवाल किसान बनाम मजदूर का था. तीसरा दलित किसानों से जुड़ा था. इन सवालों को उठाने वाले ज्यादातर दो तरह के लोग थे. या तो वे वामपंथी थे जो इस आंदोलन को पंजाब-हरियाणा के बड़े-संपन्न किसानों का आंदोलन कहकर प्रश्नांकित कर रहे थे या वे अस्मितावादी थे जो इसमें दलितों/भूमिहीनों की भागीदारी और भूमिका के खूंटे से इसकी आलोचना कर रहे थे.
अभिनव कदम के किसान केंद्रित पहले खंड को पढ़कर आश्चर्य होता है कि इन सवालों पर आज से छह-सात दशक पहले ही कितनी स्पष्टता के साथ विचार किया जा चुका था. इतिहास में पीछे मुड़कर न देखने वाली प्रवृत्ति का ही यह नतीजा है कि जो राजनीतिक सवाल हमारे पुरखों ने सैद्धांतिक स्तर पर हल कर दिए थे, उनमें हम बार-बार फंस जाते हैं. बड़े किसानों और भूमिहीन किसानों के सवाल पर राहुल सांकृत्यायन और एन.जी. रंगा का लिखा इस संदर्भ में जरूर पढ़ा जाना चाहिए.
किसान आंदोलन और खेती-किसानी के अलग-अलग आयामों से दोनों खंडों में तकरीबन सारी बात शामिल है, लेकिन दूसरे खंड के पृष्ठ 57 पर अनिल चौधरी के लेख में एक ऐसे आयाम की चर्चा है जिस पर आम तौर से बीते पांच वर्षों में कहीं बात नहीं हुई है. यह आयाम है आंदोलन से शिक्षण का. बातचीत पर आधारित इस लेख में कहते हैं, ‘’जन आंदोलन को वाकई में जन आंदोलन बनाने के कुछ नुक्ते निकलते हैं, उन नुक्तों को पकड़ने की जरूरत होती है.’’ इन नुक्तों को बहुत बारीकी से उन्होंने आंदोलन की कार्यपद्धति के संदर्भ में गिनवाया है.
एक आलोचना किसान आंदोलन के पंजाब केंद्रित होने से जुड़ी थी. इस संदर्भ में सोमपाल शास्त्री का लेख बहुत कारगर है जो ऐतिहासिक रूप से किसान आंदोलन की पंजाब-केंद्रीयता को घटनाओं और व्यक्तियों के माध्यम से समझाता है. वे चौधरी छोटूराम का एक प्रसंग सुनाते हैं (पृ. 20) जब बंगाल के अकाल और अन्न की कमी का हवाला देकर लॉर्ड वेवल गेहूं का अधिकतम भाव छह रुपये मन तय करना चाहते थे. दिल्ली में बुलाई गई बैठक में वायसरॉय के इस प्रस्ताव पर सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने मेजें थपथपा दीं लेकिन पंजाब की ओर से आए छोटूराम ने इसे मानने से इनकार कर दिया:
‘’दस रुपये से कम भाव मिलने पर पंजाब के गेहूं को बाहर न जाने देने और जरूरत पड़ी तो गोदामों में आग लगा देने की बात कहकर मीटिंग का बहिष्कार कर के चले गए. उस समय भारत सुरक्षा कानून लागू था. वह गिरफ्तार हो सकते थे परन्तु ब्रिटिश सरकार को झुकना पड़ा. आदेश आया कि पंजाब का गेहूं 11 रुपये मन तक खरीदा जा सकता है. ऐसा कोई दूसरा उदाहरण भारत के इतिहास में नहीं मिलता. उन्हीं के कारण पंजाब सरकार पर सदा किसानों का आधिपत्य रहा.‘’
ऐसे तमाम ऐतिहासिक उदाहरण, प्रसंग, परचे, नारे, और लेख पढ़ने पर एक बात यह समझ में आती है कि चार-पांच साल पहले किसान आंदोलन के संदर्भ में आई ज्यादातर बौद्धिक आलोचनाएं इतिहासबोध से कटी हुई थीं. पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाट किसानों के बीच दलित किसानों की गैरमौजूदगी या पंजाब से केवल एक दलित किसान संगठन की मौजूदगी को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाए जाने के साथ जुड़ी आलोचना भी ऐतिहासिक जानकारी के अभाव की ही मारी थी. अभिनव कदम के पहले दस्तावेजी खंड में बाबा रामचंद्र के नाम से अवध किसान सभा, प्रतापगढ़ की एक नियमावली अवधी मिश्रित हिंदी में दी हुई है. इस संदर्भ में एक जबरदस्त ऐतिहासिक जानकारी हमें रामनारायण एस. रावत की लिखी किताब उत्तर भारत में चमार और दलित आंदोलन का इतिहास से मिलती है.
