Opinion
80 साल बूढ़ा 15 अगस्त और 15 साल के टीनएजर सा उन्माद
कैसा अजीब मंजर है आंखों के सामने कि लोकतंत्र के पन्ने-पन्ने उखड़ कर, रद्दी कागजों-से हवा में इधर-उधर उड़ रहे हैं और इन्हीं पन्नों के बल पिछले एक दशक से ज्यादा समय से सत्ता में बैठी सरकार आंखें मूंदे बैठी है. कुछ वैसे ही जैसे बिल्ली सामने से भागते चूहों की तरफ से तब तक आंख मूंदे रहने का स्वांग करती रहती है जब तक कोई चूहा एकदम पकड़ की जद में न आ जाए. दूसरी तरफ़ नौकरशाही से छांट कर लाई गई वह तिकड़ी बैठी है जिसे हम अब तक चुनाव आयोग कहते आ रहे थे. वह हवा में उड़ते-फटते अपने ही मतदाता सूची के पन्नों को रद्दी बताती हुई, सारे मामले को ‘मतदाता’ की नौटंकी करार दे रही है. तीसरी तरफ़ है हमारा सुप्रीम कोर्ट जो इन पन्नों को लोकतंत्र की नहीं, तथाकथित चुनाव आयोग की संपत्ति बता रहा है और कह रहा है कि भले पन्ने चीथड़े हो गए हैं लेकिन हमें व्यवस्था को बचा कर तो रखना है न!
‘हरिश्चंद्र’ नाटक के दुखांत-सी इस नाटिका के पीछे कहीं से एक आवाज़ और भी आती है: “ मैं निश्चित देख रहा हूं कि दलीय लोकतंत्र की इस यात्रा में एक वक्त ऐसा आने ही वाला है जब तंत्र व लोक के बीच वर्चस्व की लड़ाई होगी… और तब यह याद रखना कि लोक के नाम पर बने ये सारे लोकतांत्रिक संवैधानिक संस्थान, लोक के नहीं, तंत्र के साथ जाएंगे, क्योंकि वे वहीं से पोषण पाते हैं.” जरा गौर से सुनेंगे तो आप पाएंगे कि यह आवाज़ महात्मा गांधी की है.
एकदम गणित में न भी बैठे तो भी 78 साल व 80 साल में कोई ख़ास फर्क नहीं होता है, वह भी तब जब आप व्यक्ति की नहीं, राष्ट्र-जीवन की बात करते हैं. 1947 के 15 अगस्त को मिली आजादी (2014 में मिली आजादी वाला गणित जिनका हो, वे इसे न पढ़ें !) इस 15 अगस्त को 78 साल की तो हो ही जाएगी. तो मैं दो साल आगे का हाल देखते हुए लिख रहा हूं कि 80 साल में यह आजादी कैसे इतनी बूढ़ी हो गई कि इसके आंचल में अपने ही राष्ट्र की विविधताओं के लिए जगह नहीं बच रही है; इसके आंचल में असहमति की न तो जगह बची है, न सम्मान; क्यों ऐसा है कि इसके आंचल में खोजने पर भी ‘देशभक्त कम, देशद्रोही अधिक’ मिल रहे हैं; यह क्या हुआ है कि जिधर से देखो, इसके आंचल में चापलूस व अधिकांशत: निकम्मी नौकरशाही मिल रही है, डरी हुई व स्वार्थी न्यायपालिका व अयोग्य जज मिल रहे हैं; भ्रष्ट व आततायी पुलिस मिल रही है; अंधभक्त व निरक्षर राजनीतिज्ञ मिल रहे हैं? वह सब कुछ मिल रहा है जो नहीं मिलना चाहिए था और वह सब खो रहा है जो हर जगह, अफरातन मिलना चाहिए था.
