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छत्तीसगढ़ के ईसाई आदिवासियों के खिलाफ होने वाली हिंसा का पैटर्न

बीते साल छत्तीसगढ़ के ईसाई आदिवासियों पर हिंसा का कहर बरपा है.

सेंटर फॉर स्टडीज़ ऑफ सोसायटी एंड सेक्युलरिज़्म की अगुवाई वाली फैक्ट फाइंडिंग कमेटी के अनुसार 2 जनवरी को 'धर्मांतरण' कार्यक्रम आयोजित करने की आशंका के चलते नारायणपुर में एक चर्च में तोड़-फोड़ की गई. 9 से 18 दिसंबर के बीच करीब 1000 आदिवासी ईसाईयों को निशाना बनाया गया और उन्हें उनके घरों से विस्थापित कर दिया गया.

26 वर्षीय रामलाल सोरी एक ईसाई आदिवासी हैं जिनके परिवार पर 3 जनवरी को हमला किया गया. उन्होंने बताया, "मेरे पिता को पीटा गया. मेरी मां, बहन और दूसरे लोग जमीन पर पड़े हुए थे. मेरे पिता एक हफ़्ते अस्पताल में रहें. हमने एक एफआईआर भी दर्ज कराई है. एक महीने से ज्यादा हो गए लेकिन इस मामले में अब तक कोई कार्रवाई नहीं हुई है."

कोंडागांव के करीब दर्जन भर आदिवासी जिन्हें स्थानीय लोग विश्वासी कहते हैं, ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया कि 'ईसा मसीह में विश्वास' करने के कारण ही उन पर हमले हो रहे हैं और उनका उत्पीड़न हो रहा है. इन लोगों का आरोप है कि उन्हें जबरन उनके घरों से बाहर निकाल दिया गया, तब से वो अस्थायी घरों में रहने को मजबूर है.

हालांकि इन लोगों को इस तरह से निशाना बनाया जाना कोई असाधारण या नई बात नहीं है. इनमें से कुछ लोगों का आरोप है कि इससे पहले उनके प्रियजनों की कब्रों को अपमानित करने और उसमें से शवों को बाहर निकाल कर फेंकने की घटनाओं को इसलिए अंजाम दिया जा चुका है क्योंकि उनका अंतिम संस्कार ईसाई रीति-रिवाज़ों के अनुसार किया गया था.

रामलाल का परिवार कोंडागांव के रेंगागोण्डी गांव में रहता है और वे कोंडागांव के ही बंदपारा इलाके में मजदूरी का काम करते हैं. वे बताते हैं कि 3 दिसंबर को सुबह करीब 8 बजे 200 लोगों का एक समूह पास के कोकाटी गांव से उनके रेंगागोण्डी गांव स्थित घर में आया. रामलाल के माता-पिता और उनकी बहन घर में ही थी.

रामलाल ने फोन पर न्यूज़लॉन्ड्री को बताया, "वे उन सबको जबरन घर के बाहर एक खुले मैदान में ले आए. उन्होंने मेरे माता-पिता से ईसाईयत जैसे विदेशी धर्म का अनुसरण न करने को कहा. मेरे परिवार ने कहा कि उन्होंने धर्मांतरण नहीं किया है, वो अब भी आदिवासी ही हैं, बस अब वो ईसा मसीह में विश्वास करने लगे हैं. लेकिन उन्हें बुरी तरह पीटा गया."

उस दिन करीब 8:30 बजे सुबह बनाई गई एक वीडियो फुटेज में बहुत से लोग एक खुले मैदान में गोलाई में बैठे या खड़े दिखाई पड़ रहे हैं, और उनके पीछे हरा-भरा जंगल है. एक आदमी और तीन औरतें- रामलाल के पिता, मां, बहन और एक दूसरी औरत मसीह पोटा कुमारी - इस गोलाई के बीच में हैं. कुछ पांच या छः लोग आते हैं और इन्हें बांस की लाठियों से पीटना शुरू कर देते हैं. एक दूसरा आदमी आता है और इनमें से एक औरत के सीने पर लात मारता है और वो औरत गिर जाती है.