वे बताते हैं कि जनवरी 1921 में रायबरेली जिले में किसान सभा के कार्यकर्ताओं पर पुलिस द्वारा चलाई गई गोली में मरने वाले किसानों में सर्वाधिक संख्या दलितों की थी. फर्सतगंज इलाके में घटी इस घटना में 24 किसान मारे गए थे. इनमें 16 चमार और पासी थे. वे लिखते हैं, ‘’किसान सभा आंदोलन में दलितों की भागीदारी के प्रतिनिधित्व पर अभिलेखीय साक्ष्यों से पता चलता है कि चमार और पासी किसान सभा के सक्रिय सदस्य थे… अवध के किसान सभा आंदोलन के एक प्रख्यात नेता बाबा रामचंद्र अपनी डायरियों में उस आंदोलन में चमार किसानों की भूमिका का विशेष उल्लेख करते हैं.‘’
रावत इस तथ्य के सहारे सबाल्टर्न इतिहासकार ज्ञान पांडे की उस स्थापना का खंडन करते हैं जिसके मुताबिक किसान सभा कुर्मियों और मुरावों का आंदोलन था. रावत लिखते हैं, ‘’… वास्तव में, पेशेगत पहचान के आधार पर या यह मानकर कि वे भूमिहीन मजदूर थे, पासी और चमारों को किसान सभा आंदोलन से बाहर करने का मतलब उनके बारे में औपनिवेशिक रूढ़ धारणाओं को कायम रखना है. यही समय है कि हम व्यापक रूप से पुनर्विचार करते हुए इस धारणा का खंडन करें कि किसान सभा आंदोलन ने केवल निचली जातियों की चिंताओं को हल किया था और इस बात को स्वीकार करें कि उसमें शामिल जाति-समूहों की चिंताएं उनके ‘किसानी कामों’ से जुड़ी थीं.‘’
रावत की यह किताब हिंदी में 2024 में आई है, जिसका अनुवाद कंवल भारती ने किया है. इसका मूल अंग्रेजी में प्रकाशन वर्ष 2011 का है. इसके अनुसार, यदि सौ साल पहले की किसान सभा के जन्म से ही दलित किसान उसका हिस्सा थे, तो सौ साल बाद के किसान आंदोलन के परिप्रेक्ष्य में इसका क्या महत्व हो सकता था? किसान आंदोलन को जाति/वर्ग के आधार पर बांटकर देखने की बात कहां से आई? रावत जिस बात को अब बाबा रामचंद्र की डायरी से साबित कर रहे हैं, शायद उसी को प्रो. एन.जी. रंगा ने 1947 में स्वर दिया था, ‘’किसानों! वर्ग एकता कायम करो!” इतने समृद्ध और तथ्यात्मक इतिहास के बावजूद 2020-21 का आंदोलन खोखली अस्मितापरक आलोचनाओं पर सिर फोड़ता रहा, यह भी आंदोलन का मूल्यांकन या उस पर टिप्पणी करने वालों की इतिहास-विमुखता को दिखाता है.
आंदोलन पर वाम-दृष्टि
बहरहाल, समग्रता में खेती-किसानी को ऐतिहासिक रोशनी में समझने की जरूरत के बाद एक अहम बात बची रह जाती है. वह है आंदोलन के अगुवा चेहरों के अपने विश्लेषण. आंदोलन समाप्त होने के बाद मोर्चे पर डटे लोगों से बातचीत एक बहुत अहम आयाम थी, जिसे ‘अभिनव कदम’ के दूसरे खंड ने अंशत: संबोधित तो किया है लेकिन बात पूरी नहीं बन पाई है. इसकी एक वजह भाषा की सीमा भी हो सकती है. पी. साईनाथ के अलावा दर्शनपाल, राकेश टिकैत, डॉ. सुनीलम, देविन्दर शर्मा, और विजय जावंधिया के साक्षात्कार इसमें शामिल हैं.
इस मायने में अंग्रेजी में थोड़ा विस्तृत काम हुआ है. किसान आंदोलन को समझने के लिए हमारी तीसरी किताब अंग्रेजी की है जो आंदोलन से जुड़े विशुद्ध साक्षात्कारों का मोटा संकलन है. किताब का नाम है द जर्नी ऑफ द फार्मर्स रेबेलियन, जिसको वर्कर्स यूनिटी, ग्राउंडजीरो और नोट्स ऑन द एकेडमी नाम के मंचों ने मिलकर कलकत्ता से छापा है. किताब करीब पांच सौ पन्ने की है. जाहिर है, इसमें आंदोलन के उन नायकों के साक्षात्कार तो हैं ही जिनका पहले भी हम जिक्र कर चुके हैं, लेकिन और भी बहुत कुछ है. हम नहीं जानते कि इस किताब के संपादक कौन हैं, चूंकि संपादकीय में किसी का नाम नहीं दर्ज है.
