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बाहुबली, शिक्षा माफिया, बड़बोले: बहुतेरे नाम हैं बृजभूषण शरण सिंह के
भारतीय कुश्ती संघ (डब्लूएफआई) के खिलाफ चल रहा खिलाड़ियों का प्रदर्शन तीसरे दिन खत्म हो गया. प्रदर्शन कर रहे खिलाड़ियों ने केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर के साथ हुई बैठक के बाद यह फैसला लिया.
शुक्रवार देर रात मीडिया से बात करते हुए ठाकुर ने बताया, ‘‘हम एक कमेटी बनाएंगे जो चार सप्ताह में अपनी रिपोर्ट सौंपेगी. डब्लूएफआई के अध्यक्ष बृजभूषण सिंह जांच में सहयोग करेंगे और संघ की दैनिक गतिविधियों से दूर रहेंगे. कमेटी यौन शोषण, वित्तीय गड़बड़ी समेत जो-जो आरोप लगे हैं, उसकी जांच करेगी.’’
18 जनवरी, बुधवार की शाम चार बजे प्रेस कांफ्रेंस करते हुए विनेश फौगाट ने सीधे-सीधे बृजभूषण सिंह पर महिला खिलाड़ियों का यौन शोषण का आरोप लगाया था. वहीं ओलंपियन साक्षी मलिक ने कहा, ‘‘लखनऊ में जानबूझकर कैंप लगाया जाता है क्योंकि उनका घर वहीं है. लड़कियों का शोषण करने में आसानी होती है.’’
फोगाट का इतना कहना था कि पास बैठे एक अनुभवी खेल पत्रकार ने कहा, ‘‘अब तो सिंह को इस्तीफा देना ही पड़ेगा. यह खेलों में होने वाला एक बहुत बड़ा सच है जिसे किसी ने कहने की हिम्मत नहीं की. इन्होंने अपने करियर को दांव पर लगाकर बोला है.’’
उसी दौरान फोगाट कहती हैं, ‘‘यह सब बोलने के कारण हमारी जान भी जा सकती है. अगर हम खिलाड़ियों को कुछ भी होता है तो इसके लिए अध्यक्षजी जिम्मेदार होंगे. मेरे साथ टोक्यो में जो कुछ हुआ वो सब प्रधानमंत्री जी को बताया, जिसके बाद मुझे जान से मारने की धमकी दी गई. अध्यक्ष जी के लोगों ने ही जान से मारने की धमकी दी थी.’’
शुक्रवार को अनुराग ठाकुर के साथ प्रेस कॉन्फ्रेंस में बोलते हुए बजरंग पूनिया ने एक बार फिर दोहराया कि मंत्री जी ने हमारी सुरक्षा की जिम्मेदारी ली है, क्योंकि इससे पहले भी जान से मारने की धमकी मिलती रही है.
फोगाट, पूनिया का भय अकारण नहीं
बृजभूषण सिंह 2011 से कुश्ती संघ के अध्यक्ष पद पर हैं. पत्रकारों ने प्रदर्शनकारी खिलाड़ियों से कई बार पूछा कि इतने समय बाद आरोप लगाने के पीछे क्या वजह है? जिसका जवाब हर बार एक ही था, बृजभूषण का खौफ.
खिलाडियों के इस भय के सूत्र आप कई जगहों से पकड़ सकते हैं. मसलन बृजभूषण सिंह द्वारा चुनाव आयोग को दिया गया एफिडेविट, या फिर एक मीडिया समूह को दिए गए इंटरव्यू में अपने द्वारा की गई हत्या को गर्व के साथ बताना, जेल जाने से नहीं डरने की बात करना और खुद को बाहुबली बताना है. सरकार कोई भी रही हो, लेकिन बृजभूषण शरण सिंह का ‘जलवा कायम रहा’. फिलहाल वे उत्तर प्रदेश की कैसरगंज लोकसभा सीट से सांसद हैं.
इंडिया टुडे की वेबसाइट द लल्लनटॉप से बात करते हुए सिंह ने कहा था, ‘‘मेरे जीवन में मेरे हाथ से एक हत्या हुई है. लोग कुछ भी कहें, मैंने एक हत्या की है. रवींद्र को जिस आदमी ने मारा था, मैंने हाथ छुड़ाकर तुरंत रायफल पीठ पर रखकर उसे मार दिया.’’