ऐसा नहीं है कि पहले सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था और अचानक ही यह बिगाड़ आ गया है. लंबी गुलामी सबसे अधिक मन को बीमार करती है. गुलाम मन आजादी के सपने भी गुलामी के कपड़ों में ही देखता है. हमारे साथ भी ऐसा ही हुआ. एक आदमी था जरूर कि जिसमें ऐसा आत्मबल था कि वह भारत राष्ट्र से, मन-वचन-कर्म तीनों स्तरों पर आजादी की साधना करवा सकता था. लेकिन आजादी के बाद हमने सबसे पहला काम यह किया कि अपने गांधी से छुटकारा पा लिया. आजादी के सबसे उत्तुंग शिखर का सपना दिखाने वाले महात्मा से छुटकारा पा कर हमने आजाद भारत का सफर शुरू किया. तो ग़ुलाम मन से घिरी आजादी की कच्ची समझ, गफ़लत, दिशाहीनता, बेईमानी सबके साथ हम चले. गांधी ने जिन्हें “बहुत वर्ष जिओ और हिंद के जवाहर बने रहो” का आशीर्वाद दिया था वे जवाहरलाल ‘बहुत वर्ष जिए’ ज़रूर लेकिन ‘जवाहर’ कम, ‘नेहरू’ अधिक बनते गए. लेकिन एक बहुत बड़ा फर्क था- बहुत बड़ा! - कि नेहरू थे तो यह आस भी थी कि शीर्ष पर कमजोरी है लेकिन बेईमानी नहीं है. गाड़ी पटरी पर लौटेगी. नेहरू के बाद यह आस भी टूटती गई.
दुष्यंत कुमार ने यह नजारा पहले ही देख लिया था. इसलिए लिखा: “कहां तो तय था चिरागां हर एक घर के लिए/ कहां चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिए…” लिखा और सिधार गए, क्योंकि 80 साल की बूढ़ी इस आजादी के साथ जीना बहुत कलेजा मांगता है.
हमारी आजादी की कौन-कौन-सी पहचान ऐसी है कि जिससे आप पहचानते हैं कि यह जवां होती आजादी है? आज के सरकारी फैशन के मुताबिक हमारी आजादी की एक ही पहचान है: हमारी फौज! एक सुर से सारे दरबारी गीदड़ हुआं-हुआं करते हैं कि हमारा जवान बहादुरी से सीमा पर खड़ा है, इसलिए हम सीमा के भीतर चैन की बंसी बजाते हैं. हमें पंडित नेहरू ने बताया था कि सीमा पर हमारा जवान अकेले, सारी प्रतिकूलताओं के बीच भी इसलिए खड़ा रह पाता है कि उसके पीछे सारा देश एकताबद्ध अनुशासन में सक्रिय खड़ा रहता है. फौज में बहादुरी व भरोसा हथियारों से नहीं, हथियारों के पीछे के आदमी के मनोविज्ञान से आता है. फौजी को जब यह भरोसा होता है कि वह सही लोगों के लिए, सही नेतृत्व में, सही कारणों के लिए लड़ रहा है तब वह जान की परवाह नहीं, तिरंगे की परवाह करता है. लेकिन नेहरू जो भी कह रहे थे, जो भी कर रहे थे, जो भी सोच रहे थे वह सब गलत, नकली व देश का अहित करने के लिए था, ऐसा बता कर जो आज ‘नकली नेहरू’ बन रहे हैं, वे फौज को गुलामी वाली पलटन में बदल रहे हैं.
आज सीमा पर खड़ा हर जवान जानता है कि उसे अग्निवीर बना कर, उसके भविष्य की सारी अग्नि किसी ने डकार ली है. ऐसे छोटे व टूटे मन से वह कौन-सी लड़ाई लड़ेगा? तो हम आज यह पहचान पाएं कि नहीं लेकिन सच यही है कि जैसे दुनिया में दूसरी जगहों पर है वैसा ही हमारे यहां भी हो रहा है कि फौज नहीं, हथियार लड़ रहे हैं. इसलिए हम भी दुनिया भर से हथियार खरीदने की होड़ में उतरे हुए हैं और अपनी फौज अग्निवीरों से बनाई जा रही है. भाड़े के सिपाहियों से भी लड़ाई लड़ी जाती है, यह इतिहास में दर्ज तो है ही.
