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हिंदी के नक्कारखाने में हिंदवी प्रसंग: एक आत्मालाप
‘ऐसे मुकदमे में वकील नहीं बनना चाहिए जिसमें नतीजा पहले से तय हो’ - यही कहा था उन्होंने तीन दिन पहले मुझसे, और ‘इस लफड़े में पड़ने’ से आगाह किया था. फिर वे बोले, ‘जिन्होंने मुझसे कुछ भी पूछने या बात करने की ज़हमत नहीं उठाई वे समझदार लोग हैं. वे बुद्धिमान लोग हैं. इसमें किसी को कुछ मिलना नहीं है.’ मैंने कहा कि जो चला गया चलिए उसके साथ तो जिसने जो किया सो किया, लेकिन आप तो.... यहीं पर उन्होंने बात काट दी, ‘…अरे, हम भी चले गए हैं साहब... अट्ठासी साल की मेरी उम्र है, मेरे कोई साथी नहीं बचे. कालिया जी नहीं बचे, मंगलेश डबराल नहीं बचे, वीरेन डंगवाल नहीं बचे, हमारे प्रशिक्षक खत्म हो गए, हमारे अध्यापक खत्म हो गए… कोई नहीं बचा है भाई.’
ज्ञानरंजन जी से फोन पर बात कर के लगा कि जब सब चले ही गए हैं तो अकेले में बोलने का मतलब क्या हो सकता है? फिर जरथुस्त्र की याद आई, जो रेगिस्तान में भी बोलने को कहते हैं, जहां सुनने वाला कोई नहीं होता. इससे बोलने की क्रिया उपदेश बनने से बच जाती है. वह द्वैत नहीं बनाती, प्रभुत्व नहीं पैदा करती. जैसे पाठक और उसके प्रिय लेखक का रिश्ता, जहां ऐक्य पैदा होता है. यह अनुभव का विशुद्ध क्षण है जिसमें कोई फरमान नहीं है. न कोई मालिक है, न कोई कारिंदा. न पिता है, न पुत्र. जिसकी बात प्लाटिनस करते हैं. ज्ञान जी के मना करने के बावजूद इस टिप्पणी को मेरे लिखने का यही कारण है. अब संदर्भ पर आते हैं.
दिवंगत कहानीकार शशिभूषण के नाम पर हुआ एक पुरस्कार आयोजन; इस आयोजन की आलोचना करती हुई शशिभूषण के नाम से छपी एक काल्पनिक चिट्ठी; उसे पहले संपादित करवाने और अंतत: हटवाने के लिए आयोजक संस्था की तरफ से किया गया चौतरफा जतन; और इस जतन में अट्ठासी साल के एक जीवित कहानीकार ज्ञानरंजन के साठ साल पुराने लिखे के बहाने उन्हें खलनायक बनाया जाना- यह घटनात्मक संदर्भ है जिससे निर्मित महत्वहीन-जैसा दिखता एक संक्षिप्त-सा प्रकरण ‘फेसबुक’ और बहस के दूसरे मंचों पर पैदा हुआ है. इसके कुछ जरूरी आयाम हैं जो चर्चा के योग्य हैं.
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
हिंदवी एक डिजिटल प्रकाशन है. इस पर साहित्य से जुड़ी बातें होती हैं. इसे रेख्ता फाउंडेशन चलाता है, जो 33 अरब रुपए की बाजार पूंजी वाली बहुराष्ट्रीय कंपनी पॉलीप्लेक्स कॉरपोरेशन के मालिक संजीव सर्राफ द्वारा संचालित है. चूंकि इस पर प्रकाशन होता है, तो सामान्य तौर से प्रकाशन के कायदे यहां भी लागू होने चाहिए. यहीं पर दिवंगत शशिभूषण द्विवेदी के नाम से एक काल्पनिक पत्र प्रभात रंजन के लिए छपा था, जो जानकीपुल ट्रस्ट नामक संस्था के संस्थापक हैं और जिन्होंने शशिभूषण के नाम से एक पुरस्कार बनाकर कार्यक्रम आयोजित किया था.
