Opinion
सेंसरशिप की गहराती छाया
वरिष्ठ हिंदी कवि अशोक वाजपेयी को रेख्ता के समारोह में कविता-पाठ से रोका जाना इस महीने ऐसी तीसरी घटना है. जब उन्हें कहा गया कि वे राजनीतिक स्वर वाली या सरकार-विरोधी कवितायेँ न पढ़ें, उन्होंने समारोह का बहिष्कार कर दिया.
फरवरी के पहले हफ्ते में नागपुर के विदर्भ साहित्य सम्मेलन में शहर के राजनीतिक आकाओं ने कई नामों पर आपत्ति जताते हुए प्रायोजकों से कहा था कि इन्हें न बुलाया जाए. सम्मेलन के स्थानीय वालंटियर जनों पर पीछे हट जाने के लिए दबाव डाला था. जब आयोजक दृढ़ बने रहे, तब अंततः तय हुआ कि चार लेखक तो किसी सूरत में स्वीकार्य नहीं हैं—आकार पटेल, जोज़ी जोसफ, श्रुति गणपते और शिवम शंकर सिंह. लंबी बहस के बाद आयोजकों ने तय किया कि समूचे सम्मेलन को रद्द करने के बजाय बेहतर है ये चार नाम हटा दिए जाएं.
यह सब पर्दे के पीछे हो रहा था. जब हम आमंत्रित लेखक सम्मेलन में शामिल होने पहुंचे, हमें इसकी कोई जानकारी नहीं थी. लेकिन सम्मेलन के अंत तक बात फैलती गयी—आखिर चार सत्र रद्द हुए थे, हमें धीरे-धीरे पता चलना ही था. (मुझे यह भी पता चला कि जिन लेखकों पर पहले आपत्ति की गयी थी, लेकिन बाद में मंजूरी मिल गयी थी, उनमें मैं भी था.)
देश भर से आमंत्रित करीब पचास लेखक थे. सभी अंग्रेजी में लिखते थे. जिसके पास किसी भी भारतीय भाषा से कहीं अधिक सामरिक और व्यावसायिक शक्ति है, जो सीधे अंतरराष्ट्रीय मंचों से संवादरत है. उनके चार साथियों का निमंत्रण रद्द कर दिया गया था. इस भाषा के लेखकों से क्या उम्मीद करनी चाहिए थी? यह लाज़िम था कि वे सम्मेलन में ही स्टैंड लेते, सामूहिक नहीं तो व्यक्तिगत ही सही. लेकिन जहां तक मुझे मालूम है, सिर्फ़ मैंने इस मसले पर ट्वीट किया, बाकी सब चुप रहे. यह बुनियादी लेखकीय दायित्व है कि हम अपने उन साथियों के पक्ष में खड़े हों, जिनके स्वर को दबा दिया गया. लेकिन लेखकों को लगा कि हमारा सत्र हो जाये, हमारी किताब पर चर्चा हो जाये, हमारी सेल्फी पोस्ट होती रहें. बस.
दूसरी घटना हुई राजधानी दिल्ली में. अलका सरावगी के नये उपन्यास, गांधी और सरलादेवी चौधरानी: बारह अध्याय, पर अंबेडकर विश्वविद्यालय में 28 फरवरी को लेखिका के साथ चर्चा के लिये मुझे आमंत्रित किया गया था. मैं शिमला में था, दिल्ली आने की सहर्ष सहमति दे दी थी. लेकिन कार्यक्रम तय हो जाने के बाद पता चला कि विश्वविद्यालय ने मेरे नाम पर आपत्ति जताई है. अलका सरावगी आक्रोशित थीं, मायूस भी. मैंने उनसे कहा कि आप किसी अन्य को बुला लें, किसी ब्लैक-लिस्टेड इन्सान के लिये अपने कार्यक्रम को न रद्द करें. उन्होंने कहा, नहीं, यह संवाद आपके साथ ही होगा. कुछ साथियों ने कोई अन्य सभागार खोजने में मदद की और अब हिन्दू कॉलेज तय हुआ है. गौर करें, अंबेडकर विश्वविद्यालय केंद्र सरकार नहीं बल्कि आम आदमी पार्टी के अधीन है. दूसरे, विश्वविद्यालय को आपत्ति लेखिका या उनके उपन्यास से न थी. चूंकि उन्हें संचालक पसंद नहीं था, इसलिये कार्यक्रम रद्द कर दिया गया.
तीसरी घटना अब अशोक वाजपेयी के साथ हुई है.
समस्या सिर्फ़ सेंसरशिप नहीं है. लेखकों का बहुत बड़ा वर्ग इन मसलों पर एकदम चुप है. तमाम लेखक साहित्य सम्मेलन के आयोजकों और मीडिया संपादकों की सार्वजनिक चापलूसी करते दिखाई देते हैं, ताकि उन्हें सम्मेलनों और मीडिया में थोड़ी जगह मिल जाये. किसी भी मीडिया संस्थान की खबरें देख कर पता चल जाता है कि उनकी पत्रकारिता का स्तर क्या है, और वे किन विषयों और किन हस्तियों पर एकदम नहीं लिख रहे. लेकिन इसके बावजूद उन संस्थानों के आका, सोशल मीडिया पर पत्रकारिता का ध्वज लिये घूमते हैं और लेखक बन्धु उस ध्वज तले ठौर पा लेने के लिये मरे जाते हैं. इससे ऐसा खुशफ़हम माहौल भी निर्मित होता है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बरकरार है. दो-चार लोग अगर सत्ता के निशाने पर हैं भी, तो हुआ करें.
बढ़ती असहिष्णुता के खिलाफ़ साढ़े सात साल पहले चंद लेखकों ने अपने साहित्य अकादमी अवार्ड वापस करने शुरू किये थे, दो दिन में ही केंद्र सरकार घुटनों पर आ गयी थी. अवार्ड-वापसी करीब महीने भर चली थी, भारतीय भाषाओँ के पचासेक लेखकों ने अपने सम्मान लौटाये थे. आये दिन केन्द्रीय मंत्री और उनके चाटुकार पत्रकार इन लेखकों को लांछित करते थे, एक स्वतः स्फूर्त लेखकीय कर्म में तमाम काल्पनिक षड्यंत्र खोजते थे. यह थी शब्द की शक्ति, अपने कर्म पर अभिमान, जिसने शक्तिशाली सत्ता को दहला दिया था.
अक्टूबर 2015 के बाद से अगर अभिव्यक्ति पर खतरे बढ़ते गये हैं, मीडिया संस्थान कहीं डरपोक और बेईमान होते गये हैं, तो इसके लिये वे लेखक भी जिम्मेदार हैं जिन्होंने अपने व्यक्तिगत हितों के लिये अपने दायित्वों को कुचल दिया है.
Also Read
-
Adani indicted in US for $265 million bribery scheme in solar energy contracts
-
What’s Your Ism? Kalpana Sharma on feminism, Dharavi, Himmat magazine
-
Progressive legacy vs communal tension: Why Kolhapur is at a crossroads
-
BJP’s Ashish Shelar on how ‘arrogance’ and ‘lethargy’ cost the party in the Lok Sabha
-
Why the US has accused Adani of hiding its alleged bribes in India from American investors