लोग चिल्लाते हैं, "रामलाल को बुलाओ. वो कहां छिपा बैठा है? ये लोग हमारे गांव में नहीं रह सकते. पुलिस और प्रशासन हमारा है. कौन है हमारी शिकायत करने वाला? तुम लोग हमारे रीति-रिवाजों को खत्म कर रहे हो. तुम ही लोगों के कारण हमारे आदिवासी देवता गांव छोड़ कर जा रहे हैं."

इसके बाद नारे लगने लगे, "भगाना होगा, ईसाईयों को भगाना होगा."

इस सब के बारे में रामलाल को टेलीफोन पर उनकी मां से ये खबर मिली. इसके बाद रामलाल अपने घर की और दौड़ पड़े. वहां उन्हें उनके गांव की सीमा पर उनके परिवार के लोग और, रेंगागोण्डी और कोकाटी गांवों के 15 दूसरे विश्वासी भी मिले. इन सभी 18 लोगों को कभी गांव लौटकर न आने को कहा गया था.

रामलाल ने हमें बताया, "मैंने एक एंबुलेंस की व्यवस्था की और अपने पिता को अस्पताल में भर्ती करवाया. वो एक सप्ताह तक अस्पताल में रहे." उन्होंने आगे यह भी जोड़ा कि उनके पिता की पीठ पर पिटाई की वजह से कई चोटें आई हैं. "इसके बाद हम एफआईआर कराने के लिए बायनार पुलिस स्टेशन गए. लेकिन वहां कुछ भी नहीं हुआ."

अब पूरा परिवार रामलाल के घर में ही रह रहा है.

रामलाल और उसका परिवार

न्यूज़लॉन्ड्री ने एफआईआर की कॉपी देखी. इसमें नौ लोग आरोपित हैं- कचरु, बाल सिंह, जयलाल, धानुराम, गणेश, जंगाराम, जमधर और शुभलाल - इन सभी पर भारतीय दंड संहिता की धारा 147 (दंगा करने), 323 (जानबूझकर चोट पहुंचाने), और 506 (डरे-धमकाने) के मामले दर्ज किए गए हैं. पुलिस ने न्यूज़लॉन्ड्री के फ़ोन कॉल्स का जवाब नहीं दिया.

रामलाल अब असहाय महसूस करते हैं. वो कहते हैं कि उनकी पत्नी की एक पुरानी बीमारी ठीक हो जाने के बाद उन्होंने ईसाईयत में "विश्वास" करना शुरू कर दिया (उनका जोर किसी भी तरह से "धर्मांतरित" शब्द का इस्तेमाल न करने पर था).

उन्होंने कहा, "उसे 32 दिनों से उल्टियां हो रही थीं, उसकी आंखे कमजोर हो गई थीं." हम रायपुर, जगदलपुर, और कोंडागांव इन सभी जगहों के डॉक्टरों के पास गए पर कोई फायदा नहीं हुआ. इसके बाद हम  "गुनिया" - एक आदिवासी पादरी के पास गए जिसने कुछ दवायें दीं और झाड़-फूंक किया, लेकिन उसकी सेहत में कोई सुधार नहीं हुआ. तब एक परिचित ने कहा कि मुझे चर्च जाना चाहिए क्योंकि वहां जाने पर लोग ठीक हो जाते हैं."

रामलाल ने इस सलाह पर फौरन अमल करना शुरू कर दिया और चेमड़ी के ईसाई प्रार्थना घर जाना शुरू कर दिया. "पादरी ने मेरी पत्नी के लिए प्रार्थनाएं करवाईं और छह घंटों के भीतर वो पूरी तरह ठीक हो गई. इसके बाद से हम ईसा मसीह को मानने लगे. मेरा परिवार और मैं हर रविवार को चर्च जाने लगे. लेकिन मैं एक धर्मांतरित नहीं हूं. मैं महज ईसा मसीह में विश्वास करता हूं और आज भी आदिवासी रीति-रिवाजों का ही पालन करता हूं."