आजादी के बाद से अब तक फौज का ऐसा राजनीतिक इस्तेमाल नहीं हुआ था जैसा आज आए दिन हो रहा है. फौज के बड़े-बड़े अफ़सरान रोज़ सरकारी झूठ को फौजी सच बनाने के लिए उतारे जा रहे हैं. बंदूक चलाने वाले जब ज़बान चलाने लगें तब समझिए कि आजादी बूढ़ी हो रही है. अभी-अभी हमारे वायुसेना प्रमुख ने ऑपरेशन सिंदूर के सिंदूर की रक्षा के लिए, उस ऑपरेशन के महीने भर बाद यह रहस्य खोलने हमारे सामने आए कि हमने पाकिस्तान के कितने विमान मार गिराए, उसे कितनी क्षति पहुंचाई और कैसे उसे युद्धविराम के लिए लाचार किया. हम कितने ख़ुश व आश्वस्त होते यदि उनके इस बयान से सरकार की बू नहीं आती होती ! यह तो हमने पूछा ही नहीं कि पाकिस्तान के कितने विमान गिरे, क्योंकि हमें यह पता है कि जैसा हमारे बीच के हर युद्ध में हुआ वैसा ही इस बार भी हुआ कि पाकिस्तान की हमने बुरी हालत की. हम पूछ तो बार-बार यह रहे हैं कि भारतीय सेना का कितना नुकसान हुआ? हमारे कमजोर राजनीतिक नेतृत्व के कारण, हमारी कमजोर रणनीति के कारण हमारे कितने विमान गिरे, कितने जवान हत हुए, हम जानना चाहते हैं कि कश्मीर में कितना नागरिक नुक़सान हुआ और सरकार ने उनकी क्षतिपूर्ति के लिए क्या किया ?
वायुसेना प्रमुख को सफ़ाई देने के काम पर सरकार ने क्यों लगाया यह समझना कठिन नहीं है. हमारी सेना के दो सबसे बड़े अधिकारियों ने ऑपरेशन सिंदूर के तुरंत बाद ही, कहीं विदेश में यह खुलासा कर दिया था कि प्रारंभिक नुक़सान हमें इतना हुआ था कि हमें अपनी रणनीति बदलनी पड़ी और तब कहीं जा कर हम परिस्थिति पर काबू पा सके. उन्होंने यह भी बताया था कि विमान हमारे भी गिरे और जवान हमारे भी हत हुए. इसमें अजूबा कुछ भी नहीं है, क्योंकि यही तो युद्ध है. लेकिन सरकार तो यह बताने में जुटी रही कि हमें खरोंच भी नहीं आई और पाकिस्तान ने घुटने टेक दिए. लोकसभा में हमारे रक्षामंत्री ने भी जो कहा उसका सार यही है. यह तो उस डॉनल्ड ट्रंप की पगलाहट ऐसी है कि उसने परममित्र का कोई लिहाज़ नहीं किया और बताया कि भारत के बड़े विमान भी गिरे हैं. अब हम ऐसे हैं कि अपने परममित्र की किसी भी बात को काटते नहीं हैं.
इसलिए इतने दिनों बाद फौजी सफ़ाई की जरूरत पड़ी. जब वायुसेना प्रमुख सफ़ाई देने आए तो बात ज्यादा सफ़ाई से होनी चाहिए थी: पाकिस्तान के विमान कहां-कहां गिरे यह भी बताते, विमान के मलबों की तस्वीर फौज ने ज़रूर ही रखी होगी तो वह भी दिखाते, जवाबी कार्रवाई में हमारा नुक़सान कितना व कहां-कहां हुआ, इसका ब्योरा देते, नागरिकों को कहां, क्या झेलना पड़ा और कहां, राहत का काम कैसे किया गया, यह बताते. ये सारी जानकारियां देश पर उधार हैं जिन्हें वायुसेना प्रमुख को उतारना चाहिए था. अगर यह उधार बना कर ही रखना था तब वायुसेना प्रमुख को सामने लाने की जरूरत ही क्या थी? कैसी दयनीय स्थिति है यह कि वायुसेना प्रमुख भी इतनी हिम्मत नहीं रखता है कि अपना राजनीतिक इस्तेमाल होने से मना कर सके? आख़िर परमवीर चक्र वाले लोग कैसे चक्कर में पड़ गए हैं! सेना की तरफ बहादुरी से देखने वाला जो भाव हमें मिला है, हमारी आज की पीढ़ी को वह कैसे मिलेगा? उनके लिए तो हमारी फौज की छवि भी माटी की ही हो जाएगी!