किताब किसान आंदोलन के 700 से ज्यादा ‘शहीदों’ को सलाम देते हुए खुलती है. कॉपीराइट किसी के नाम नहीं है जिससे समझ में आता है कि इसे छापने वालों की आंदोलनात्मक पृष्ठभूमि होगी. दो परिचयात्मक लेख हैं. एक रंजना पाढ़ी का है, जिनका पंजाब की खेतीबाड़ी में औरतों पर किया अध्ययन बहुत चर्चित है. दूसरा लेख प्रो. सुखपाल सिंह का है जो चर्चित कृषि वैज्ञानिक हैं. इसके बाद साक्षात्कारों की लंबी सूची है: दर्शनपाल, राजिंदर सिंह दीप सिंह वाला, हरिंदर कौर बिंदु, सुरजीत सिंह फूल, जोगिंदर सिंह उग्रहण, जसबीर कौर नट्ट, हनन मुल्ला, सुखविंदर कौर, मनजीत सिंह धनेर और कविता कुरुगंती. इनमें कविता कुरुगंती (एनजीओ) को छोड़कर बाकी सभी पंजाब की किसान यूनियनों के नेता हैं.
दूसरा खंड पंजाब की कृषि मजदूर यूनियनों के नेताओं से संवाद का है. इसमें क्रांतिकारी पेंडू मजदूर यूनियन, पंजाब खेत मजदूर यूनियन और देहाती मजदूर सभा के कार्यकर्ताओं और नेताओं के साथ विस्तृत संवाद शामिल हैं. तीसरा खंड जमीन प्राप्ति संघर्ष समिति के नेताओं गुरमुख सिंह और परमजीत कौर लोंगोवाला से बातचीत का है. चौथा खंड पत्रकारों, अर्थशास्त्रियों, राजनीतिक-सांस्कृतिक कार्यकर्ताओं से साक्षात्कार का है. इनमें हरतोश सिंह बल, पावेल कुस्सा, प्रो. सुखपाल सिंह (परिचय लेखक), रणदीप मदोके, अमोलक सिंह, नवदीप कौर, प्रो. रंजीत सिंह घुमन शामिल हैं. जाहिर है, इन बौद्धिकों में कोई भी पंजाब से बाहर का नहीं है (कह सकते हैं कि हरतोश सिंह बरसों से दिल्ली में हैं और उनका आंदोलनों से कोई खास लेना-देना नहीं रहा है). बाकी, पांच सौ पन्ने की किताब में उत्तर प्रदेश और राजस्थान का प्रतिनिधित्व नदारद है- नेतृत्व वाले पहले खंड में भी, जहां राकेश टिकैत या चढ़ूनी की जगह हनन मुल्ला और कविता कुरुगंती को शामिल करने की कोई खास तुक नहीं बनती है.
साक्षात्कार लेने वालों के नाम कहीं भी शामिल नहीं किए गए हैं बल्कि ग्राउंडजीरो के लिए जीएक्स और वर्कर्स यूनिटी के लिए डब्ल्यूयू लिख दिया गया है. साक्षात्कार लेने वाले का नाम न होना पेशेवर पत्रकारिता तो नहीं है, चूंकि इससे विश्वसनीयता संदिग्ध हो जाती है. फिर भी, यह संग्रह ऐसे तमाम सवालों से हमें रूबरू करवाता है जिनका जवाब आजादी के दौर में या उससे पहले उठे किसान आंदोलनों ने अपने वक्त में दे दिया था. आशय यह है कि किताब में शामिल साक्षात्कारों के विषय-सूची में विभाजन से एक समझ सामने आती है कि इसका संपादक मंडल किसान आंदोलन के प्रतिनिधि चेहरों/संगठनों और भूमिहीनों/खेतिहर मजदूरों व उनके संगठनों के बीच फर्क देखता है. साथ ही, जमीन प्राप्ति संघर्ष समिति को अलग से एक खंड में डालना उसके प्रति किसी विशेष दृष्टि का सूचक है.