काकोटी के 55 वर्षीय सुंदर कुर्रम बताते हैं कि बीते 3 दिसंबर को उन्हें भी रामलाल के परिवार की तरह ही पीटकर गांव से निकाल दिया गया.

सुंदर ने न्यूज़लॉन्ड्री को फोन पर बताया कि "उस सुबह गांव वाले मेरे घर आये और जबरन मेरी पत्नी, चारों बेटों के साथ मुझे भी अपने साथ रेंगागोण्डी ले गए. उन्होंने हमें डंडों से पीटा. और हमसे कहा कि हम ईसाई धर्म का पालन करना बंद करें."

रामलाल की ही तरह कुर्रम ने भी कहा कि उन्होंने गांव वालों को बताया कि वे 'धर्मांतरित' नहीं हुए हैं और वे बस 'ईसा मसीह' में विश्वास करते हैं."

सुंदर ने आगे कहा, "लेकिन वे हमें पीटते रहें." "उन्होंने मेरी पत्नी और मेरे 16 साल के बेटे को बांस  की लाठियों से पीटा. मेरे छोटे बेटों को बख़्श दिया गया. इसके बाद उन्होंने हमें गांव से निकाल दिया और कहा कि अगर हम वापस लौटकर आए तो हमें जान से मार देंगे."

अपने तीन बच्चों को खोने के बाद 2015 में कुर्रम ईसाईयत की तरफ मुड़ गए. उनके सभी बच्चों की उम्र 3-4 साल के बीच थी जो अलग-अलग बीमारियों की वजह से मर गए. उन्होंने हमसे कहा, "मैं अपने दूसरे बेटों के जान की सलामती के लिए परेशान था कि एक ईसाई पास्टर ने मुझे चर्च आने की सलाह दी. "मैं गया, और चर्च की प्रार्थनाओं की वजह से मेरे चार बच्चे बच गए. तब से, मैं ईसा मसीह को मानने लगा."

वर्तमान में कुर्रम का परिवार कोंडागांव में रामलाल के घर में रामलाल के और दूसरे कुछ ऐसे परिवारों के साथ ही रह रहा है जिनको रेंगागोण्डी और कोटाकी से निकाल दिया गया है.

रामलाल ने बताया, "हम 20 लोग दो कमरों में रहते हैं. हमारे कपड़े, दस्तावेज़, पैसे, बर्तन - सब कुछ गांव में ही है. हम वापस नहीं जा सकते क्योंकि वे हमें जान से मारने की धमकियां दे रहे हैं. पुलिस व प्रशासन कोई कदम नहीं उठा रहा है और ना ही हमें वापस घर लौटने के लिए कोई सुरक्षा प्रदान कर रहा है. हम नहीं जानते कि ये सब कब तक चलेगा.”

हमलों का एक सिलसिला

1 जनवरी को छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन ने राज्य के विश्वासियों के विस्थापन पर एक फैक्ट फाइंडिंग रिपोर्ट प्रकाशित की. रिपोर्ट में यह कहा गया है कि दिसंबर की हिंसा के बाद करीब 450 आदिवासी ईसाइयों को नारायणपुर और कोंडापुर के उनके अपने 16 गांवों से 'निकाल दिया' गया.

रिपोर्ट में कहा गया, "आरएसएस और बीजेपी के समर्थन वाली जनजाति सुरक्षा मंच के गठन के बाद से "आक्रोश भड़कने" लगा. मंच द्वारा छत्तीसगढ़ में "धर्मांतरित आदिवासियों के आरक्षण को खत्म की जाने की मांग की जा रही है." 

रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि पिछले साल अप्रैल में हुई एक रैली में "धर्मांतरित लोगों के खिलाफ हिंसा के लिए खुले तौर पर आह्वान किया गया," और इसके लिए "रोको, टोको, ठोको," के नारे का इस्तेमाल किया गया.

बावजूद इस सबके इस हिंसा और उत्पीड़न का शिकार हुए जिन लोगों के साक्षात्कार लिए गए उनका कहना है कि हिंसा की इन घटनाओं को उनके गांव वालों ने ही अंजाम दिया है. हालांकि "हिंसा की ये घटनाएं बीजेपी व आरएसएस के आदेशों पर ही भड़कीं."