भूषण यहां जिस रवींद्र की बात कर रहे थे, वो समाजवादी पार्टी के एक बड़े नेता पंडित सिंह के भाई थे, और उत्तर प्रदेश के गोंडा-बहराइच ज़िलों में उनकी तूती बोलती थी. पंडित सिंह और बृजभूषण के बीच लंबी अदावत रही है. गोंडा के एक दैनिक अख़बार में बीते दो दशक से काम करने वाले एक पत्रकार जिन्होंने बृजभूषण के सियासी सफर को करीब से देखा है, बताते हैं, ‘‘दोनों का (बृजभूषण और पंडित सिंह) राजनीतिक सफर एक ही साथ शुरू हुआ. राजनीतिक क्षेत्र भी एक ही था. रविंद्र की मौत के बाद तो दुश्मनी और बढ़ गई. पंडित सिंह का मानना था कि उनके भाई की हत्या इसलिए हुई, क्योंकि वे बृजभूषण सिंह के साथ थे. आगे चलकर एक बार पंडित सिंह पर कई राउंड गोलियां चलीं, जिसका आरोप बृजभूषण सिंह पर ही लगा था. इस पर पुलिस में मामला भी दर्ज हुआ था. तब से ये रंजिश चली आ रही है.’’
2004 के लोकसभा चुनाव में बृजभूषण सिंह ने चुनाव आयोग को जो एफिडेविट दिया था उसमें इस मामले में दर्ज एफआईआर का जिक्र है. इसमें आईपीसी की धारा 307 (हत्या की कोशिश) लगी थी.
पत्रकार बताते हैं, ‘‘सिंह कॉलेज स्तर से राजनीति में आ गए थे. उनका परिवार कांग्रेसी था लेकिन शुरुआत से इनका झुकाव भाजपा की तरफ था. इनकी किस्मत तब चमकी जब आडवाणी राम मंदिर रथयात्रा के दौरान गोंडा आए. हुआ यूं कि जो रथ का चालक था, उसकी तबीयत बिगड़ गई थी. तब ये उस रथनुमा गाड़ी को चलाने लगे. इससे वे उनके करीब आये. आगे चलकर उन्हें पार्टी का टिकट मिल गया और राजनीतिक यात्रा शुरू हो गई जो लगातार जारी है.’’
हालांकि एक अन्य पत्रकार इस तरह की किसी घटना से अनजान नजर आते हैं. उनके मुताबिक यह कहानी गढ़ी भी जा सकती है. वे कहते हैं, ‘‘राम जन्मभूमि आंदोलन के दौरान ही सिंह भाजपा के करीब आए. बाबरी मस्जिद गिराने में इनकी भूमिका थी, जिसके बाद इन पर मामला भी दर्ज हुआ था.’’
बता दें कि सिंह बाबरी मस्जिद विध्वंस में लालकृष्ण आडवाणी और दूसरे भाजपा के नेताओं के साथ आरोपी थे. 2020 में कोर्ट ने उन्हें बरी कर दिया.
जैसे-जैसे सिंह की राजनीति बढ़ी वैसे-वैसे उनकी संपत्ति, उनके ऊपर दर्ज मुकदमों की संख्या भी बढ़ने लगी. उनके विरुद्ध छोटे-बड़े चार दर्जन के करीब मुकदमे दर्ज हुए, जिसमें कुछ बेहद गंभीर धाराओं के मुकदमे भी हैं.
अयोध्या में रहने वाले और यहां बीते तीन दशक से ज्यादा से पत्रकारिता करने वाले एक पत्रकार बताते हैं, “किसी भी व्यक्ति के खिलाफ अगर इतने मुकदमे दर्ज होंगे, तो उसे लोग दबंग ही कहेंगे. बृजभूषण सिंह बाहुबली कहलाने में गर्व भी महसूस करते रहे हैं. हाल ही में, रांची में मंच पर जिस तरह से उन्होंने एक पहलवान को थप्पड़ मारा वह कोई शालीन, मर्यादित आचरण वाला नेता तो नहीं कर सकता.’’
सियासत में कद बढ़ने के साथ बृजभूषण शरण सिंह ने अपना एक मजबूत अर्थतंत्र भी विकसित किया है. यह अर्थतंत्र है शिक्षा माफिया का. जानकार बताते हैं कि गोंडा, बस्ती, बहराइच और अयोध्या ज़िलों में आज सिंह के कई सारे इंटर और डिग्री कॉलेज हैं. कुछ लोग इनकी संख्या 50 से ज्यादा बताते हैं. ज्यादातर स्कूलों में ठेके पर लड़के पास कराए जाते हैं. यानी जो लड़का कहीं और से पास नहीं हो पाता वो एकमुश्त रकम देकर इन कॉलजों से पास हो जाता है. शिक्षा माफिया या नकल माफिया का यह मॉडल धीरे-धीरे पूरे उत्तर प्रदेश में फैल रहा है.
