Chhattisgarh Elections 2023
छत्तीसगढ़ चुनाव में सीपीआई: टिन शेड के चुनावी दफ्तर और सिमटते वोटबैंक की चुनौती
छत्तीसगढ़ में पहले चरण का चुनाव 7 नवंबर को होना है. इन दिनों प्रचार आखिरी चरण में है तो नेता अपना आखिरी दांव खेल रहे हैं.
दंतेवाड़ा विधानसभा क्षेत्र से कांग्रेस ने दिग्गज नेता महेंद्र कर्मा के बेटे छविंद्र कर्मा, भाजपा ने चैतराम अटामी और आम आदमी पार्टी ने बल्लू राम भवानी को मैदान में उतारा है. वहीं, कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (सीपीआई) के समर्थन से भीमसेन मण्डावी उम्मीदवार हैं.
हालांकि, सीपीआई छत्तीसगढ़ की कई सीटों पर अपने चुनाव चिन्ह पर नहीं लड़ पा रही है. मालूम हो कि चुनाव आयोग ने सीपीआई की बतौर राष्ट्रीय पार्टी के तौर पर मान्यता खत्म कर दी है. वहीं, चुनाव आयोग ने उसे क्षेत्रीय पार्टी के तौर पर भी दूसरे चरण के लिए मान्यता दी है. इसके पीछे वजह है कि उसका आवेदन देरी से स्वीकार हुआ. जिसके चलते पहले चरण में उसके प्रत्याशियों को निर्दलीय के तौर पर पर्चा भरना पड़ रहा है. हालांकि, वे सीपीआई की ओर से ही घोषित किए गए उम्मीदवार हैं लेकिन अब समर्थन से चुनाव लड़ रहे हैं. भीमसेन मण्डावी भी ऐसे ही एक उम्मीदवार हैं. उन्हें चुनाव आयोग से ‘कांच का ग्लास’ चुनाव चिन्ह मिला है.
जहां आजकल पार्टी कार्यालयों पर लाखों-करोड़ों रुपये खर्च किए जा रहे हैं, वहीं भीमसेन मण्डावी का चुनावी कार्यालय एक दम अलहदा नजर आता है. पहली नजर में ही यह आपका ध्यान अपनी तरफ खींचता है.
दंतेवाड़ा से सुकमा जाने के रास्ते पर जैसे ही हमारी टीम 10 किलोमीटर आगे बढ़ी तो हमें ग्राम पंचायत मोखपाल में एक झोपड़ी के चारों तरफ पोस्टर बैनर टंगे दिखे. इसके आगे सीपीआई के बड़े नेता और सुकमा के कोटा से उम्मीदवार मनीष कुंजम और मण्डावी का कटआउट लगा नजर आता है. गेट के रूप में तार की जाली लगी हुई है. इसके साथ ही बने टिन के शेड के नीचे कुछ लोग बैठकर खाना खा रहे हैं.
जानकारी करने पर पता चला कि यह पांच पंचायतों का चुनावी दफ्तर है. दंतेवाड़ा शहर में पार्टी का कोई दफ्तर नहीं है. किराए के एक कमरे को पार्टी दफ्तर के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा है.
यहां हमारी मुलाकात सहदेव मण्डावी से होती है. जो पास के ही गांव के एटेपाल का रहने वाला है. सहदेव बताते हैं, ‘‘पांच-सात पंचायतों के लोगों के लिए हमने ये दफ्तर बनाया है. बैठने के लिए कुछ कुर्सियां हैं. हम किसान और गरीब हैं. हम तो जमीन पर भी बैठ जाते हैं. अभी दोपहर का समय है तो यहां लोग कम हैं. कुछ खेत में गए हैं तो कुछ प्रचार करने. अगर सब यहां आते हैं तो जमीन पर भी बैठ जाते हैं.’’
सीपीआई के कार्यकर्ता सहदेव 12वीं करने के बाद से बेरोजगार हैं. वह दूसरी बार मतदान करने वाले हैं. रोजगार के मामले पर वह बघेल सरकार से नाराज़ नजर आते हैं. वह कहते हैं, ‘‘यहां काफी संख्या में पढ़े-लिखे नौजवान बेरोजगार हैं. सरकार कहती है कि बस्तर में स्थानीय युवाओं की भर्ती होगी. लेकिन ऐसा हो नहीं रहा है. रायपुर और दूसरे संभाग से लाकर युवाओं को यहां नौकरी दी जा रही है. यहां के युवा डिग्री लेकर डोल (घूम) रहे हैं.’’