इस रिपोर्ट के अनुसार इस तरह की सभाएं कुछ गांवों में विश्वासियों को खबर किए बगैर रविवार को आयोजित की जाती हैं, इन विश्वासियों को इस बारे में तब ही कुछ पता चल पाता है जब 10-15 गांव वाले उनके घर आ धमकते हैं और उन्हें गांव वालों के सामने पेश होने को कहते हैं. इसके बाद विश्वासियों के आगे ईसाईयत को "छोड़ देने" या फिर गांव निकाला झेलने का विकल्प रख दिया जाता है. इन सभाओं में कई विश्वासियों को "पीटा" भी गया.

न्यूज़लॉन्ड्री ने ऐसी चिठ्ठियों को भी खंगाला जो आदिवासी संगठनों ने जिला प्रशासन को लिखी थीं. इन चिठ्ठियों में लिखा था कि ये लोग आदिवासी ईसाईयों को मरने के बाद उनके गांव में दफ़्न नहीं होने देंगे और न ही ईसाई पास्टरों को ग्राम सभा की इजाज़त के बिना गांवों में घुसने देंगे. साथ ही ईसाई प्रार्थनाओं और चर्चों के लिए भी इजाज़त लेनी होगी.

इन चिट्ठियों में से एक गोंडवाना समाज समन्वय समिति कोंडागांव की है. ऐसी ही एक दूसरी चिट्ठी में बहुत से लोगों ने जिला पंचायत अनंतगढ़ तहसील के बैनर तले हस्ताक्षर किएं हैं. इन हस्ताक्षर करने वालों में ग्राम पंचायत अर्रा, तुमासनार, अमाबेडा, कोलियारी और फूपगांव के सरपंच भी शामिल हैं.

जनजाति संगठनों के पत्र जिसमें वो कह रहे हैं कि वो अपने गांवों में ईसाई रिवाज़ों से शव को दफनाने नहीं देंगे.

इसी तरह पिछले तीन सालों में विश्वासियों ने पीपल्स यूनियन फोर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) के साथ मिलकर ऐसे कई बयान दर्ज करवाए हैं जिनमें उनका कहना है कि उनको पीटा गया, गांवों से निकाल दिया गया और उन्हें ईसाई रिवाज़ों से बस्तर, बीजापुर, कोंडागांव, दंतेवाड़ा, काकेर और नारायणपुर जैसे इलाकों में शवों को दफनाने की इजाज़त नहीं मिलती.

छत्तीसगढ़ में पीयूसीएल के अध्यक्ष डिग्री प्रसाद चौहान ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया कि 1 दिसंबर से 17 दिसंबर के बीच आदिवासी ईसाईयों पर 40 हमले हो चुके हैं और अकेले 18 दिसंबर को इन पर 20 हमले हुए.

चौहान के अनुसार, "आदिवासियों पर होने वाले हमले, उन्हें गांव से निकालना और उनके प्रियजनों के शवों को दफनाने से रोकना आदि धार्मिक और सांस्कृतिक उन्माद का नतीजा है." "ऐसा दिखलाई पड़ता है कि हिंदू कट्टरता जल, जंगल और ज़मीन के संरक्षण के लड़ाई के लिए कभी खत्म न होने वाले जोश में सेंध लगा चुकी है. ये ताकतें आदिवासियों के बीच धर्म के आधार पर दुश्मनी कराने के लिए पेसा कानून का सहारा ले रही हैं. और ईसाईयत में विश्वास करने वाले आदिवासियों पर हमले करने के लिए ग्राम सभा की शक्तियों का इस्तेमाल कर रही हैं."

सेंटर फोर स्टडी ऑफ सोसाइटी एंड सेक्युलरिज़्म की फैक्ट फाइंडिंग कमेटी की अगुवाई करने वाले इरफ़ान इंजीनियर ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया, "आदिवासी ईसाईयों को हिंदू बनाने के लिए हिंसा का इस्तेमाल करते हुए जबरन धर्मांतरण अभियान चलाए जा रहे हैं."