इसी तरह बृजभूषण के अर्थतंत्र का एक और अहम हिस्सा है रियल एस्टेट यानी ज़मीनें. जमीनों पर कब्जाने का आरोप भी सिंह पर लगता रहा है. गोंडा के पत्रकार बताते हैं, ‘‘पहली बार जब ये चुनाव जीते, उसके बाद इन्होंने नंदनी नगर कॉलेज बनाया और उसके बाद से यह सिलसिला चल पड़ा.’’
ये वरिष्ठ पत्रकार आगे बताते हैं, ‘‘क्षेत्र में न चाहते हुए भी लोगों को अपनी जमीनें बेचनी पड़ीं. नंदनी नगर महाविद्यालय जब से बना है, उसके बाद से एक से डेढ़ किलोमीटर में उसका विस्तार हो गया है. कहते हैं कि इस कॉलेज की कभी बाउंड्री नहीं बनी. वो इसलिए, क्योंकि उसके बाद मान लिया जाता कि वहां इसका विस्तार रुक गया है. 30 साल पहले जो विस्तार शुरू हुआ था वो लगातार जारी है.’’
विवादों और अपराधों से सिंह की करीबी का एक महत्वपूर्ण मोड़ साल 1996 में आया. उस साल सिंह पर अंडरवर्ल्ड डॉन दाऊद इब्राहिम के सहयोगियों को शरण देने का आरोप लगा. इस आरोप में उनके ऊपर टेररिस्ट एंड डिसरप्टिव एक्टिविटीज (टाडा) के तहत केस दर्ज हुआ और उन्हें जेल में डाल दिया गया. सिंह जब जेल में थे, तब अटल बिहारी वाजपेयी ने उन्हें पत्र लिखकर उनकी हिम्मत बढ़ाई थी. पत्र में लिखा था, ‘‘अच्छे दिन नहीं रहे तो बुरे दिन तो निश्चय ही नहीं रहेंगे. आजन्म कैद की सजा काटने वाले सावरकरजी का स्मरण करें.’’
गोंडा के वरिष्ठ पत्रकार बताते हैं, ‘‘इस मामले में आगे चलकर सीबीआई ने सिंह को बरी कर दिया. सिंह पर जो भी आरोप लगे, उनमें से ज्यादातर में उन्हें सबूतों के अभाव में जमानत मिल गई, लेकिन ऐसा नहीं कह सकते कि वे दूध के धुले हैं. उन्होंने यहां बहुत कुछ गैरक़ानूनी काम किया, लेकिन राजनीतिक संरक्षण के कारण बचते रहे. सोचिए जिस पर दाऊद इब्राहिम को सहयोग करने का आरोप हो, उसे अटल बिहारी वाजपेयी पत्र लिख रहे थे. इससे बड़ा राजनीतिक संरक्षण क्या होगा?’’
मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक साल 1996 तक बृजभूषण सिंह की राजनीतिक पकड़ इतनी मजबूत हो चुकी थी कि उनके टाडा के तहत जेल में बंद होने पर उनकी अनुपस्थिति में भाजपा ने उनकी पत्नी केतकी सिंह को लोकसभा चुनाव में उतारा. वो लगभग 70 हजार वोटों से विजयी रहीं.
आगे चल कर बृजभूषण सिंह ने अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धता भी बदली. साल 2009 में वो भाजपा से अलग हो गए और सपा का दामन थाम लिया. सपा के टिकट पर चुनाव लड़े और जीत मिली, हालांकि आगे चलकर उनकी घर वापसी हो गई.
सिंह की सियासत में अक्सर एक विरोधाभास भी दिखता है. मसलन कभी कभार वो अपनी ही पार्टी की सरकार के खिलाफ बोलते दिखते हैं, कभी अपनी विचारधारा वाले राज ठाकरे का विरोध करते हैं तो कभी बाबा रामदेव की कंपनी पतंजलि के उत्पादों की गुणवत्ता पर सवाल उठाते हैं. बीते दिनों इनका एक वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हुआ, जिसमें वे यूपी सरकार और उसके अधिकारियों की बाढ़ की तैयारियों पर सवाल खड़े करते नजर आये. इतना ही नहीं, उन्होंने कई बार पार्टी के उम्मीदवार के खिलाफ अपना उम्मीदवार उतारा, और उसको जिता ले गए.
