Saransh
गांधी-अंबेडकर विरोधी गीता प्रेस को शांति पुरस्कार देना कितना जायज ?
गीता प्रेस गोरखपुर को गांधी शांति पुरस्कार देने के ऐलान के साथ ही विवाद शुरू हो गया. कांग्रेस सांसद जयराम रमेश ने एक ट्वीट कर कहा कि गीता प्रेस को पुरस्कार ऐसा ही है मानो सावरकर-गोडसे का सम्मान करना.
जयराम रमेश ने जो आरोप लगाया है, उसका अपना एक इतिहास है. गांधी और गीता प्रेस का संबंध बहुत उलझन भरा है. इसको समझने के लिए पत्रकार अक्षय मुकुल की किताब ‘गीता प्रेस एंड द मेकिंग आफ हिंदू इंडिया’ बहुत उपयोगी हो सकती है.
दरअसल, गीता प्रेस कई मौकों पर गांधी के विचारों के खिलाफ खड़ी रही. गांधी दलितों के मंदिर में प्रवेश के लिए आंदोलन चला रहे थे. वहीं, गीता प्रेस इसके खिलाफ मुहिम छेड़े हुए था. गांधी दलितों के घर भोजन की परंपरा शुरू कर रहे थे, पोद्दार इससे सहमत नहीं थे. अक्षय मुकुल की किताब बताती है कि गीता प्रेस दलितों के मंदिर प्रवेश के विरुद्ध था. ‘कल्याण’ में इस तरह के कई लेख उस दौर में छपे जिनमें 'अछूतों' को मंदिर में प्रवेश का विरोध था. इसने गांधी के पूना पैक्ट से भी अपनी असहमति जाहिर की थी. गीता प्रेस हिंदू समाज की सवर्णवादी सोच में भरोसा करता है जबकि गांधी का सनातन धर्म बहुत विकसित और प्रगतिशील था. गीता प्रेस ने 1946 में गांधी के खिलाफ खुली मुहिम छेड़ दी जब उन्होंने एक दलित पुरोहित से विवाह की रस्म पूरा करने की शुरुआत की और खुद कन्यादान किया. इसके बाद पोद्दार ने कल्याण पत्रिका के जरिए गांधी के खिलाफ मुहिम छेड़ दी.
आगे यह रिश्ता लगाातर कड़वाता रहा. गीता प्रेस 'हिंदू कोड बिल' को लेकर नेहरू और डॉ. अंबेडकर पर हमलावर रहा. कल्याण पत्रिका ने पहले लोकसभा चुनाव में नेहरू को हराने की अपील की थी और उन्हें अधर्मी बताया था.
खैर हम गांधी और गीता प्रेस की बात करते हैं. आजादी के समय एक तरफ मुस्लिम लीग था जो मुस्लिम पहचान की राजनीति कर रहा था. दूसरी तरफ हिंदू महासभा, आरएसएस जैसे संगठन थे जो हिंदू पहचान की राजनीति को उकसा रहे थे. गीता प्रेस इस हिंदूवादी अभियान का हिस्सा बन कर इसे फैलाने में लगा था. उस कट्टरपंथी उकसावे का नतीजा गांधी की हत्या के रूप में सामने आया. गांधी की हत्या की साजिश में जिन लोगों को गिरफ्तार किया गया, उनमें गीता प्रेस के संस्थापक जय-दयाल गोयनका और कल्याण पत्रिका के संपादक हनुमान पोद्दार भी थे. गांधी की हत्या के बाद कल्याण पत्रिका ने चुप्पी साध ली थी. कोई आलोचना या बुराई नहीं. इसे गोडसे और सावरकर का समर्थन माना गया.
अक्षय मुकुल किताब में इस बात का भी जिक्र करते हैं कि गांधी की हत्या के बाद 4 फरवरी 1948 को संघ पर प्रतिबंध लगा दिया गया. तब पोद्दार आरएसएस का खुलेआम बचाव कर रहे थे. 1949 में जब संघ प्रमुख गोलवलकर गांधी हत्या की साजिश के आरोप से जेल से रिहा हुए तब पोद्दार ने उनका स्वागत समारोह आयोजित किया. इस तरह गीता प्रेस कई मौकों पर गांधी के खिलाफ खड़ा रहा. उनके सामाजिक बदलावों का विरोध करता रहा. ऐसे में गीता प्रेस गोरखपुर को गांधी शांति पुरस्कार का ऐलान विडंबना का चरम है, यानी घोर आइरनी है.
Also Read
-
Is Modi saving print media? Congrats, you’re paying for it
-
Ekta Kapoor, Shilpa Shetty and a queue of netas: The great suck-up at Baba Bageshwar's yatra
-
98% processed is 100% lie: Investigating Gurugram’s broken waste system
-
The unbearable uselessness of India’s Environment Minister
-
Delhi protests against pollution: ‘We have come to beg the govt for clean air’