पुस्तक के साक्षात्कार और प्रश्नों की प्रकृति देखने पर अंदाजा लगता है कि संभवत: यह वही दृष्टि है जिसकी 1936 के आंध्र किसान सम्मेलन के संदर्भ में ‘किसानों को विभाजित और असंगठित करो’ की लेनिनवादी नीति कहते हुए प्रो. एन. जी. रंगा ने आलोचना की थी. उन्होंने लिखा था: “किसानों के संयुक्त मोर्चे की पूरी आवश्यकता के अनुभव के कारण ही हम किसानों में फूट डालने वाली कम्युनिस्टों की नीति का विरोध कर रहे हैं. जिस तरह कुशल कारीगरों और साधारण मजदूरों में स्वार्थों का संघर्ष संभव है या निर्यात और आयात वाले देशों में मजदूरों के स्वार्थ एक नहीं हैं, उसी प्रकार भूमि वाले किसानों और भूमिहीन मजदूरों के बीच भी स्वार्थ का संघर्ष हो सकता है परंतु इसके बावजूद उनकी एकता कायम रह सकती है.‘’ (किसान और कम्युनिस्ट, 1947, पृ. 128-131)
यही बात राहुल सांकृत्यायन भी कह रहे थे: ‘’किसानों और खेतिहर मजदूरों का अधिकार अंत में आकर एक ही समस्या के दो रूप हैं’’… इसके बावजूद, उन्हें एक अहम बात का अहसास था कि ‘’…हम सभी क्रांतियां एक साथ नहीं कर सकते… खेतिहर मजदूरों को किसानों से लड़ाने के लिए जमींदार कोर-कसर बाकी नहीं लगा रहे हैं और जमींदारों को वोट दिलाने के लिए दौड़ने वालों या कांग्रेस का विरोध करने वाले लोगों के दिल में जिस प्रकार खेतिहर-मजदूरों के प्रति दया छलछला आई है, उससे तो किसानों और खेतिहर मजदूरों दोनों को सावधान हो जाना चाहिए.‘’ दिमागी गुलामी, पृ. 49-52)
ऐसा लगता है कि पुस्तक संपादकों की किसानों और मजदूरों को अलग-अलग देखने की दृष्टि का खुद किसान नेता ही खंडन कर रहे हैं. वामपंथी किसान संगठनों की परंपरागत विभाजनकारी वैचारिक स्थिति को दर्शनपाल ने अपने साक्षात्कार में स्वीकार किया है (पृ. 38) और बड़ी साफगोई से कहा है, “भारत में इलाकावार असमान विकास के बावजूद खेती से जुड़े लोग- चाहे भूधर किसान हों या भूमिहीन मजदूर- एक पहचान विकसित कर पाए कि वे एक ही समुदाय, एक ही वर्ग के हैं. हमने इस साझा पहचान और सामुदायिक भाव के बोध को पहचाना और इस बात पर जोर दिया कि खेतिहर समाज के सभी तबके आंदोलन के समर्थन में आवें.” (पृ. 40). पृष्ठ 50 पर एक सवाल के जवाब में वे एक बार फिर से किसान आंदोलन में शामिल वाम संगठनों की अपनी आलोचना को रखते हैं.
इसके बावजूद पुस्तक के संपादकों की ‘दृष्टि’ से हमारा सामना पृ. 276 पर होता है, जब वर्कर्स यूनिटी जेडपीएससी के गुरमुख सिंह से सवाल पूछते हुए उन्हें लीड करता है: ‘’…फिर आपने किसान आंदोलन का समर्थन क्यों किया? वह तो भूधर जाट किसानों के नेतृत्व वाला आंदोलन था जो नियमित रूप से दलितों मजदूरों का उत्पीड़न करते हैं?‘’ गुरमुख सिंह के जवाब का पहला वाक्य ही यह है कि आंदोलन को भूधर जाटों का मानना गलती है. अगला सवाल फिर उसी तर्ज पर है कि सामान्य दलितों ने आंदोलन का समर्थन क्यों नहीं किया. इसका जवाब गुरमुख सिंह विस्तार से देते हैं.
सवालों की तर्ज खेतिहर मजदूर यूनियनों के साथ संवाद में भी ऐसी ही है. मसलन, लक्ष्मण सिंह से संवाद में (पृ. 246) वर्कर्स यूनिटी सवाल करता है कि क्या संयुक्त किसान मोर्चा ने अपने एजेंडे में से खेतिहर मजदूरों के मुद्दों को बाहर निकाल दिया था और क्या इसी वजह से उनकी भागीदारी कम रही! इस पर लक्ष्मण सिंह बहुत सधा हुआ परिपक्व जवाब देते हैं. उसके बाद प्रश्नकर्ता ‘ऐतिहासिक रूप से किसानों और दलित खेतिहर मजदूरों के बीच शत्रुतापूर्ण संबंध’ की बात उठाता है (जिसका जिक्र हम ज्ञान पांडे और रामनारायण रावत के संदर्भ में ऊपर कर चुके हैं).