साल 2009 में भाजपा सांसद होते हुए भी उन्होंने परमाणु संधि के समय यूपीए सरकार के पक्ष में वोट किया था. भाजपा के करीबी व्यवसायी रामदेव के उत्पादों के खिलाफ भी वे मंच से बोलते नजर आए, लेकिन पार्टी ने कभी कोई कार्रवाई नहीं की. इसकी वजह पूछने पर वरिष्ठ पत्रकार कहते हैं, ‘‘साल 2017 की बात है. योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री बने हुए कुछ ही महीने हुए थे. प्रदेश में लोकल बॉडी का चुनाव हो रहा था. आदित्यनाथ ने इस चुनाव के प्रचार की शुरुआत अयोध्या से की, उसी दिन वे गोंडा भी गए थे. स्टेज पर मुख्यमंत्री के बगल में इनकी कुर्सी लगी थी. नाराजगी के कारण वे उनके पास नहीं करीब छह कुर्सी दूर बैठे. आदित्यनाथ ने उन्हें कई बार पास में बुलाया, लेकिन नहीं आए. उस चुनाव में इन्होंने पार्टी के उम्मीदवार के खिलाफ अपना उम्मीदवार उतारा और उसे जिताया भी.’’
सिंह का एक बेटा प्रतीक भूषण सिंह अभी विधायक है, तो दूसरा बेटा करण भूषण सिंह कुश्ती संघ में उपाध्यक्ष है. पत्रकार आगे बताते हैं, ‘‘हमारे यहां सरयू और घाघरा दो नदियां है. उससे बालू खनन होता है. यहां भी वो अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए काम कराते रहे. इनका खनन का बहुत बड़ा कारोबार रहा है.’’
पत्रकार आगे कहते हैं, ‘‘इनके अंदर बड़बोलापन है. कभी-कभी ये खुद को पार्टी से ऊपर मान लेते हैं. इसका कारण है छह बार लगातार सांसदी जीतना. इनको लगता है कि पार्टी टिकट दे या न दे, हम सांसद तो बनेंगे.’’
सिंह का स्कूल के अलावा, शराब के ठेकों, माइनिंग, कोयले के कारोबार और रियल एस्टेट में भी दखल है. पत्रकार बताते हैं, ‘‘बहुत शुरुआत में कोयले का ठेका ये लेते रहे. इन्होंने नेपाल तक में कोयले के ट्रांसपोर्टेशन का काम देखा. इसी तरह शराब के ठेके भी लिए.”
कुश्ती से कैसे जुड़े
बृजभूषण सिंह बीते 11 सालों से कुश्ती संघ के प्रमुख हैं. संघ के प्रमुख के रूप में उनका यह तीसरा और आखिरी कार्यकाल है. उन्होंने पहला चुनाव कांग्रेस नेता दीपेंद्र सिंह हुड्डा को हराकर जीता था. उस चुनाव के समय दिल्ली में काफी मारपीट हुई थी. उस समय वहां मौजूद रहे हरियाणा के एक कोच बताते हैं, ‘‘कांग्रेस की सरकार थी. दीपेंद्र हुड्डा संघ के चेयरमैन थे. उस दौर में कांग्रेस उम्मीदवार को सिर्फ इसलिए हरा पाए क्योंकि वो बाहुबली थे. चुनाव के दौरान काफी मारपीट हुई थी. हालांकि ऐसे चुनाव में मारपीट होना आम बात है.’’
क्या सिंह का कुश्ती से कोई ख़ास लगाव रहा है? इसको लेकर स्थानीय पत्रकार बताते हैं, ‘‘पहले के समय में हरेक गांव में कुश्ती का प्रचलन था. ये भी जुड़े थे. युवा अवस्था से ये खुद भी कुश्ती लड़ा करते थे. आगे चलकर जब इनका राजनीतिक रसूख बढ़ा तब ये फेडरेशन से जुड़े और चुनाव जीते.’’
बृजभूषण सिंह पर खिलाड़ी पहली बार खुलकर बोल रहे हैं, लेकिन सिंह की ज़िद और गुस्से से वे पहले से ही पीड़ित रहे हैं. 2016 में रियो ओलिंपिक के दौरान वहां मौजूद रहे एक पत्रकार न्यूज़लॉन्ड्री को बताते हैं, ‘‘साक्षी मलिक ने कांस्य पदक जीता था. एक बड़ी जीत थी. वह उसका दिन था. वे नीचे आईं तो हम पत्रकार उनसे बात करने लगे. तभी बृजभूषण और उनके लोग आए और उसे बुरी तरह से डांट दिया. उनका कहना था कि मीडिया से हम बात करेंगे, क्रेडिट लेने के लिए बेचैन थे. वे ऐसे बोल रहे थे जैसे मेडल वो खुद जीते हों.’’