इस काल्पनिक पत्र पर संस्था को कुछ आपत्तियां थीं. जब किसी प्रकाशित सामग्री पर किसी को आपत्ति होती है तो उसे जताने के दो तरीके हो सकते हैं. या तो एक रिजॉइन्डर भेजा जाए (यानी प्रतिवाद) या फिर लेखक, प्रकाशक और संपादक के ऊपर मुकदमा किया जाए. इन दोनों तरीकों में से कोई नहीं अपनाया गया. पहले आपत्ति जताकर कुछ हिस्से संपादित करवाए गए, फिर संपर्कों का इस्तेमाल करके उस काल्पनिक पत्र को हटवा दिया गया. कुछ दूसरे लोगों ने जब इस पर आपत्ति जताई, तो उन्हें भी फोन किए गए या करवाए गए.
प्रत्यक्षत: यह दो निजी संस्थानों के बीच का मामला है, लेकिन प्रकाशन संस्थान में उक्त पीस छपा और दो दिन तक कायम भी रहा, तो निश्चित रूप से यह संपादकीय मंजूरी और विवेक के बगैर नहीं हुआ होगा. यही बात उसे हटाए जाने के बारे में नहीं कही जा सकती क्योंकि वहां पर मालिकाना दखल आ जाता है. इसे हम ऐसे कह सकते हैं कि एक निजी संस्था (ट्रस्ट) ने दूसरी निजी संस्था (प्रकाशक) के साथ मिलकर एक प्रकाशित रचना को मंच से हटवा दिया. एक छोटा सा ट्रस्ट एक अरबपति द्वारा चलाए जा रहे मंच के ऊपर कंटेंट को हटाने का दबाव कैसे बना पाया, यह किसी के लिए भी एक रहस्य हो सकता है. इस पर आने से पहले दो स्वाभाविक बातें कही जानी चाहिए.
पहली, एक रचना को हटवाया गया है, उसे प्रकाशित करने वाले मंच ने खुद नहीं हटाया है. दूसरे, एक काल्पनिक रचना को हटवाया गया है. चूंकि हिंदवी या रेख्ता साहित्य के मंच हैं और कविता, कहानी आदि साहित्य मानी जाने वाली विधाएं मूलत: काल्पनिक ही होती हैं तो यह महज अभिव्यक्ति के हनन का मामला नहीं है. यह नियमित पत्रकारीय घटनाओं से आगे की चीज है. जब सरकार या कोई प्रच्छन्न हितधारी पक्ष किसी अखबार, वेबसाइट आदि पर प्रकाशित सामग्री को दबाव से हटवाता है तो वह अमूमन रिपोर्ट या खबर होती है. हिंदवी और जानकीपुल प्रकरण में यह एक काल्पनिक चिट्ठी है और काल्पनिक पत्रों की साहित्य में पुरानी परंपरा है. यानी कह सकते हैं कि एक साहित्य की वेबसाइट ने एक साहित्य के उपक्रम के कहने पर एक साहित्यिक रचना को सेंसर किया है. इसलिए यह महज अभिव्यक्ति नहीं, सोचने और कल्पना करने की आजादी पर भी बंदिश है, चाहे उक्त पत्र जिसके भी दिमाग की उपज रहा हो.
चूंकि पत्रकारीय उपक्रमों में भी बेनामी या तखल्लुस से लिखे जाने वाले लेखों की कानूनन एक निजता होती है और मालिक की जिम्मेदारी इस गोपनीयता को संरक्षित करना होती है, तो इसे साहित्य तक विस्तारित करने पर यह बात स्वाभाविक ही निकल कर आएगी कि किसी और के (भले वह दिवंगत हो) ढंग से सोचने और उसके ही नाम से लिखने वाले की गोपनीयता भी संरक्षित रहे. इसलिए किसने वह काल्पनिक पत्र लिखा, यह सवाल इस प्रकरण में कोई मायने नहीं रखता.