इंजीनियर ने कहा, "आदिवासी ईसाइयों को निशाना बनाने वाले शुरुआती खतरों और उन्हें डराए-धमकाए जाने से संबंधित शुरुआती चेतावनियों को जिला प्रशासन ने अनदेखा किया." 

"पीड़ितों द्वारा बार- बार मदद की गुहार लगाए जाने के बावजूद प्रशासन का रवैया सुस्त ही रहा."

न्यूज़लॉन्ड्री ने मुख्यमंत्री भूपेश बघेल और राज्य के गृहमंत्री तमराध्वज साहू को इस संबंध में प्रश्नावली भेजी है. अगर उनकी ओर से कोई प्रतिक्रिया आती है तो इस रिपोर्ट को अपडेट कर दिया जाएगा.

अंतागढ़ से बीजेपी के पूर्व विधायक और जनजाति सुरक्षा मंच के स्टेट कोऑर्डिनेटर भोजराज नाग ने इस बात पर जोर दिया कि उनके संगठन ने किसी को नहीं भड़काया. "उन्होंने यह भी कहा, "मेरा मानना है कि इस हिंसा के पीछे चर्च का हाथ है. सरकार को इस मामले में विस्तृत जांच का आदेश देना चाहिए और दोषियों को कड़ी सजा देनी चाहिए."

कुरुटोला में एक मां का शव कब्र से बाहर निकाला गया

जहां एक ओर दिसंबर की हिंसा की घटनाएं समाचार हैडलाइंस बनीं वहीं छत्तीसगढ़ के आदिवासी ईसाईयों का कहना है कि उनको पहले भी निशाना बनाया जा चुका है.

कांकेर जिले के अंतागढ़ तहसील के कुरुटोला गांव की चैतीबाई नरेटा के परिवार का आरोप है कि चैतीबाई के शव को दफनाए जाने के कई दिनों बाद उनके शव को कब्र से खोदकर बाहर निकाल दिया गया. 1 नवंबर को चैतीबाई की पीलिया से मौत हो गई थी. जहां एक ओर मामला हाईकोर्ट में है वहीं दूसरी ओर मृत चैताबाई का परिवार छिपकर रह रहा है और अपनी सुरक्षा को लेकर चिंतित है.

4 नवंबर को चैतीबाई के बेटे मुकेश नरेटा ने कांकेर पुलिस के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक शलभ सिन्हा और जिला कलेक्टर प्रियंका शुक्ला के पास अपनी शिकायत दर्ज कराई है. 

मुकेश ने लिखा है कि 1 नवंबर को उनकी मां की मृत्यु के बाद गांव के पदाधिकारियों ने उन्हें उनकी मां के अंतिम संस्कार के लिए कोई जगह उपलब्ध नहीं कराई और उन्हें चैतीबाई के पट्टे की जमीन को इस्तेमाल करने को कहा. उन्हें ईसाई रिवाज़ों के अनुसार दफना दिया गया.

मुकेश का आरोप है कि उन्हें और उनके तीन भाई-बहनों को गांव वालों द्वारा "प्रताड़ित" किया गया और उन्हें उनकी मां को वापस "खोद कर बाहर निकाल" देने का दबाव बनाया गया.

मुकेश ने लिखा, "उन्होंने मुझे धमकी दी कि अगर मैंने ऐसा नहीं किया तो वो मुझे जान से मार देंगे." "...कस्बे के पुलिस निरीक्षक हरिशंकर ध्रु ने मुझे धमकी दी कि अगर मैंने शव को खोदकर बाहर नहीं निकाला तो वे मुझे नक्सली दिखाकर एनकाउंटर में मार डालेंगे."

3 नवंबर की रात को कथित तौर पर चैतीबाई के शव को एक समूह द्वारा खोद कर बाहर निकाल लिया गया. मुकेश ने दावा किया कि इस दौरान अंतागढ़ से बीजेपी के पूर्व विधायक भोजराज नाग और गोंडवाना समन्वय समिति के अध्यक्ष संतलाल डुग्गा के साथ ही अर्रा गांव के सरपंच व समिति के सदस्य रमेश मांडवी भी वहां मौजूद थे.