इस पुस्तक में अलग-अलग लोगों से पूछे गए ऐसे सवालों को देखकर दो विचार बनता है. पहला, या तो ये सवाल किसी जड़ समझदारी के तहत पूछे गए हैं (वही पुरानी कम्युनिस्ट समझदारी जो किसानों को बड़े, मझोले और छोटे में बांटकर देखती रही है) या फिर ये सवाल जान-बूझ कर पूछे गए हैं ताकि कृषि-क्षेत्र में वर्गीय/जातिगत विभाजनों पर किसान नेताओं की अपनी समझदारी को प्रकाशित किया जा सके. चाहे जो वजह हो, यह साक्षात्कार-संग्रह कम से कम पंजाब के किसान नेताओं और बौद्धिकों की आंदोलन के संदर्भ में राजनीतिक समझदारी को पूरी तरह से समझने के लिए अतिमहत्वपूर्ण है.
इसके बावजूद, यह किताब पंजाब के बाहर नहीं जा सकी है इसलिए अधूरी है. इस अधूरेपन को पूरा करती है वरिष्ठ पत्रकार अरुण त्रिपाठी के संपादन में वाणी प्रकाशन से आई किताब ‘’संकट में खेती, आंदोलन पर किसान’’, जो सूची में हमारी चौथी पुस्तक है.
हिंदी पट्टी की बाहरी नजर से
हिंदी पट्टी में किसान आंदोलन का सीधे बहुत प्रभाव नहीं रहा, लेकिन हिंदी के लेखकों, पत्रकारों और बौद्धिकों में बरसों बाद एक आलोड़न जरूर हुआ. दिल्ली में रहने वाला लेखक-पत्रकार कम से कम एक बार तो गाजीपुर या सिंघु बॉर्डर के मोर्चे पर किसानों के दर्शन करने जरूर गया था. ऐसे तमाम लेखकों/पत्रकारों के विचार एक साथ अरुण त्रिपाठी ने एक किताब में संजोये, जो 2022 में छपकर आई.
‘’संकट में खेती, आंदोलन पर किसान’’ वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित ‘’आज के प्रश्न’’ श्रृंखला में 23वीं पुस्तक है. अरुण त्रिपाठी ने अपने 16 पन्ने के संपादकीय में बहुत विस्तार से कृषि-प्रश्न की पृष्ठभूमि रखी है. चूंकि वे समाजवादी आंदोलन से जुड़े रहे हैं, तो स्वाभाविक रूप से इस पुस्तक के लेखकों में ज्यादातर समाजवादी छतरी के अलग-अलग खेमों से आते हैं. पत्रकार अरविंद कुमार सिंह, सचिन कुमार जैन, संपादक मृणाल पांडे, गांधीवादी चिन्मय मिश्र पत्रकार आशुतोष, समाजवादी प्रेम सिंह और ए.के. अरुण,, सुनीलम, आदि के लेख शामिल हैं. देविन्दर शर्मा और सुखपाल सिंह के लेख यहां भी पढ़े जा सकते हैं. हिंदी में डॉ. दर्शनपाल, जोगिंदर सिंह उग्रहण, राकेश टिकैत के त्रिपाठी द्वारा लिए साक्षात्कार पठनीय हैं. अवध के किसान आंदोलन के इतिहास पर कृष्ण प्रताप सिंह और बंगाल में सिंगुर के किसान आंदोलन पर कृपाशंकर चौबे के लेख अखिल भारतीयता की कमी को पूरा करते हैं.
इस किताब की खास पेशकश एक महिला पत्रकार डी. जेनिफर का लेख है, जो दिल्ली में दलित कैमरा नाम के चैनल के लिए काम करती हैं और पंजाब से दिल्ली तक उन्होंने किसान आंदोलन को कवर किया था. जाहिर है, दलित कैमरा के लिए काम करने के चलते जेनिफर की निगाह दलित और महिला लेन्स से ही कहानियां खोज रही होगी. जेनिफर ने दो सबसे जरूरी काम किए हैं- एक, उन महिला किसानों को नाम लेकर याद किया है जिन्होंने आंदोलन में अपनी जान गंवा दी और दूसरे, उन दो दलित कार्यकर्ताओं का जिक्र किया है जिन्हें गिरफ्तार कर के प्रताड़ना दी गई थी- नवदीप कौर और शिवकुमार.
