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आरएसएस के नंबर दो होसबाले ने फिर शुरू की संविधान में बदलाव की बहस
आपातकाल यानि इमरजेंसी की 50वीं बरसी पर जब देश में एक तरफ तो सरकार और संघ (आरएसएस) तमाम कार्यक्रमों के जरिए लोकतांत्रिक मूल्य और संवैधानिक मर्यादाओं की याद दिला रहा है. दूसरी तरफ उसी संघ के सरकार्यवाह (महासचिव) दत्तात्रेय होसबाले संविधान की प्रस्तावना में बदलाव की जरूरत पर विमर्श को हवा दे रहे हैं.
होसबाले ने इमरजेंसी की पचासवीं सालगिरह के मौके पर आयोजित एक कार्यक्रम में कहा- “इस आपातकाल के दौरान भारत के संविधान की प्रस्तावना में दो शब्द जोड़े गए हैं… सोशलिस्ट और सेकुलर, वो (मूल) प्रस्तावना में नहीं थे पहले.. प्रस्तावना शाश्वत रूप से है क्या? सोशलिज्म के विचार आइडियोलॉजी के नाते क्या शाश्वत हैं भारत के लिए? सेकुलरिज्म का शब्द संविधान में नहीं था, प्रस्तावना में जोड़ा है.....बाद में इसको निकालने के प्रयत्न हुआ नहीं है…..बाबा साहेब अंबेडकर ने जो संविधान बनाया था उसकी प्रस्तावना में यह दो शब्द नहीं थे तो इसके उद्देश्य क्या हैं ये विचार किया जाए..”
यह बात सही है कि 42वें संशोधन से पहले संविधान की प्रस्तावना में ये शब्द नहीं थे, लेकिन यह दावा करना कि ये सिद्धांत संविधान की किसी रूप में हिस्सा नहीं थे, शायद संविधान की मूल भावना से छल करने जैसा है. जैसा कि लोकसभा में 25 अक्टूबर, 1976 को इन शब्दों को शामिल करने वाला बिल को प्रस्तुत करते हुए तत्कालीन कानून मंत्री एचआर गोखले ने कहा भी था कि यह सिर्फ शब्दों का खेल नहीं है.
गोखले कहते हैं- “हर कोई या कम से कम सोचने-विचारने वाले लोगों का एक बड़ा वर्ग, यह समझता है कि प्रस्तावना पूरे संविधान की कुंजी है. जब हम संविधान की व्याख्या करते हैं, चाहे वह उसके अक्षर हों या धाराएं तो यह प्रस्तावना ही सबसे बुनियादी आधार होती है. यह संविधान की उस मूलभूत संरचना का हिस्सा है जो पूरे संविधान को दिशा देती है- विधि के माध्यम से हो या अन्य किसी कार्य से. यहां तक कि अदालतों ने भी यह स्वीकार किया है कि प्रस्तावना संविधान की कुंजी है, जिसे किसी सामान्य अभिव्यक्ति या संसद की इच्छा के रूप में अनदेखा नहीं किया जा सकता.”
दरअसल, संविधान सभा की बहसों से लेकर न्यायपालिका के अनेक फैसलों तक यह साफ तौर पर दर्ज है कि भारत का संविधान केवल एक दस्तावेज नहीं, बल्कि एक दर्शन है, एक जीवंत दस्तावेज है. ऐसा दर्शन जिसमें धर्मनिरपेक्षता और समाजवादी सोच बुनियादी स्वरूप में हमेशा मौजूद रही है
मसलन अनुच्छेद 14 से 18 तक समानता के अधिकार, अनुच्छेद 25 से 28 तक धार्मिक स्वतंत्रता, और राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों (अनुच्छेद 38, 39) में सामाजिक व आर्थिक न्याय के लक्ष्य, यह सब संविधान की समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष भावना को दर्शाते हैं. ऐसे में 1976 में इन शब्दों को केवल स्पष्टता के लिए जोड़ा गया न कि नए विचार के तौर पर.
सुप्रीम कोर्ट ने भी बीते साल इन शब्दों को 'संविधान की मूलभूत संरचना यानि बेसिक स्ट्रक्चर' का हिस्सा बताया है, जिसे संसद संशोधित नहीं कर सकती.