सेंसर का कारण
यह इस प्रकरण का दूसरा आयाम है और यहीं पर एक साहित्यिक संस्था और एक कॉरपोरेट के असमान रिश्ते का रहस्य टूटता है. जो मूल आपत्ति जानकीपुल ट्रस्ट के कुछ ट्रस्टियों ने जताई है, वह काल्पनिक पत्र में शामिल वयोवृद्ध कहानीकार ज्ञानरंजन की कहानी ‘घंटा’ के एक अंश पर है. उक्त अंश को स्त्री-विरोधी और स्त्री-द्वेषी बताकर इसी बिनाह पर पूरे पत्र को सेंसर करने का तर्क स्थापित किया गया. इस बहाने ज्ञानरंजन पर भी कुछ लोगों ने निशाना साधा, जो हिंदी जगत में पैर पसार चुके ‘कैंसिल कल्चर’ का एक परिचित-सा रूप था.
कुछ लोगों ने ‘घंटा’ का मूल संदर्भ फेसबुक पर समझाने की कोशिश की है. यह स्वाभाविक है कि साठ साल पहले लिखी किसी कहानी को साठ साल बाद साहित्य में पैदा हुए लोग नहीं समझ सकते. इसमें कोई दिक्कत नहीं है. दिक्कत जहां है, वह प्रतीकात्मक मायने में बहुत ‘सिनिस्टर’ (शैतानी) है. समाजशास्त्री आरन रीव्स के शब्दों में इसे समझना आसान है, जो एक जगह लिखते हैं कि ‘अभिजात्य लंबे समय तक अपनी जगहों को नहीं बदलते’. ‘घंटा’ के संदर्भ में इस बात को कहा जाए, तो यह कुछ ऐसे होगा कि ‘घंटे’ बदलते रहे लेकिन कुंदन सरकार अपनी जगह पर कायम रहा. रिटायर होने के बाद भी कुंदन सरकार, कल्लू गुरु के होटल में अपने ‘घंटे’ को लेकर रसरंजन करता है. साठ साल में फर्क बस इतना आया है कि कुंदन सरकार कल्लू गुरु के होटल का सांस्कृतिक प्रबंधक बन चुका है, इसलिए उस होटल में अब नाच-गाना और ऑर्केस्ट्रा नहीं होता. सुविधा के लिए मान लें, कि यह होटल दिल्ली का इंडिया इंटरनेशनल सेंटर हो सकता है. मुक्तिबोध ने ऐसे ही किसी पात्र को डोमा उस्ताद की संज्ञा दी थी, जिसकी अगुवाई में रात के अंधेरों में साहित्यिक प्रोसेशन निकलते थे.
फिर भी, मैंने ज्ञानरंजन जी से पूछा, कि देखूं उन्हें इतने बरस बाद ‘घंटा’ का मूल संदर्भ याद है या नहीं. उन्हीं के शब्दों में, ‘इस कहानी का केंद्रीय पात्र कुंदन सरकार है और वह जिस होटल में बैठता है वह कल्लू गुरु नाम के माफिया का है. इस पूरे सेट-अप में मौजूद पुरुषों की निगाह में स्त्रियां क्या है और कैसी हैं, कहानी इस पर है. यह कहानी पुरुषों पर है, उन्हें उद्घाटित करती है, स्त्रियों को नहीं. आज भी इलाहाबाद में लोगों को याद है कि कल्लू गुरु कौन था. वह एक वास्तविक जगह थी.’
बरसों बीत गए. कल्लू गुरु और कुंदन सरकार अब दिल्ली आ गए हैं. तो कहानी का मूल संदर्भ जानकर भी उससे न सिर्फ गाफिल रहने, बल्कि उसका चीख-चीख कर विरोध करने के वास्तविक कारण नए ‘घंटों’ के पास हो ही सकते हैं. और दिलचस्प है कि एक पैरा को संदर्भ से काट कर, ‘स्त्री-द्वेष’ के मुहावरे में लपेट कर, कैसे हिंदवी पर छपे पूरे पत्र को ही निगल लिया गया! आइडेंटिटी यानी अस्मिता केंद्रित व्याख्याएं जिस रास्ते से राजनीतिक-कर्म में तब्दील होती हैं, उसका अनुभव बताता है कि ऐसी कार्रवाई किसी स्त्री के कहने पर किसी स्त्री ने ही की होगी, हालांकि यह अनिवार्य नहीं है. एक स्त्री को स्त्री-द्वेष के तर्क से समझा और राजी कर पाना दूसरी स्त्री के लिए कहीं ज्यादा आसान काम है. पुरुष पॉलिटिकल करेक्टनेस में केवल हामी भरते हैं, लेकिन करते कुछ नहीं. कोई भी आइडेंटिटी ऐसे ही काम करती है.