जेनिफर के इस लेख की अंतिम पंक्तियां यहां देने का एक अर्थ है. ये पंक्तियां उन तमाम सवालों का निचोड़ हैं जो किसान आंदोलन के नेतृत्व से दलित, महिला, खेतिहर मजदूर, भूमिहीन, आदि के संदर्भ में पूछे गए थे. वे लिखती हैं: ‘’इस आंदोलन की असली सफलता इस बात में है कि इसे एक वास्तविक जनांदोलन में परिवर्तित करने के लिए किस तरह से दलित और महिला किसानों के मुद्दों को इसमें शामिल किया जाता है और उठाया जाता है.‘’ यह लेख एक स्टोरी की शक्ल में ज्यादा है, इसलिए पठनीय है.
आम तौर से हिंदी के पत्रकारों की नजर से किसान आंदोलन पर बहुत कुछ गंभीर लिखा सामने नहीं आया है. इस लिहाज से इस पुस्तक में जनचौक के संपादक महेंद्र मिश्र और नई दुनिया से सम्बद्ध रहे रवि अरोड़ा के लेख पढ़े जा सकते हैं. किसानों के विषय पर शोध कर चुके पत्रकार डॉ. अनिल चौधरी का लेख गंभीर और पठनीय है. कुल मिलाकर इस संग्रह में दस पत्रकारों-संपादकों के लेख हैं, जो अन्यत्र कहीं एक साथ प्रकाशित नहीं हुए हैं और इसी संग्रह के लिए विशेष रूप से लिखे गए हैं. किसान आंदोलन पर लिखने-पढ़ने वाले तमाम पत्रकारों के बीच हालांकि एक शख्स ऐसा है जिसने मेरे खयाल से सबसे मौलिक काम किया है और अफसोस, कि उसकी कहीं कोई चर्चा नहीं है.
और पांचवीं किताब बेटी के लिए…
किसान आंदोलन अब इतिहास है. कहानी है. किस्सा है. शायद कुछ बरस में किंवदंती भी बन जा सकता है. उस पर पढ़ने को तो बहुत कुछ है, लेकिन शब्दों का दौर अब अवसान पर है. चित्र, वीडियो, दृश्य माध्यमों का बोलबाला है. हम लोग, जिन्होंने इस आंदोलन को अपनी आंखों से देखा और मन में महसूस किया है, उस पीढ़ी को किसान आंदोलन की कहानियां कैसे बताएंगे जो 2020 में बारह-तेरह बरस की थी और अब जवान हो रही है? मतदाता बन रही है?
हो सकता है भविष्य में ऐसे आंदोलन और हों, भले इतना बड़ा और सघन नहीं. आंदोलनरत समाज अपने आप शिक्षण का माध्यम होता है. बच्चों को सिखाने की जरूरत नहीं पड़ती. जब समाज में आंदोलन नहीं होते हैं तब आंदोलनों और उनके नायकों की कहानियां सचेत रूप से बालमन में डालनी पड़ती हैं. क्या उसका हमारे पास कोई मुहावरा है? भाषा है? आंदोलन को तो छोड़ दें. क्या देश में खेती-किसानी पर अपने शहरी बच्चों को सही जानकारी देने का हमारे पास कोई जरिया है, जो शायद यह मानने के कगार पर पहुंच चुके हैं कि खाना तो स्विगी, जोमैटो और इंटरनेट के ऐप से आता है?
इस साल राजकमल प्रकाशन से सोरित गुप्तो की एक सुंदर-सी चौड़ी-सी पीले रंग की किताब आई है. नाम है ‘’किसानी की कहानी: बेटी के लिए’’. सोरित पेशे से अखबारी जीव हैं लेकिन कार्टूनिस्ट हैं. उन्होंने नोटबंदी और कोरोना महामारी पर भी इलस्ट्रेटेड किताबें बनाई हैं लेकिन किसानी पर उनकी ताजा किताब गंभीर पढ़ने-लिखने वालों को एक रास्ता सुझाती है कि बच्चों को कैसे कठिन चीजें समझाई जाएं. किताब को समर्पित करते हुए वे लिखते हैं: ‘’किसानों के नाम, जिनके बगैर हम भूखे रहेंगे, और भूख हमें रोज लगती है, सुबह, दोपहर, शाम, रात….‘’
अगला पन्ना उनकी बिटिया के लिए है: ‘’पीऊ को उसकी अठारहवीं सालगिरह और पहली बार दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का मतदाता बनने पर’’. इस किताब को देखते ही मुझे यानिस वारुफाकिस (ग्रीस के पूर्व वित्त मंत्री) की एक छोटी-सी सुंदर किताब याद हो आई थी जो उन्होंने अपनी बेटी को पूंजीवाद का इतिहास समझाने के लिए बेहद सरल भाषा में लिखी थी. किताब का नाम है: टॉकिंग टु माइ डॉटर: ए ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ कैपिटलिज्म. हिंदी में ऐसे प्राय: काम नहीं होते. बच्चों के लिए लिखे को बाल साहित्य कह दिया जाता है. बुजुर्गों की लिखाई में वहां अब भी शेर, मेंढक, बारिश, गोलू-मोलू चल रहा है, जबकि मोबाइल की स्क्रीन के आदी हो चुके बच्चे अपने बचपने के ही पार जा चुके हैं.
