Opinion
18वीं लोकसभा की जम चुकी तलछट से उभरे कुछ विचार
ये लेख व्हाट्स ऐप पर तलवार भांजते मुहल्लों के तमाम सरमाएदारों और आरडबल्यूए के अंकल-आंटी लोगों के लिए ख़ास तौर पर लिखा गया है. और इस प्यारे देश के लिए भी जिसे लेखक एक मुहल्ले की तरह देख रहा है. अब चुनाव तो हो चुके और बिसात भी नई बिछ चुकी है. अब थोड़ा ठहर कर सोचने का समय है. एक छोटे से सवाल के साथ. कि चौकीदार रखते वक़्त वे किन बातों का ख़्याल रखेंगे. सेवक की भर्ती के वक़्त किन बातों का. हालांकि अब ये बात निजी और पारिवारिक नहीं रह गई है, पर अपना देवता रखना हो, तो किन कसौटियों पर कसेंगे उसकी ईश्वरीयता को.
मसलन क्या उस व्यक्ति को आप क्या अपने पास फटकने भी देंगे, जो झूठ बोलता हो. जो हांकता बहुत हो. जो यकायक किसी भी शाम आठ बजे तय कर दे कि आज से नोट बंद किए जाएंगे. और आज से ताले. जो बुनियादी तौर पर डरपोक हो. चाहे आपने सामने बातचीत हो या देश के मोर्चे, सामना करने से भागता हो. न सिर्फ़ भागता हो, बल्कि जो आपके मुहल्ले में घुसपैठ करने के बाद क़ब्ज़ा करने वाले से धंधा दोगुना कर ले. मुहल्ले में आग लग जाए तो साल भर उसकी तरफ मुंह भी न करे. जो ज़िम्मा तो पूरे मुहल्ले का ले, पर जब देखो तब एक ख़ास क़ौम के लिए नफ़रत का ज़हर उगलता रहे, और उनके मकानों पर बुलडोज़र फिरवाता रहे. जो बात तो नारी सम्मान की करे, पर चुनाव के वक़्त बलात्कारियों के साथ फ़ोटो खिंचवाता घूमे. जो चुनाव नतीजों से ऐन पहले शेयर मार्केट में एग्जिट पोल के आधार पर फर्जीवाड़ा करवाने में हर्षद मेहता को भी मात दे दे. आराध्य होने की होड़ में शंकराचार्यों के बॉयकॉट के बाद भी मंदिर उद्घाटन करने की चुनावी आतुरता दिखाने के बाद रातोंरात चुनावी ईश्वर (राम) को छोड़कर नतीजों के ईश्वर (जगन्नाथ) का पल्लू थाम ले. जो कल तक अपने नाम का आधार कार्ड मुहल्ले को दिखा रहा था, अब उस एनडीए का दिखा रहा है, उस एनडीए को, जिसका चुनाव होते तक कहीं ज़िक्र ही नहीं था. जो सवालों का सामना न कर सके - न संसद में, न संसद के बाहर, न प्रेस के. वह जो असली ख़बरों को दबवा दे. असली सवाल करने पर पानी पीकर भागता खड़ा हो. वह जो पढ़ने लिखने वाले नौजवानों को सलाख़ों के पीछे भिजवा दे.
इस व्यक्ति के लिए कौन से शब्द और विशेषण हैं जो आपके ज़हन में इस वक़्त चल रहे हैं. एक हाथ दिल पर रखिये और दूसरे से उसकी लिस्ट बना लीजिए.
वह जो एक के बाद ऐसी बातें करने लगे जो सटक चुके लोग कहते हैं.. भैंस से लेकर मंगलसूत्र, गांधी से लेकर मुजरे के बारे में. देश खुली आंखों से देख रहा है, मुजरा कहां हो रहा है और कौन कर रहा है. (आप यहाँ देख सकते हैं कि भाजपा की एक सांसद, जो हैं तो प्रदूषित यमुना की बग़ल की सीट से, और बेचती आरओ का पानी हैं, किस तरह से दुनिया का आख़िरी मुजरा कर रही हैं चिलमन के पीछे छिपे उस इंसान के लिए जो तृणमूल कांग्रेस का सांसद है.)
वह चौकीदार, सेवक, देवता- जो बिना टेली प्रॉम्पटर के एक मुकम्मल वाक्य तक नहीं कह सकता और जिसकी ज़ुबान लड़खड़ा जाती है.