पैसा, अस्मिता और अतीत
यह अनायास नहीं है कि साठ के दशक में विश्वविद्यालयों के समाजशास्त्र के पाठ्यक्रम में दलित, आदिवासी, स्त्री जैसी श्रेणियां अचानक उभर कर आती हैं जब महज पचीस साल पहले 1935 में क्लिफर्ड ओडेट्स अपने एक नाटक में पहली बार ‘मेल शॉविनिज्म’ नाम के एक पद का प्रयोग करते हैं. उपनिवेशों की मुक्ति के बाद दुनिया भर के संस्थानों में समाजविज्ञान को जिस तरह से अलग-अलग श्रेणियों में बांटने का काम हुआ और अलग-अलग ‘अस्मिताओं’ पर जोर दिया जाने लगा, यह पूंजी के बदलते हुए स्वरूप के लिहाज से जरूरी था. उस समय कॉरपोरेट और आइडेंटिटी का रिश्ता इतना स्पष्ट नहीं था जितना आज है. हिंदी में आम तौर से दलित और स्त्री विमर्श के लिए राजेंद्र यादव को श्रेय दिया जाता है, लेकिन कहानी उनके पहले से चली आ रही है.
कोई एक-डेढ़ दशक पहले जब साहित्य के उत्सवों को कॉरपोरेट शक्तियों ने मनाना शुरू किया, तो यह रुझान आम होने लगा. पहले जयपुर साहित्य उत्सव आया, फिर यह सिलसिला कलिंग तक फैल गया. टाटा, जिंदल, बिड़ला, वेदांत, से लेकर मौजूदा संदर्भ में फ्लेक्स और पॉलीप्लेक्स बनाने वाले बड़े उद्योगपति साहित्य-संस्कृति के घोषित-अघोषित संरक्षक बने, तो अस्मिताओं पर जोर इतना बढ़ा कि धूमिल से लेकर ज्ञानरंजन तक सब एक झटके में स्त्री-विरोधी हो गए. किसी ने मुक्तिबोध की जाति खोज ली, तो कोई प्रेमचंद की जोड़ी में अटक कर उनका वर्ग-विश्लेषण करने लगा.
मुक्तिबोध ने सारे मठ और गढ़ तोड़ने को कहा था. पूरे समाज को खंड-खंड में बांट कर विकसित किए गए अस्मिता-विमर्श में फंस चुके लेखक, अध्येता, पत्रकार कम पढ़ने, ज्यादा सुनने और सही रहने के चक्कर में उक्तियों व घटनाओं को संदर्भों से काटकर काल्पनिक मठों और गढ़ों को तोड़ने का आत्मगौरव पालने लगे. यह सब ऐसे समय में हुआ जब बिलकुल यही काम सत्ता भी कर रही थी. भारतीय जनता पार्टी के आईटी योद्धा भी अतीत के नायकों का कहा-किया संदर्भ से काटकर फैला रहे थे. केंद्रीय सत्ता अतीत को तोड़-मरोड़ कर अपने हिसाब से अनुकूलित और पाठ्यक्रमित करने में लगी हुई थी.
