Opinion
कर्नाटक 2023: क्या कहते हैं और क्या नहीं बताते हैं विधानसभा चुनावों के नतीजे
जैसा कि आम तौर पर चुनाव परिणामों के साथ होता आया है, कर्नाटक के चुनावी नतीजे आने के बाद भी टिप्पणियों और निष्कर्षों की झड़ी लग गई. इसका एक परिणाम तो यह हुआ कि चीजों को बेहद बारीक स्तर पर देखने की अत्याधिक प्रवृत्ति के कारण मीडिया के लिए कोई जगह ही नहीं बची. एक मीडिया पोर्टल ने तो एक इतिहासकार को ही राजनीतिक विश्लेषक बना दिया. हालांकि यह बात समझ के बाहर थी क्योंकि कर्नाटक चुनावों में कोई ऐतिहासिक बदलाव दिखाई देने के बजाय मौजूदा सरकारों के खिलाफ वोट दे उन्हें सत्ता से बाहर करने का ऐतिहासिक रिवाज 38 साल पुराना है.
हालांकि, इस सब होड़ के बीच, हम कर्नाटक में क्षेत्रीय राजनीति के कुछ समयबद्ध संकेतकों और राष्ट्रीय राजनीति के पटल पर विपक्ष की राजनीति हेतु इसके प्रभावों को चिन्हित कर सकते हैं. और इस संदर्भ में देश के दो प्रमुख दलों के तौर पर, कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी को इस तरह के आकलन के लिए प्रमुख विषय माना जा सकता है.
अगर हम अपनी बात की शुरुआत सीटों की संख्या से ही कर दें तो सीटों की ये संख्याएं भी एक अलग ही कहानी कहती हैं. कांग्रेस ने 42.9 प्रतिशत वोट शेयर के साथ 135 सीटें जीतीं – यानी कि 2018 के वोट शेयर के मुकाबले 4.9 प्रतिशत ज्यादा. इसका मतलब यह हुआ कि 1970 के दशक में कांग्रेस के तत्कालीन मुख्यमंत्री देवराज उर्स द्वारा पहचाने गए अपने पारंपरिक वोटर बेस अहिंदा का सुदृढ़ीकरण. अहिंदा अल्पसंख्यातरु (अल्पसंख्यक), हिंदूलिदावारू (पिछड़ा वर्ग) और दलितारू (दलित) के लिए एक संक्षिप्त शब्द है. इन वोटों के सुदृढ़ीकरण का मतलब है कि पार्टी के पास अपने वोट शेयर को सीटों में बदलने का मौका पहले से कहीं ज्यादा था.
इसे इस संदर्भ में देखा जाना चाहिए कि 2004, 2008 और 2018 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस का वोट शेयर ज्यादा होने के बावजूद भी कांग्रेस ने भाजपा की तुलना में कम ही सीटें जीतीं. 2023 के कर्नाटक विधानसभा चुनाव से पहले, वोट शेयर और सीटों के बीच के अंतर की बड़ी वजह कांग्रेसी समर्थन के कुरुबा, दलित और मुस्लिम जैसे वोटर बेस का ओबीसी समूहों में बंट जाने को माना गया. लिंगायत वोटर बेस के उलट (जो कि 70 सीटों पर कहीं ज्यादा सघन रूप से केंद्रित था - फर्स्ट पास्ट पोस्ट सिस्टम के मामले में एक फायदेमंद पहलू) यह समर्थन आधार विभिन्न निर्वाचन क्षेत्रों में एक क्षेत्र-विशिष्ट समूह के तौर पर सघन रूप से केंद्रित नहीं था.
यह एक ऐसा समूह है जहां 1969 में एस निजलिंगप्पा के जाने के बाद पार्टी दो धड़ों में विभाजित हो गई और 1980 के दशक में वीरेंद्र पाटिल के नाटकीय निष्कासन के बाद यह दोबारा हार गई और इस पार्टी का प्रभाव कमजोर हो चला था.
पिछले तीन दशकों में इसका फायदा भाजपा को मिला. हालांकि चुनावी आंकड़े बताते हैं कि लिंगायत वोटर बेस का एक बड़ा हिस्सा अब कांग्रेस के पक्ष में जा चुका है.
जनता दल (सेक्युलर) के गढ़ पुराने मैसूर में वोक्कालिंगा समूह पर भी यही बात लागू होती है. जेडीएस का वोट शेयर 2018 में 18.3 प्रतिशत से गिरकर 2023 में 13.3 प्रतिशत हो गया, पांच प्रतिशत की ये गिरावट, यह दर्शाती है कि कांग्रेस इस समूह के एक हिस्से को अपनी ओर वापस लाने में कामयाब रही, जो कि 1960 के दशक के अंत तक इसके समर्थन का मुख्य आधार स्तंभ था. बीजेपी ने अतिरिक्त वोट शेयर हासिल करने के लिए पुराने मैसूर के वोक्कालिंगाओं पर भी अपनी नजरें जमा रखी थीं, हालांकि इससे बहुत कम लाभ मिला.