आजादी लाल किले से बोलने से मजबूत व परिपूर्ण नहीं हो जाती है. आप लाल किले से बोल क्या रहे हैं, उससे लाल किला मज़बूत होता है. नेहरू ने लाल किले से जब ‘जय हिंद!’ का नारा तीन बार उठाया था तब उनकी आवाज के पीछे नेताजी सुभाषचंद्र बोस की आवाज सुनाई देती थी. एक तड़प सुनाई देती थी. आज उसी नारे की गूंज एकदम खोखली सुनाई देती है. 80 सालों में यह फर्क क्यों हो गया? इसलिए कि आज लाल किले से पार्टी का प्रचार और आत्मप्रशंसा का आयोजन होता है. आप आत्ममुग्धता में कितनी भी बातें करें, उनका नकलीपन देश पकड़ ही लेता है. अब लाल क़िला से राष्ट्र को कोई संबोधित नहीं करता है. अब वहां से लोग अपनी मंडली को संबोधित करते हैं.
हमारी प्रगति, विकास, अपराध, जनसंख्या आदि-आदि से लेकर प्राकृतिक आपदा आदि तक के आंकड़े भी जिस तरह लुप्त हो गए हैं उस तरह तो कभी गदहे के सर से सींग भी लुप्त नहीं हुई थी. हमारा वह विभाग ही लुप्त हो गया है जो सरकारों से इतर अपना अध्ययन करता था व आंकड़े जारी करता था. आंकड़ों के सच के आईने में मुल्कों को अपना चेहरा देखना व संवारना होता है. लेकिन आप लाल किले से हर बार वही आंकड़े सुना रहे हैं जिनका कोई आधार-अध्ययन नहीं है. आंकड़ों की सरकारी फसल चाहे जितनी जरखेज हो रही हो, लोकतंत्र की धरती तो बंजर होती जा रही है.
अकल्पनीय विविधता से भरा यह देश संस्कृति की जिस डोर से बंधा है, वह बहुत मज़बूत है लेकिन है बहुत बारीक! तोड़ोगे नहीं तो अटूट बनी, मज़बूत होती जाएगी; वार करोगे तो टूट जाएगी, टूटती जाएगी. यह हजारों सालों की अध्यात्मिक परंपरा व साधना से पुष्ट हुई है. इसके पीछे सभी हैं- संत-सूफी-गुरू-भजनिक-उद्दात्त चिंतन वाले सामाजिक नेतृत्वकर्ता-गांव-नगर-शहर. सब रात-दिन सावधानी से इसे सींचते रहे तो यह अजूबा साकार हुआ है. ऐसा समाज संसार में कहीं है नहीं दूसरा. यह हमारा समाज ऐसा इसलिए है कि हमारे नेतृत्व ने रहीम को सुना व गुना था: रहिमन धागा प्रेम का / मत तोड़ो चटकाए/ टूटे ता फिर ना जुड़े/ जुड़े गांठ लग जाए.
पिछले दिनों में बहुत गांठ लग गई है. पैबंद लगे कपड़े की भी कोई शान होती है क्या? ऐसा ही हमारा लोकतंत्र हो गया है. लेकिन हमारा है न, तो हम पर यह पुरुषार्थ उधार है कि इसे फिर से तरोताजा खड़ा करें.
वो खड़ा है एक बाबे-इल्म की दहलीज़ पर
मैं ये कहता हूं उसे इस ख़ौफ़ में दाखिल न हो.
Also Read
-
TV Newsance 315: Amit Shah reveals why PM Modi is great. Truly non-biological?
-
Shops shut, at least 50 lose jobs, but cops silent on Indore BJP leader’s ultimatum on Muslim workers
-
Vijay’s Karur rally tragedy leaves at least 39 dead, TVK functionaries booked
-
इथेनॉल विवाद: गडकरी के बेटों ने की कमाई या बीजेपी की अंदरूनी जंग?
-
South Central 45: Karnataka’s socio-educational survey, producers vs govt on Rs 200 movie ticket cap