क्या वह व्यक्ति आपके मुहल्ले का चौकीदार, सेवक या आराध्य होने की आवश्यक और वांछनीय अर्हताएं पूरी करता है? आप शायद उसका आवेदन कूड़ेदान में डाल देंगे. आप उसकी रपट लिखा देंगे थाने में. आप अदालत का दरवाज़ा खटखटाएंगे. आप उसे किसी अस्पताल के उस वार्ड में भर्ती करवाने की कोशिश करेंगे, जहां दिमाग़ी फितूरों का इलाज होता है. आप उन सारी मिसालों को देखेंगे, जो उसने अपने कार्यकाल में क़ायम की हैं (ज़्यादातर नकारात्मक ही हैं- देखिये भूख, बेरोज़गारी, महंगाई, प्रति व्यक्ति जीडीपी, मानवाधिकार, प्रेस की आज़ादी, सांप्रदायिकता, फर्जीवाड़े, सरकारी निरंकुशताओं के आंकड़े और मिसालें). और फिर परफ़ॉर्मेंस की रेटिंग करेंगे, जैसा कोई भी गंभीर व्यक्ति करता. अगर वह मुहल्ले के बारे में हो, कारोबार के बारे में, या देश के बारे में या फिर दुनिया के बारे में. नाकाबलियत का मतलब आपके हिसाब से क्या है?
हो सकता है आप उसे फिर भी उन कामों के लिए रख लें. शायद इस आधार पर कि उसका कोई विकल्प नहीं. हालांकि, ये आप भी जानते हैं, जो न सच्चा हो, न ईमानदार, जिसने सिवा फ़ोटो खिंचवाने के कोई काम ढंग से नहीं किया, जो झूठी क़सम उठाता हो, चाहे संविधान के लिए या लोकतंत्र के लिए, सामरिक रक्षा के लिए या फिर अर्थ व्यवस्था के लिए, जो दुनिया के उन बाक़ी चोरी का लोकतंत्र चलाने वाले चौकीदारों के साथ सेटिंग करता रहा हो, जो न आपको उम्मीद, यक़ीन और ग़ैरत- तीनों में कुछ भी नहीं दे पाया, उसके लिए 144 (बिना जनगणना के यह एक अनुमानिता और मिथकीय संख्या है) करोड़ लोगों में बहुत सारे योग्य पात्र हो सकते हैं. पहले भी हुए हैं और आगे भी होंगे.
अगर आप उसे इन कामों के लिए रखते हैं, जो इसका ज़िम्मेदार वह उम्मीदवार नहीं आप ख़ुद हैं. और वे सारे शब्द और वे सारे विशेषण सिर्फ़ उस व्यक्ति पर नहीं, बल्कि साझेदारी के नाम पर आप पर भी लागू होते हैं. अब जब भी आईना देखिये, इस रौशनी में देखिये. एक दिन मुहल्ले के लोगों यानी आपने अपने आपको आईने में देखा, और अगली सुबह आप में से बहुत से लोगों का यक़ीन उस पर से उठ गया. सबका नहीं उठा. बहुत से लोग अभी भी उस चेहरे, चाल, चोले, चरित्र, चलन से इस कदर अभिभूत थे कि उनका मन ही नहीं मान रहा था कि इस आदमी को नौकरी से निकाल बाहर करें. 'टेढ़ा है पर मेरा है’ की तर्ज़ पर. आप कह रहे हैं, तो क्या? डेमोक्रेसी है. जिसके पास बहुमत है, राज करेगा.
क्या कहेंगे आप ऐसे उस इंसान को अगर वह नरेन्द्र मोदी न हो? क्या करेंगे उसके साथ? प्रधानमंत्री बना देंगे? नौकरी देंगे? उम्मीद रखेंगे? यक़ीन करेंगे? इज़्ज़त करेंगे? अपने पेसमेकर लगे हृदय का सम्राट बनाएंगे? ताली बजाएंगे? थाली पीटेंगे? सच से मुंह फेर लेंगे?