खास बात यह है कि भाजपा ने इस चुनाव में 65 सीटें जीतीं, 2018 की तुलना में 39 सीटें कम, जब इसने 104 सीटें जीतीं थी. हालांकि, वोट शेयर के मामले में इसने 2018 (36.3 प्रतिशत) के मुकाबले 2023 में 36 प्रतिशत वोट पाकर महज 0.3 प्रतिशत की गिरावट ही दर्ज की. इस चुनाव में अपनी स्पष्ट हार के बाद पार्टी वोट शेयर के इन आंकड़ों से सांत्वना ले सकती है. लेकिन लगभग समान वोट शेयर के साथ अधिक संख्या में सीटें हासिल करने में इसकी नाकामयाबी इसे रणनीतिक तौर पर हुई चूकों को समझने के लिए प्रेरित करेगी.
भाजपा के वोट शेयर और सीटों के बीच का अंतर एक ऐसी समस्या है जिसका कांग्रेस को पिछले कई विधानसभा चुनावों में सामना करना पड़ा था. इसका एक स्पष्ट कारक 70 से अधिक निर्वाचन क्षेत्रों में लिंगायत वोटों के समेकित समूह का पार्टी से छिटक जाना है. दूसरा कारक यह हो सकता है कि कई निर्वाचन क्षेत्रों में, जेडीएस के समर्थन को खत्म करने से कांग्रेस को इस बदलाव का लाभ मिला.
संख्याओं के एक अन्य सेट से पता चलता है कि कई निर्वाचन क्षेत्रों में चुनावी मुकाबला, नतीजे जो दिखा रहे थें उससे कहीं ज्यादा करीबी थी. उदाहरण के लिए औसत जीत का अंतर कुल डाले गए वोटों का 9.1 प्रतिशत था, जो कि राज्य में संपन्न हुए पिछले दो विधानसभा चुनावों की ही तरह एक करीबी मुकाबले की ओर ही इशारा करता है. मसलन 2018 में जीत का अंतर नौ प्रतिशत व 2013 में 9.8 प्रतिशत था.
राष्ट्रीय स्तर पर इसके निहितार्थों की बात करें तो, विभिन्न पार्टियां इन चुनावी नतीजों को अलग-अलग तरीकों से देखेंगी. खास तौर से इसलिए भी क्योंकि कर्नाटक को विधानसभा और संसदीय चुनावों में अलग-अलग तरीके से मतदान करने के लिए जाना जाता है.
उदाहरण के लिए भाजपा ने 2019 में, 2018 के विधानसभा चुनाव जितना वोट शेयर पाकर भी राज्य की 28 लोकसभा सीटों में से 25 पर जीत हासिल की. वहीं 2018 विधानसभा चुनाव में 38 प्रतिशत वोट शेयर के बावजूद संसदीय चुनावों में कांग्रेस यहां केवल एक ही सीट जीत सकी थी. जेडीएस ने भी 18.3 फीसदी वोट शेयर के साथ एक सीट हासिल की थी.
यह कहानी बदल सकती है, और कांग्रेस व जेडीएस दोनों ही चाहेंगे कि मतदाता इस ऐतिहासिक परंपरा के भार से मुक्त हो जाएं.
मतदाता आधार समूहों के भीतर इन छोटे बदलावों के अलावा, कांग्रेस की जीत को बहुत हद तक एक मजबूत क्षेत्रीय नेतृत्व की शुरुआत के तौर देखा जा रहा है, इसके विपरीत बीजेपी के पास अपने प्रतिद्वंद्वी से मुकाबला करने के लिए स्थानीय नेतृत्व की कमी है. जिस तरह से भाजपा की कर्नाटक राज्य इकाई ने आपसी फूट और दलबदल के मसलों से निपटने की कोशिशें की, वह भी केंद्रीय नेतृत्व की आगे की राह के लिए उठाए गए सुधारों का हिस्सा हो सकती है.
ऐसे संकेत मिलते हैं कि कर्नाटक भाजपा शुद्धि के मोड में थी- केंद्रीकृत ढांचे के लिए राज्य इकाइयों को अधिक सुव्यवस्थित बनाने के लिए यह राज्य नेतृत्व ईकाई के वरिष्ठ नेताओं को दूर कर रही थी. इसे छोड़ने वाले दिग्गज नेताओं को खुश करने के लिए पार्टी ने कुछ खास कोशिशें नहीं कीं. यह दर्शाता है कि भाजपा या तो बहुत आश्वस्त थी या फिर अपने राज्य ईकाई के नए नेतृत्व के पुनर्निर्माण के लिए विधानसभा चुनाव को भी जोखिम में डालने के लिए तैयार थी. यहां राज्य इकाई के पुनर्निर्माण के लिए प्रसिद्ध "डे नोवो" दृष्टिकोण की संभावना दिखाई पड़ती है.