ऐसी ही एक घटना का जिक्र टोक्यो ओलंपिक्स के समय का भी है. विनेश फौगाट के साथ विवाद हुआ. उसके बाद जब खिलाड़ी भारत लौटे तो प्रधानमंत्री ने सबको अपने यहां बुलाया. सिंह, फौगाट से नाराज चल रहे थे. मीडिया में चल रही खबरों के कारण फौगाट एक मेंटल हेल्थ समस्या से गुजर रही थीं, ऐसे में उनके साथी खिलाड़ी चाहते थे कि अध्यक्ष उनसे बात करें. कई खिलाड़ियों ने सिंह को बोला भी कि वो बात कर लें, लेकिन सिंह ने उनसे बात नहीं की.
कई ओलंपिक कवर कर चुके एक पत्रकार बताते हैं कि कुश्ती जैसे खेलों में यौन शोषण जैसे मामले अक्सर सुनने में आते हैं. दूसरे खेल, जैसे बैडमिंटन हो या टेनिस, वहां के बच्चे जागरूक होते हैं. यहां जो बच्चे आते हैं वो किसान और गरीब परिवार से होते हैं, इनमें जागरूकता कम होती है.
पत्रकार लखनऊ में हुई एक घटना का जिक्र करते हुए बताते हैं, ‘‘पांच साल पहले लखनऊ में एक कैंप लगा था. एक जूनियर लड़की, जिसका नाम आज तक पता नहीं चल पाया, उसने एक शिकायत दी थी. वहां के एक हिंदी अख़बार में छोटी सी खबर आई थी कि यौन उत्पीड़न का मामला दर्ज हुआ है. इन्होंने उस मामले को दबाव डालकर वापस करवाया. अगर यह घटना दिल्ली में हुई होती तो हमें डिटेल्स निकालने में आसानी होती. हमने कोशिश की लेकिन हमें शिकायतकर्ता का कुछ पता ही नहीं चला. इसलिए भी लखनऊ जैसी जगहों पर कैंप लगते है. ये लड़कियां जो बोल रही हैं, इसमें सच्चाई है, क्योंकि वहां ये कुछ बोल ही नहीं पाते. मीडिया होता नहीं है, पुलिस इनके साथ में होती है.’’
वरिष्ठ खेल पत्रकार चंद्रशेखर लूथरा, सिंह के मनमानेपन की एक कहानी सुनाते हैं. साल था 2016. रियो ओलंपिक के दौरान सुशील कुमार और नरसिंह यादव के बीच विवाद हुआ. सुशील तो क्वालीफाई नहीं कर पाए, उधर नरसिंह डोपिंग में फंस गए थे. इनकी जिद थी कि नरसिंह ही खेलेगा. सिंह लगातार इसकी कोशिश कर रहे थे. 4 अगस्त 2016 को रियो जाते हुए मैंने एक स्टोरी लिखी कि किस प्रकार भारत 74 किलोग्राम कैटेगरी में नहीं खेल पाएगा. वहां पहुंचा तो उनके लोगों ने मुझे घेर लिया और कहा कि आपने क्या लिखा है. देखना, भारत के लिए खेलेगा. ये लोग नरसिंह के लिए लड़ते रहे, हालांकि दोबारा जांच में भी नरसिंह की डोपिंग सामने आई. इस कैटेगरी में प्रवीण राणा का भी नाम था, लेकिन सिंह की ज़िद के कारण उस साल 74 किलोग्राम कैटेगरी में कोई नहीं खेल पाया.
एक अन्य खेल पत्रकार सरकार द्वारा बनाई गई कमेटी को बस मुद्दे को टालने वाला बताते हैं. वे कहते हैं, ‘‘इतने बड़े आरोप और राजनीतिक दबाव के बाद भी उन्हें हटाने के बजाय कमेटी बनाना बताता है कि सिंह कितने शक्तिशाली हैं. बहुत ही कम सम्भावना है कि वे इस्तीफा देंगे. आज तक बनी ज्यादातर कमेटियां बेनतीजा ही रही हैं. इसे भी देखते हैं.’’
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