जॉर्ज ऑरवेल ने लिखा था कि ‘जो अतीत को नियंत्रित करता है वह वर्तमान को नियंत्रित करता है और जो वर्तमान को नियंत्रित करता है वही भविष्य को भी नियंत्रित करता है.‘’ यह बात कुंदन सरकार सचेत रूप से जानता और मानता था क्योंकि अतीत से लेकर वर्तमान तक वही सर्वव्यापी है. किया होगा कभी किसी घंटे ने विद्रोह और वह कल्लू के गुर्गों से पिट गया होगा, लेकिन अब वह स्थिति नहीं है. बदल चुके समय और शहर में न ‘पेट्रोला’ बचा था, न संगी-साथी और न ही अंतिम उम्मीद के रूप में वे ‘पिता’ (ज्ञानरंजन की कहानी) बचे थे, जिनकी ‘असंपृक्ति के कारण व्याकुल और अधीर’ हो जाते थे बेटे. अब कुंदन सरकार ही बाप था. वही मंच दिलवा रहा था, वही मंच पर बीच में मुस्कुराता खड़ा था और वही पुरस्कार बांट रहा था. उसका दर्शन ही सबका ध्येय हो चुका था. उसकी संगत में सब खुद को श्रेष्ठ महसूस कर रहे थे.
एक कमान की तलाश
जबलपुर में बैठे ज्ञानरंजन जी पैंसठ साल पहले ही इस बात को समझ रहे थे: “वे पुत्र, जो पिता के लिए कुल्लू का सेब मंगाने और दिल्ली एम्पोरियम से बढ़िया धोतियां मंगाकर उन्हें पहनाने का उत्साह रखते थे, अब तेजी से पिता-विरोधी होते जा रहे हैं. सुखी बच्चे भी अब गाहे-बगाहे मुंह खोलते हैं और क्रोध उगल देते हैं.” (पिता)
पिता से विद्रोह में दिक्कत कभी नहीं थी. पिता के ‘कमांडमेंट’ से पूरी तरह खुद को मुक्त कर लेने की ‘अनार्की’ में समस्या थी. कैथरीन मालाबू लिखती हैं कि ग्रीस के लोग जब पानी में पहले आटा मिलाते थे फिर अंडा, तो ऐसा नहीं है कि वे आटे को अंडे से श्रेष्ठ मानते थे लेकिन अरस्तू कहते थे कि 1, 2, 3 का मतलब ही होता है पहला, दूसरा, तीसरा यानी श्रेष्ठता का क्रम. यानी, यह जो श्रेष्ठता का फरमान है, ‘कमांडमेंट’ है, उसके लिए एक जड़ का होना जरूरी है, जैसे एक की संख्या. वैसे ही, पिता जड़ हैं, ‘कमेंसमेंट’ हैं, इसीलिए वह ‘कमांडमेंट’ भी हैं. बगावत के क्रम में जब आप उससे मुक्ति पाते हैं, तो किसी भविष्य के बिंदु पर लौटकर उसे ही खोजते हैं. वह जस का तस नहीं मिलता. वह कुंदन सरकार के रूप में बरामद होता है.
कुंदन सरकार पिता नहीं, एक आततायी मालिक है. पिता के छलावे में एक मालिक की वापसी जब होती है, तो घंटा हिलाने के अलावा कोई चारा नहीं रह जाता. यही मनुष्य का मूर्त फासिज्म है. होल्डर से मुक्त बल्ब, जैसे पिता के अभाव में आदमी. और हिंदी के प्रदेश में अपने अतीत से दगा करने, अपने पितरों को खलनायक ठहराने की यह चेत-अचेत प्रैक्टिस लगातार बढ़ती जा रही है. इस फासिस्ट समय में केंद्रीय सवाल स्त्री का नहीं, अब भी पुरुष का ही है.
वे तमाम स्त्रियां और पुरुष जिन्हें अपने पिता स्त्री-द्वेषी लगते हैं, जिन्हें अपने बुजुर्ग मानवद्वेषी लगते हैं, जिन्हें वे ‘एसिड से जला डालने’ की ख्वाहिश रखते हैं, उन्हें एक बार ठहर कर अपने नए पिताओं की ओर भी देखना चाहिए कि कहीं वह राक्षस तो नहीं! अपने अवचेतन में एक कमान, एक ‘कमांडमेंट’, एक जड़ की तलाश में कहीं हम सब ईसप की कहानी का वो घोड़ा तो नहीं बनते जा रहे जिसने गदहे को निपटाने के लिए खुद को शिकारी के हवाले कर के मुंह में लगाम डाल ली थी!
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