Khabar Baazi
डीएवीपी की ओर से प्रिंट मीडिया की विज्ञापन दरों में 26 फीसदी की बढ़ोतरी का ऐलान
केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने प्रिंट मीडिया की विज्ञापन दरों में 26 प्रतिशत बढ़ोतरी को मंज़ूरी दे दी है. यह बढ़ोरी बीते छ: सालों के अंतराल पर हुई है.
सरकारी की ओर से जारी एक बयान के अनुसार, यह निर्णय नवंबर, 2021 में गठित की गई एक दर संरचना समिति द्वारा लगभग दो वर्षों के विचार-विमर्श के बाद लिया गया है. इस समिति ने इंडियन न्यूज़ पेपर सोसायटी और ऑल इंडिया स्मॉल न्यूज़ पेपर एसोसिएशन सहित कई हितधारकों से बात की. इसमें अखबारी कागज की बढ़ती कीमतों, वेतन लागत और विज्ञापनदाताओं के प्रिंट से डिजिटल की ओर बदलते रुख को ध्यान में रखा गया. इसकी सिफारिशें सितंबर, 2023 में प्रस्तुत की गईं थीं. माना जा रहा है कि इससे समाचार पत्रों को राहत मिलेगी, जो कि काफी लंबे समय से बढ़ती लागत और घटते विज्ञापन बजट से जूझ रहे थे.
सरकार ने अपने बयान में कहा, "पिछले कुछ वर्षों में बढ़ती लागत को देखते हुए, सरकारी विज्ञापनों की ऊंची दरें प्रिंट मीडिया को अन्य मीडिया से प्रतिस्पर्धा के इस युग में आवश्यक राजस्व सहायता प्रदान करेंगी. इस तंत्र में प्रिंट मीडिया के महत्व को पहचानकर, सरकार अपनी संचार रणनीतियों को बेहतर ढंग से टारगेट कर सकती है, साथ ही विभिन्न प्लेटफार्मों के जरिये नागरिकों तक और ज्यादा प्रभावी ढंग से पहुंच सकती हैं."
गौरतलब है कि कोरोना महामारी के बाद से ही प्रिंट मीडिया अपना व्यवसाय उभारने के लिए संघर्ष कर रहा है. इस बीच उसकी कुछ हद तक निर्भरता सरकारी विज्ञापनों पर है. प्रिंट मीडिया की विज्ञापन दरों में आखिरी बार साल 2019 में संशोधन हुआ था. उस वक्त भी दरों में 25 फीसदी की बढ़ोतरी की गई थी. उससे पहले साल 2013 में 19 फीसदी की बढ़ोतरी हुई थी.
लेकिन असली सवाल यह है कि हर बार जब विज्ञापनों की दरें बढ़ती हैं, तो विज्ञापनदाताओं पर उद्योग की निर्भरता और ज्यादा बढ़ जाती है. खासकर सरकारी विज्ञापनदाताओं पर. और, अब जब सबसे ज़्यादा खर्च करने वाला ही सबसे बड़ा सत्ता केंद्र भी हो तो पत्रकारिता निगरानी (वॉचडॉग की तरह) कम और चाटुकारिता करने वाली ज़्यादा हो जाती है.
कई अख़बारों के लिए अब सरकारी विज्ञापन, राजस्व का एकमात्र भरोसेमंद ज़रिया हैं. न्यूज़लॉन्ड्री ने पहले भी बताया है कि कैसे उत्तराखंड की पुष्कर सिंह धामी सरकार ने चार सालों में दैनिक समाचार पत्रों और पत्रिकाओं पर 300 करोड़ रुपये से ज़्यादा खर्च किए, जिनमें कुछ का प्रसार संदिग्ध था, जो सरकारी प्रोपेगेंडा का प्रचार कर रहे थे.
अब इस बढ़ोतरी से ये पकड़ और भी मजबूत हो गई है.
तो अब अगली बार जब आप सोचें कि कुछ न्यूज़रूम लापरवाही क्यों बरतते हैं, तो ये गौर करें कि उनका बिल कौन चुका रहा है. याद रखें कि लोकतांत्रिक ढांचा पारदर्शिता और जवाबदेही पर टिका होता है. ऐसे में अगर किसी का अस्तित्व ही सत्ता को खुश करने पर टिका है, तो वह सत्ता को कभी जवाबदेह ठहरा ही नहीं सकते. विज्ञापनों के पैसे पर निर्भर न्यूज़रूम को हमेशा यह हिसाब लगाना होगा कि वे कितना सच बता सकते हैं.
लेकिन न्यूज़लॉन्ड्री में ऐसा नहीं है. यहां, सब्सक्राइबर पत्रकारिता के लिए पैसे देते हैं- न कि कंपनियां और सरकारें. यहा खबरों के मालिक सिर्फ़ वो लोग हैं, जो उन्हें पढ़ते और उनका खर्च उठाते हैं. अगर आप भी ऐसी पत्रकारिता चाहते हैं तो न्यूज़लॉन्ड्री को सब्सक्राइब कीजिए और गर्व से कहिए मेरे खर्च पर आज़ाद हैं ख़बरें.
और हां, सरकार ने दरें बढ़ाई हैं, हम आपके लिए सब्सक्रिप्शन की कीमतें घटा रहे हैं. ऑफर का लाभ उठाने के लिए यहां क्लिक करें.
Also Read
-
Why the CEO of a news website wants you to stop reading the news
-
‘A small mistake can cost us our lives’: Why gig workers are on strike on New Year’s Eve
-
From Nido Tania to Anjel Chakma, India is still dodging the question of racism
-
‘Should I kill myself?’: How a woman’s birthday party became a free pass for a Hindutva mob
-
I covered Op Sindoor. This is what it’s like to be on the ground when sirens played on TV