यह एक दूसरी स्थिति की ओर भी ले जाता है, जहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी राज्य तक के चुनावी अभियानों का चेहरा हैं, जिन्हें पार्टी के निर्णायक वोट-कैचर के रूप में पेश किया जाता है. यह तरीका स्पष्ट रूप से व्याकुलता से भरा हुआ है, जो कि भाजपा के क्षेत्रीय संगठनों में दरार को उजागर करता है. लेकिन मोदी जी की असल राजनीतिक पूंजी आम जनता तक उनकी पहुंच और राजनैतिक संवाद पर आधारित है. जिसमें उन्हें महारत हासिल है और इन्हीं के दम पर उनके नेतृत्व के प्रदर्शनों की फेहरिस्त तैयार हो पायी है.
इसलिए, केंद्रीकृत ढांचे की इस छाप और राज्य विधानसभाओं और लोकसभा में वोट मांगते समय इस सबसे बड़ी पार्टी का क्या आशय है, इस पर संदेश देने के लिए मोदी जी का अथक प्रचार अभियान बड़े करीने से फिट बैठता है. हालांकि मोदी जी राज्य के चुनाव (जीत और हार) में सक्रिय रूप से शामिल हैं, लेकिन वे लंबे समय से अपनी राजनीतिक पूंजी को राज्य के चुनावी नतीजों से अलग रखने में कामयाब रहे हैं.
हालांकि, कांग्रेस 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए खुद को एक मजबूत विपक्षी गठबंधन की धुरी बनाने के लिए राज्य के चुनावी नतीजों के वेग का लाभ उठाने को आतुर है. 2019 के बाद, यह पहली बार है जब कांग्रेस चार राज्यों- राजस्थान, छत्तीसगढ़, हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक में सत्ता में है. चूंकि अब 2024 के लिए विपक्षी गठबंधन का निर्माण अब ठोस रूप ले रहा है तो ऐसे में यह विपक्षी पार्टियों के बीच सीट बंटवारे पर बातचीत के दौरान कांग्रेस नेतृत्व को एक मजबूत स्थिति में खड़ा कर सकता है.
हालांकि, यह इस साल के अंत में तीन राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों के नतीजों पर भी निर्भर करेगा. वर्तमान में, विपक्षी गठबंधनों के दो रूपों पर विचार किया जा रहा है और कांग्रेस की भूमिका दोनों के बीच का महत्वपूर्ण अंतर है. तृणमूल कांग्रेस और आम आदमी पार्टी जैसी राष्ट्रीय महत्वाकांक्षाओं वाली पार्टियों का झुकाव भविष्य के गठबंधन के लिए कांग्रेस की भूमिका को निर्णायक नहीं मानता. लेकिन चुनावी नतीजे एक नई रोशनी में राष्ट्रीय चुनौती का दावा पेश करने वाली पार्टी के तौर पर कांग्रेस की क्षमता पर नजर डालेंगे.
2024 में राष्ट्रीय चुनावी मुकाबले की अनिवार्य अस्पष्टता को देखते हुए, राज्य की राजनीति के बिल्कुल वर्तमान के हालातों में, जैसा कि कर्नाटक में देखा गया है, किसी भी तरह की नई राष्ट्रीय हलचल के अवसर पनपने के लिए अब सिर्फ 12 महीने ही बचे हैं.
इस बीच, किसी भी चुनाव परिणाम के आने के बाद की स्थितियों की तरह ही, विभिन्न हितधारक अपनी रणनीतियों के लिए इन नतीजों से अपने अनुसार अलग-अलग संदेश ले सकते हैं, लेकिन चुनावी युद्ध के वक्त और जगह को खासा मद्देनजर रखते हुए- और विशेष कर तब तो और भी ज्यादा जब इस दो ध्रुवीय मुकाबले में दो प्रमुख राष्ट्रीय दावेदार शामिल हों.
Also Read
-
TV Newsance 304: Anchors add spin to bland diplomacy and the Kanwar Yatra outrage
-
How Muslims struggle to buy property in Gujarat
-
A flurry of new voters? The curious case of Kamthi, where the Maha BJP chief won
-
Reporters Without Orders Ep 375: Four deaths and no answers in Kashmir and reclaiming Buddha in Bihar
-
Lights, camera, liberation: Kalighat’s sex workers debut on global stage