ऐसे में सोरित की मौलिक हिंदी किताब का हिंदी समाज में ही छुपा रह जाना वाकई चिंताजनक है. स्वतंत्रता-पूर्व से लेकर किसान आंदोलन तक फैली इस कार्टून पुस्तक की प्रस्तावना देविंदर शर्मा ने लिखी है. वे कहते हैं: ‘’यह किताब कृषि की जटिल और पेचीदा राजनीति को समझना बहुत आसान बनाती है, आखिरकार एक चेतावनी भी देती है कि किसान नहीं रहेंगे तो हमारी थाली से भोजन गायब हो जाएगा.‘’ कितनी सरल बात है!
सोरित अपने आमुख में लिखते हैं कि वे इस बात से चिंतित थे कि खेती-किसानी पर ज्यादातर किताबें अंग्रेजी में हैं जबकि इस देश का किसान अंग्रेजी नहीं पढ़ता. यही वजह थी कि उन्होंने सरल हिंदी में चित्रों के माध्यम से किसानी की कहानी को समझाने का फैसला किया. किताब में बहुत लिखित पाठ नहीं है. उन्होंने एक दिलचस्प शैली अपनाई है. हर अध्याय की शुरुआत में पहले वे कुछ परिचयात्मक पैरे लिखते हैं, अधिकतम एक या दो पन्ना, उसके बाद कार्टून के माध्यम से संवादों में उसे ढाल देते हैं. ये अध्याय कृषि के ऐतिहासिक विकास से जुड़े हैं और चरणबद्ध ढंग से चार खंडों में बांटे गए हैं.
जो खंड निकलकर सामने आए हैं, उन्हें वे ये नाम देते हैं: किसान बने नहीं, किसान बनाए गए; नियति से साक्षात्कार; पीछे की ओर लंबी छलांग; अन्नदाता का अंत. पहले खंड में सोरित स्वतंत्रता-पूर्व किसानों की तुलनात्मक स्थिति के बारे में बताते हुए एक औसत किसान के पास रकबे के आंकड़े देते हैं और कई पुरानी रिपोर्टों का हवाला देते हैं. फिर मुंशी प्रेमचंद की कहानी ‘पूस की रात’ को चित्रात्मक ढंग से सुनाते हैं और बंगाल के अकाल पर लाकर अध्याय को समाप्त करते हैं.
दूसरा अध्याय आजादी का है. इसमें विभिन्न राज्यों मं भूमि सुधार के प्रयासों से शुरू कर के लेखक अन्न के आयात की मजबूरी तक पहुंचते हैं और फोर्ड फाउंडेशन के सामुदायिक विकास कार्यक्रम पर आ जाते हैं. स्वाभाविक रूप से इसके बाद हरित क्रांति की कहानी शुरू होती है, जिसे रिचर्ड क्रिचफील्ड के किए अध्ययन पर बनाई कार्टून-पट्टी से समझाया गया है. मेरे विचार से यह सबसे अहम अध्याय है जो भारत में कृषि क्षेत्र के संकट की राजनीतिक आर्थिकी को बहुत साफ-सुथरे ढंग से सामने रखता है और हरित क्रांति के कुल जमा नकारात्मक प्रभावों पर लाकर बात खत्म करता है, जिसे डॉ. दर्शनपाल ने अपने साक्षात्कार (अंग्रेजी) और अनिल चौधरी ने अपने लेख (अभिनव कदम) में समझाया था.
तीसरा अध्याय विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की शर्तों से खुलता है, यानी उदारीकरण के दौर की इसमें कहानी है. यहां निजीकरण, खेती की जमीनों की लूट, सरकार के सूदखोर महाजन बनने और वापस महाजनी दौर के संकट में कृाि के पहुंच जाने का आख्यान कुछ राज्यों की केस स्टडी के माध्यम से चित्रित किया गया है. अंतिम अध्याय ‘अन्नदाता का अंत’ अलग-अलग राज्यों में किसानों की बदहाली की कहानियों का संग्रह है, जो जलवायु परिवर्तन के किसानों पर प्रभाव से होते हुए अंतत: किसान आंदोलन के तारीखवार घटनाक्रम पर आकर खत्म होता है.