डोलते सिंहासन पर डट कर बैठा हुआ शख़्स
सिर्फ़ बहु का अल्प ही तो हुआ है. जो गारंटी चौकीदार की थी, अब गठजोड़ की है. पर इस बार का बहुमत सत्ता की सवारी गांठने का ब्लैंक चेक नहीं हैं. कुर्सी के पाये हिल भी सकते हैं. ये दूसरे लोग हैं मुहल्ले के, जा इस बार थोड़ा राहत की सांस ले रहे हैं. इन में कुछ ऐसे भी हैं जो कुछ इस कदर चहके पड़े हैं कि चौकीदार नहीं बदला पर देखना व्यवस्था बदल जाएगी. अब पहले जैसा नहीं होगा. किसी दिन गठजोड़ के भागीदार अपनी पलंग की सही करवट से उठेंगे और उनकी अंतरात्मा कुछ ऐसी अंगड़ाई लेती हुई जागेगी (याद है न आंटी- जैसा शशि कपूर लेता था), कि सत्ता का टायर फट जाएगा, और स्टेपनी पहले से ही भाग चुकी होगी. कुछ लोग हैं जो इस बात पर निहाल होना ही बंद नहीं कर रहे कि उनकी संख्या की बात तो सही निकली, भले ही सरकार बनने वाली बात सही न निकली हो. कुछ इसमें ही संपूर्ण क्रांति का मज़ा ले रहे हैं. आप देख ही रहे होंगे कि कैसे आपके व्हाट्सएप के संवाद, समीकरण, संबोधन बदल रहे हैं. जीतने वाला सिकंदर नहीं है. हारने वाले छुछंदर भी नहीं हैं. शोर फिर भी है. प्राइम टाइम पर हांका लग रहा है, डुगडुगी बज रही है. वे हर अगले रोज़ अंदाज़ा लगा रहे हैं, कि देखना कल या परसों या अगले महीने लोकतंत्र, संविधान, आइडिया ऑफ इंडिया की जीत होगी. उनके ज़हन में सस्पेंस और एंटीसिपेशन का संगीत लूप में बज रहा है. जो फ़िल्म उनके दिमाग़ में चल रही है, उसका क्लाईमेक्स अलग है. एक में चौकीदार चोर है. एक में नहीं है.
मुहल्ले में कुछ लोग ऐसे भी हैं जिन्हें लगता है कुछ नहीं बदलने वाला. वे चुप हैं आपके ग्रुप में. इनमें से किसी का पीएचडी करता हुआ बेटा जेल में चार साल से है. एक का पिता उन 600 किसानों में से एक था, जो एक साल लम्बे धरने के दौरान लाठीचार्ज से मारा गया, एक उस बच्चे का मामा था, जिसे दिल्ली दंगे के दौरान एक पुलिस वाला लाठी मारता हुआ फ़रमाइश कर रहा था, चलो जन-गण-मन गा के सुनाओ. उस बेटी की मां जिसे हाथरस में बलात्कार और हत्या के बाद लाश परिवार को बिना दिये सौंप दी गई. उस मज़दूर का परिवार, जो कोविड के लॉक डाउन में दिल्ली से सासाराम पैदल गया. वह जिसका अरमान था सरकारी नौकरी का, और जिसका पर्चा बार-बार लीक हुआ. और उसका भी जिसका नीट परीक्षा के नतीजों में नाम आया और अटक गया. ये लोग ज़िंदा भी हैं और नहीं भी. ये लोग उस उम्मीद, यक़ीन और ग़ैरत की गारंटी के शहीद है, जिसका वायदा संविधान ने उनसे किया था. वे लोग चुप हैं. वे हैं आपके आरडबल्यूए ग्रुप के व्हाट्सएप ग्रुप में. आप उनकी खामोशियों से उन्हें पहचान सकते हैं. कपड़े तक जाने की ज़रूरत नहीं. उनकी चुप्पी ठंडी है, लोहे की तरह, जिसे आप चाहें तो हाथ बढ़ा कर छू भी सकते हैं. आपसे भी कुछ कहने को कहां बनता है उनके सामने.
वैसे भी क्या ही कुछ बदला है? वह पद, वह रौशनी, वही कैमरे, वही पुष्पवर्षा, वही ऐंठ, वही मंत्री, वही संतरी, वही नौकरशाह, वही संवैधानिक संस्थान, वही अदालतें. दुनिया में जब भी फासीवादी प्रवृत्तियां अल्पमत वाली गठजोड़ सरकारें बनाती हैं, तो नुक़सान आप जानते ही हैं. शपथ लेते ही कश्मीर जो वापस स्वर्ग बन चुका था, आतंकवादियों की गोलियों का शिकार हो गया. चीन ने 3० जगहों के नाम अपने हिसाब से बदल दिये. मणिपुर में हिंसा और हत्याओं का दौर जारी रहा. पढ़ने लिखने वाले लोगों पर मुक़दमे दायर होते रहे. लखनऊ में बुलडोज़र फिर निकल आये. क्या बदला मोदी की गारंटी को अल्पमत का कर देने से?