"पुलिस ने इस मामले में दखल दिया और गांव वालों को शव को कब्र में ही छोड़ देने को कहा." मुकेश ने आगे लिखा, "एक दिन बाद पुलिस ने शव को खोदकर बाहर निकाला और उसे अपने साथ लेकर चली गई." तब से ही मुकेश और उनका परिवार "छिपकर" रह रहा है.

मुकेश के इस घटना से संबंधित बयानों का समर्थन अमाबेडा के पत्रकार बीरेंद्र पटेल ने भी किया है जिन्होंने पूरी घटना को मध्यप्रदेश/ छत्तीसगढ़ के लिए रिपोर्ट किया था.

पटेल ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया, "मुकेश के शव को दफ़नाने के बाद गांव वालों ने एक वबाल खड़ा कर दिया. उन्होंने 3 नवंबर को कुरुटोला में एक सभा बुलाई जिसमें बीजेपी के पूर्व विधायक भोजराज नाग और संतलाल डुग्गा भी शामिल हुए. नाग ने गांव में शव को खोदकर बाहर निकाले जाने की मांग को लेकर एक रैली निकाली. इस रैली के द्वारा अमाबेडा पुलिस स्टेशन और तहसील का भी घेराव किया गया."

पटेल ने बताया कि उसी दिन शाम 4-5 के बीच पुलिस ने मुकेश को "उठा लिया." "मैंने अपने सूत्रों और परिचितों की 8-10 फोन कॉल्स रिसीव कीं. फोन पर वे लोग कह रहे थे कि पुलिस उसकी पिटाई कर रही है. मैं पुलिस स्टेशन गया और उसने मुझे बताया कि पुलिस उसे जान से मारने की धमकी दे रही है और कह रही है कि अगर उसने अपनी मां के शव को खोदकर बाहर नहीं निकाला तो पुलिस उसे मारकर उसकी मौत को नक्सल एनकाउंटर दिखला देगी."

पटेल ने बताया कि पुलिस ने उनसे कहा कि उन्होंने उसे छुआ तक नहीं है. मुकेश को रात करीब 8 बजे तक छोड़ दिया गया. एक घंटे बाद कथित तौर पर संतलाल डुग्गा और रमेश मांडवी के साथ ही गांव के दूसरे लोगों द्वारा मिलकर उसकी माँ के पार्थिव शरीर को बाहर निकाल लिया गया.

पटेल ने आगे कहा, "उसे उसके बच्चों के सामने ही खोदकर निकल दिया गया. पुलिस आनन-फानन में मौके पर पहुंची. मुकेश और उसके भाई व बहन उनसे याचना करते रहे लेकिन वो किसी की नहीं सुन रहे थें. गांव वाले शव को वहां से दूर ले जाने के लिए ट्रैक्टर लेकर आए थे - उनकी योजना उसे पुलिस स्टेशन के बाहर ले जाकर फेंक आने की थी. पुलिस ने मामले में दखल दिया और शव को वापस कब्र में रख कर आने को कहा, अगले दिन सुबह 11 बजे पुलिस शव को वहां से अपने साथ लेकर चली गई."

चैतीबाई के पार्थिव शरीर को अंतागढ़ के शवगृह में रखा गया था. इस बीच मुकेश और उसके भाई-बहन छिप कर रहने लगे. इसके कुछ दिनों बाद चैतीबाई के पार्थिव शरीर को जिला कलेक्टर के आदेशानुसार अंतागढ़ के एक ईसाई कब्रिस्तान में दफना दिया गया.

इसके बाद से ही परिवार ने छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट में नाग, डुग्गा, मांडवी और दूसरे गांव वालों के खिलाफ एक याचिका दायर की हुई है. परिवार के वकील डीपी गुप्ता ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया, "हाईकोर्ट ने नवंबर में नौ लोगों के खिलाफ नोटिस जारी किया है. "उन्हें तीन सप्ताह के भीतर इसका जवाब दाखिल करना होगा," गुप्ता ने अपनी बात आगे जारी रखते हुए कहा, "लेकिन उन्होंने अब तक कोई जवाब नहीं दिया है."