करीब दर्जनभर युवा इस अस्थायी कार्यालय में खाना खाते नजर आए. उनके हाथ में वो चुनावी पैम्फलेट था, जो बांटा जाना है. वे बताते हैं है कि ऐसे तीन दफ्तर बने हुए हैं.
यहां हमारी मुलाकात कोसा सोढ़ी से हुई. सोढ़ी सीपीआई के कट्टर समर्थक हैं. वे दावा करते हैं कि मरने तक भी सीपीआई से ही जुड़े रहेंगे. सोढ़ी बताते हैं कि हर चुनाव में वे इस जगह ही अपना दफ्तर बनाते हैं क्योंकि उनकी पार्टी का कोई स्थायी बड़ा कार्यालय नहीं है.
सरकारी सुविधाओं के सवाल पर सोढ़ी कहते हैं, “ना तो हमें इंदिरा आवास मिला और ना तालाब मिला. पढ़ने वाले बच्चों के लिए नौकरी नहीं है. मैं अपने बेटे को खुद विजयवाड़ा में पढ़ा रहा हूं. उसका कम से कम चार हज़ार रुपये तो कमरे का किराया है. मैं यहां के जिलाधिकारी के पास एक बार मदद मांगने गया था कि मैं अपने बेटे को पढ़ा रहा हूं, कुछ मदद कर दें. तब जिलाधिकारी ने कहा कि तुम अपने बेटे को छत्तीसगढ़ में पढ़ाते तो मैं मदद कर देता लेकिन तो यहां से बाहर पढ़ा रहे हैं. इसलिए मैं मदद नहीं कर सकता हूं. मैं गुस्सा होकर आ गया.’’
दंतेवाड़ा का चुनावी इतिहास
दंतेवाड़ा विधानसभा एक नक्सल प्रभावित क्षेत्र है. यहां के कई गांवों में लंबे समय से मतदान नहीं हो पा रहा है. लोगों को मतदान करने के लिए पांच से दस किलोमीटर की दूरी तय करनी पड़ती है.
अनुसूचित जाति के लिए रिजर्व इस सीट पर मेहन्द्र कर्मा परिवार का लंबे समय से दबदबा रहा है. अब तक यहां हुए 16 विधानसभा चुनाव में सात बार कर्मा परिवार के लोग यहां से विधायक रहे हैं. हालांकि, कर्मा ने भी राजनीति की शुरुआत सीपीआई से ही की थी और पहली बार कर्मा 1980 में सीपीआई से ही विधायक बने थे. लेकिन आगे चलकर वो कांग्रेस में शामिल हो गए.
छत्तीसगढ़ राज्य के बनने से पहले तक यहां से सीपीआई के तीन विधायक हुए.
भाजपा के भीमा मण्डावी भी यहां से दो बार विधायक रह चुके हैं. 2018 में उन्होंने महेंद्र कर्मा की पत्नी देवती कर्मा को हराया था. तब बस्तर संभाग की 12 सीटों में से 11 पर कांग्रेस की जीत हुई थी. यह एकमात्र सीट भाजपा के पास गई थी. लेकिन 2019 में लोकसभा चुनाव के दौरान नक्सलियों ने उनकी हत्या कर दी. उसके बाद उप चुनाव में मण्डावी की पत्नी ओजस्वी भीमा मण्डावी को भाजपा ने उम्मीदवार बनाया लेकिन वो देवती से चुनावी मुकाबले में हार गईं.
सीपीआई कैसे यहां से पिछड़ती गई?
महेंद्र कर्मा के कांग्रेस में शामिल होने के बाद से सीपीआई यहां से लगातार पिछड़ती गई. 2019 में हुए उपचुनाव में तो सीपीआई को यहां से महज सात हज़ार वोट मिले थे. उस वक़्त भीमसेन मण्डावी ही उम्मीदवार थे.
मण्डावी सीपीआई के गिरते वोट बैंक के सवाल पर कहते हैं, ‘‘उपचुनाव में वोट प्रतिशत कम इसलिए हुए क्योंकि तब राज्य सरकार काफी पैसे खर्च कर रही थी. उपचुनाव में अक्सर जो पार्टी सत्ता में होती है, उसी के उम्मीदवार जीतते हैं. लेकिन इस चुनाव में हम जीत की तरफ बढ़ रहे हैं.’’