ऐसा भी नहीं है कि ये सवाल सिर्फ़ आपके दिमाग़ में कुलबुला रहे हैं. भले ही आप बोलें नहीं. विचार एक बार ज़हन में आता है, तो जाता नहीं है. सवाल कहे न जाएं फिर भी रह जाते हैं. शायद मोहन भागवत भी इसी तरह कुछ सोच ही रहे होंगे. जैसे आपका मुहल्ला है, उनका अपना मुहल्ला है. भारतीय जनता पार्टी का अपना मुहल्ला है, भले ही आवाजाही और बोलचाल थोड़ी कम हो गई हो दोनों मुहल्लों में. दोनों मुहल्लों को अपने मुनासिब एक चौकीदार चाहिए. सेवक और आराध्य भी. भाजपा अगर दुनिया की सबसे बड़ी लोकतांत्रिक पार्टी है, तो ऐसा थोड़े ही न ही उनके सदस्यों, नेताओं के दिमाग़ इन विचारों से दो चार नहीं होते होंगे. आपके व्हाट्सएप ग्रुप को भले न पता हो, पर उन्हें पता है कि देश का सर्विलांस सिस्टम कैसे काम करता है. चुप रहने वालों की जमात और मुहल्ले में वे भी हैं. जिन्हें हक़ीक़त पता है, वे चुप ही रहते हैं. भले ही जूता पांव को और पांव जूते को काटता रहे. घिसने के बाद भी.
ये आम चुनाव नरेन्द्र मोदी ने ख़ुद पर रेफरेंडम की तरह लिया था. न भाजपा थी, न एनडीए, न कोई नत्थू खैरे नेता. यह सच है कि रेफरेंडम की बाज़ी वह हार चुके हैं, जिसकी पक्की शिनाख्त उनकी शक्ल पर लिखी है. यह चुनाव भारतीय जनता पार्टी ने भी नहीं जीता है. चुनाव लोकतंत्र का महत्वपूर्ण पहलू तो है पर सारा सच नहीं. वह देश है, इसके नागरिक है, उनका संविधान है, उनकी आज़ादी, सपने, रोजी-रोटी है.
सच विज्ञापन नहीं है. जैसे एक गंजा आदमी नवरत्न केश तेल बेचता है नक़ली बालों के विग दिखाता हुआ. एक रेपिडैक्स पढ़कर क्रिकेट खेलना वाला आदमी एक पान मसाले का विज्ञापन कर रहा है. जुमले हैं उसी तरह के जैसा चुनाव के दौरान देश से बोले जाते रहे हैं.
जैसे बोलो जुबां केसरी खा कर आप हो जाएंगे अजय देवगन और शाहरूख खान.
कैमरे के सामने जितने मासूम दैदीप्यमान ओजस्वी नरेन्द्र मोदी हैं, उतने अब न तो मिलते हैं न बनते हैं. आसान नहीं होता इतने बड़े मुल्क का दस साल प्रधानमंत्री रहने के बाद फिर से डोलते सिंहासन पर डट कर बैठना. इतनी हुज्जत होने के बाद. इतना बुरा लगने के बाद भी. देखिये फिर भी वह शख़्स अगले सौ सालों के लिए भारत का सही इंतज़ाम करने के लिए डटा हुआ है. स्पॉट लाइट और प्राइम टाइम कहीं और ध्यान ही नहीं दे पाते. जैसा उन्होंने ख़ुद भी कहा मामला भयानक दैवीय है. न लॉजिकल, न बायोलॉजिकल.
पर आपका क्या सोचना है अपने बारे में. इसमें अजय देवगन, शाहरुख़ खान, उस गंजे आदमी या उस संदिग्ध उत्पत्ति वाले इंसान की गलती नहीं है. अपनी शक्ल आईने में देख कर कभी तो ये ख़्याल आता होगा कि आख़िर किसने इजाज़त दी कि देश को और यानी आपको इस तरह से चूना लगा दे.
आइने में आप ही की शक्ल आपसे कुछ पूछ रही है, ऐसा कैसे हो गया?
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