"कांकेर के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक शलभ सिन्हा ने कहा कि उन्हें नवंबर में मुकेश की शिकायत मिली थी लेकिन चूंकि वह परिवार समेत छिपकर रह रहा है वह उससे संपर्क नहीं कर पा रहे हैं. साथ ही, इस मामले में नाग और डुग्गा की भूमिका से जुड़ा ''कोई भी आपराधिक सबूत पुलिस को नहीं मिला है."

सिन्हा ने कहा, "हमें मुकेश चाहिए ताकि हम उचित कदम उठा सकें. "शायद वो वापस आने से डर रहा है. लेकिन उसे यहां आ जाना चाहिए."

लेकिन कांकेर के एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया, "आरएसएस और बीजेपी गांव वालों को भड़का रहे हैं कि वे आदिवासी ईसाईयों को उनके लोगों के पार्थिव शरीर को उनके गांवों मे दफ़नाने की इजाज़त न दें."

सिन्हा ने अपनी बात में आगे यह भी जोड़ा, "हर एक आदिवासी ईसाई परिवार को सुरक्षा देना" संभव नहीं है. "लेकिन हम ऐसे लोगों की निगरानी करते हैं जिनका इस तरह के मामलों का कोई इतिहास रहा है." "चूंकि गांव वाले इसकी इजाज़त नहीं देते इसलिए हाल के दिनों में ईसा मसीह के मानने वालों के शवों को दफनाने का मुद्दा काफी गर्म हो चुका है. हम लोग इस मुद्दे के निपटारे के लिए अपनी भरसक कोशिश कर रहे हैं लेकिन यह बेहद चुनौतीपूर्ण है. हम नहीं चाहते कि कोई मृतक का अपमान करे."

टाउन इंस्पेक्टर हरिशंकर ध्रु का क्या जिसने कथित तौर पर मुकेश को "एनकाउंटर" कर के जान से मारने की धमकी दी थी?

सिन्हा ने इस पर कोई टिप्पणी नहीं की, लेकिन ध्रु ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया कि इस दावे में "कोई सच्चाई नहीं है." "हम अब भी मामले की छानबीन कर रहे हैं और अभियुक़्तों के खिलाफ उचित कदम उठाएंगे."

चैतीबाई के पार्थिव शरीर को खोदकर बाहर निकाले जाने के बारे में पूछे जाने पर, भोजराज नाग ने कहा, "बस्तर के हर गांव में जनजातीय परंपराओं और रीति-रिवाज़ों की एक संहिता है. इन रीति-रिवाज़ों का पालन किया जाना चाहिए. अगर किसी की मृत्यु हो जाती है तो उसका अंतिम संस्कार भी इन रीति-रिवाज़ों के अनुसार ही किया जाना चाहिए. अगर कोई ईसाई परंपराओं के अनुसार अंतिम संस्कार करेगा तो गाँव वाले उसे ऐसा करने की इजाज़त नहीं देंगे."

नाग ने ईसाई आदिवासियों के साथ अपनी समस्या के बारे में भी बोला, “अगर कोई ईसाई होना चाहता है तो वो बन सकता है. लेकिन फिर वो सिर्फ इसलिए खुद को आदिवासी न कहे कि आरक्षण का लाभ ले सके."

हम टूट चुके हैं

कोंडागाव के केशकाल तहसील के खालेबेड़ी गांव के पड्डा परिवार की कहानी भी कुछ ऐसी ही है.

8 अक्टूबर को दुलारी पड्डा की 72 साल की उम्र में मौत हो गई. उन्हें गांव के कब्रिस्तान में दफना दिया गया जहां चार दूसरे विश्वासियों को भी पहले ही दफनाया जा चुका था. उनके बेटे घसनु पड्डा जिसकी मौत कुछ हफ़्तों पहले ही हुई थी, को भी वहीं दफनाया गया था.