यह पुस्तक भले बच्चों के लिए लिखी गई है, लेकिन पढ़े-लिखे वयस्कों के लिए भी उतनी ही कारगर है. एक तरह से कहें, तो यह बड़ी उम्र के लोगों के लिए अपनी समझ की लाइन सीधी रखने का संदर्भ-ग्रंथ हो सकती है और बच्चों को भेंट करने लायक मनोरंजक कार्टून-पत्रिका.
इंडिया गेट: नवंबर 2025
ये पांच किताबें किसान आंदोलन के पांच साल पूरे होने पर पढ़ी जानी चाहिए. अंग्रेजी में तो और भी गूढ़-गंभीर व अकादमिक काम आंदोलन पर हुआ है, लेकिन अंग्रेजी किसानी और सामान्य जन की भाषा नहीं है. इसलिए हिंदी में सीमित सामग्री होने के बावजूद जो उपलब्ध है, वही बेहतरीन है. इन किताबों के संदर्भ में यह जरूर कहा जाना चाहिए कि हिंदी के प्रकाशकों के ऊपर जो सिर्फ कविता-कहानी छापने का इल्जाम लगता रहता है, वह ज्यादती है. हिंदी के कुछ प्रकाशकों ने वाकई नॉन-फिक्शन में अच्छा काम किया है, लेकिन हिंदी के समाज ने उसकी उपेक्षा कर दी है. ये किताबें इसका प्रमाण हैं.
‘अभिनव कदम’ के अलावा हिंदी की लघु पत्रिकाओं में खेती-किसानी और आंदोलन पर बहुत सामग्री यहां-वहां बिखरी हुई है. पांच साल बाद उसे संकलित करना एक मुकम्मल काम होना चाहिए, बेशक कोई कर सके. साथ ही यह काम मजदूर आंदोलन के मामले में भी किया जाना होगा क्योंकि दोनों सवाल एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं. वर्कर्स यूनिटी जैसे मंच मजदूर आंदोलन की घटनाएं नियमित रूप से दर्ज करते हैं. चूंकि किसान आंदोलन के लिए उन्होंने साक्षात्कार-संग्रह की पहल ली है, तो मजदूर आंदोलन के मामले में भी उनसे अपेक्षा है.
केवल किसान-मजदूर ही नहीं, बल्कि समग्रता में देखें तो हिंदी समाज के ऊपर आंदोलनों का बौद्धिक कर्जा अब लगातार बढ़ता जा रहा है. कभी बंगाल के नक्सलबाड़ी से शुरू हुआ किसानों का आंदोलन, जो कालान्तर में नक्सली/माओवादी आंदोलन के नाम से जाना गया, वह भी अब अवसान पर है. इस आंदोलन के इतिहास को दर्ज करने में अंग्रेजी के लेखकों ने हाल में थोड़ा दिलचस्पी दिखाई है, लेकिन हिंदी लेखन में कम से कम पचास साल के इतिहास का टोटा पड़ा है. हिंदी के लेखकों पर बकाया कर्जे में यह रकम भी जोड़ी जानी चाहिए.
प्रसंगवश, अभी हाल ही में दिल्ली के इंडिया गेट पर अस्वच्छ हवा व प्रदूषण, उसके पीछे विकास के असमान नवउदारवादी मॉडल और वैकल्पिक आर्थिक व्यवस्था के उदाहरणों पर तख्ती लगाए कुछ नौजवान नारे लगा रहे थे, प्रदर्शन कर रहे थे. उनकी गलती बस इतनी थी कि वे दिल्ली के प्रदूषण और विकास के मौजूदा मॉडल के बीच संबंध को ऐसे नारों व नामों में ढाल गए जो उन्हें सीधे ‘राष्ट्रविरोधी’ बना रहा था. नतीजा- एक ऐसी तस्वीर जो बरबस अमेरिका के जॉर्ज फ्लायड की याद दिलाती है.
आंदोलन से घटते हुए इस समाज में रीत चुके जन आंदोलनों को पूरी श्रद्धा के साथ याद करना, उनकी ऐतिहासिक समझ बनाना, उनकी कहानियां सुनाना और नई पीढ़ी को कमजोर आदमी के प्रति संवेदनशील बनाना आज का सबसे जरूरी काम है, इससे पहले कि किसी का जूता हो और हमारी गरदन….
साभार- फॉलो-अप स्टोरीज़
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