अंबेडकर की ये बात याद रखनी चाहिए
होसबाले ने अपने बयान में कहा कि बाबा साहेब के संविधान के मूल रूप में ये शब्द नहीं थे. ये बात सही है लेकिन हमें अंबेडकर के संविधान सभा के उस अंतिम भाषण को भी नहीं भूलना चाहिए जिसमें उन्होंने कहा कि जितनी जल्दी सके हमें समानता की तरफ बढ़ना होगा और विरोधाभासों को त्यागना होगा.
अंबेडकर ने कहा था, “26 जनवरी 1950 को हम विरोधाभासों से भरे जीवन में प्रवेश करने जा रहे हैं. राजनीति में हमारे पास समानता होगी, लेकिन सामाजिक और आर्थिक जीवन में हमारे बीच असमानता बनी रहेगी. राजनीति में हम 'एक व्यक्ति, एक वोट' और 'एक वोट, एक मूल्य' के सिद्धांत को मान्यता देंगे, लेकिन हमारे सामाजिक और आर्थिक ढांचे के कारण हम अपने सामाजिक और आर्थिक जीवन में 'एक व्यक्ति, एक मूल्य' के सिद्धांत को नकारते रहेंगे. हम यह विरोधाभासी जीवन कब तक जीते रहेंगे? हम सामाजिक और आर्थिक जीवन में समानता को कब तक नकारते रहेंगे? यदि हम लंबे समय तक इसे नकारते रहे, तो हम राजनीतिक लोकतंत्र को संकट में डालने के सिवा और कुछ नहीं करेंगे. हमें इस विरोधाभास को जल्द से जल्द समाप्त करना होगा, नहीं तो जो लोग इस असमानता से पीड़ित हैं, वे इस राजनीतिक लोकतंत्र की संरचना को खत्म कर देंगे जिसे इस संविधान सभा ने इतनी मेहनत से खड़ा किया है.”
तो फिर यह सवाल क्यों?
होसबाले का बयान कोई अकेला मामला नहीं है. पिछले कुछ सालों में संविधान की प्रस्तावना से 'धर्मनिरपेक्ष' और 'समाजवादी' शब्द हटाने की मांग कई बार विभिन्न मंचों से उठती रही है. कई बीजेपी के नेताओं की तरफ से तो कई बार दक्षिणपंथी विचारकों की तरफ से. सवाल है इस मांग के पीछे केवल वैधानिक तर्क हैं या कोई और एजेंडा भी छिपा है? शायद इसका जवाब हमें अंबेडकर के भाषण से मिलता है.
धर्मनिरपेक्षता का सीधा विरोध भारत को हिंदू राष्ट्र में बदलने की उस विचारधारा से जुड़ता है, जिसकी नींव आरएसएस की स्थापना के समय से ही रखी गई थी. वहीं, समाजवाद को हटाना एक ऐसे समय में ज़्यादा प्रतीकात्मक हो जाता है जब सरकारें सार्वजनिक संस्थानों का निजीकरण तेज़ी से कर रही हैं और कॉर्पोरेट हितों की प्राथमिकता सामाजिक न्याय से ऊपर रखी जा रही है.
भविष्य की प्रस्तावना कैसी दिखेगी?
अगर इन शब्दों को प्रस्तावना से हटा भी दिया जाए, तो क्या उसका असर केवल प्रतीकात्मक रहेगा? नहीं. यह महज़ शब्दों का नहीं, संविधान की आत्मा की पुनर्व्याख्या का मामला होगा. दरअसल, संविधान ने भारत की विविधता धर्म, भाषा, जाति और वर्ग की जटिलताओं के बीच जो न्यूनतम साझा आधार तैयार किया है, उसमें धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद की भूमिका केंद्र में रही है.
इसलिए, इन शब्दों को हटाने की कोशिश उन मूलभूत धारणाओं को ही कमजोर कर सकती है जो भारत को एक लोकतांत्रिक गणराज्य बनाती हैं न कि सिर्फ एक चुनावी मशीन.
यह विडंबना ही है कि 1975 के आपातकाल को याद करते हुए आज सत्ता में बैठे लोग उस समय के संविधान संशोधनों को गैर-लोकतांत्रिक बता रहे हैं, जबकि उसी कार्यक्रम में उसकी आत्मा को बदलने पर विचार करने को कह रहे हैं. एक वो दौर था जब संविधान से जनता के अधिकार छीने जा रहे थे, और अब एक दौर है जब संविधान पर सवाल खड़े किए जा रहे हैं.
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