दुलारी के पोते राम सिंह पड्डा ने फोन पर न्यूज़लॉन्ड्री से कहा कि "हमने उन्हें उस दिन करीब 4 बजे शाम को दफनाया था." "कुछ गांव वालों ने इस पर ऐतराज जताया. वे गोंडवाना समाज के एक प्रतिनिधि को लेकर हमारे पास आए और हमसे मांग की कि हम उनके पार्थिव शरीर को खोदकर निकाल लें. हमने उनसे कहा कि हम ऐसा नहीं कर सकते और उन्हें पूर्व में उस जगह हुई दफ़नाने की रस्मों का हवाला दिया.

दिलचस्प बात यह है कि गांव वालों ने दुलारी के पोते घसनु पड्डा के पार्थिव शरीर को दफनाए जाने पर ऐतराज नहीं जताया था जिसे गांव के उसी कब्रिस्तान में दफनाया गया था.

राम ने कहा कि गांव वालों ने उसके परिवार के खिलाफ धनोरा पुलिस स्टेशन में शिकायत दर्ज कराई है. इसके बाद उनसे मिलने  सब डिविज़नल मजिस्ट्रेट शंकर लाल सिन्हा आये थे.

राम ने बताया, "उन्होंने हमसे कहा कि अगर हमने गांव वालों की बात नहीं मानी तो हमें इसका अंजाम भुगतना पड़ेगा. "हमने कहा कि हम आगे से कोई पार्थिव शरीर नहीं दफ़नाएंगे लेकिन वे मेरी दादी का पार्थिव शरीर वापस खोदकर बाहर नहीं निकाल सकते."

यह सच है कि केशकाल के सब डिविज़नल मजिस्ट्रेट (एसडीएम) ने दुलारी के पार्थिव शरीर को खोदकर बाहर निकालने को कहा था. लेकिन 9 अक्टूबर के एसडीएम के आदेश में यह दावा किया गया है कि ऐसा इसलिए किया गया क्योंकि दुलारी की मौत "संदिग्ध" थी और उनके परिवार ने स्थानीय पुलिस को खबर किए बगैर दफना दिया था. आदेश में यह लिखा था कि शव को पोस्टमॉर्टम के लिए खोद कर निकालना जरूरी है.

9 अक्टूबर को एसडीएम द्वारा जारी किया गया आदेश
दुलारी पड्डा के शव को खोद कर बाहर निकालते ग्रामीण

10 अक्टूबर को एसडीएम के आदेशानुसार दुलारी के पार्थिव शरीर को कुछ गांव वालों द्वारा खोदकर बाहर निकाल दिया गया.

राम का कहना है, "उन्होंने हमारी आंखों के आगे उसे खोद कर निकाल दिया गया और पोस्टमॉर्टम के लिए लेकर चले गए."

उन्होंने आगे यह भी जोड़ा कि पोस्टमॉर्टम में कुछ भी "संदिग्ध" नहीं निकला. "इसके बाद उन्हें केशकाल के कब्रिस्तान में दफना दिया गया. गांव में माहौल तनावपूर्ण होने की वजह से हममें से केवल कुछ लोग ही शव को दफनाने की रस्म में शामिल हो पाए. हमारा परिवार शोकाकुल था और उसे आघात पहुंचा था. यह बहुत अपमानजनक था. जिसने भावात्मक तौर पर हमें तोड़ कर रख दिया था."

न्यूज़लॉन्ड्री ने एसडीएम शंकर लाल सिन्हा से संपर्क कर उनसे उस आदेश के बारे में पूछा. उन्होंने जवाब में कहा, "गांव वालों ने पार्थिव शरीर को बाहर निकालने के लिए पत्र लिखा था क्योंकि उनकी मौत संदिग्ध थी."

लेकिन क्या पोस्टमॉर्टम में कुछ संदिग्ध मिला? सिन्हा ने इसका जवाब देते हुए कहा, "मेरा काम सिर्फ आदेश जारी करना था, मुझे उस बारे में कोई जानकारी नहीं है. हमने सिर्फ इसलिए आदेश दिए क्योंकि हमें इसके लिए चिट्ठी मिली थी. वरना, मैंने पार्थिव शरीर को खोद कर बाहर निकालने के आदेश नहीं दिए होते."

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