छत्तीसगढ़ सीपीआई के तीन बार सचिव रहे आर. डी.सी.पी. राव पार्टी के गिरते ग्राफ के पीछे राजनीति में आये धनबल को वजह मानते हैं. वो कहते हैं, ‘‘सीपीआई सिद्धांत की राजनीति करती है. महेंद्र कर्मा हमारे टिकट से विधायक तो बने लेकिन उनके समय में ही राजनीति में पैसे आ गया. जिसके बाद वो बढ़ता ही गया. ऐसे में जनता भी पैसे के ही पीछे भागी. जनता ने सोचा कि अगर वोट के बदले उसे पैसे मिल रहे हैं तो वो क्यों सिद्धांत पर चले? नतीजतन हमारे संगठन में लोग कम होते गए. दो साल पहले तक दंतेवाड़ा में हमारे 1200 सदस्य थे. जो पहले काफी ज्यादा हुआ करते थे.’’
दंतेवाड़ा में किसानों के हक़ के लिए लड़ने वाले संजय पंत भी सीपीआई के कम होते प्रभाव के पीछे वजह राजनीति में बढ़ते धनबल को मानते हैं. वह कहते हैं, ‘‘सीपीआई जन, जंगल, जमीन के मुद्दे उठाती है. इससे पूंजीपतियों को नुकसान है. उन्होंने भाजपा और कांग्रेस को मदद की ताकि सीपीआई कमजोर हो. कोई जन जंगल और जमीन का मुद्दा न उठा सके. इसके साथ एक काम और किया गया सीपीआई को नक्सलियों के साथ जोड़ दिया गया. इन सब का असर हुआ और सीपीआई का प्रभाव कम होता गया.’’
इस बार सीपीआई को और नुकसान हो सकता है. दरअसल, उसके ज्यादातर वोटर आदिवासी समाज से ताल्लुक रखने वाले हैं. वो सीपीआई का चुनाव चिन्ह तो जानते हैं लेकिन इस बार उम्मीदवारों को निर्दलीय लड़ना पड़ रहा है, जिस वजह से उन्हें अलग चुनाव चिन्ह मिले हैं. जो इस समाज के बीच उतने लोक्रपिय नहीं हैं. जैसे मण्डावी को ‘कांच का गिलास’ मिला है. वहीं मनीष कुंजम को एयर कंडिशनर यानि एसी. पंत मानते हैं, ‘‘यहां के जनता को बाल और हंसिया याद है. अब उन्हें ईवीएम में गिलास और एसी तलाशना होगा. जो मुश्किल होगा. पार्टी को वोटों का नुकसान हो सकता है.’’
हालांकि, मण्डावी का मानना है कि शुरुआत में लगा था कि हमें चुनाव चिन्ह अपना वाला नहीं मिलने से नुकसान होगा लेकिन हम अपने हिसाब से वोटर को समझाने की कोशिश कर रहे हैं. मुझे लगता है कि अब इससे फायदा ही होगा.
एक तरफ जहां मण्डावी का दावा है कि इस बार वो दंतेवाड़ा से चुनाव जीत रहे हैं. वहीं, कांग्रेस के उम्मीदवार छविंद्र कर्मा कहते हैं कि उनका मुकाबला कमल के निशान यानि भाजपा से है. कुल मिलकर सबके अपने दावे हैं लेकिन इनका नतीजा तो 3 दिसंबर को ही आएगा.
Also Read
- 
	    
	      Delhi AQI ‘fraud’: Water sprinklers cleaning the data, not the air?
- 
	    
	      Patna’s auto drivers say roads shine, but Bihar’s development path is uneven
- 
	    
	      Washington Post’s Adani-LIC story fizzled out in India. That says a lot
- 
	    
	      Nominations cancelled, candidate ‘missing’: Cracks in Jan Suraaj strategy or BJP ‘pressure’?
- 
	    
	      The fight to keep Indian sports journalism alive